मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

एपी सेन रोड




राजीव मित्तल


सर्दियों की वो अंधेरी शाम... चर्र रररररररररर.. जंग खाए लोहे के गेट की आवाज ...सामने लॉन...उसके पीछे पोर्टिको..पोर्टिको के पीछे बरामदा..उधर झांकना भी मत..तुरंत बाएं मुड़ लो....फिर बड़ा सा लॉन....कई पेड़...दीवारें साथ-साथ घूम रहीं....छोटा सा बरामदा...छोटी सी मुंडेरी....एक कमरा...बाबा आदम के जमाने के उस बंगले का ही हिस्सा...लेकिन अलग-थलग..... वो लफंगा इनसान साथ में....कमरे में प्रवेश करते हुए धुकधुकी ....बहुत दिन बाद मिलना हो रहा था.....आवाज खनकी...आइये आइये... एक दांत पर चढ़ा दूसरा दांत चमका.....
यही हैं अरुणा सेनगुप्त....जो लाइन मारने में विश्वास रखते हैं उनके लिये...कुमकुम।

एपी सेन रोड का एक मुहाना चारबाग स्टेशन से अमीनाबाद और दूसरा स्टेशन से हजरतगंज जाने वाली सड़क पर। उसे स्टेशन रोड भी बोलते हैं। इन दोनों मुहानों के बीच की दूरी छह सौ मीटर से थोड़ी ज़्यादा और चौड़ाई इतनी.. कि एक ट्रक निकल जाए। अब तो अक्सर जाम लगा रहता है......तब यह रोड अलसायी सी कुनमुनाती हुई जैसे किसी का इंतजार कर रही हो... इस मुहाने से सिगरेट सुलगायी और खरामा खरामा उस मुहाने तक कश पे कश। दोनों तरफ बंगले....पेड़ों के बीच छुपे से...कुछ दो मंजिला मकान...तीन मंजिला मात्र दो....लेकिन सभी की चहारदीवारी के साथ लगे फूलों के पौधे या आम के पेड़ और तिकोना अर्जुन। देखने लायक रंगत होती मई-जून की दोपहरों में, जब गर्म हवा...दोनों कतारों को लेफ्ट-राइट कराती हुई अपनी खूबसूरती बिखेरने को ललकारती...एक तरफ सुर्ख गुलमोहर तो दूसरी तरफ अमलतास की बासंती बहार...और सड़क पर बिखरी पड़ी लाल-पीली छटा.....स्टेशन रोड वाली तरफ से दाहिनी तरफ कई एकड़ जमीन पर पहला बंगला डॉ. सेन गुप्ता का। सीडीआरआई में जाने माने साइंटिस्ट....

जाड़ों की उस शाम चारबाग के रोशन बाजार में चूंचूं खरहा के माफिक छलांग मारता दिखा.....अफ़िशिअल नेम..मिथलेश चतुर्वेदी...अपन की जिंदगी में ऊदबिलाव की माफिक नामुदार हुआ और बिला गया...अनूप जलोटा का बेहद करीबी...कई सालों से मुम्बई में अभिनयबाजी कर रहा है......अपना कैमरा गुरू भी हुआ करता था .....

आवाज दी...रुकते ही ब्रजभाषा में चौबों वाली गालियां...फिर हरी आंखें सिकोड़ कर दांत चमकाए....तुम साले कुछ कर धर तो रहे नहीं हो....चलो कुमकुम के घर....नाटकों से दिल लगाया जाए। अपना वक्त पीएचडी और प्रोफेसर केके श्रीवास्तव से तौबा बोल मैडम मलिक की याद में गुजर रहा था। एक दम तो घर में घुसने की हिम्मत थी नहीं सो चूंचूं ने किसी दुकान से फोन लगाया...बातचीत से लगा कि मंजूरी मिल गयी है।

अब उसी बंगले के अंदर..उसी कमरे में...खनकती आवाज...अदा के साथ ......आ..प.. भी सृष्टि.. में.. आ..ना.. चाह...............ते हैं! अपन हल्के से डुलडुलाए.....चलिये इसी बात पर आपको कॉफी पिलायी जाए....कल आप आ जाइये...आपको सुधीर जी से मिलवा दूंगी...ये नामाकूल कौन.....चूंचूं ने इशारे से रोका.....कॉफी पी कर खनक से मीठी विदा ली....गेट से बाहर निकल सड़क पर ही चूंचूं का रॉक एंड रोल शुरू.....ये सुधीर साहब कौन हैं? कुमकुम के होने वाले वो और सृष्टि के कर्ताधर्ता....दूरदर्शन में हैं। यूनिवर्सिटी के सामने योगकेन्द्र.....वहीं रिहायश.....

तो जी.... दूसरे दिन से हम रंगमंची हो गए। सुधीर ने पहली प्रस्तुति के लिये उपन्यास तलाशने और फिर उसको रंगमंचीय बनाने का काम अपन को सौंपा....ओहदा...सहायक निदेशक...
उस बैठक में एक और शैदाई...शीतल मुखर्जी...इंटर फेल होने के बाद के इंटर का साथी....तब अपन को बंगाली बनाने में जी जान से जुटा रहता था.....तबाह जीनियस.......चूंचूं से उसकी दुश्मनाई तो कभी दोस्ती....भारी पड़ गयी अपने को....बाद में.....

शरतचंद के चरित्रहीन पर लग कर काम किया...कुछ दिन रिहर्सल भी हुई...अपने को मिला दिवाकर का रोल....खर्चा लेकिन बहुत आ रहा था....तो कोई हल्की-फुलकी चीज तलाशी गयी.....फाइनल हुआ रमेश बक्शी का वामाचार..... मंच पर पहुंचने से पहले ही सृष्टि दमकने लगी थी....बंगला गुलजार होता गया... रोजाना नये-नये चेहरे......नये अंदाज...नयी बातें...नये शिगूफे...किनारे पर ही ढाबा...वहां चाय के साथ बैठकी....शीतल के साथ चरस के दम ....एक सिगरेट के बाद ही दिमाग दौड़ने लगता....वामाचार को फटाफट रंगमंचीय बना दिया......रवीन्द्रालय का मिनी थियेटर चार दिन के लिये बुक.....सबने अपने-अपने टिकट बेच डाले...उन्हीं दिनों उसका लखनऊ आगमन...अपना कारनामा दिखाने को बुलाया लिया ...

चार दिन खूब गहमागहमी के रहे...पांचवे दिन से उजड़े दयार में...कुछ दिन बाद फिर नये स्क्रिप्ट की तैयारी....रात के एक बज जाते...लौटते समय बहुत लम्बा चक्कर लगाने की आदत...शीतल से आर्यनगर में ही विदा ले लेता...वहां एक हवा महल...हवा महल में सोयी राजकुमारी...जिसे कभी पता नहीं चला कि आधी रात कोई एक उसके दरवाजे तक आ कर लौट जाता.....

इस बार चरित्रहीन...फिर सहायक निदेशक...योगकेन्द्र भी जाना शुरू...एक दिन सुधीर बोले...हम तुमको एनएसडी भेज रहे हैं...तैयार हो ना....स्क्रिप्ट के चलते बंगले में कई बार जाना होता...कुमकुम से खूब दोस्ती हो गयी..अपना एक काम और....शीतल और चूंचूं को आपसे में भिड़ने से बचाना...दोनों काफी पहले से कुमकुम के दीवाने थे.....किसी एक ने अपना रकीब मान सुधीर के कान भर दिये......

अब इस गुफ्तगू पर गौर फरमाएं....तुम कुमकुम को क्या मानते हो....अच्छी दोस्त है....मैं सोचता था बहन मानते हो...सुनते ही दिमाग भन्ना गया....वो है मेरे पास...दुनिया भर की लड़कियों को बहन मानने का कोई इरादा नहीं.....दूसरे दिन से जाना बंद ...कई बार बुलावा आया...पर नहीं गया....नहीं गया तो एनएसडी भी गया तेल लेने.....इसी सृष्टि से बाद में अनुपम खेर जुड़े...साइकिल पर यहां-वहां डोला किये...शीतल ने उन्हें रोक कर मिलवाया...उन्होंने मर्चेंट ऑफ़ वेनिस का मंचन किया...अब दर्शक की भूमिका में..साथ में नीना भी थी....

और अब...बस यह पता है कि दो मुम्बई में...दो इस दुनिया से जा चुके....बाकी...उस ग्रुप के 20 और जनों की कोई जानकारी नहीं.....लखनऊ जाने पर एक बार वहां से जरूर गुजरना...बंगले पर निगाह जरूर डालनी...वहां अब कोई आवाज नहीं....गुलमोहर और अमलतास की कतारें साफ कर दी गयी हैं.... एपीसेन रोड...जहां कई झुलसाती हवाओं को छू कर मस्ती छायी है अपने पर...अब उस मुहाने से इस मुहाने तक आते-आते उदासी दसियों गुना बढ़ जाती है. क्या खोया क्या पाया के चक्कर में पड़ने से बचने को उस पर बंद कर दिया है पैदल चलना.....

भारतीय संसद यानि गरीब की जोरू


क्या करेंगे संसद भवन या उसकी गतिविधियाँ

देख कर, सांसदों को दस-पंद्रह रुपये में

मिलने वाला भोजन ज़्यादा मोहक है

राजीव मित्तल

लोकतंत्र की बिसात जिन चार पायों पर टिकी है, उनमें विधायिका भी है, लेकिन हमारे देश की राजनीति ने इसे गरीब की जोरू यानि उस भाभी जैसा हाल कर दिया है, जिसकी हमेशा बेक़द्री ही की जाती है । अब तो इस बात को याद करने में याद्दाश्त भी धोखा देने लगी है कि कभी हमारी संसद में ऊंचे दरजे की बहस हुआ करती थीं...कि संसद की लायब्रेरी में बैठ कर हमारे सांसद अपनी बात रखने को नोट्स बनाने में मशगूल रहते थे या हमारे प्रधानमंत्री विपक्ष के सवालों के जवाब रात रात भर उस विशाल लायब्रेरी की रैकों में सजी किताबों में तलाशते थे। नेहरू युग के बाद से ही मतदाता का काम केवल वोट डालना रह गया है, जीतने वाला शपथ ग्रहण करते ही कोटे का घर, घर की सजावट , टेलिफोन, विमान यात्राओं के टिकट, नौकर-चाकर, अपने क्षेत्र से चमचों की भर्ती और मीडिया में रसूख बनाने में जुट जाता है। उसको संसद भेजा क्यों गया, इसे वो अपनी जोड़-तोड़ की करामात मानता है, अपनी पूजा-पाठ की कृपा मानता है या उस क्षेत्र में अपनी जाति के मतदाताओं का आभार मानता है । अधिकाँश सांसदों ने संसद का अर्थ अपनी हनक दिखाने, अपार सुविधाएं उठाने, कैंटीन में बैठ बहुत कम पैसों में बहुत पौष्टिक खाद्य पदार्थ जीमने और अपने नेता का इशारा मिलते ही संसद को चौराहा बना देने तक सीमित रखा है।

संसद तो रोम की भी होती थी, जहां जूलियस सीजर की हत्या हुई, और संसद कोपेनहेगन की भी होती थी, जहां डेनमार्क की गुलामी झेल रहे आइसलैंड के नाविक डेनिश संसद में आजादी की चाह लिये जब-तब आ जाते और दिन-रात न खत्म होने वाली कविताएं पढ़ते। आखिर में डेनमार्क के सामने कोई चारा नहीं रहा आइसलैंड को सिवाय आजाद करने के। हमारी संसद का इन दोनों बातों से कोई तालमेल नहीं...लेकिन हमें तय तो करना ही पड़ेगा कि कब तक हम लोकतंत्र के इस तीसरे पाये से मजाक करते रहेंगे।

अब हमारी संसद सत्ता-पक्ष और विपक्ष द्वारा अपनी हनक दिखाने का अखाड़ा बन कर रह गयी है, जहां कई सारे पहलवान एक-दूसरे को ललकारते रहते हैं। संसद होती है अपनी बात रखने के लिये, जब बात न मानी जाए तो बहस करने के लिये....वही बहस अब चील-कौवों के बीच मांस के लोथड़े को लेकर छीना-झपटी का रूप ले चुकी है। और जब उससे मन उकता जाए तो बहिष्कार विपक्ष का प्रिय शगल बन गया है तो सत्ता पक्ष का काम..जाव-जाव बहुत देखे हैं तुम्हारे जैसे...टाइप का। संसद के स्तर को इतना नीचे गिरा देने का ही नतीजा है कि हमारी कई संवैधानिक संस्थाएं इस गरीब देश के नागरिकों की जेब पर भार बन कर रह गयी हैं।

आंकड़ों के जरिये हम अपनी पीठ तो ठोक लेते हैं कि हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हैं या हम दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी औद्योगिक शक्ति हैं या हम तीसरी-चौथी-पांचवी सबसे बड़ी ये ताकत वो ताकत हैं.....लेकिन हम यह नहीं देख रहे कि हम इन विशेषताओं पर अमल किस अंदाज में कर रहे हैं या हम कितना सकारात्मक लाभ उठा रहे हैं......या ये विशेषताएं हमें कोई गर्व या कोई ऊर्जा प्रदान कर भी रही हैं या नहीं। और अब तो यह सोचने की नौबत आती जा रही है कि क्या हम लोकतंत्र के लायक हैं भी कि नहीं।

बा मुलाहिजा होशियार




दिन गुनगुनाए

रात गाए

लेन-देन का सिलसिला न हो

खोना-पाना दूब की तरह हो

तुमने सच कहा

तो वक्त क्या कर लेगा

तुम रोज उसकी

आंखों में धूल झोंकती रहो

जो मेरे चारों ओर

बिखरी पड़ी है

वक्त के पास कोई चारा नहीं

लुटे-पिटे

आगे बढ़ते रहने के सिवा

उसके हाथ में

कुछ बचा नहीं

कोई बचाव नहीं

तुम्हारे हाथों की उड़ती धूल से

मैं ठगा सा खड़ा

देख रहा हूं

तुम्हारी जीत को

वक्त को हारते

हार तो मैं भी गया

तुमसे

सच कहूं तो

शेल्फ

सखि की कविता

कब से तलाश थी

उन सबकी

लेकिन कोई पहचान बन पाती

पता नहीं कहां गुम हो गयीं सब की सब

न नाम.. न पता... न चेहरा

कुछ याद नहीं

याद थी तो बस एक शक्ल

बस.. वही मुझ से

पूछती...कहां हैं वो सब

मैं कहां तलाशूं

कैसे तलाशूं

बेचैनी में गुजरते दिन रात

सब कुछ अधूरा सा

उस दोपहर

उन तक पहुंचने को

पढ़ डाले सारे नाम

देख डाले

पता नहीं कौन कौन से चेहरे

मन में ये आस भी

मैं नहीं तो उनमें से

शायद कोई मुझे पहचान ले

छटपटाहट बढ़ती जा रही

तभी..नजरें मिलीं

तो ऐसे

जैसे

इस इंतजार में बैठी हों

कि कब मेरी अंगुलियां उनको छुएं

और कब सब

मेरी गोद में

दुबक कर

सुबकियां भरें

रविवार, 4 दिसंबर 2011

अपनी छवि से जुनून की हद तक जुड़ा इनसान




राजीव मित्तल

कई व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनके न होने की हम कल्पना भी नहीं कर सकते। पंडित जवाहर लाल नेहरू के बाद ये मुकाम देवानन्द ने ही पाया। ...इसे हम बटवृक्ष वाली खसूसियत भी कह सकते हैं, कि हम उस पेड़ की जगह पर कोई आलीशान बिल्डिंग भी बर्दाश्त न कर पाएं। सदाबहार यही दो शख्स निकले, जिन्होंने अपना जमाना क्रिएट किया। भले ही 86 या 87 साल के हो गए देवानन्द पिछले करीब 30 साल से दर्शक रहित फिल्में बना रहे थे...या वो गले में लिपटे अपने स्कार्फ से...ब्राउन जैकेट से...रंग-बिरंगी कैप से....तिरछी चाल से....या अपनी साठ-सत्तर के दशक वाली इमेज से पीछा छुड़ाने के मूड में कतई नहीं थे......लेकिन उनकी सबसे बड़ी खासियत यह थी कि वह अपनी पुरानी सफलताओं की याद में खोए जाम छलकाते हुए आहें नहीं भर रहे थे...न ही भगवान दादा और सी रामचन्द्र की तरह बेचारे कहला रहे थे.....न ही देवानन्द अपने समय की मशहूर तिकड़ी से जुड़े राजकपूर की तरह समय से पहले चले गए और न ही दिलीप कुमार की तरह बरसों की गुमनामी में जाने को मजबूर हुए। देवानन्द कल तक हर उस जगह मौजूद थे...जहां नयी पीढ़ी का दबदबा कायम हो चुका था....उन्होंने रिटायर्ड हर्ट के रूप में क्रीज नहीं छोड़ी।

कई साल पहले लोकसभा चुनाव की रिपोर्टिंग के सिलसिले में होशियारपुर जाना हुआ...वहां से निकले तो और जगह होते हुए वापस चंड़ीगढ़....रास्ते में हम गुरदासपुर से भी गुजरे थे....देवानंद को जन्म देने वाला स्थान...तब भी उनकी फिल्में एक के बाद एक पिटती जा रही थीं...लेकिन देवानन्द बहुत याद आ रहे थे...यादों में चेतन आनन्द और विजयआनन्द भी छाए थे। अपने इन्हीं दोनों भाइयों की बदौलत देवानन्द ने समय को झकझोर देने वाला दर्जा हासिल किया था...चेतन आनन्द ने उनके लिये जगह बनाई तो विजय आनन्द ने फिल्म -गाइड- में देवानन्द को उनकी इमेज से बाहर निकाल कर अभिनय के चरम पर पहुंचा दिया। देवानन्द को शुरुआत में ही गुरुदत्त का साथ मिल गया, जो देव के अभिनय की हर नस और उसकी रेंज से वाकिफ थे.....उनकी निर्देशित दो फिल्मों -बाजी- और -जाल- ने ही देवानन्द को उनकी पहचान दी।

देवानन्द की फिल्मों को जब तक अपने इन दोनों भाइयों का निर्देशन मिला, वह हिन्दी फिल्मों की धुरी बने रहे....याद कीजिये... जब राजकपूर की राजपथ से हो कर आयी भारी भरकम फिल्म -मेरा नाम जोकर- हताशा को पहुंच चुकी थी, न जाने किस रास्ते से आयी -जॉनी मेरा नाम- की धमक चारों तरफ सुनायी दे रही थी...यह विजय आनन्द का कमाल था। अपनी फिल्मों का निर्देशन खुद करने के फैसले ने देवानन्द को न केवल समय से पहले दर्शकों के मन से उतार दिया, बल्कि देव को पर्दे पर देखने की उत्सुक्ता ही खत्म कर दी....उसके बाद से देव 14 रील बरबाद करने वाले से ज्यादा कुछ नहीं रह गये थे...लेकिन फ़िल्में बनाने का जुनून जारी था । देवानन्द अपनी जिद में निर्देशक बन तो गए, पर निर्देशक के रूप में वह अपनी सीमाएं तय नहीं कर पाए....न पटकथा को लेकर....न अभिनय को लेकर...न डायलॉग डिलिवरी को लेकर.... तभी तो वह -देस परदेस- के बाद डिब्बा बंद फिल्मकार बन कर रह गये।

लेकिन सच यह भी है कि 1955 से लेकर 1970 के समय का एक बड़ा हिस्सा देवानन्द के खाते में जाएगा। उसमें ढेर सारा समय था नेहरू जी का, उनके समाजवादी आदर्शवाद का, जिस पर सबसे ज्यादा फिदा थे राजकपूर। उनकी उस समय की कई फिल्में समाजवाद की चाशनी में डूबी हुई हैं। उस तिकड़ी की ही एक और धुरी दिलीप कुमार तब अपने अभिनय से हर ऐरे-गैरे को देवदास बनाने पर तुले हुए थे...तब रोमांस का बेहद दिलकश रूप पेश कर रहे थे देवानन्द.....अपने इस अंदाज के जरिये देवानन्द का अपने चाहने वालों को यही संदेश था कि जीवन में कुछ भी जीवन में घट रहा हो.. प्रेम को मत भूलना क्योंकि प्रेम बहुत बड़ी राहत है...वह कैसी भी जीवन शैली का केन्द्र बिन्दु है। इनसान को संवेदनशील बनाने का एकमात्र जरिया...

उनकी फिल्में दर्शक को कितना सुकून देती थीं...कितनी उमंग भरती थीं...इसको समझा पाना बेहद मुश्किल है। बहुत मामूली हैसियत वाला आवारा युवक कैसे एसडी बर्मन के संगीत से, अपनी अलमस्त अदाओं से, हर हाल में बेफिक्र बने रहने के अंदाज से, लापरवाह दिखने वाली लेकिन बेहद रोमांटिक शख्सियत से...वहीदा रहमान..साधना...कल्पना कार्तिक या नूतन की शोखियों और जॉनीवाकर की हल्की-फुल्की कॉमेडी से दर्शकों को पागल बनाता था, इसको जानने के लिये उनकी उस समय की कई सारी फिल्में देखना लाजिमी है। तभी तो हाईस्कूल के इम्तिहान में आखिरी पर्चा भी खराब जाने के बाद सीधे उस पिक्चर हॉल में घुसा, जिसमें -मुनीम जी- चल रही थी.... और जीवन का सफर कुछ समय के लिये आसान हो गया.......

मंगलवार, 15 नवंबर 2011

रथ यात्रा की धृंगा धृंगा धिधिन्ना तिन्ना




राजीव मित्तल

फणीश्वरनाथ रेणु बताये रहिन के विदापत नाच में कुल जमा पांच ठो लोग....एक मूलगैन यानि म्यूजिक डायरेक्टर...जिसके पास दो वाद्ययंत्र...मृदंग और मंजीरा.....दो नचइये...और एक बिकटा और एक नायक। .......बिकटा मतलब विदूषक... नाचने वाली ( जो मर्द ही होता है) के पहनने को लाल सालू की घांघरी और पीतल-कांसे के गहने। चेहरे पे कालिख पोतकर...घुटने तक तंग पतलून और हाथ में थुथनीदार छड़....बिकटा के रोल में काने..कुबड़े जैसों को प्राथमिकता।

धृंग-धा..धृंग-धा तिन्ना...मृदंग के ताल निकालते ही मंजीरा बोलता है..... कुन कुन कुन कुन कुन कुन
गननायकं फलदायकं पंडितम् पतितम्....नायक जी के बोल शुरू....
धृंगा धृंगा धृंगा किनका किनका...धिरिंनांगि धिरिनांगि धिरिंनांगि किनका किनका किनका
अब ओय ओय कर रहे बिकटा महोदय की बारी.......

बाप रे कौन दुगर्ति नहीं बोल सात साल हम सूद चुकाओल तबहुं उरिन नहीं बोलौं कोल्हुक बरद सन खटलां रात दिन करज बाढ़ हि गेल थारी बेंच पटवारी के देलियेन्ह लोटा बेंच चोकीदारी बकरी बेंच सिपाही के देलियेन्ह फटकनाथ गिरधारी


विदापत नाच के बीच उनकी रथयात्रा का ऐलान किया गया.....नाच देख रही नटी परेशान कि रथयात्रा तो भुवनेश्वर में भगवान जगन्नाथ की निकाली जाती है...ये ससुरी कौन सी रथयात्रा है। बीच में ही छोड़ घर में घुसी तो नट प्रकट भये .....अरी जल्दी से खाना दे.....नहीं...पहले हमको ये बताओ कि रथयात्रा कौन से देवता की है ...हम भी जाएंगे दर्शन को...अरी अकल है कि सिलबट्टा...ये उनकी रथयात्रा है....जिनकी बवासीर जोर मारती है तो निकल पड़ते हैं.....और अब तो ऐसी यात्राओं की भरमार हो गयी है।

तभी टीवी पर गरुणध्वज रथ पर शैव्य..सुग्रीव..मेघपुष्प और बलवाहक की रास थामे रथयात्री का बहुते लाइव साक्षात्कार.....

>>वो मेरे सामने>> प्रोग्राम में आपका स्वागत है। अब तक की आपकी यात्रा कैसी रही...चड्ढा जी ने दांत निपोरते हुए मनोहारी सवाल पूछा। क्या कहूं..मजा नहीं आ रहा.....हथेलियां रगड़ते हुए जवाब..... खीर बनने से पहले ही दूध फट गया हो जैसे। चड्ढा जी निपोरू ही बने हुए थे....वो कैसे....?
महाभारतकाल में पुंड्र देश का राजा पौंड्रक अपने को श्रीकृष्ण समझने लगा था और नाम भी वासुदेव रख लिया था.....मोरपंखी भी सजाता था....ऐसे ही हमारी ही पार्टी के एक नेता भी कर रहे हैं। नाम नहीं लूंगा आप समझ गये होंगे।

आप दर्शकों को पिछली रथ यात्रा के बारे में कुछ बताना चाहेंगे? ........तब हम सत्ता में थे... मेरी वो यात्रा विवेकानंद के विचारों से प्रेरित थी। हुएनसांग...फाह्यान से भी काफी प्रेरणा मिली। वास्कोडिगामा के तो क्या कहने। लेकिन रथयात्री जी....वो तो लुच्चा था...हल्दी-जीरे और कालीमिर्च के लिये आया था। चारों अश्व तुरंत हिनहिनाए।

चड्ढा जी ने खींसें काढ़ीं और सवाल बदला....आप हमेशा सड़क मार्ग ही क्यों पसंद करते हैं। मैं जनता से दूर नहीं रह पाता और गांधी के देश में सड़कबाजों की संख्या बहुत है। उन्हें देख कर मेरे मन में अनेक विचार उठते हैं। मुझे देख कर जनता क्या सोचती है..यह जानना बड़ा एक्साइटिंग है मेरे लिये।

सत्ता से बाहर हुए आपको कई साल हो गये...अब आपको कैसा लगता है? ....जो रहे देता-लेता वही नेता.....हमारे लिये गुलाबों की माला क्या सड़े अंडों की बौछार क्या। सब सहज स्वीकार्य है। आप घोड़ों के रथ पर कैसे इतनी लम्बी यात्रा कर रहे हैं....? नहीं..नहीं मैं तो अश्व शक्ति वाले वाहन पर हूं..ये रथ और अश्व ट्रक पर साथ-साथ चलते हैं। मेरी यात्रा उन रास्तों से हो कर हैं जहां जहां भगवान श्रीकृष्ण अपने गरुड़ रथ पर गए थे....जैसे पुंड्र देश... रुक्मणि का नैहर कौंडिन्यपुर... जरासंध का गिरिव्रज.... पांचाली का विराट....अवंति का संदीपनी आश्रम...कामरूप-कमेच्छा...घोरअंगिरस का प्रयाग आश्रम....द्वारका, मथुरा, वृंदावन वगैरह...वही मार्ग, वही अश्व और वही सारथि दारुक....सब कुछ वही रखा है मैंने।

अब तक पूरी तरह भन्ना चुकी नटी फट पड़ी......देख लो इनको....गंगा सड़ी जा रही है, सीता मैया की जन्मस्थली गंदगी का ढेर बन चुकी है.......और इन्हें रुक्मि भौजी का नैहर सूझ रहा है..ऊद का घस्सा.......उसकी बड़बड़ जारी थी...नट हुक्का बना खड़ा था...चैनल से रथयात्री जा चुका था....विदापत नाच जारी थी....
डिमिक डिमिक डिमिक डिम डिमिक डिमिक कि आहो रामा, नैहर में अगिया लगायब रे

मंगलवार, 8 नवंबर 2011

साहेब की कविता





राजीव मित्तल

एक सरकारी दफ्तर जैसा कुछ....ऐंडी-बेंडी कुर्सियां....तीन टांग की मेजें....फटहे पोंछा जैसा कालीन...यहां-वहां पड़े हत्था टूटे प्याले, जिनके पेंदे की बची चाय में कुछ मक्खियां गोता लगा कर शीर्षासन कर रहीं तो कुछ चटखारे ले कर भन भना रहीं। हॉलनुमा दड़बे में एक और दड़बा, जहां साहब बैठते हैं। शायद बैठे भी हैं...क्योंकि स्टूल पर बैठा चपरासी बीड़ी नहीं पी रहा, खैनी दबाये ओंघा रहा है। साढ़े चार कुर्सियों पर पांच मर्द बैठे हीहीहीही कर रह रहे, सामने फाइलों का अम्बार..... जिनमें से सड़े अचार की खुश्बू आ रही है। पीए टाइप युवती टाइपराइटर पर उंगलिया चलाते जिमिकंद का हलवा बनाने की विधि सोच रही । उम्रदराज महिला स्वेटर बिनते हुए पति की बाहर निकलती तोंद पर कुढ़ रही । तीसरी.... मां आनन्दमयी की मुद्रा में। अचानक साहब ने दरवाजा खोल बाहर झांका, स्टूलिये ने लुढ़कने से बचते हुए मुंह में भरी सुरती गटक ली। माहौल अंटेशन की मुद्रा में..........आगे..........

साहब.....आप सबका काम खत्म हो गया तो शुरू किया जाए आज का कार्यक्रम
सबके मुंह से एक स्वर में हेंहेंहेंहेंहें ......पति की तोंद को किनारे कर वो बोलीं..सर, पिछली बार आपने जो कविता सुनायी थी न.....
भटकटैया के पेड़ पर वो फुदक रही थी
मैं हवा में गोते खा रहा था....
............................................
...........................................
और सर... आखिर में ....
.........राधे राधे किशन किशन ....
तो कमाल का था... यही गुनगुना रही थी अभी ...


मामला हाथ से निकलता देख टाइपराइटर पर धरे हाथ ने जुम्बिश ली......कुछ कुछ कोयल जैसी बोली....सर...
आज तो आपको फिर वही कविता सुनानी पड़ेगी...प्लीज सर...

हिन्दु मुस्लिम सिख ईसाई
आपस में हैं भाई भाई

सर, इस दीवाली पर मढ़वा कर ड्राइंगरूम में टंगवाई है पापा ने....


साहब की आवाज में खुरदुरापन काफी नीचे आ चुका था.....आज तो आप सब की तरफ से कुछ होना चाहिये था....
चलिये.... जब आप इतना जोर दे रही हैं तो.........!!!!
यह कविता मैंने 26 जनवरी पर होने वाले अखिल भारतीय कवि सम्मेलन के लिये लिखी है, पहले आप सब सुनें......उन्होंने चमड़े के ब्रीफकेस से चमड़े की जिल्द वाली डायरी निकाली.....ऊन के गोले झोले में ठूंसती वो बोलीं.....सर प्लीज...एक मिनट....कागज-पेन निकाल लूं .....
सभी मर्द पहले ही टाइपराटर वाली से थोड़ा परे हट कर आसन जमा चुके थे.....

यह कविता मैंने लालकृष्ण आडवाणी, अन्ना हजारे और बाबा रामदेव को ध्यान में रख कर लिखी है। हमारे मुख्य सचिव को बहुत पसंद आयी है। शायद इस बार कोई केंद्रीय पुरस्कार मिल जाए। हां तो सुनें......

काला धन काला धन
विदेशों में जमा काला धन
काला धन काला धन
लेकिन..................
हम धन को काला क्यों कहें
हम क्यों कहें काला धन
काला होता है मानुष मन
मानुष मन मानुष मन
फिर क्यों मच रहा शोर
क्यों धन को काला करने पे जोर
जब आएगा कभी हमारे पास
शुभ्र सफेद चीनी के दानों की माफिक
मीठा कर देगा हमारा तन मन
काला धन काला धन


कमाल है सर-कमाल कर दिया सर-तारीफ के लिये शब्द नहीं मिल रहे हैं सर.....स्वेटर वाली का रुमाल आंख पर था...
तभी रुंधे गले से पीए ने कहा....सर..मेरे लिये तो यह राष्ट्रगान से कम नहीं..सर..प्लीज...आप तो मुझे अपनी डायरी दे दीजिये...मैं आपकी सारी कविताएं फेसबुक पर डालूंगी।
साहब जी लसलसाए...हां हां क्यों नहीं...लेकिन 26 जनवरी के बाद...

साहब ने घंटी मार कर चपरासी को बुलाया...रामखेलावन के यहां से समोसे ले आओ....चाय सामने बोलते जाना.....चपरासी दरवाजे तक पहुंचा ही था कि स्वेटर वाली बोली...वो चीनी कम डालता है....आज मीठी बनाए.....अब तक पूरी तरह बौरा चुका छोटेलाल बुड़बुड़ाया...घुइंयां बनवाऊंगा मीठी चाय...ससुरों को पता नी क्या हो जाता है महीने के आखिरी दिन....

रविवार, 23 अक्तूबर 2011

तमसो मा ज्योतिर्गमय पर हावी हैप्पी दीवाली




राजीव मित्तल

निर्मल वर्मा ने बहुत पहले लिखा था कि भारत में धन का प्रदर्शन अश्लीलता की हद पार कर गया है। निर्मल वर्मा ने यह तब लिखा था, जब देश में समाजवादी व्यवस्था गहरे तक धंसी हुई थी। आज जबकि हर खुशी हर ग़म बाटा के शो केस में सजे जूतों की तरह माल बन कर रह गए हों, तो पैसे का प्रदर्शन अश्लील ही नहीं, फूहड़ता की हदें पार करता हुआ गलीजता को छूने लगा है। वह चाहे किसी धनपशु के नाती या पोते का जसूठन हो या बिटिया की शादी या बेटे की घुड़चढ़ी! या बॉलीवुड की फिल्में हों-जिनमें शरतचंद के देवदास को लंदन में पढ़ाया जाता है, कलकत्ता में नहीं। उसके गांव का घर एक जमींदार की हवेली नहीं, फ्रांस के लुई चौदहवें का पैलेस और चंद्रमुखी का कोठा साम्राज्ञी नूरजहां का महल लगता है। तो सामाजिक-धार्मिक उत्सवों का हाल यह है कि दुर्गापूजा के अवसर पर घरों में लगाए गए पंडाल पूरे आस-पड़ौस की रातों की नींद हराम करते हैं क्योंकि उनमें घटिया फिल्मों के घटिया गानों की धुनों पर और ज्यादा घटिया किस्म के भक्ति के गाने बजते नहीं बल्कि चिंघाड़ते हैं।

इसी तरह दीवाली अब जगमगाती नहीं, कोई रौनक नहीं लाती, कोई पवित्र भाव मन में नहीं लाती बल्कि कान के परदे फाड़ती है। सड़क पर दगने को बिछी दो सौ-चार सौ मीटर या जेब में धरी रुपयों की गड्डियां कम करने की कुव्वत दिखाने और लिम्का रिकार्ड बुक में नाम दर्ज कराने को चाहे जितने किलोमीटर लम्बी पटाखों की लड़ी हर धड़कते दिल को आतंकित करती है, त्योहार या उत्सव का आनंद नहीं देती। देवदास फंस गया है बॉलीवुड के ग्लैमर में, तो 14 वर्ष का वनवास काट कर अयोध्या लौटे श्री राम के आने की खुशी में घर-घर मनती दीपावली शोर-शराबे, प्रदूषण और पैसे के घनघोर प्रदर्शन की कीचड़ में समा चुकी है।

अब कहां है वो चरखी, जो आंगन में नाचती हुई रोशनी बिखेरती थी, कहां है वो सीटी, जो आवाज करती हुई ऊपर जाती थी और कहां है वो फूलझड़ी, जिसे हाथ में लेकर जलाया जाता था, जिसके प्रकाश में खिलखिलाते चेहरे और दमकते थे। कहां है वो मिट्टी के खिलौने, जो बच्चों के मन को भाते थे, कहां है वो शक्कर के खिलौने और खील-लाई, जो दसियों दिन मुंह को मीठा किये रहते थे और कहां है घर-घर की चारदीवारी की मुंडेरों पर जलते दीयों की वो कतार, जो किसी के आने का भीना-भीना संकेत देती हुई पुकारती थी-तमसो मा ज्योतिर्गमय। हर घर में संवलाती शाम को दीये जल उठते थे, और तमसो मा ज्योतिर्गमय का आह्वान शुरू हो जाता था। अब तो हर किसी का मोबाइल टुनटुनाने लगता है, जिसमें से आवाज निकलती है-हैप्पी दीवाली। यार, अबकी किसके यहां फड़ लगेगी? दारू और मुर्गा तो होगा न! मैडम टिम्सी को जरूर बुलवाना यार-अच्छा, अगेन हैप्पी दीवाली-सी यू।

यह हैप्पी दीवाली का वो ज़माना है, जिसमें पाकिस्तान की मुख्तारन माई को बलात्कारी रौंदते हैं और उसे यह पुरुष प्रधान समाज बहिष्कृत तो करता ही है, और कभी उस देश के सर्वेसर्वा रहे मियां मुशर्रफ अमेरिका पत्रकारों के सवालों से झल्ला कर फरमाते हैं-पश्चिमी देशों में बसने के लिये पाकिस्तान की औरतें अक्सर इसी तरह के हथकंडे अपनाती हैं। तो यह सुन किसी का गला नहीं रुंधता, किसी का दिल नहीं कांपता बल्कि उस बलात्कार पीड़िता को ‘ग्लैमर वूमन ऑफ द ईयर’ के सम्मान और पुरस्कार से नवाजा जाता है। कोई बता सकता है कि मुख्तारन माई से हुए बलात्कार में कौन सा ग्लैमर उस अमेरिकी पत्रिका को नजर आया? अगर मरदों के समाज से भिड़ने की हिम्मत ग्लैमर है तो फिर श्री राम का रावण को मार उसकी कैद से सीता को निकालना और फिर सीता का अपनी शुद्धता साबित करने के लिए अग्निपरीक्षा देना तो अपने आप ही बॉलीवुडी-हॉलीवुडी ग्लैमर का सबब बन जाता है। तो श्री राम जी! हैप्पी दीवाली। चॉकलेट खाएंगे? भाभी जी को ज़रूर साथ लाइयेगा..

अब ऐसी ही एक हैप्पी दीवाली का दहशत भरा अनुभव! कुछ साल पहले देश की राजधानी की उस रात की याद कर अब भी रूह फना हो जाती है। कोई हादसे वाली रात नहीं थी वो, दीवाली की रात थी। बी आई टी वी में सुबह का बुलेटिन निकालने की ड्यूटी थी। आधी रात बीत चुकी थी। कुछ सहयोगियों ने कहीं चल कर चाय पीने का प्रस्ताव रखा। सब ऑफिस की गाड़ी से लद चाय तलाशने दक्षिण दिल्ली की तरफ चले। एकाध किलोमीटर चलने के बाद ही दम घुटने की नौबत आ गयी। आसमान से लेकर जमीन तक धुएं का काला परदा टंगा था, किसी एक जगह नहीं, जहां तक निगाह जा सकती है वहां तक..... और हवा में भरी थी बारूद की गंध। रास्ते के किनारों और सड़क के बीचोबीच कुत्तों के मुर्दा शरीर यहां-वहां बिखरे हुए थे। हो सकता है उनमें कोई भिखारी भी रहा हो। पूरा दिल्ली शहर गैस चैम्बर बना हुआ था। सड़कों पर या तो फुल वोल्यूम में म्यूजिक बजाते नशे में धुत अमीरजादों की आलीशान कारें दौड़ रही थीं या खांसते-कूंखते ठेले वाले, जो दिन में उस इलाके में पैर भी नहीं रख सकते। तो, अब दीपावली भी पैसे वाले शोहदों की जेब में फंस कर रह गयी है, जहां तमसो मा ज्योतिर्गमय के लिए कोई जगह नहीं है। एडवांस में हैप्पी-वेरी हैप्पी दीवाली।

सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

हबीब आवाज़




राजीव मित्तल

यही दिन थे। हवा में खुनकी आ चुकी थी। हिमाचल की पहाड़ियां बिल्कुल आंखों के सामने, इसलिये कुछ ज्यादा ही ठंडक। जनसत्ता में चंड़ीगढ़ की वह शाम, हमेशा की तरह । थानवी जी संपादकीय हॉल में आए। हाथ में रविवार का अंक। अजय श्रीवास्तव से बोले....इसमें हेमंत कुमार पर शिरीष कार्णितकर (ऐसा ही कुछ नाम था) ने लिखा है आप आइडिया ले कर लिख दें...हेमंत दा नहीं रहे। इतना कह कर चले गए। अब हाथ-पांव फूलने की बारी अजय की थी....‘मैं (खाकी निक्करधारी) संगीत के बारे में कुछ जानता-वानता नहीं...आप ही लिख सकते हैं।’ मैंने रविवार को एक तरफ फेंका और लिखना शुरू कर दिया। लिखते समय कई बार आंखें भर आयीं....उनके सूखने-सुखाने का इंतजाम कर फिर पेन चलाने लगता। आज 22 साल बाद वही स्थिति है। अहसास कुछ ज्यादा ही गहरा ... संचार क्रांति ने सब कुछ इस कदर जोड़ दिया है कि अगर हेमंत दा दुनिया से गए थे, लगता है कि जगजीत सिंह बेवक्त महफिल से उठे हैं। हेमंत दा को तो केवल गुनगुनाया ही जा सका, लेकिन जगजीत सिंह से तो याराना सा था बरसों से।

80 के दशक के अंत में पहली बार जगजीत को सुना तो आवाज़ में बेहद अपनापन। अपने ही किसी आत्मीय के घर में बैठकर घंटों उनका पहला एलपी सुनता रहा। जब दोनों तरफ खत्म हो जाए तो सन्नाटा बर्दाश्त नहीं होता था, फिर वही आवाज़ सुनने को तबियत मचल उठती। न जाने कितनी बार सुना। रिकार्ड खराब करना है क्या....यह उलाहना भी सुना। उलाहनों की आदत लग चुकी थी क्योंकि उस घर में कई रिकॉर्ड एक के बाद एक पचास बार सुन घिस चुका था।

साल गुजरते गए...जगजीत की आवाज झंडे गाड़ ही चुकी थी। फिर उन्हीं आत्मीय के यहां जाना हुआ। इस बार रात गहरा चुकी थी। सब सो गए थे। नये घर के शानदार ड्राइंगरूम में रखे म्यूजिक सिस्टम पर अपनी नजर पड़ चुकी थी। किसी को जगा कर उसे प्ले करने की सारी जानकारी लेकर बैठ गया। यह भी सूँघ लिया था कि कई सारे कैसेट वहीं किसी खोह में धूल खा रहे जूतों के डिब्बों में पड़े हैं । उनमें कई जगजीत के भी । सुबह पांच बजे तक सुनने के बाद अपने बैग में वो सब कैसेट भरे और नींद में गाफ़िलों को राम-राम बोल कर निकल लिया।
वह जमाना कानपुर का था। जब कम्पनी बाग में संजय ने शानदार छत पर कमरा दिखाया तो फौरन उसको उकसा कर गाने सुनने का इंतज़ाम किया । जो कैसेट खरीदे गए उनमें जगजीत के चार कैसेटों वाला एल्बम भी था। एचएमवी वालों ने निकाला था। इसके अलावा दसियों कैसेट जूतों के डिब्बे से निकाले हुए।

जगजीत ने बहुत साथ दिया कई वीरानियों में। कानपुर के बाद दिल्ली, फिर मुजफ्फरपुर...जबलपुर। नेशनल का म्यूजिक सिस्टम और डेढ़ सो कैसेट से भरा बैग हमेशा साथ चलते।

जगजीत के पास गजल गायिकी की शानदार आवाज ही नहीं थी, गज़लों का उनका चुनाव और उनकी अदायगी ने उन्हें जन-जन दिलों में समा दिया। संगीत की यह विधा कुल मिलाकर महफिलों तक ही सिमटी पड़ी थी, जिसे मुक्त हवा जगजीत ने ही दिखायी। तलत महमूद की रेशमी आवाज फिल्मों तक ही सीमित रही। बेगम अख्तर , हबीब वली मुहम्मद और मेहंदी हसन धनाड्य शौकीनों के ही गायक बने हुए थे, लेकिन ग़ालिब से लेकर हर छोटे-बड़े शायर को हर किसी की जुबान पर जगजीत ने ही चढ़ाया। उन्होंने अपनी अदायगी में जिन वाद्ययंत्रों का इस्तेमाल किया, वह एक तरह की बग़ावत थी संगीत शास्त्र से। लेकिन उनकी इसी बग़ावत के चलते गालिब की शायरी सवा सौ साल बाद फिज़ाओं में फिर नया रंग घोल रही थी। निदां फाजली...कतील शिफाई....बदीर बद्र जैसे न जाने कितने शायर हर दिल अजीज़ बन चुके थे।

जिंदगी तेरी अता है तो ये जाने वाला
तेरी बख्शीश तेरी दहलीज पे धर जाएगा

रविवार, 9 अक्तूबर 2011

जय जवान जय किसान



राजीव मित्तल

दो अक्तूबर को लालबहादुर शास्त्री का भी जन्मदिवस है। लेकिन दिल से या बेदिल से याद महात्मा गांधी ही किये जाते हैं। जेल से ले कर चैनलों पर या स्कूल-कॉलेजों में या चौराहों पर लगी उनकी प्रतिमा की साज-सफाई कर सालाना जापकर्म जैसे-तैसे निपटा ही लिया जाता है। जहां तक शास्त्री जी का सवाल है, हिन्दी के कुछ अखबारों में गांधी जी का फोटो अगर पहले पेज पर, तो शास्त्री जी को कहीं अंदर औपचारिक रूप से टांक दिया जाता है। खैर, शास्त्री जी का महत्व इसलिये नहीं था कि वे देश के प्रधानमंत्री बने। वो तो कई सारे हो लिये, लेकिन 52-53 साल की ऊम्र और उनसे ऊपर वाले जरा सन् 64 की 27 मई को जवाहरलाल नेहरू के न रहने के बाद के क्षण याद करें। क्या उस वक्त ऐसा नहीं लग रहा था कि सारा देश अनाथ हो गया है। नेहरू के बिना भारत की कल्पना भी किसी ने की थी क्या। हर उम्र का भारतीय

उस दिन को अभागा मान बिलख-बिलख कर रो रहा था और यही सोच रहा था कि अब क्या होगा। हर तरफ 1948 की तीस जनवरी की शाम जैसा मंजर नजर आ रहा था। लेकिन 1948 की तीस जनवरी की शाम नेहरू हमारे साथ थे। गांधी के बाद नेहरू..बस। उसके बाद शून्य। गांधी और नेहरू के बाद इसी शून्य को भरने वाले व्यक्ति का नाम लालबहादुर शास्त्री था।

उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद शुरू के महीने कैसे रहे होंगे यह तो याद नहीं, लेकिन यह जरूर लगने लगा था कि नेहरू विहीन भारत समुद्र की लहरों को चीरते पोत की तरह डगमगाये बिना चल रहा है। 1965 का आधा हिस्सा पार होते ही पाकिस्तान से युद्ध छिड़ गया। फिर याद करें वो समय और उन दिनों का मिलान करें 1962 के सर्द दिनों से, जब भारत जूझ रहा था चीन से। तब नेहरू हमारे रहनुमा थे। लेकिन सब तरफ किस कदर अवसाद का माहौल छाया हुआ था। वह अवसाद और उसकी पीड़ा फूट रही थी कैफी आजमी और कवि प्रदीप और न जाने कितने कवियों और लेखकों की कलम से। ....ऐ मेरे वतन के लोगों....गा कर देश भर को लता मंगेशकर की आवाज रुला रही थी। नेहरू जी भर आयी आंखें पोंछ रहे थे। उस पीड़ा को सेल्यूलाइड पर उतार रहे थे चेतन आनंद। उस जैसी पीड़ा का अहसास एक पल को भी हुआ था 1965 में पाकिस्तान से युद्ध करते समय? आजादी के बाद पहली बार सन् 65 के अगस्त और उसके बाद के पांच महीने एक साथ कई धाराओं में भारत और भारतवासियों को जोश के ज्वार से भर रहे थे।

कुल मिला कर डेढ़ साल का शास्त्री जी का प्रधानमंत्री वाला समय मीठी याद बन कई सारी तहों के नीचे दबा पड़ा है। दर्द यही है कि युवा पीढ़ी नहीं जानती और न कभी जान पाएगी उन डेढ़ साल के बारे में। किसी परीक्षा में इस सवाल का जवाब शायद कोई दे दे कि जय जवान जय किसान का नारा किसने बुलंद किया था और हर सोमवार को सारा देश किसके कहने पर एक ही वक्त भोजन करता था ताकि हमें किसी के सामने झोली न फैलानी पड़े।

भुनेगा तो तब ना, जब दाना हो




राजीव मित्तल

देश की दो प्रमुख पार्टियों कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी में इन दिनों झनक-झनक पायल हो रही है। लेकिन न सुर है न ताल है न घंघरू हैं। मुद्दा है अगले आम चुनाव में प्रधानमंत्री कौन होगा। भारतीय
जनता पार्टी के ख्वाब ज्यादा उछाल मार रहे हैं, मानो प्रधानमंत्री पद सामने रखा हो। इसीलिये पार्टी में रार भी ज्यादा ही मची हुई है, जिसे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने और भी भड़का दिया है। पहले सुप्रीमकोर्ट से तथाकथित राहत और राहत मिलने की खुशी में शाही किस्म का उपवास उनके सपनों को चार चांद लगा रहा है। लेकिन यही चार चांद लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली और पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी की रातों को स्याह बनाने पर तुले हैं। मोदी के उपवास स्थल पर पार्टी नेताओं का जो जमावड़ा मनभावन नजर आ रहा था, कुछ ही दिन बाद दिल्ली में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में मोदी की गैरमौजूदगी ढोल बजा रही थी कि भारतीय जनता पाटी में प्रधानमंत्री पद को लेकर ताकधिन्नाधिन शुरू हो गयी है। जो हाथ उपवास स्थल पर मोदी के होठों पर जूस के गिलास नवाज रहे थे, वो उन पर मुट्ठियां तानने में लगे हुए हैं।

खेल की शुरुआत हमेशा की तरह बैठे ठाले चुनाव नजदीक जान आडवाणी जी की रथयात्रा के ऐलान से हुई। उनकी रथयात्रा हमेशा कुछ ऐसी करतबी होती है कि और दलों में गायत्री मंत्र का जाप गूंजता है, तो उनकी पार्टी के नेताओं का अमाशय कमजोर होने लगता है। वैसे इस बार की रथयात्रा एक तरह से नख और दन्त विहीन है। बना भले ही लिया हो, लेकिन भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने से कुछ हासिल होना नहीं उन्हें, क्योंकि कई महीनों से अन्ना हजारे की अनामिका पर उछल रहा है वो। फार्मूला -1 रेस जैसा चार्म भी नजर नहीं आ रहा किसी को उनकी रथयात्रा में। न खुद पार्टी में न पार्टीजनों में न जनता में कोई उत्साह। अगले आम चुनाव में पार्टी क्या हासिल करेगी, इसके बारे में अभी तो सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि चमत्कार शब्द न आशंका से जुड़ा है न संभावना से।

सत्तारूढ़ गठबंधन की आगुआई कर रही कांग्रेस का हाल खुद उसको भी पता नहीं। 2009 के चुनाव में खासी सफलता हासिल करने के बाद उसको प्रधानमंत्री तो पिछली पफॉर्मेंस के आधार पर बैठे-बिठाए मिल गये थे, इस बार कुर्सी उनको काट रही है या उन्हें कटवाया जा रहा है या वो खुद कुर्सी से बेजार हैं, यह समझ से बाहर है। सरकार चलाने के लिये मनमोहन सिंह कौन सा जरूरी पुर्जा हैं यह बात कोई मैकेनिक या इंजानियर भी नहीं बता पाएगा। पार्टी की तरफ से मुंह खोलने वालों की बातों से जाहिर हो रहा है कि ढाई साल बाद वाले चुनाव में युवराज को सत्ता सौंप दी जाएगी। पहले दिग्विजय सिंह बोले...अब दादा भी बोल रहे हैं। दिग्विजय का काम कई सालों से बोलने का ही रह गया है, तो बात आई-गई टाइप लगी, लेकिन प्रणव मुखर्जी के बोलने में ठोसपन और अवसाद दोनों थे। सन् 84 में राजीव गांधी और अब राहुल गांधी यानि उनकी हालत आडवाणी ही जैसी। सरकार के कामकाज को कैसी भी संभावना से जोड़ा जाए, तो धूल उड़ती दिखायी पड़ेगी।

अब एक नजर पूरे राजनीतिक हालात पर डाल लें। 2009 में दोबारा सत्ता में आए अतीव उत्साही कांग्रेसी गठबंधन में जैसे हर कोई अपनी कब्र खोदने में लगा हुआ है। बेताल की तरह विक्रम के कंधों पर लदा हर घोटाला यही पूछे जा रहा कि अब और क्या करना है जल्दी बता, नहीं तो तेरा सिर काट दूंगा। इस वजह से हर कोई अपना सिर अपने हाथ में लिये है..तू कौन मैं खामखां वाला हाल।
भाजपा का फीलगुड सिरके की तरह महक रहा है। उसके पुरोधा आरएसएस ने अपनी छवि से कोई समझौता नहीं किया है। लॉटरी के नम्बर मटके से निकालने का काम उसी का है। जिस दिन जिसका नम्बर आ जाए..कुछ समय की जय-जयकार..कुछ समय बाद फिर महक मार रहे सिरके वाले जार में। तीसरे मोर्चे के अगुआ वामपंथी सब कुछ गंवा कर आईसीयू में ही पड़े थे, अब बाहर बरामदे में डाल दिये गये हैं। उस मरीज जैसा हाल, जिसके घरवालों के पास नसिंगहोम होम का बिल जमा करने को पैसे न हों। बाकी दल अपने मोहल्ले में ही जागरण करवा कर पड़ौसियों की नींद हराम कर रहे हैं।

देश का यह राजनैतिक परिदृष्य देश की आजादी के बाद पहली बार देखने में आ रहा है कि किसी पार्टी के पास करने को कुछ नहीं है। इसीलिये रोटी-बेटी-खेती-किसानी-स्वास्थ्य-शिक्षा-लोकपाल-भ्रष्टाचार-सदाचार -मिल-मजदूर-सावन-भादों -बाढ़-अनावृष्टि-चुनाव-वोट-उम्मीदवारी...न जाने कितने मुद्दों को नन्ही सी जान के हवाले कर दिया गया है। और मतदाता इस कदर बेजार है कि कहीं राष्ट्रीय सरकार का मुंह न देखना पड़ जाए, जिसमें हर पार्टी का करछुल कढ़ाई में घूमता है । यानि एक ऐसी सरकार जो सोमवार का व्रत रख सावन तो किसी तरह काट ले, पर भादों की एक बौछार सब कुछ बहा ले जाए। इसी तरह क्वार की खुशियां कार्तिक को गमगीन बनाएं।

मंगलवार, 20 सितंबर 2011

पेड़ से टपका सर्वे

राजीव मित्तल

अन्ना हजारे अगले महीने से देश भर को जगाने निकल रहे हैं। वो ट्रेन से ये काम करेंगे । आडवाणी जी भी अपनी सर्वप्रिय रथयात्रा का ऐलान कर ही चुके हैं, जिसका मुद्दा है अगले चुनाव में जीत और पिछले चुनाव में पार्टी की दुर्गति......पर उनके दुःख को दूना कर गया नरेन्द्र मोदी का उपवास....उनका बरसों-बरसों पुराना दिल ही जानता है जब वो अनशन तोड़ने को मोदी के मुहं के पास शरबत का गिलास थामे खड़े थे ...... इधर.. मनमोहन सिंह का मुंह दांत का डॉक्टर भी नहीं खुलवा पा रहा ....सोनिया गाँधी और राहुल खामोश हैं.....वामपंथी अपनी पिछली जेब से मार्क्स की तस्वीर निकाल कर निहार रहे हैं....और बाकी पार्टियों का काम भोर के वक्त रंभाने और बाकी समय जुगाली करने भर रह गया है। कुल मिला कर देश की तस्वीर तालाब के किनारे बैठे किसी मछली पकड़ने वाले की सी बनी हुई है।

ऐसे में पेड़ की दो डालों के बीच टिके बर्बरीक वल्द घटोत्कच वल्द भीमसेन को कुछ करने की सूझी। वक्त का पता नहीं....कुछ अंधेरा है कुछ उजाला है...शाम भी हो सकती है..... भोर भी ...क्योंकि इन्हीं दोनों समय सामने के बदबू मारते तालाब के किनारे कतार में लोटा बगल में रख कर प्राकृतिक क्रिया, सामाजिक धर्म और राष्ट्रीय कर्तव्य निपटाए जाते हैं।
यह कलाकारी मेरे दोस्त विनय अम्बर की है, जो मेरे लिखे पर
इतनी सटीक बैठ रही है
कि अब मैं उनको लगातार
परेशान करता रहूँगा....


बर्बरीक ने नजर डाली तो तो पेड़ की शाखें लदी हुई थीं। 25 गौरेया, 28 तोते, 5 कौवे, आठ गिरगिटान, 13 गिलहरी, दो गिद्ध, चार उल्लू, दो कठफोड़वा, सात बंदर और मकड़ियों समेत कीड़े-मकोड़ों की कई प्रजातियां वहां मौजूद थीं। सब आपस में बात कर रहे हैं कि आडवाणी जी को फिर फीलगुड जैसा कुछ हो रहा है क्या .....बर्बरीक उर्फ बॉब ने गुर्रा कर उनकी चिल्लपों शांत करवाई।

आज मैं एक मसले पर आप लोगों की राय जानना चाहता हूं। हमारे देश में चैन की बंसी भी बज बज रही है और तुरही भी , ऐसे में आपको क्या फील हो रहा है.....गौरेयाओं.....पहले आप बात बताएं..आप लोगों से छेड़छाड़ तो नहीं की जाती....अश्लील फिकरे तो नहीं कसे जाते.....जब नर कहीं चला जाता है तो घोंसले में डर तो नहीं लगता....थोड़े में बताएं....गौरया घबरा कर एक-दूसरे की तरफ देखने लगीं...फिर कनखियों से कौवों को देखा और नजरें झुका लीं....

बॉब ने फिर कहा..घबराएं नहीं...खुल कर अपनी बात कहें .....हिम्मत बटोर कर एक ने कहा...हमारे घोंसले के सामने बैठ अमरमणि त्रिपाठी की तरह दांत निकालते हैं मुए ..तुरंत कौवों ने कुदक्कड़ी मारी....और तुम जो हमें देख मलाइका की तरह ठुमकती हो....एक कौवा भन्ना कर बोला.....

त्रिपाठी जी का नाम आते ही बर्बरीक ने तुरंत मामले को मोड़ दिया ....हमारे बीच मौजूद गिरगिटान कुछ बोलें। एक ने अपने को चटपट हरे से लाल किया-हम किन लफ्जों में अपना दुखड़ा सुनाएं? हम इन नेताओं की रंग बदलने की रफ्तार देख अपना रंग बदलना भूल चुके हैं। रंग बदलना ही हमारी पहचान थी...हमारी विरासत थी...जो आज परायी हो गयी है॥हम समझ नहीं पा रहे कि हम कितने और कौन कौन से रंग बदलें। वो कुछ और बोलता, बर्बरीक ने घुड़क दिया.....

इस बार बर्बरीक तोतों को मौका दिया...आप कुछ बताइये...हम तो जी बरबाद हो गये। हमको अपनी जिस तोताश्मी पर नाज था, उसको भी वो हजम कर गये। हमारे पास अपना कहने को अब बचा ही क्या है। हमें तो कोई ज़हर दे दे.......

गिद्धों...अब आप बताओ.....हमारी पहचान इसलिये ही तो है न कि हम जीव-जन्तुओ की सड़ी-गली लाशें खा कर महामारियों से इनसान का बचाव करते हैं। इसके लिये हमारे पंजों और इस मुड़ी हुई चोंच को दाद दी जाती है। लेकिन इन दोनों को अब चिरकुटों ने पेटेंट करा लिया है। अरे...हम तो मरे हुओं को नोचते थे...ये कमबख्त तो जिन्दों को बगैर नोचे भकोस लेते हैं...अब हम जामुन खा कर गुजारा कर रहे हैं....यह कहते कहते उनकी आंखों में आंसू आ गये।

माहौल की नजाकत को देख बर्बरीक ने उल्लुओं को आवाज मारी.....आप भी कुछ कहें....सर जी, हमारा दर्द तो इन सबसे बड़ा है...हम उस शायर को याद करते हैं, जिसने हम पर यह शेर लिख कर हम पर करम फरमाया था.....पूरे पेड़ ने आवाज निकाली...इर्शाआआआआआआआद ...एक उल्लू ने दूसरे को कोहनी मारी...तू गा के सुना.....
बरबाद-ए-गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू........ गाते गाते वो सिसकियां भरने लगा। एक बुजुर्गवार उल्लू बोले....हमारी यह जेनरेशन फ्रस्ट्रेशन में जी रही है सर जी ...क्या बोलें साहब....सन 47 के बाद ऐसे दिन देखने को नसीब होंगे, सपने में भी नहीं सोचा था.....हमारी पौराणिक मनहूसियत पर तो जैसे डाका पड़ गया है। उसका जगह जगह फूहड़ प्रदर्शन किया जा रहा है। अब हमारा ये हाल है कि
कहां जा के मौत को ढूंढिये
कहां जान अपनी गंवाइये

एकाएक बंदरों ने तालियां बजाते हुए नाचना शुरू कर दिया। बर्बरीक बौखला कर पूछा ---ये क्या कर रहे हो नदीदों ....हे हे ही ही.....किसी के घर से उठायी चुनरी पहन कर फुदक रही बंदरिया बोली... कुछ नहीं सर जी, ये सब इसलिये दुखी हैं कि नेता बिरादरी इनकी नकल कर रही है, लेकिन हम उनकी नकल कर मस्तिया रहे हैं। एक बंदर ने सिर पे साफा बांधा और उस बंदरिया के गले में बाहें डाल लचकना शुरू कर दिया...बाकी बंदर शुरू हो गये.....जीतेगा भाई जीतेगा हमारा कड़ियल जीतेगा।

अंत में...... आप इन सबको किसी पेड़ पर न तलाशें.......ये सब अब संग्रहालयों में पाए जाते हैं......हो सकता है वहां भी कुछ पिंजरे खाली मिलें और उसके बाहर तख्ती पर लिखा हो...हमें खेद है कि इस प्रजाति को हम इनकी खालों में भुस भर कर भी बचा नहीं पाए.....जहां तक बर्बरीक का सवाल है...सुना है उनको श्याम खांटू के नाम से मंदिरों में निन्यानवे साल की लीज़ पर जगह आवंटित है....धन्यवाद!

शनिवार, 17 सितंबर 2011

आउट ऑफ कंट्रोल के मज़े



राजीव मित्तल
मोहम्मद अजहरुद्दीन के बेटे अयाजुद्दीन की मौत एक बार फिर यह सोचने पर मजबूर कर रही है कि हम रफ्तार के मज़ों में इतने मशगूल क्यों हैं । रफ्तार की तासीर को समझे बिना हमारे देश के युवा ही नहीं, हमारे नियोजक, बाजार के कर्ताधर्ता और यहां तक कि हमारी सरकार भी रफ्तार के अनियंत्रित खेल में खुल कर अपनी भागीदारी निबाह रही है। उभरता क्रिकेटर अयाजुद्दीन जिस मोटरसाइकिल को चला रहा था, उसको स्टार्ट करते समय ही यह ध्यान रखने की जरूरत होती है कि सौ मीटर दूर तक सड़क बिल्कुल खाली हो, क्योंकि वो मोटरसाइकिल दस सैकेंड के अंदर ही सौ किलोमीटर की रफ्तार पकड़ लेती है। और उसकी अधिकतम स्पीड 250 किलोमीटर प्रति घंटे की है। अयाजुद्दीन के कॉलेज के प्रिंसपिल का कहना था कि उसे कई बार चेतावनी दी जा चुकी थी। लेकिन उसकी नासमझी ने उसे मौत के आगोश में ढकेल दिया।
अब आइये इस महत्वपूर्ण सवाल पर कि क्या हमारे देश की सड़कें या ट्रैफिक इस लायक हैं कि उन सड़कों पर और भेड़िया धसान ट्रैफिक की मौजूदगी में हजार सीसी की मोटरसाइकिल दौड़ायी जाए। इस कदर रफ्तार वाले वाहनों को चलाने के लिये विदेशों में कई नियम कानून हैं। उनके लिये ट्रैक अलग होते हैं। आम सड़कों पर इनको चलाने की सख्त मनाही है। लेकिन हमारे देश में अगर नहीं है तो वह है कोई भी और कैसा भी नियम कानून। ऊपर से इस अराजक माहौल को हवा दे रहा है इस देश का विकसित देशों से होड़ लेता बेहद अनियंत्रित बाजार, जिसने ऐसे वाहनों से देश की सड़कों को पाट दिया है। देश के युवाओं को ललचाने के लिये विज्ञापनों पर अरबों रुपया फूंका जा रहा है। महेन्द्र सिंह धोनी, जॉन अब्राहम, अक्षय कुमार जैसे न जाने कितने आकर्षक और बिकाऊ चेहरों को खोज-खोज कर रफ्तार को आउट ऑफ कन्ट्रोल करने की तो एक तरह से मुहिम ही चलायी जा रही है। विज्ञापन का बाजार आज इतना आकर्षक और जेब भराऊ हो गया है कि क्रिकेट खिलाड़ी, फिल्म अभिनेता -अभिनेत्रियाँ और पेज थ्री के चेहरे तो करोड़ों पीट ही रहे हैं, देश का हर चैनल और अखबार इन विज्ञापनों को हासिल करने के लिये कतार में झोली फैलाए खड़ा है।
दुनिया भर में युवा शक्ति का सिरमौर बन हमारा देश इतरा तो खूब रहा है लेकिन उसे यह नहीं सूझ रहा कि इस ताकत का देश के सर्वांगीण विकास के लिये इस्तेमाल किया कैसे जाए। इसीलिये हम जैसे मानसून की बारिश का पानी का इस्तेमाल करने के बजाए उसे गंदे नाले नालियों में बह जाने दे रहे हैं, उसी अंदाज में हम युवा शक्ति को जाया कर रहे हैं। हम विकास के नाम पर, ग्लोबल बनने के नाम पर एक ऐसे बाजार में तब्दील हो गये हैं, जहां महेन्द्र सिंह धोनी हमारा आदर्श है, और जहां सुजुकि 1000 पर लेटी मॉडल हमारा सपना है। लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि धोनी क्रिकेट के मैदान पर है और उस मॉडल को अपने ऊपर लिटाए वो मोटरसाइकिल समुद्र के किनारे खड़ी है, जो बहुत सुरक्षित जगह हैं, और करोड़ों रुपये पाने वाली जगह हैं, लेकिन अयाजुद्दीन जैसे युवाओं के सामने खतरे ही खतरे हैं।
और उन मां-बापों को क्या कहा जाए, जो अपनी औलादों पर ऐसे खतरों की बारिश सी कर रहे हैं, क्योंकि पैसे के अम्बार ने उनके सोचने-समझने की ताकत कुंठित कर दी है। उनके नौनिहाल रफ्तार का मजा बढ़ाने को सुरापान करते हैं और अपनी विदेशी गाड़ियों से रात को फुटपाथ पर सोते लोगों को कुचल मारते हैं या अपनी जान गंवा देते हैं। ऐसी घटनाएं इस देश अब इतनी आम हो गयी हैं कि कोई ध्यान भी नहीं देता। मां-बाप को इसलिये कोई फिक्र नहीं क्योंकि कानून भी उनकी जेब में है।

गुरुवार, 8 सितंबर 2011

ऐ वतन..... ऐ वतन







राजीव मित्तल

नटी- निगोड़े.. अखबार का पहला पेज कभी देख लिया कर, या उन्हीं छम्मक छलनाओं को ही टुकरता रहेगा अंदर के पन्नों पर....
नट- क्या हुआ, सुबह-सुबह क्यों खोखिया रही है
नटी-अरे देख तो सही..दिल्ली दहल गयी....हाईकोर्ट में बम फटा....ग्यारह लोग मर गए.....अखबार वालों ने कित्ता कुछ छापा है....और तुझको कोई होश नहीं.....
और ये भी देख कितने लोगों की फोटो छपी हैं......
नट- मूर्खा, ये लोग नहीं हैं ....देश की राष्ट्रपति , देश के प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, मुख्यमंत्री, तेलमंत्री, राशनमंत्री हैं।
नटी-और ऐसे हाल में भी यह मुस्कुरा कौन रहा है......
नट-ये गडकरी हैं....स्थितप्रज्ञों की जमात से हैं.....हर हाल में मुस्कुराते मिलेंगे...
नटी-ये सब कह क्या रहे हैं..
नट-राष्ट्रपति को दुख है....प्रधानमंत्री को कमजोरी.....कुछ कह रहे हैं-यह धमाका नहीं कायरता है... और जो ये दांत पीस रहे हैं इन्हें सारा देश स्वामी के नाम से जानता है.....पिछले तीस सालों से खुद इनको नहीं पता कि ये कहां हैं और क्यों हैं....
नटी-और गृहमंत्री क्या बोले....
नट-वो बम फोड़ने वाले का स्कैच बनवा रहे हैं....
नटी-स्कैच क्या होता है....
नट-जैसे दुर्गा जी का कैलेंडर होता है, स्कैच भी वैसा ही होता है.....कैलेंडर दुर्गा जी को दिमाग में रख कर बनाया जाता है और स्कैच सामने दीवार...दीवार पर मकड़ी....मकड़ी के जाले....मकड़ी पर झपटती छिपकली को देख कर...
नटी-स्कैच बनाने से क्या होगा....
नट-स्कैच को देख कर देश भक्ति ठाठे मारने लगती है...कई बार गृहमंत्री जोश में आ कर स्कैच वाले कागज़ को किसी तखती में चिपका कर घर के पिछवाड़े उस पर निशाने बाजी करते हैं....और लगुए-भगुए तान लगाते हैं...वो मारा-वो मारा....वाह सर जी क्या निशाना है.....
नटी-और जिसका स्कैच बना है, उसको पकड़ लिया जाए तो......
नट-बड़ी अकलमंद है री तू....ससुरा भेजा खाली कर दिया....सुन...जिसका स्कैच बना है, अगर वो पकड़ा गया तो उससे पूछा जाएगा कि तुम्हारा क्या किया जाए....तो वो कहेगा बैंक में मेरे नाम 40 करोड़ जमा कर दो, तब मुकदमा चलाओ मुझ पर...मैं कभी ये कहूंगा-कभी वो कहूंगा...कभी कश्मीर की आज़ादी की बात करूंगा, कभी अफजल गुरु की बात करूंगा....कभी जिहाद की बात करूंगा तो कभी घंटाघर वाले की इमारती की, कभी चांदनी चौक की बात कूरंगा तो कभी लालकिले की....लेकिन तुम दिल पे मत लेना.....और मुकदमे की तारीख पे तारीख लेते रहना.....जब मैं 40 करोड़ फुंकवा कर बोर होने लगूंगा तो अपने आकाओं को हरी झंडी दिखाऊंगा और वो मुझे छुड़ा ले जाएंगे.....बीच-बीच में मुझे अपनी करनी पर रोना आए...तो आंसू पोछने के लिये खादी आश्रम के रुमालों का इंतजाम अभी से कर दो.....
नटी-मैं दो मिनट में कढ़ी के लिये पकोड़ियां उतार कर आयी, तब तक बीड़ी फूंक लो.......
हां अब ये बताओ कि वकीलों ने हड़ताल क्यों कर दी.....
नट-ये देशभक्ति है.....पंद्रह अगस्त और 26 जनवरी के बाद देशभक्ति गोते खाने लगती है। और अब तो इस देश में कई बार वतन की आबरू खतरे में चली जाती है तो सब लोग गाने लगते हैं...सिर कटा सकते है लेकिन सिर झुका सकते नहीं....वकीलों की हड़ताल भी उसी तर्ज पर है....
नटी-अच्छा छोड़ो ये बेसुरा राग...बाहर के मंदिर में लाउडस्पीकर पर कई दिनों से कान फाड़ रहे हैं भोंड़ी आवाजों में...
हे राम....ये क्या...भारत पचासा-पचासा में भी हार गया......बड़े बुरे दिन चल रहे हैं हमरे देश के.....
नटी के ट्रैक बदलते ही नट की नाक ने नक्कारा बजाना शुरू कर दिया ....तभी बाहर लाउडस्पीकर दहाड़ा..जय गणेश जय गणेश देवा..... नटी ने तुरंत हाथ जोड़ लिए .........

शनिवार, 3 सितंबर 2011

भारतीय राजनीति को रसातल से उबारने के उपाय


राजीव मित्तल

रसातल के पेंदे को छू रही भारतीय राजनीति को लेकर चिंतित नेताछाप बुद्धिजीवी वर्ग ने एक सेमिनार आयोजित किया। विषय रखा गया ‘राजनीति का डाल्फिनीकरण करने के उपाय’। कुछ ने डाल्फिनीकरण शब्द पर आपत्ति जताई। उनका कहना था कि जब हमें ही समझ में नहीं आ रहा तो राजनीति में अभी जिनका रैपर भी नहीं उतरा है उन चिकनबाजों, दारूबाजों, बटमारों, सेंधमारों और खालिस चार सौ बीसियों को हम क्या खाक समझा पाएंगे जबकि यही लोग हमारी चिंता से जुड़े विषय का अभिन्न अंग हैं।

खैर, समझने-समझाने के लिये चिकने कागज पर बनी डाल्फिन की तस्वीरों की किताब लायी गयी। तस्वीरों में उछाल मारती, मुंह खोलती, अठखेलियां करती डाल्फिन और उसको गाइड करती एक खूबसूरत युवती मौजूद थी। तस्वीरें देख एकाध की राय बनी कि क्यों न भारतीय राजनीति को इस युवती जैसा खूबसूरत बनाया जाये। जब उन्हें समझाया गया कि मामला रसातल से उबारने का है न कि खूबसूरत बनाने का, तो किसी ने एक तस्वीर छांट कर दिखायी कि यह देखो उबरने की जीती जागती मिसाल.........खूबसूरत बाला कितनी खूबसूरती से पानी में डुबकी लगा कर ऊपर आ रही है.......मिल गयी न राजनीति को उबारने की तस्वीर!!!!!!!

चिंतन में नेताओं की किस्म को बूझते हुए डाल्फिन और युवती दोनों को विषय से बाहर कर दिया गया। फिर स्वेट मार्टन की किताब ‘नेता कैसे बनें’ को चर्चा का विषय बनाने का सुझाव उछला.... जिसमें उसने ऐसा कुछ जरूर लिखा होगा.. जो भारतीय राजनीति के पुनरोद्धार में सहायक हो। तभी एक ने कहा कि इस मामले में रितु बेरी को क्यों न टटोला जाये। उस पर सवाल और ऊपर उछला कि एक फैशन डिजायनर का राजनीति से क्या वास्ता।.... क्यों अगर उसके डिजायन किये कपड़ों से हमारा व्यक्तित्व निखर सकता है तो राजनीति में निखार अपने आप ही आ जाएगा ...... भाईसाब....... यहां निखारने की नहीं.. उबारने की बात हो रही है। लेकिन हम तो अपने को तो निखारते आ रहे हैं.....इसमें नया क्या है.....उस निखारने का राजनीति पर खाक असर पड़ा! बात तो सही है....लेकिन .. देखा नहीं कि कुछ साल पहले हुए एक सर्वेक्षण में आडवाणी जी को निखरों में अव्वल का खिताब मिला था। छोड़ो छोड़ो.....वो हैं वो नहीं हैं दोनों एक समान....

क्यों न राजनीति को केंचुआ छाप बनाया जाये!!!!! अभी क्या कम है क्या, किसी ने ठेका लगाया। .... बात को पहले समझो... देखो अब तक हमारा समाज केंचुए को रीढ़ की हड्डी से जोड़ कर नकारात्मक रवैया अख्तियार करता रहा है, जबकि केंचुए से ज्यादा कोई सकारात्मक प्राणी है इस दुनिया में! कुछ करे तो भी, कुछ न करे तो भी।

पर..... एक सवाल यहां खड़ा होता है बंधु कि केंचुए की विष्ठा ज्यादा लाभकारी होती है जबकि हमें सिखाया गया है कि खा जाओ और डकार भी मत लो। इस विरोधाभास के चलते केंचुआ हमारा क्या मार्गदर्शन कर पायेगा। इस तर्क की सबने सिर हिला कर दाद दी।

तभी वामपंथी से लग रहे सज्जन ने हाथ से अवसर न जाने देने के लहजे में कहा... मार्क्स ने कहा है कि क्रांति बंदूक की गोली से आती है... एक बार उसका भी इस्तेमाल क्यों न कर के देख लें। इस पर कई भड़क गए-पहली बात तो हमें क्रांति की जरूरत नहीं, वैसे तुम कहना क्या चाहते हो, जिनको हम सुधारने की बात कर रहे हैं वे इस ठांये-ठूं से डर जायेंगे-----भाईजान, उनके पास जेल तक में असलहों की कमी नहीं होती। रोज सुबह-शाम जेल के सिपाही, दरोगा उन्हें रेत रगड़-रगड़ कर चमकाते हैं ताकि शाम को निशानेबाजी की प्रतियोगिता में उनकी चमक दिलों को दहलाए। और फिर अब तो..... कभी लाल किताब हाथ में लिये बगैर शौचालय में पैर न धरने वाले कई सूरमा मुख्य धारा में बिन बुलाये ही शामिल हो चुके हैं..... और बाकी.. समय का इंतजार कर रहे हैं बेहतर हिस्सेदारी के मिलने का।

अरे भाई.. इस तरह तो हम अपनी मंजिल तक ही नहीं पहुंच पायेंगे और भारतीय राजनीति रसातल में नाक तक धंस चुकी होगी। ऐसा करते हैं कि नयी संसद के बनने का इंतजार करें, जिसमें अब तीन साल रह गये हैं और सांसदों के शपथ लेने के बाद जो संसदीय कमेटियां बनेंगी उसमे से किसी एक को यह मामला सौंप देंगे जो प्रस्ताव बना कर दोनों सदनों में पारित करा लेगी। सबने ताली बजा कर सेमिनार के सफल समापन का स्वागत किया। उसके बाद सब ‘चुनावी राजनीति का 59 साल और हमारे इरादे’ विषयक गोष्ठी में हाजिरी बजाने चल पड़े।

शनिवार, 27 अगस्त 2011

जोगीजी सररा र र र र र र र र र


ताक धिन्ना दिन, धिन्नक तिन्ना, ताक धिनाधिन धिन्नक तिन्नक
जोगीजी सर-र-र, जोगीजी सर-र-र

एक रात में महल बनाया, दूसरे दिन फुलवारी
तीसरी रात में मोटर मारा, जिनगी सुफल हमारी
जोगीजी एक बात में, जोगी जी एक बात में
जोगीजी भेद बताना, जोगीजी कैसे कैसे ?

कांग्रेस का टिकट कटाया बन कर खद्दरधारी
मोरंग की सीमा पर हमने रात में पलथी मारी
जोगीजी सर-र-र

चाहे लोहा, चाहे छोआ, चाहे चीनी कपड़ा
जिसने चाहा, पाया, पूंछरी कांग्रेस का पकड़ा
जोगीजी सर-र-र

बाप हमारा पुलिस सिपाही, बेटा है पटवारी
हाल साल में बना सुराजी, तीनों पुश्त सुधारी
जोगीजी सर-र-र

चच्चा मेरा कण्ट्रोल की चोर-दुकान चलाता
मैं लीडर हूँ खादीधारी, अंगुली कौन उठाता
जोगीजी सर-र-र

रुपैया जोड़ा, पैसा जोड़ा, जोड़ी मैंने रेज़गारी
जिसने मेरा भांडा फोड़ा, उसकी रोजी मारी
जोगीजी सर-र-र

गाँव गाँव में किला बनाया, मुखिया मुखिया मेरे सिपाही
चीनी और किरासन मेरे, होगी जीत हमारी
जोगीजी सर-र-र

सोशलिस्टों को रोज़ सुनाओ, बुरी सेंकड़ों गाली
गोलमाल कर गपतगोल में कर गोदाम लो खाली
जोगीजी सर-र-र

टर्र टर्र करने वाले जितने निसपिटर, एडिटर
सब मेरे थैले के चट्टे, मैं उनका डिक्टेटर
जोगीजी सर-र-र

रघुपति राघव राजा जी का राम धुन जो गावे
राज मन्त्र यह राम बाण है, राज तुरंत ही पावे
जोगीजी सर-र-र

कांग्रेस की करो चाकरी, योग्य सदस्य बनाओ
परम पूज्य का ले परवाना खुल कर मौज उड़ाओ
जोगीजी सर-र-र

खादी पहनो चांदी काटो, रहे हाथ में झोली
दिन दहाड़े करो डकैती, बोल सुदेशी बोली
जोगीजी सर-र-र



राजीव मित्तल


दो मार्च 1950 को किसी पत्रिका के होली अंक के लिए लिखी थी फणीश्वरनाथ रेणु ने यह कविता....देश को आज़ाद हुए मात्र पौने तीन ही साल हुए थे......1942 के आन्दोलन के समाजवादी रेणु का भारतीय राजनीति से पूरी तरह मोह भंग हो चुका था....और वो नेपाल की क्रांति में उतरने जा रहे थे.....उस समय जो कुछ भी भ्रष्ट था वो कांग्रेस के इर्दगिर्द ही था......सत्ता मिलने के बाद के सारे खेल कांग्रेस ही खेल रही थी......वही पक्ष थी और वही विपक्ष और वही रेफरी भी .....हालात आज जैसे ही थे.....पर, नए नए आज़ाद देश की आँखें तब सपनीलीं भी थीं.....कुछ सपने पहले से थे और कुछ दिखाए जा रहे थे .....विपक्ष के नाम पर समाजवादी भले ही छितर चुके थे लेकिन तब भी उनके अन्दर गाय की सी पवित्रता बची हुई थी...लेकिन कुछ ही समय बाद वो भी जाती रही.....फिर कई दलों का पिंड विपक्ष के नाम से किसी घड़े में हमको मिल गया.....लेकिन जिसके फूटते ही उसमें बदबूदार मट्ठा निकला....उसको भी जैसे जैसे सत्ता का स्वाद मिलता गया....भ्रष्टाचार की बदबू फैलती गयी.....अब अन्ना हजारे ने बीड़ा उठाया है देश से भ्रष्टाचार को ख़त्म करने का....और इसके लिए वो अपनी जान से खेल रहे हैं.....

सारा देश उनकी तरफ आशा भरी नज़रों से देख रहा है....कई बुजुर्गों को उनके इस आन्दोलन में 1947 के पहले के दिनों की आभा नज़र आ रही है.....लेकिन अन्ना 50 या 60 साल पीछे के पन्नों को क्यों नहीं पलट रहे, जहां उनकी लड़ाई का स्रोत छुपा है .....उनका सारा ज़ोर लोकपाल बिल और उसके दायरे में राजनेताओं और अफसरों को ही लाने में क्यों है....वो क्यों नहीं समझ रहे कि यह रोग केवल नेताओं या अफसरों तक ही सीमित नहीं रह गया है....अब यह प्लेग का रूप अख्तियार कर चुका है....जिसमें केवल चूहे मारने से काम नहीं चलता....बल्कि कई बार पूरा पूरा घर फूंकना पड़ता है......क्या मीडिया...क्या सेना...क्या डॉक्टर... क्या वकील...क्या जज...क्या शिक्षक....या आम जनता....सब में ये विषाणु पूरी तरह नहीं पैठ चुका है क्या ......

अन्ना, आप क्यों नहीं समझ रहे कि हम भारतीय भीड़ बन कर रह गए हैं और भीड़ बन कर ही सांस ले रहे हैं....भीड़ बनकर ही अपना नेता चुनते हैं.....भीड़ बन कर ही उस नेता के लिए इस्तेमाल होते हैं...भीड़ बन कर ही जातिवाद फैलाते हैं.....भीड़ बन कर ही धार्मिक उन्माद का झंडा बुलंद करते हैं...भीड़ बन कर ही 15 अगस्त या 26 जनवरी को देशभक्त बनते हैं.......भीड़ बन कर ही बापू को याद करते हैं.....वो भी सिर्फ एक दिन.....भीड़ बन कर ही भारत माता की जय बोलते हैं.....भीड़ बन कर ही गंगा स्नान कर पुण्य बटोरते हैं.....भीड़ बन कर ही गंगा या किसी भी नदी की ऐसी की तैसी करते हैं......अन्ना...याद कीजिये जब चीन से युद्ध चल रहा था और सारा देश .....वतन की आबरू ख़तरे में है..........गा रहा था.....और दो साल बाद ही देश का सीमान्त इलाका चीन के सामान से पट गया था......याद कीजिये अन्ना.....जिस वामन दास को गाँधी जी भगवान कहा करते थे.....और जिसका माइक खुद नेहरु ठीक करते थे....उस वामन दास को चोर बाजारिये कंग्रेसिओं ने नेपाल सीमा पर तस्करी करते वक्त बैलगाड़ी के नीचे कुचल दिया था......

अन्ना, और कितना बताऊँ आपको की ऐसे दस हज़ार लोकपाल बिल भी कुछ नहीं कर सकते क्योंकि मियादी बुखार की दवा क्रोसिन नहीं होती.....जब तक इस भीड़ को कतार में खड़े हो समूह बनना नहीं आएगा....आप कुछ नहीं कर सकते...और सबसे बड़ी बात कि भीड़ की कोई सोच नहीं होती......वो केवल दर्शक होती है.....पहले भीड़ को समूह में बदलिए तब आप लोकपाल बिल जैसे भोथरे हथियार को मारक बना पाएंगे......और सबसे पहले उन लाखों एनजीओ की असलियत जान लीजिये.....साल में किसी एक दिन इंस्पेक्शन के समय चेहरों पर रंग पोत कर दो-चार को आदिवासी बना कर लाखों के वारे न्यारे बनाने का धंधा इस देश में चोखा चल रहा है.......
यह ज़रूर है अन्ना...आप बहुत कुछ कर सकते हैं.....लेकिन फौरी सोच से बाहर निकालिए............

शनिवार, 6 अगस्त 2011

उजड़ने बसने का नया अंदाज



राजीव मित्तल

पंद्रह..हां 15 सितम्बर....पल्टून पुल के सामने से बस पकड़ी और नोएडा के सेक्टर बारह में उतर थोड़ा चल कर सेक्टर गयारह...फिर सहारा के विशाल परिसर में। बाहर ही अरविंद झा दिखे तो उन्हें तुरंत थामा....अंदर धंसने का सहारा...आप कब ज्वायन कर रहे हैं...अपने साथ बधवार जी के कैबिन में ले गये...वहीं मिले पंडित उदयन शर्मा.....उदयशंकर...प्रभात डबराल। प्रभात से कई साल की दोस्ती...पांच महीने पहले इंटरव्यू में अपन को परखने वालों में इंद्रजित बधवार भी थे.....उदयशंकर से पहली मुलाकात और....

पंडिज्जी से पहली मुलाकात चंडीगढ़ में रमेश नैय्यर के घर पर और दूसरी....जब संडे आब्ज़र्वर निकालने की तैयारी कर रहे थे...चंडीगढ़ से दिल्ली पहुंचा और फोन कर नॉर्थ या साउथ एवेन्यू के उनके सांसदी बंगले में घुस गया था....बात अच्छे से की... पर निकलने वाले साप्ताहिक अखबार की टीम में लिया नहीं..

देखते ही चहके...तुम कब आ रहे हो....कितने ऑफर लेटर तुम्हारे घर पहुंचाए जाएं.....मैं 21 को ज्वायन करूंगा...किसी ज्योतिषि से साइत निकलवायी है क्या...फिर खुद ही कागज पर कोई गुणा-भाग लगाया...यार..दिन तो बहुत अच्छा चुना है.....लम्बा टिकोगे..अब अपने को चैनल हेड बधवार जी से सेलरी पर बात करनी थी कि इंटरव्यू में जो तय हुआ था उसमें कटौती क्यों.....अरे तुम आओ तो सही..चैनल शुरू होते ही सब ठीक हो जाएगा....

वहां से निकल यहां-वहां टूलने लगा......सहारा का वो कॉरपोरेट विंग इस कदर चकाचक कि मध्यमवर्गीय घबराहट छाने लगी....शुरू होने वाले न्यूज चैनल में ज्वायन किये चेहरे उसी में बैठाए गये थे.....तभी एक जानी-पहचानी आवाज...अरे...हमारे सर जी आ गये....बीआईटीवी में एंकर रह चुकी लुभावनी विभा तैलंग....सुबह के बुलेटिन में ज्यादातर साबका उसी से पड़ता था ...जरा सी गलती पर खूब फटकार झेलती.....कभी बुरा नहीं माना लेकिन ...अब यहां पर भी वही मुरीदपना.....

कम्प्यूटर पर खटर-पटर कर रहा एक चेहरा.. कभी कहीं देखा सा...याद्दाश्त पर जोर डाला ...बीआईटावी में एडिट बे की ओर जाती और उसमें से बाहर आती एक लड़की...हाथ में टेप...नजर और ध्यान गांडीवधारीअर्जुन का चिड़िया की आंख को भेदना जैसा....उसकी आवाजाही कुछ ही दिन रही...तुम बीआईटीवी में क्या कर रही थीं.....चेहरे पर बेहद आकर्षक मुस्कान...आप वहां थे क्या....था क्या...मैं ही था...मैं कुछ दिन ही वहां रही प्रोग्रेमिंग में रही...मुजफ्फरपुर की पंखुरी.......फिर प्रमोद जोशी...देख कर सुखद एहसास....

घर लौटते हुए उदासी छाने लगी.....अब बीआईटीवी छोड़ने का वक्त नजदीक है....परवेज अहमद तो जी न्यूज चले गये....देबू दा को कहना पड़ा नाइट ड्यूटी लगाने को.....वो चार रातें बिता कर ही विदा लूंगा यहां से....उदासी गहराती जा रही...घबरा कर दो दिन के लिये लखनऊ और एक दिन के लिये चंडीगढ़ निकल गया....लौट कर रात भर खूब हल्ला गुल्ला मचाता...समझ गये सब कि चला-चली की वेला है....काम खत्म होने के बाद शरारतें.. हमेशा की तरह....पूरे हॉल की...ऊपर-नीचे से ला कर सारी कुर्सियां एक क्यूबिकिल में भर देता.....जैसे पचासों भेड़ें बाड़े में बंद हों....कोई भी गुजरता तो उस दृष्य पर एक नजर जरूर डालता...चैनल हेड नंदन भी समझ जाते की हरकत किसकी है। दिन की ड्यूटी वाले आते तो कोसते हुए बैठने को कुर्सियां तलाशते और झींकते हुए उस क्यूबिकिल से कुर्सी उठाते.......उन्हीं दिनों एक चस्का और लगा था...नौटंकी टाइप कुछ लिख कर जाना और फिर सबको टैग करना। जाने माने व्यंग्यकार उर्मिल थपलियाल को पढ़ कर खूब आनंद उठाया। उसी विधा को अपना कर अपन ने हाथ आजमाया....दिन ब दिन गहराते जा रहे उदास माहौल को थोड़ा सरका देती वो नौटंकी । भावना तो यहां तक कहती कि इनसबका मंचन होना चाहिये।

आखिरी रात....माहौल में विदायी का संगीत....महफिल वाली रात....सुबह का बुलेटिन निकाल कर सब चले गए...मुझे इंतजार था नंदन का...इस्तीफा जो थमाना था....उदयपार्क से सीधे सहारा में जा कर ज्वायनिंग देनी थी...पास में था मयूरविहार के ही जहांगीर खान का स्कूटर, जिसको एक बार बड़ा सताया था....अपना एलएमएल तो सदियों से नहीं चलाया था...नीचे छोटी सी कोठरी में खड़ा आंसू बहा रहा था....दस बजते ही नंदन दिखे....तो तुम भी चले...कैसे कहूं कि मत जाओ.....बेला स्वरूप की जगह एचआर में कोई और आ गया था.....उस दिन बेला बहुत याद आयी। ज्वायनिंग उसी को दी थी और पहली बार टाइम ऑफिस जैसे सड़ीले शब्द और उससे भी ज्यादा सड़ीले चेहरे के बजाय ह्यूमन रिलेशन की खबसूरत ऑफिसर के दर्शन नसीब हुए थे वीआईटीवी में....उस दिन तो बेला से हड़क भी गया था कि अपना भविष्य इसी कन्या के हाथ में है।

इस्तीफाबाजी कर स्कूटर दौड़ा दिया सहारा की ओर...अंदर पहुंचते ही गर्मागरम कॉफी मिली...कुछ मुस्कान...कुछ गर्मजोशी.....ज्यादातर चेहरे नये नवेले....बीआईटीवी के वो चेहरे भी दिखे...जो कभी-कभी बसपा ढाबे पर ही दिखते थे....अब यहीं मन रमाना था....और हमेशा की तरह जताना था... जो घर फूंकने आपनो वो चले हमारे साथ......

बुधवार, 27 जुलाई 2011


मात्र तीन मुलाकात..पहली याद नहीं

राजीव मित्तल

लेखक...प्रकाशक.....चाचा जी के दोस्त अशोक अग्रवाल.......हापुड़ की धकाधक यात्राओं ने उनके साथ चचा-भतीजा वाला फालतू का सा कनेक्शन जोड़ने का कोई मौका ही नहीं दिया.....बचा-खुचा अपने साथ हमेशा से लगा छुई-मुईपन का जाला उनकी लायब्रेरी ने झाड़ दिया.....उनको भी इस जूनूनी का लफाड़ियापन ज्यादा ही पसंद आ गया..फिर एक बाद एक कई राजदारियों ने दोनों को उस जगह पहुंचा दिया....कि जब नींद की कई गोलियां निगलने के बाद भी सांस नहीं टूटी तो ...कई सारी शर्मिंदगियों से बचाने को.........उन्हें ही लखनऊ भेजा गया था...और तीन दिन का वो साथ गजब का रहा था।

फिर उन्हीं के सौजन्य से एक दिन एक ऐसी मुलाकात.. जिससे जुड़ा कैसे-कहां-क्यों और कब वाला कोई सन्दर्भ याद नहीं........तिब्बत की बौद्ध भिक्षुणी सी कद-काठी.....हिमा कौल.......तो तुम हो...तुम्हारे बारे में सब पता है मुझे......कब सुना रहे हो हेमंत कुमार के गाने... खुद ही से बात कर रही हो जैसा संबोधन ....इसके चलते दो-तीन बार टोका भी गया...मैं तुम्हीं से बात कर रही हूं.....वो साथ कितनी देर का रहा .....यह भी याद नहीं...

कुछ साल बाद चंडीगढ़ में....सब लखनऊ गये हुए थे....ऑफिस में फोन आया...अशोक जी का....हिमा को चंडीगढ़ में कुछ काम है....तुम्हारे पास ही ठहरेंगी.....हाथ से तोते उड़ने जैसी कोई बात नहीं थी...पर उड़ गए......क्योंकि ऐसी मेजबानी पहले कभी की नहीं थी......बहरहाल हिमा दोपहर को 20 सेक्टर वाले घर में थीं....उनका काम दूसरे दिन होना था.....शाम को छह बजे उन्हें पड़ोस के हवाले कर ऑफिस चला गया....दस बजे तक लौट आया...हिमा का खाना उन्हीं के यहां, जिनके यहां छोड़ गया था....दूसरी मुलाकात में ही इतना नामाकूल रवैया!!!!!!!....वो कहां से मेहमानी का लुत्फ उठातीं जब मेजबान ही इस कदर बेहुदा मिला हो.....रात को उनके सोने का इंतजाम किया.....उनको कुछ कहने-सुनने का मौका ही नहीं दे रहा था...हो सकता है वो कई सारी बातें करना चाहती हों...रात को बाहर टहलने जाना चाहती हों...आइसक्रीम खाना चाहती हों.....लेकिन दादागिरी दिखाते हुए सोने का हुक्म सुना दिया...राजीव....आज तो कोई गाना सुना दो...धत्...सो जाइये..कह कर लाइट बुझा दी और बाहर वाले कमरे में किताब लेकर लेट गया....सुबह नाश्ता ठीकठाक करा दिया...हालांकि सब कुछ बनाया उन्होंने ही...अब.....आपका क्या प्रोग्राम है...टालने की गरज.....तुम मेरी वजह से अपना रुटीन मत बदलो...मुझे उस दफ्तर तक छोड़ दो, जहां मुझे काम है...अपने चेहरे पर बला टली का भाव....

तीसरी मुलाकात....फिर कई साल बाद....उस बार हापुड़ रुकते हुए दिल्ली का प्रोग्राम...हापुड़ में अशोक जी ने बताया...हिमा तुमको बहुत याद करती हैं....फलाने दिन श्रीराम सेंटर में उनकी शिल्प कृतियों की प्रदर्शनी है..तुम आओगे तो अच्छा लगेगा हिमा को.....कड़कड़ाती ठंड में पहुंच भी गया श्रीराम सेंटर...हॉल में अशोक जी..हिमा..उनकी बहन और बाबा नागार्जुन मिले...हिमा बहुत लगाव से मिलीं...उन्होंने अपनी बहन से मिलवाया...बाबा तो हापुड़ आते ही रहते थे...अशोक जी ने कहा..बाबा..यह राजीव..प्रभात का भतीजा ...तो बाबा ने फौरन दोस्ती कर ली....हिमा के शिल्प को पहली बार देखा...इस विषय में कोई जानकारी न होने के बावजूद बहुत अच्छा लग रहा था...खास कर हिमा के चेहरे पर की मुस्कान और बेहद अपनापन...काफी देर उन सबके साथ रहने के बाद रुखसत हो गया...तीन महीने बाद ही बीआईटीवी ने फिर दिल्ली का मुंह दिखा दिया...

बच्चों को सेंट्रल स्कूल में एडमिशन कराना था...तो कई बार फोन पर हिमा से बात हुई। उन दिनों हिमा केन्द्रीय विद्यालय में ही थीं..फोन पर ही हर बार यह भी कि कब मिल रहे हो...फिर एक दिन पंचशील में अशोक जी का फोन आया....मैं यहां आया हुआ हूं...इस सनडे को आओ न हिमा के यहां....बहुत मिलना चाहती है तुमसे......लेकिन जाना रह गया...दिल्ली में पूरे सात साल गुजार कर भी मिलना नहीं हुआ.....फिर मुजफ्फरपुर...वहां से जबलपुर....वहीं से एक दिन काफी दिनों बाद अशोक जी को फोन किया....बहुत खफा थे...दो-तीन पेटेंट वाक्य बोल कर मना लिया...तब खुल कर बात हुईं...हिमा का जिक्र आया....पता चला वो बिस्तर से लग गयी हैं...कोई असाध्य बीमारी...जिसमें शरीर का एक-एक अंश दम तोड़ता है....

जबलपुर से मेरठ आ गया...ज्ञान जी ने जबलपुर से पहल के दो अंक भेजे ...दूसरा डाक विभाग ने नहीं दिया...उन्होंने फिर भेजा....यह... पहल 90 आखिरी अंक था....उसके मुखपृष्ठ पर हिमा का बनाया शिल्प.....हिमा के कला संसार की जानकारी और हिमा के बारे में सब कुछ...... पहल के उसी अंक से कुछ यहां दे रहा हूं.....हिमा पर यह आलेख कुबेर दत्त ने लिखा है....

मई 2008 में त्रिवेणी कला संगम परिसर में शिल्पकृतियों की एक अनूठी प्रदर्शनी चल रही है...कलाकार हैं हिमा कौल...वो दिन भी थे जब हिमा कौल को उस परिसर में शिल्प-रचना करते वक्त देखता था। अपने काम में तल्लीन..चेहरे पर शान्ति और हल्की सी स्मित लिये एक गोरी चिट्टी कश्मीरी लड़की...2004 में किसी दिन हिमा को लगा कि उसके हाथ काम करने से इंकार कर रहे हैं..अशक्त हो रहे हैं...उंगलियों की पकड़ कमजोर हो रही है..यह सिलसिला रफ्तार पकड़ता गया...पूरे शरीर ने साथ छोड़ दिया..हिमा का कलाकार तो जीवित रहा, पर उसकी कला को रूप-स्वरूप देने वाली देह लुंजपुंज हो गयी...परवश हो गयी...
80 के दशक में विनोद कुमार श्रीवास्तव का परिचय हिमा से हुआ था अशोक अग्रवाल की मार्फत। प्रथम परिचय के दिन हिमा त्रिवेणी कला संगम के बेसमेन्ट में गीली मिट्टी से बावस्ता थी। वह शिल्प निर्माण की प्रक्रिया में उलझी थी। विनोद जी को धीरे-धीरे हिमा के शिल्प में गहरी दिलचस्पी होती गयी। हिमा की कृतियां इतनी मुखर थीं कि उन्हें लगा कि जैसे वे बोलने लगी हों और हिमा के कलाकार की संवेदनाओं की गाथा सुना रही हों। विनोद को लगा-हिमा से अधिक उसकी आंखें बोलती हैं। आज भी ....जब कोई उससे पूछता है-कैसी हो? उसके फुसफुसाते कंठ से ध्वनि निकलती है--आनंद...आनंद। देह की भीषण पीड़ा, असहायता...परवशता...के बावजूद हिमा परम शांत दिखती है। यही नहीं...उसकी हंसी में एक उजास है।

फिर एक दिन कुबरेदत्त की कैमरा टीम त्रिवेणी में हिमा की कृतियों की प्रदर्शनी को शूट कर रही थी तो भारतीय रंगमंच की मशहूर हस्ती अल्का जी इब्राहिम वहां मौजूद थे। यह प्रदर्शनी अल्का जी ही की देन है। कैसे......एक दिन अल्का जी त्रिवेणी परिसर में टहल रहे थे कि उन्हें वहां लगे कुछ अनूठे शिल्प दिखे। पता चला कि कि वे हिमा कौल के हैं। अता-पता लेकर अल्का जी हिमा के घर गये और उसकी हालत देख हतप्रभ रह गये। यह जान कर कि अब कभी हिमा शिल्प निर्माण नहीं कर पाएगी, तरस खा कर नहीं, बल्कि शिल्प के बेजोड़पन से प्रभावित हो कर अल्का जी ने हिमा की तमाम कृतियां अच्छी कीमत दे कर खरीद लीं और फिर उनकी प्रदर्शनी लगायी।

पहल का वो अंक दो साल पहले का है। आज हिमा की फुसफसाहट भी शेष हो चुकी है। हिमा पर ये सब लिखते समय अशोक जी को फोन किया और हिमा के बारे में पूछा.....नहीं...अब कुछ नहीं बचा है.....बस सांसें चल रही हैं..

हिमा..मैं हेमंत को सुन रहा हूं....इस ख्याल के साथ कि जैसे तुमको सुना रहा हूं।

बुधवार, 20 जुलाई 2011

तूफां उठा है दिल में


बीआईटीवी पर वामपंथियों का काफी असर....काम में इसका फायदा भी मिला....खुलापन...मास्टराना माहौल बिल्कुल ही नहीं...कुछ भी नया करने के लिये किसी औपचारिकता में पड़ने की जरूरत नहीं.....लेकिन उतना ही अराजक माहौल.....सब कुछ कंट्रोल से बाहर..........कुछ ही लोगों की वजह से चल रहा था पूरा चैनल.... अनिल चमड़िया पता नहीं कौन सी धारा के वामपंथी थे.....लेकिन उसे फैशन शो में जरूर तब्दील कर दिया करते थे.....उनकी मजदूर एकता नामक सोच से हमेशा सतर्क रहना पड़ता था....जिसका प्रदर्शन करने का उन्हें मौका भी मिल गया......जब तन्ख्वाह मिलनी पूरी तरह बंद हो गयी तो कामगार यूनियन बना कर उसके तोता-मैना बन गये चमड़िया जी.....शांति का काल हो या अंशाति का.... क्रांति लेकिन गुटरगूं तक सीमित रही.....कई बार क्रांति उड़ती भी दिखती....लेकिन किसी ढाबे पर जा कर पंख बटोर लेती....





राजीव मित्तल


....मरने भी न देंगे मुझे दुश्मन मेरी जां के....जैसों के साथ कई शामें गुजारने के बाद......एक शाम अपने घर में पार्टी का आयोजन कर डाला.....और ऐसी पार्टी दर-ओ-दीवार से पूछ कर तो की नहीं जाती....पूछना जिससे था....वो मुम्बई में थी.....राजीव शर्मा के सौजन्य से लालकिले के पीछे आर्मी कैंटीन से कई सारे ब्रांड.....प्रदीप अग्रवाल दुपहरिया ढलते ही सलाद काटने में लग गए...अंधेरा होते ही तांता लगना शुरू। चित्रिता सान्याल को कदम धरते ही मछली बनाने की सूझी.......या रब्बा.......पंडिताइन की रसोई को ये दिन भी देखने थे....खुद जा कर ले आओ...कह कर बला टालनी चाही... वो ले भी आयी....रात दो बजे तक तो पड़ौसियों की नींद हराम.....

जून की बेहद उमस भरी अगली शाम....नंदन ने रात नौ बजे सीरी फोर्ट पब चलने का फरमान सुनाया.....पांच मिनट में आठ जन पब में....रात के ग्यारह बज गए...खड़ा होने पर ढहने की हालत.....किसी तरह स्कूटर स्टार्ट किया....राजीव शर्मा को दिल्ली छह छोड़ना था...तभी राव वीरेन्द्र सिंह ने गुजारिश की दफ्तर छोड़ने की....वो भी लद गया। हवा का झौंका लगते ही मन मयूर......सड़क पार कर अंदर जाना था.....पर सड़क कहां से पार होती......सामने से कार आ रही थी....दोनों चिल्लाए स्कूटर रोको....रोको..... रो..... को.....स्कूटर रुकने के बजाए उस तरफ मुड़ गया जिधर से कार आ रही थी....उसके ठीक सामने.....कार वाले ने ब्रेक मारा पूरे दम से.....लेकिन मामला इतना करीब आ चुका था कि स्कूटर गले जा लगा कार के... स्कूटर गिरा.. तीनों लुढ़के...चारों सडक पर....दो तो हाय मैया कहते उठ खड़े हुए.....तीसरा नहीं उठा...कई आवाजें मारीं....अब इसे क्या हो गया...बेहोश.....कई जगह से खून बह रहा......उठा कर किनारे किया गया....

रात को बारह बजे कहां ले जाएं.....जिस कार से टक्कर लगी थी....उसी में लादा गया.....सबसे पहले सबसे पास वाली जगह एम्स .....वहां से तुरंत बाहर कर दिया गया....रात गहराती जा रही..... सब परेशान......तभी राजीव शर्मा को यूएनआई वाला कोई नजर आ गया.....उसी के कहने पर सफदरजंग हॉस्पिटल में इस लदान को उतारा गया..अब सबको संदेश... पेजर पर.....कुछ देर में नंदन....अशोक सिंह और आफिस में वक्त गुजार रही चित्रिता और उसके साथ बिहार की अभिलाषा... ....अगले दिन होश आया तो सबसे पहले ध्यान आया कि पिता लखनऊ से दिल्ली आ रहे हैं....कई महीनों से छाती पर मूंग दलते हुए नीचे ही रह रहे इसरार अहमद को बोला....सामने वालों से चाभी ले कर घर साफ करा देना और पिता को बताना कि मैं चंड़ीगढ़ गया हुआ हूं।

दो दिन बाद अस्पताल से छुट्टी मिल गयी। आफिस की वैन तीन दिन से वहीं खड़ी। नयी सैंडिल किसी ने मार दी थीं....नंगे पैर बैठ गया...साथ में परवेज अहमद...हाथ और गर्दन पर चोट के निशान.....इन्जेक्शन और दवाइयों की मार से दिमाग घूम रहा....दरवाजा पिता ने खोला..... चंडीगढ़ से यह क्या हाल बना कर आ रहे हो....मैं...मैं.....मैं ....एं...एं...एं. बस इतना ही निकला मुंह से और जा कर लेट गया...परवेज ने ही झेला पिता को...दस दिन बाद फिर आफिस में......काम बंद पड़ा था.....देवाशीष बोले आप कम्प्यूटर के पास अभी न बैठें.....हादसे का असर है आप पर......

एक दिन चित्रिता ने बताया सब....सबके बीच बैठा कर.....उस रात भर्ती होने के बाद डॉक्टरों ने तुम्हारी मरहम पट्टी की और इंजेक्शन लगाए.....उसके बाद तुमने जो हंगामा मचाया कि हम सब बौरा गए....नंदन और अशोक सिंह को तुमने इतनी गालियां दीं कि दोनों हमारी ड्यूटी लगा कर भाग लिये....फिर तुम हम पर सवार.......खूब सेवा करायी हम दोनों से.....जब नींद का झौंका आता...तुम जोर से चिल्लाने लगते....नर्स तुमको सोने का इंजेक्शन लगा रही तो तुमने घुमा के दिया उसको...स्टाफ तुमको बाहर निकाल देने पर आमादा...हमने हाथ-पांव जोड़े...फिर तुमको पलंग से बांध दिया गया..वहीं खड़े सुन रहे नंदन और अशोक छोंका लगाते जा रहे.....मालूम है अभिलाषा तो उस दिन से दहशत में है...दफ्तर भी नहीं आ रही........ कहां जा कर डूब मरूं...सबसे पहले उसी को फोन कर माफी मांगी तो वो अगले दिन नजर आयी.....

इस बार केवल चार दिन का समय रनडाउन के लिये...लेकिन हमने बुलेटिन निकाला और हम फिर एयर पे...और अब हमारा चैनल सबको दिखने लगा......

कुछ ही समय बाद शिव जोशी भी छोड़ गया.....बहुत खला उसका जाना......

जून में बहुत बड़ा आघात...अनुपम कुमार का रात में एक्सीडेंट हो गया....अपोलो में भर्ती...हालत बहुत गम्भीर...आजतक वाले एसपी सिंह भी वहीं थे..कोमा में...

रात-दिन दस-बारह लोग वहीं रहते....दो दिन बाद अनुपम गुजर गया....अगले दिन एसपी भी.......लाजवाब साथी था अनुपम.........काफी तनाव में बीता वो साल..... नये साल में जुगनू शारदेय और रमेश परिदा का हिंदी मे और अमिता मलिक का इंग्लिश में आगमन.....भाषवती घोष काफी पहले आ चुकी थी...खामोश तबियत....मंद-मंद मुस्कान...


नये साल में हम लोगों को मिला तीसरा फ्लोर....बहुत शानदार और आरामदेह.....हर क्यूबिकल के साथ एक कमरा...जिसमें खूब बड़ी मेज....जो सोने का काम देती.......लेकिन सब बिखरता जा रहा.....तन्खवाह समय पर मिलनी बंद हो चुकी थी......पूरी तो शुरू से ही नहीं मिली थी.....अब उतने के भी रोने पड़ने लगे........अशोक आडवाणी को विदेशी कम्पनियों से कर्ज मिलना बंद हो गया.......साफ दिखायी दे रहा था कि एक सफल पब्लिशर कहां गच्चा खा गया.......उन्होंने सौंप दिया था चैनल मालविका सिंह को....मालविका सिंह ने सौंप दिया नंदन एंड पार्टी को...काम से किसी को मतलब नहीं.......ऊंट के विवाह में गर्दभ राग.....अहा रूपम अहा गायन....फिर भी चैनल अच्छा निकल रहा......सब जगह तारीफ हो रही.....

मई आया.....घर के सब लोग लखनऊ चले गये.......मां आने वाली थीं.......उन्हीं के साथ ही लखनऊ जाता......
एक शाम.....चाय पीने नीचे उतरा.....चाय खत्म कर सीढ़ी पर पैर रखा ही था कि राहुल तेजी से उतरता दिखा...साथ में दो-तीन और......जल्दी चलो ऊपर...लखनऊ से फोन था...अशोक सिंह के चैम्बर में फिर आएगा......फिर..... फोन पर पूर्णिमा ....मम्मी .....स्तब्ध...सबको सन्नाटा मार गया.....पंद्रह मिनट तक यही स्थिति रही....बुलेटिन की तैयारी करनी थी.....सभी घर जाने का आग्रह करने लगे....लेकिन घर जा कर करता क्या....वहां तो कोई था नहीं.....प्रदीप जी के घर जाकर बैठता तो दुख और बढ़ता....नहीं...बुलेटिन निकाल कर जाऊंगा.....तब तक नॉरिस ने सबह की फलाइट में सीट बुक करा दी.....एचआर का काम देख रहे विष्णु दस हजार रुपये दे गये.....बुलेटिन निकालने के बाद भयानक खालीपन.....राहुल ने घर छोड़ा....कपड़े रखे और प्रदीप जी के यहां चला गया....अम्मा ने जबरदस्ती खिलाया.....लौट कर वैन का इंतजार करने लगा....आफिस ही जाऊंगा....वहीं से पालम......कई लोग आए लेने... जा कर कहीं लेट गया..सुबह पांच बजे पालम.....पहली हवाई यात्रा और ऐसे मौके पर...दिल डूब रहा...........लखनऊ में था क्या करने को......श्मशानघाट....शव पर लकड़ियां लादना....अपने हाथों सुलगाना....और फिर जलते देखना उस शरीर को.....जिसने कभी डायरी में लिखा था....आज कंघा करते वक्त मुन्ना को मेरे बालों में एक बाल सफेद दिख गया... दहाड़े मार कर रोया कि अब तुम मर जाओगी.....बड़ी मुश्किल से चुप कराया...दिन भर मुझसे अलग नहीं हुआ........... अब..हमेशा के लिये चली गयीं.....भूले से भी कभी नहीं दिखेंगी......और आंसू... पिछले 20 घंटे से धोखा दिये पड़े हैं.....

सोमवार, 4 जुलाई 2011

नाव चली.. नानी की नाव चली





बिजनेस इंडिया टीवी...बीआईटीवी...टीवीआई..देश का पहला इंडिपेंडेंट न्यूज चैनल। तब दूरदर्शन के अलावा जो कुछ रहा था...प्रोडक्शन हाउसों का गोदामी माल.....बिजनेस इंडिया मैगजीन के मालिक अशोक आडवाणी की देश भर में चर्चा। न्यूज के अलावा तीन चैनल और। कई निदेशक, जिनमें शेखर कपूर भी। आडवाणी..बिल्कुल हिप्पी.....लम्बे बाल.....दाढ़ी..शार्ट्स पहन कर चले आते....खुद चलते पुरानी मारुति 800 से.....न्यूज चैनल के तीन सूबेदारों में से एक को मारुति एस्टीम, एक के लिये बाजार में कदम धरने जा रही सिएलो की बुकिंग। स्टाफ के लिये पांच मारुति वैन। तीनों में सिर्फ शाही को टीवी न्यूज की जानकारी...ऐसी वैसी नहीं काफी ज्यादा। भाई को न्यूज एडिट करने से लेकर कैमरे और बुलेटिन कैसे निकाला जाता है॥का सब पता-ठिकाना। यह अतिश्योक्ति नहीं होगी कि आज जो चैनलिया न्यूज आप देख रहे हैं....उसमें शाही का भी योगदान है। टीवी न्यूज के कई तकनीकी शब्द उन्हीं की देन हैं। लेकिन.........समय से पहले सब कुछ मिल जाना कई बार बहुत भारी पड़ जाता है...

राजीव मित्तल

जिस फ्लोर पर न्यूज रूम...सीढ़ियों के दूसरी तरफ टेप लायब्रेरी...मेकअप रूम और स्टूडियो....दोपहरिया में हर कोई कार्पेट पर या किसी दराज के नीचे घुस कर.... आ जा री आ निंदिया तू आ .....करता...(अखबार वाले फोटो भी खींच गये थे).....फिर शाम को कहीं बैठ कर....धूम ताना नाना ना.....काम शुरू होते ही सबकी ड्यूटी लग गयी....कभी सुबह चार बजे...कभी आठ ...तो कभी रात को दस बजे.....पांच किस्म के समय की ड्यूटी ने शुरू में तो खिजाया...फिर... वैन के पहुंचने से पहले ही तैयार.....चार नाइट के बाद चार दिन मज़ा करो..घर में पूछते कि यह कौन सी नौकरी है....पड़ौस में भी खुसुर-पुसुर...

नयी बिल्डिंग में और कुछ भी....
एक छड़ी.. एक घड़ी.. एक तलवार.. एक सलवार.. एक अंडा.. एक डंडा.. एक झंडा.. एक हंडा.. एक धीवर का जाल.. एक घोड़े की नाल.. एक तोता.. एक भालू.. एक लहसुन.. एक आलू.. केला भी.. आम भी.. कच्चा भी.. पक्का भी.. और कई सारे चूजे.....

आनंद जी ने रिपोर्टिग भी करानी शुरू कर दी। सबसे ज्यादा मजा आया अमजद अली खान और उनके बेटों का सरोदवादन कवर करने में....उसके बाद तीनों को एक साथ बैठा कर बातचीत....भेजा था तालमेली में जुटे रहने वाले विष्णु मखिजानी ने....अब वो अक्सर कहीं न कहीं भेजने लगे......लिखने का काम बढ़ गया तो जाना बंद कर दिया।

कई से पहचान पक्की हुई...मधुसूदन श्रीनिवास उर्फ मधु....पेंचकस हमेशा साथ में...जहां कुछ कमी देखते कसना शुरू...मिमिक्री के बादशाह....सुलोचना दास की टकटकाटक बोली की हूबहू नकल...राहुल श्रीवास्तव.....चित्रगुप्ती गुणों का भंडार....स्पोर्ट्स वाला नॉरिस प्रीतम....घर बगल में...अक्सर ले जाकर दिन में ही वोदका पिला देता......नीरज नंदा.....लोनिनवादी...मार्क्सवादी.......दैनिक जागरण वाले मरहूम नरेन्द्र मोहन को योगासन करा कर आ रहे सुरेश सिन्हा.....कौन सा आसन करा दिया कि बाहर कर दिये गये....तस्लाम खान बरेलवी.......राजीव शर्मा....साइकिल के पीछे बैठ कर कौवे पकड़ता.....

कुछ ही दिन बाद मॉसकॉम से निकले रंगरूटों और अखबारों से आये नामुरादों के चलते चहल-पहल और बढ़ गयी.....तमिल आर जी .....पैदा होते ही बोतल थाम ली थी...दूध की नहीं रे....मोहनीश का कमरा लक्ष्मीनगर वाले घर की छत पर......कई रातें हुड़दंगी रहीं। भूपेश पंत..रवि पराशर...धर्मेन्द्र सिंह..निकाशा...सुशील बहुगुणा....और प्रमोद कौंसवाल

फिर एक मगर ने पीछा किया नानी की नाव का....एक-एक को खींचने लगा....चुपके से पीछे से ऊपर से नीचे से..एक बिल्ली का बच्चा...एक मुर्गी का अंडा...एक केला.. एक आम... दोनों पके हुए....एक लहसुन एक आलू...एक तोता..... एक भालू...छड़ी और घड़ी भी गड़प कर गया.....

सबसे पहले मनमोहिनी गयी...बगल में बैठ कर गाने सुनती थी..काम गति पकड़ने लगा तो बम फटा...अजित शाही आजतक लॉन्च करने जा रहे हैं....जी हां मरहूम एसपी सिंह का तो बाद में तय हुआ था.... इंडिया टुडे वालों की पहली पसंद थे शाही....पता चला कि आखिरी रात हुई विदायी पार्टी में उनके संगी-साथियों ने इतना हुड़दंग मचाया कि मामला बिगड़ गया..दो महीने बाद आनंद जी और बादशाह सेन भी चले गये...राकेश जोशी भी.....
अब नंदन उन्नीकृष्णन हेड, प्रोडक्शन इंचार्ज देवाशीष चटर्जी और ब्यूरो के सर्वेसर्वा अशोक सिंह.....
आजतक शुरू हुआ तो विवेक अवस्थी और आशुतोष भी फना हो गए.....

साल पूरा होने से एक महीना पहले सूबेदारों की मीटिंग में चप्पू किसे पकड़ाया जाए और हैया-दैया कौन करे......देवाशीष गुनगुनाए...अब आप निकालिये बुलेटिन......कैसे निकाला जाता है...यह तो मुझे भी नहीं मालूम.....सुनते ही गश आ गया.....संभला तो तीनों सूबेदारों को अच्छी तरह समझा दिया कि जो करूं...करने देना.......अब बुलेटिन कैसे निकालू.....ए मालूम तो बी का पता नहीं.....जेड मालूम तो वाई लापता ....शुरू से उस जगह पर तो कटोरे में कटोरा..बेटा बाप से भी गोरा जमे थे...तभी उस गैंग से निष्कासित कानपुर में साथ रहा प्रदीप अग्रवाल दिख गया। देखो...मैं रोज तुम्हें सुबह इस ठंड में घर लेने आऊंगा.....मयूर विहार से दस+ वहां से उदयपार्क दस=बीस किलोमीटर....तुम दो दिन में मुझे रनडाउन बनाना सिखा दो.....उसके हामी भरते ही अगली सुबह उसके दरवाजे पर.....

केबिन में कदम धरते ही चपरासी को बुलाया....टीवी उठा कर बाहर पटक दो.....इस बेंच को नीचे फेंक दो....जिस पर बैठ....देखो वो चांद करता है क्या इशारे......गाया जाता है......बस....एक कुर्सी...एक मेज... एक कम्प्यूटर....दो घंटे बाद जब कटोरे में कटोरा पार्टी आयी..तो टायं-टूं करती पांव पटकने लगी। सबको बाहर कर दिया कि अपना काम करो....फिर माबदौलत का फरमान....हर चीज माकूल समय पर चाहिये। नंदन ने चलते-फिरते फिकरा कसा....पहले ही दिन से तानाशाही... रन डाउन का काम दो ही दिन में आ गया। बेंच हट जाने से दो लड़कियां नौकरी छोड़ गयीं। भाड़ में जाओ वाला अपना अंदाज कई को भा गया तो कई के दिलों पर आरी चलने लगी। हैया-हैया और चप्पू चालन लय-ताल में आ गये......

और जब लगती रात की ड्यूटी तो......रेलगाड़ी छुकछुक छुकछुक...तड़क ..भड़क..लोहे की सड़क...यहां से वहां...वहां से यहां....सोती हुई मिल गयी शारदा...यहाँ अकेले सब करते करते जान हलकान ....पानी भरा गिलास पलट दिया.....इस्तीफा दे कर चली गयी..

मस्जिद मोठ......नीचे हरा मैदान..मंदिर-मकान...चाय की तीन दुकान....गरमागरम जलेबी....उतना ही गरम समोसा..चटनी अलग से.....लाला की दुकान....पी कर जाओ या बोतल खोल कर बैठ जाओ....बसपा ढाबा......जो घरवाली के हाथ की खा कर आता वो भी एक बार ज़रूर डाकारता...थोड़ा आगे....पुल-पगडंडी..टीले पे झंडी....पानी के सड़े कुंड..पिनपिनाते पंछी के झुंड....लंगड़ाते कुत्ते....डकराते सांड़....कुएं के पीछे बाग-बगीचे..धोबी का घाट..मंगल की हाट....
बुलेटिन बनता.....धरमपुर..करमपुर..पांडवा..खांडवा..तलेगांव..मलेगांव..बेल्लोर...नेल्लोर..
शोलापुर..कोल्हापुर..कोरेगांव..गोरेगांव....मेमदाबाद ..अहमदाबाद...और बीच वाले स्टेशन बोलते रुक रुक रुक रुक

एक महीने बाद ही नानी की नाव से मगर ने कई सारे खींच लिये....खूब खटक-पटक....टपके धांसू किस्म के आंसू......जाने वाले सब नाव में बैठ हैया हैया करते थे....चप्पू कोई नहीं थामता था.....फिर हैया के बदले शुरू हो गया था ......तू गंगा की मौज मैं जमुना का धारा.....जिसने कई जोड़े उलट-पलट दिये......

ट्रांसपोंडर को रूसी उपग्रह से निकाल कर सिंगापुर में ठूंसा गया...तब तक के लिये बुलेटिन निलम्बित.......इंजन रुक गया छोंछों करने लगा.....और डिब्बों के बाहर.... चाय...चाय...चाया... और...और.....याद आयी आधी रात को कल रात की तौबा....दिल पूछता है झूमके किस बात की तौबा