शनिवार, 27 अगस्त 2011

जोगीजी सररा र र र र र र र र र


ताक धिन्ना दिन, धिन्नक तिन्ना, ताक धिनाधिन धिन्नक तिन्नक
जोगीजी सर-र-र, जोगीजी सर-र-र

एक रात में महल बनाया, दूसरे दिन फुलवारी
तीसरी रात में मोटर मारा, जिनगी सुफल हमारी
जोगीजी एक बात में, जोगी जी एक बात में
जोगीजी भेद बताना, जोगीजी कैसे कैसे ?

कांग्रेस का टिकट कटाया बन कर खद्दरधारी
मोरंग की सीमा पर हमने रात में पलथी मारी
जोगीजी सर-र-र

चाहे लोहा, चाहे छोआ, चाहे चीनी कपड़ा
जिसने चाहा, पाया, पूंछरी कांग्रेस का पकड़ा
जोगीजी सर-र-र

बाप हमारा पुलिस सिपाही, बेटा है पटवारी
हाल साल में बना सुराजी, तीनों पुश्त सुधारी
जोगीजी सर-र-र

चच्चा मेरा कण्ट्रोल की चोर-दुकान चलाता
मैं लीडर हूँ खादीधारी, अंगुली कौन उठाता
जोगीजी सर-र-र

रुपैया जोड़ा, पैसा जोड़ा, जोड़ी मैंने रेज़गारी
जिसने मेरा भांडा फोड़ा, उसकी रोजी मारी
जोगीजी सर-र-र

गाँव गाँव में किला बनाया, मुखिया मुखिया मेरे सिपाही
चीनी और किरासन मेरे, होगी जीत हमारी
जोगीजी सर-र-र

सोशलिस्टों को रोज़ सुनाओ, बुरी सेंकड़ों गाली
गोलमाल कर गपतगोल में कर गोदाम लो खाली
जोगीजी सर-र-र

टर्र टर्र करने वाले जितने निसपिटर, एडिटर
सब मेरे थैले के चट्टे, मैं उनका डिक्टेटर
जोगीजी सर-र-र

रघुपति राघव राजा जी का राम धुन जो गावे
राज मन्त्र यह राम बाण है, राज तुरंत ही पावे
जोगीजी सर-र-र

कांग्रेस की करो चाकरी, योग्य सदस्य बनाओ
परम पूज्य का ले परवाना खुल कर मौज उड़ाओ
जोगीजी सर-र-र

खादी पहनो चांदी काटो, रहे हाथ में झोली
दिन दहाड़े करो डकैती, बोल सुदेशी बोली
जोगीजी सर-र-र



राजीव मित्तल


दो मार्च 1950 को किसी पत्रिका के होली अंक के लिए लिखी थी फणीश्वरनाथ रेणु ने यह कविता....देश को आज़ाद हुए मात्र पौने तीन ही साल हुए थे......1942 के आन्दोलन के समाजवादी रेणु का भारतीय राजनीति से पूरी तरह मोह भंग हो चुका था....और वो नेपाल की क्रांति में उतरने जा रहे थे.....उस समय जो कुछ भी भ्रष्ट था वो कांग्रेस के इर्दगिर्द ही था......सत्ता मिलने के बाद के सारे खेल कांग्रेस ही खेल रही थी......वही पक्ष थी और वही विपक्ष और वही रेफरी भी .....हालात आज जैसे ही थे.....पर, नए नए आज़ाद देश की आँखें तब सपनीलीं भी थीं.....कुछ सपने पहले से थे और कुछ दिखाए जा रहे थे .....विपक्ष के नाम पर समाजवादी भले ही छितर चुके थे लेकिन तब भी उनके अन्दर गाय की सी पवित्रता बची हुई थी...लेकिन कुछ ही समय बाद वो भी जाती रही.....फिर कई दलों का पिंड विपक्ष के नाम से किसी घड़े में हमको मिल गया.....लेकिन जिसके फूटते ही उसमें बदबूदार मट्ठा निकला....उसको भी जैसे जैसे सत्ता का स्वाद मिलता गया....भ्रष्टाचार की बदबू फैलती गयी.....अब अन्ना हजारे ने बीड़ा उठाया है देश से भ्रष्टाचार को ख़त्म करने का....और इसके लिए वो अपनी जान से खेल रहे हैं.....

सारा देश उनकी तरफ आशा भरी नज़रों से देख रहा है....कई बुजुर्गों को उनके इस आन्दोलन में 1947 के पहले के दिनों की आभा नज़र आ रही है.....लेकिन अन्ना 50 या 60 साल पीछे के पन्नों को क्यों नहीं पलट रहे, जहां उनकी लड़ाई का स्रोत छुपा है .....उनका सारा ज़ोर लोकपाल बिल और उसके दायरे में राजनेताओं और अफसरों को ही लाने में क्यों है....वो क्यों नहीं समझ रहे कि यह रोग केवल नेताओं या अफसरों तक ही सीमित नहीं रह गया है....अब यह प्लेग का रूप अख्तियार कर चुका है....जिसमें केवल चूहे मारने से काम नहीं चलता....बल्कि कई बार पूरा पूरा घर फूंकना पड़ता है......क्या मीडिया...क्या सेना...क्या डॉक्टर... क्या वकील...क्या जज...क्या शिक्षक....या आम जनता....सब में ये विषाणु पूरी तरह नहीं पैठ चुका है क्या ......

अन्ना, आप क्यों नहीं समझ रहे कि हम भारतीय भीड़ बन कर रह गए हैं और भीड़ बन कर ही सांस ले रहे हैं....भीड़ बनकर ही अपना नेता चुनते हैं.....भीड़ बन कर ही उस नेता के लिए इस्तेमाल होते हैं...भीड़ बन कर ही जातिवाद फैलाते हैं.....भीड़ बन कर ही धार्मिक उन्माद का झंडा बुलंद करते हैं...भीड़ बन कर ही 15 अगस्त या 26 जनवरी को देशभक्त बनते हैं.......भीड़ बन कर ही बापू को याद करते हैं.....वो भी सिर्फ एक दिन.....भीड़ बन कर ही भारत माता की जय बोलते हैं.....भीड़ बन कर ही गंगा स्नान कर पुण्य बटोरते हैं.....भीड़ बन कर ही गंगा या किसी भी नदी की ऐसी की तैसी करते हैं......अन्ना...याद कीजिये जब चीन से युद्ध चल रहा था और सारा देश .....वतन की आबरू ख़तरे में है..........गा रहा था.....और दो साल बाद ही देश का सीमान्त इलाका चीन के सामान से पट गया था......याद कीजिये अन्ना.....जिस वामन दास को गाँधी जी भगवान कहा करते थे.....और जिसका माइक खुद नेहरु ठीक करते थे....उस वामन दास को चोर बाजारिये कंग्रेसिओं ने नेपाल सीमा पर तस्करी करते वक्त बैलगाड़ी के नीचे कुचल दिया था......

अन्ना, और कितना बताऊँ आपको की ऐसे दस हज़ार लोकपाल बिल भी कुछ नहीं कर सकते क्योंकि मियादी बुखार की दवा क्रोसिन नहीं होती.....जब तक इस भीड़ को कतार में खड़े हो समूह बनना नहीं आएगा....आप कुछ नहीं कर सकते...और सबसे बड़ी बात कि भीड़ की कोई सोच नहीं होती......वो केवल दर्शक होती है.....पहले भीड़ को समूह में बदलिए तब आप लोकपाल बिल जैसे भोथरे हथियार को मारक बना पाएंगे......और सबसे पहले उन लाखों एनजीओ की असलियत जान लीजिये.....साल में किसी एक दिन इंस्पेक्शन के समय चेहरों पर रंग पोत कर दो-चार को आदिवासी बना कर लाखों के वारे न्यारे बनाने का धंधा इस देश में चोखा चल रहा है.......
यह ज़रूर है अन्ना...आप बहुत कुछ कर सकते हैं.....लेकिन फौरी सोच से बाहर निकालिए............

शनिवार, 6 अगस्त 2011

उजड़ने बसने का नया अंदाज



राजीव मित्तल

पंद्रह..हां 15 सितम्बर....पल्टून पुल के सामने से बस पकड़ी और नोएडा के सेक्टर बारह में उतर थोड़ा चल कर सेक्टर गयारह...फिर सहारा के विशाल परिसर में। बाहर ही अरविंद झा दिखे तो उन्हें तुरंत थामा....अंदर धंसने का सहारा...आप कब ज्वायन कर रहे हैं...अपने साथ बधवार जी के कैबिन में ले गये...वहीं मिले पंडित उदयन शर्मा.....उदयशंकर...प्रभात डबराल। प्रभात से कई साल की दोस्ती...पांच महीने पहले इंटरव्यू में अपन को परखने वालों में इंद्रजित बधवार भी थे.....उदयशंकर से पहली मुलाकात और....

पंडिज्जी से पहली मुलाकात चंडीगढ़ में रमेश नैय्यर के घर पर और दूसरी....जब संडे आब्ज़र्वर निकालने की तैयारी कर रहे थे...चंडीगढ़ से दिल्ली पहुंचा और फोन कर नॉर्थ या साउथ एवेन्यू के उनके सांसदी बंगले में घुस गया था....बात अच्छे से की... पर निकलने वाले साप्ताहिक अखबार की टीम में लिया नहीं..

देखते ही चहके...तुम कब आ रहे हो....कितने ऑफर लेटर तुम्हारे घर पहुंचाए जाएं.....मैं 21 को ज्वायन करूंगा...किसी ज्योतिषि से साइत निकलवायी है क्या...फिर खुद ही कागज पर कोई गुणा-भाग लगाया...यार..दिन तो बहुत अच्छा चुना है.....लम्बा टिकोगे..अब अपने को चैनल हेड बधवार जी से सेलरी पर बात करनी थी कि इंटरव्यू में जो तय हुआ था उसमें कटौती क्यों.....अरे तुम आओ तो सही..चैनल शुरू होते ही सब ठीक हो जाएगा....

वहां से निकल यहां-वहां टूलने लगा......सहारा का वो कॉरपोरेट विंग इस कदर चकाचक कि मध्यमवर्गीय घबराहट छाने लगी....शुरू होने वाले न्यूज चैनल में ज्वायन किये चेहरे उसी में बैठाए गये थे.....तभी एक जानी-पहचानी आवाज...अरे...हमारे सर जी आ गये....बीआईटीवी में एंकर रह चुकी लुभावनी विभा तैलंग....सुबह के बुलेटिन में ज्यादातर साबका उसी से पड़ता था ...जरा सी गलती पर खूब फटकार झेलती.....कभी बुरा नहीं माना लेकिन ...अब यहां पर भी वही मुरीदपना.....

कम्प्यूटर पर खटर-पटर कर रहा एक चेहरा.. कभी कहीं देखा सा...याद्दाश्त पर जोर डाला ...बीआईटावी में एडिट बे की ओर जाती और उसमें से बाहर आती एक लड़की...हाथ में टेप...नजर और ध्यान गांडीवधारीअर्जुन का चिड़िया की आंख को भेदना जैसा....उसकी आवाजाही कुछ ही दिन रही...तुम बीआईटीवी में क्या कर रही थीं.....चेहरे पर बेहद आकर्षक मुस्कान...आप वहां थे क्या....था क्या...मैं ही था...मैं कुछ दिन ही वहां रही प्रोग्रेमिंग में रही...मुजफ्फरपुर की पंखुरी.......फिर प्रमोद जोशी...देख कर सुखद एहसास....

घर लौटते हुए उदासी छाने लगी.....अब बीआईटीवी छोड़ने का वक्त नजदीक है....परवेज अहमद तो जी न्यूज चले गये....देबू दा को कहना पड़ा नाइट ड्यूटी लगाने को.....वो चार रातें बिता कर ही विदा लूंगा यहां से....उदासी गहराती जा रही...घबरा कर दो दिन के लिये लखनऊ और एक दिन के लिये चंडीगढ़ निकल गया....लौट कर रात भर खूब हल्ला गुल्ला मचाता...समझ गये सब कि चला-चली की वेला है....काम खत्म होने के बाद शरारतें.. हमेशा की तरह....पूरे हॉल की...ऊपर-नीचे से ला कर सारी कुर्सियां एक क्यूबिकिल में भर देता.....जैसे पचासों भेड़ें बाड़े में बंद हों....कोई भी गुजरता तो उस दृष्य पर एक नजर जरूर डालता...चैनल हेड नंदन भी समझ जाते की हरकत किसकी है। दिन की ड्यूटी वाले आते तो कोसते हुए बैठने को कुर्सियां तलाशते और झींकते हुए उस क्यूबिकिल से कुर्सी उठाते.......उन्हीं दिनों एक चस्का और लगा था...नौटंकी टाइप कुछ लिख कर जाना और फिर सबको टैग करना। जाने माने व्यंग्यकार उर्मिल थपलियाल को पढ़ कर खूब आनंद उठाया। उसी विधा को अपना कर अपन ने हाथ आजमाया....दिन ब दिन गहराते जा रहे उदास माहौल को थोड़ा सरका देती वो नौटंकी । भावना तो यहां तक कहती कि इनसबका मंचन होना चाहिये।

आखिरी रात....माहौल में विदायी का संगीत....महफिल वाली रात....सुबह का बुलेटिन निकाल कर सब चले गए...मुझे इंतजार था नंदन का...इस्तीफा जो थमाना था....उदयपार्क से सीधे सहारा में जा कर ज्वायनिंग देनी थी...पास में था मयूरविहार के ही जहांगीर खान का स्कूटर, जिसको एक बार बड़ा सताया था....अपना एलएमएल तो सदियों से नहीं चलाया था...नीचे छोटी सी कोठरी में खड़ा आंसू बहा रहा था....दस बजते ही नंदन दिखे....तो तुम भी चले...कैसे कहूं कि मत जाओ.....बेला स्वरूप की जगह एचआर में कोई और आ गया था.....उस दिन बेला बहुत याद आयी। ज्वायनिंग उसी को दी थी और पहली बार टाइम ऑफिस जैसे सड़ीले शब्द और उससे भी ज्यादा सड़ीले चेहरे के बजाय ह्यूमन रिलेशन की खबसूरत ऑफिसर के दर्शन नसीब हुए थे वीआईटीवी में....उस दिन तो बेला से हड़क भी गया था कि अपना भविष्य इसी कन्या के हाथ में है।

इस्तीफाबाजी कर स्कूटर दौड़ा दिया सहारा की ओर...अंदर पहुंचते ही गर्मागरम कॉफी मिली...कुछ मुस्कान...कुछ गर्मजोशी.....ज्यादातर चेहरे नये नवेले....बीआईटीवी के वो चेहरे भी दिखे...जो कभी-कभी बसपा ढाबे पर ही दिखते थे....अब यहीं मन रमाना था....और हमेशा की तरह जताना था... जो घर फूंकने आपनो वो चले हमारे साथ......