रविवार, 23 अक्तूबर 2011

तमसो मा ज्योतिर्गमय पर हावी हैप्पी दीवाली




राजीव मित्तल

निर्मल वर्मा ने बहुत पहले लिखा था कि भारत में धन का प्रदर्शन अश्लीलता की हद पार कर गया है। निर्मल वर्मा ने यह तब लिखा था, जब देश में समाजवादी व्यवस्था गहरे तक धंसी हुई थी। आज जबकि हर खुशी हर ग़म बाटा के शो केस में सजे जूतों की तरह माल बन कर रह गए हों, तो पैसे का प्रदर्शन अश्लील ही नहीं, फूहड़ता की हदें पार करता हुआ गलीजता को छूने लगा है। वह चाहे किसी धनपशु के नाती या पोते का जसूठन हो या बिटिया की शादी या बेटे की घुड़चढ़ी! या बॉलीवुड की फिल्में हों-जिनमें शरतचंद के देवदास को लंदन में पढ़ाया जाता है, कलकत्ता में नहीं। उसके गांव का घर एक जमींदार की हवेली नहीं, फ्रांस के लुई चौदहवें का पैलेस और चंद्रमुखी का कोठा साम्राज्ञी नूरजहां का महल लगता है। तो सामाजिक-धार्मिक उत्सवों का हाल यह है कि दुर्गापूजा के अवसर पर घरों में लगाए गए पंडाल पूरे आस-पड़ौस की रातों की नींद हराम करते हैं क्योंकि उनमें घटिया फिल्मों के घटिया गानों की धुनों पर और ज्यादा घटिया किस्म के भक्ति के गाने बजते नहीं बल्कि चिंघाड़ते हैं।

इसी तरह दीवाली अब जगमगाती नहीं, कोई रौनक नहीं लाती, कोई पवित्र भाव मन में नहीं लाती बल्कि कान के परदे फाड़ती है। सड़क पर दगने को बिछी दो सौ-चार सौ मीटर या जेब में धरी रुपयों की गड्डियां कम करने की कुव्वत दिखाने और लिम्का रिकार्ड बुक में नाम दर्ज कराने को चाहे जितने किलोमीटर लम्बी पटाखों की लड़ी हर धड़कते दिल को आतंकित करती है, त्योहार या उत्सव का आनंद नहीं देती। देवदास फंस गया है बॉलीवुड के ग्लैमर में, तो 14 वर्ष का वनवास काट कर अयोध्या लौटे श्री राम के आने की खुशी में घर-घर मनती दीपावली शोर-शराबे, प्रदूषण और पैसे के घनघोर प्रदर्शन की कीचड़ में समा चुकी है।

अब कहां है वो चरखी, जो आंगन में नाचती हुई रोशनी बिखेरती थी, कहां है वो सीटी, जो आवाज करती हुई ऊपर जाती थी और कहां है वो फूलझड़ी, जिसे हाथ में लेकर जलाया जाता था, जिसके प्रकाश में खिलखिलाते चेहरे और दमकते थे। कहां है वो मिट्टी के खिलौने, जो बच्चों के मन को भाते थे, कहां है वो शक्कर के खिलौने और खील-लाई, जो दसियों दिन मुंह को मीठा किये रहते थे और कहां है घर-घर की चारदीवारी की मुंडेरों पर जलते दीयों की वो कतार, जो किसी के आने का भीना-भीना संकेत देती हुई पुकारती थी-तमसो मा ज्योतिर्गमय। हर घर में संवलाती शाम को दीये जल उठते थे, और तमसो मा ज्योतिर्गमय का आह्वान शुरू हो जाता था। अब तो हर किसी का मोबाइल टुनटुनाने लगता है, जिसमें से आवाज निकलती है-हैप्पी दीवाली। यार, अबकी किसके यहां फड़ लगेगी? दारू और मुर्गा तो होगा न! मैडम टिम्सी को जरूर बुलवाना यार-अच्छा, अगेन हैप्पी दीवाली-सी यू।

यह हैप्पी दीवाली का वो ज़माना है, जिसमें पाकिस्तान की मुख्तारन माई को बलात्कारी रौंदते हैं और उसे यह पुरुष प्रधान समाज बहिष्कृत तो करता ही है, और कभी उस देश के सर्वेसर्वा रहे मियां मुशर्रफ अमेरिका पत्रकारों के सवालों से झल्ला कर फरमाते हैं-पश्चिमी देशों में बसने के लिये पाकिस्तान की औरतें अक्सर इसी तरह के हथकंडे अपनाती हैं। तो यह सुन किसी का गला नहीं रुंधता, किसी का दिल नहीं कांपता बल्कि उस बलात्कार पीड़िता को ‘ग्लैमर वूमन ऑफ द ईयर’ के सम्मान और पुरस्कार से नवाजा जाता है। कोई बता सकता है कि मुख्तारन माई से हुए बलात्कार में कौन सा ग्लैमर उस अमेरिकी पत्रिका को नजर आया? अगर मरदों के समाज से भिड़ने की हिम्मत ग्लैमर है तो फिर श्री राम का रावण को मार उसकी कैद से सीता को निकालना और फिर सीता का अपनी शुद्धता साबित करने के लिए अग्निपरीक्षा देना तो अपने आप ही बॉलीवुडी-हॉलीवुडी ग्लैमर का सबब बन जाता है। तो श्री राम जी! हैप्पी दीवाली। चॉकलेट खाएंगे? भाभी जी को ज़रूर साथ लाइयेगा..

अब ऐसी ही एक हैप्पी दीवाली का दहशत भरा अनुभव! कुछ साल पहले देश की राजधानी की उस रात की याद कर अब भी रूह फना हो जाती है। कोई हादसे वाली रात नहीं थी वो, दीवाली की रात थी। बी आई टी वी में सुबह का बुलेटिन निकालने की ड्यूटी थी। आधी रात बीत चुकी थी। कुछ सहयोगियों ने कहीं चल कर चाय पीने का प्रस्ताव रखा। सब ऑफिस की गाड़ी से लद चाय तलाशने दक्षिण दिल्ली की तरफ चले। एकाध किलोमीटर चलने के बाद ही दम घुटने की नौबत आ गयी। आसमान से लेकर जमीन तक धुएं का काला परदा टंगा था, किसी एक जगह नहीं, जहां तक निगाह जा सकती है वहां तक..... और हवा में भरी थी बारूद की गंध। रास्ते के किनारों और सड़क के बीचोबीच कुत्तों के मुर्दा शरीर यहां-वहां बिखरे हुए थे। हो सकता है उनमें कोई भिखारी भी रहा हो। पूरा दिल्ली शहर गैस चैम्बर बना हुआ था। सड़कों पर या तो फुल वोल्यूम में म्यूजिक बजाते नशे में धुत अमीरजादों की आलीशान कारें दौड़ रही थीं या खांसते-कूंखते ठेले वाले, जो दिन में उस इलाके में पैर भी नहीं रख सकते। तो, अब दीपावली भी पैसे वाले शोहदों की जेब में फंस कर रह गयी है, जहां तमसो मा ज्योतिर्गमय के लिए कोई जगह नहीं है। एडवांस में हैप्पी-वेरी हैप्पी दीवाली।

सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

हबीब आवाज़




राजीव मित्तल

यही दिन थे। हवा में खुनकी आ चुकी थी। हिमाचल की पहाड़ियां बिल्कुल आंखों के सामने, इसलिये कुछ ज्यादा ही ठंडक। जनसत्ता में चंड़ीगढ़ की वह शाम, हमेशा की तरह । थानवी जी संपादकीय हॉल में आए। हाथ में रविवार का अंक। अजय श्रीवास्तव से बोले....इसमें हेमंत कुमार पर शिरीष कार्णितकर (ऐसा ही कुछ नाम था) ने लिखा है आप आइडिया ले कर लिख दें...हेमंत दा नहीं रहे। इतना कह कर चले गए। अब हाथ-पांव फूलने की बारी अजय की थी....‘मैं (खाकी निक्करधारी) संगीत के बारे में कुछ जानता-वानता नहीं...आप ही लिख सकते हैं।’ मैंने रविवार को एक तरफ फेंका और लिखना शुरू कर दिया। लिखते समय कई बार आंखें भर आयीं....उनके सूखने-सुखाने का इंतजाम कर फिर पेन चलाने लगता। आज 22 साल बाद वही स्थिति है। अहसास कुछ ज्यादा ही गहरा ... संचार क्रांति ने सब कुछ इस कदर जोड़ दिया है कि अगर हेमंत दा दुनिया से गए थे, लगता है कि जगजीत सिंह बेवक्त महफिल से उठे हैं। हेमंत दा को तो केवल गुनगुनाया ही जा सका, लेकिन जगजीत सिंह से तो याराना सा था बरसों से।

80 के दशक के अंत में पहली बार जगजीत को सुना तो आवाज़ में बेहद अपनापन। अपने ही किसी आत्मीय के घर में बैठकर घंटों उनका पहला एलपी सुनता रहा। जब दोनों तरफ खत्म हो जाए तो सन्नाटा बर्दाश्त नहीं होता था, फिर वही आवाज़ सुनने को तबियत मचल उठती। न जाने कितनी बार सुना। रिकार्ड खराब करना है क्या....यह उलाहना भी सुना। उलाहनों की आदत लग चुकी थी क्योंकि उस घर में कई रिकॉर्ड एक के बाद एक पचास बार सुन घिस चुका था।

साल गुजरते गए...जगजीत की आवाज झंडे गाड़ ही चुकी थी। फिर उन्हीं आत्मीय के यहां जाना हुआ। इस बार रात गहरा चुकी थी। सब सो गए थे। नये घर के शानदार ड्राइंगरूम में रखे म्यूजिक सिस्टम पर अपनी नजर पड़ चुकी थी। किसी को जगा कर उसे प्ले करने की सारी जानकारी लेकर बैठ गया। यह भी सूँघ लिया था कि कई सारे कैसेट वहीं किसी खोह में धूल खा रहे जूतों के डिब्बों में पड़े हैं । उनमें कई जगजीत के भी । सुबह पांच बजे तक सुनने के बाद अपने बैग में वो सब कैसेट भरे और नींद में गाफ़िलों को राम-राम बोल कर निकल लिया।
वह जमाना कानपुर का था। जब कम्पनी बाग में संजय ने शानदार छत पर कमरा दिखाया तो फौरन उसको उकसा कर गाने सुनने का इंतज़ाम किया । जो कैसेट खरीदे गए उनमें जगजीत के चार कैसेटों वाला एल्बम भी था। एचएमवी वालों ने निकाला था। इसके अलावा दसियों कैसेट जूतों के डिब्बे से निकाले हुए।

जगजीत ने बहुत साथ दिया कई वीरानियों में। कानपुर के बाद दिल्ली, फिर मुजफ्फरपुर...जबलपुर। नेशनल का म्यूजिक सिस्टम और डेढ़ सो कैसेट से भरा बैग हमेशा साथ चलते।

जगजीत के पास गजल गायिकी की शानदार आवाज ही नहीं थी, गज़लों का उनका चुनाव और उनकी अदायगी ने उन्हें जन-जन दिलों में समा दिया। संगीत की यह विधा कुल मिलाकर महफिलों तक ही सिमटी पड़ी थी, जिसे मुक्त हवा जगजीत ने ही दिखायी। तलत महमूद की रेशमी आवाज फिल्मों तक ही सीमित रही। बेगम अख्तर , हबीब वली मुहम्मद और मेहंदी हसन धनाड्य शौकीनों के ही गायक बने हुए थे, लेकिन ग़ालिब से लेकर हर छोटे-बड़े शायर को हर किसी की जुबान पर जगजीत ने ही चढ़ाया। उन्होंने अपनी अदायगी में जिन वाद्ययंत्रों का इस्तेमाल किया, वह एक तरह की बग़ावत थी संगीत शास्त्र से। लेकिन उनकी इसी बग़ावत के चलते गालिब की शायरी सवा सौ साल बाद फिज़ाओं में फिर नया रंग घोल रही थी। निदां फाजली...कतील शिफाई....बदीर बद्र जैसे न जाने कितने शायर हर दिल अजीज़ बन चुके थे।

जिंदगी तेरी अता है तो ये जाने वाला
तेरी बख्शीश तेरी दहलीज पे धर जाएगा

रविवार, 9 अक्तूबर 2011

जय जवान जय किसान



राजीव मित्तल

दो अक्तूबर को लालबहादुर शास्त्री का भी जन्मदिवस है। लेकिन दिल से या बेदिल से याद महात्मा गांधी ही किये जाते हैं। जेल से ले कर चैनलों पर या स्कूल-कॉलेजों में या चौराहों पर लगी उनकी प्रतिमा की साज-सफाई कर सालाना जापकर्म जैसे-तैसे निपटा ही लिया जाता है। जहां तक शास्त्री जी का सवाल है, हिन्दी के कुछ अखबारों में गांधी जी का फोटो अगर पहले पेज पर, तो शास्त्री जी को कहीं अंदर औपचारिक रूप से टांक दिया जाता है। खैर, शास्त्री जी का महत्व इसलिये नहीं था कि वे देश के प्रधानमंत्री बने। वो तो कई सारे हो लिये, लेकिन 52-53 साल की ऊम्र और उनसे ऊपर वाले जरा सन् 64 की 27 मई को जवाहरलाल नेहरू के न रहने के बाद के क्षण याद करें। क्या उस वक्त ऐसा नहीं लग रहा था कि सारा देश अनाथ हो गया है। नेहरू के बिना भारत की कल्पना भी किसी ने की थी क्या। हर उम्र का भारतीय

उस दिन को अभागा मान बिलख-बिलख कर रो रहा था और यही सोच रहा था कि अब क्या होगा। हर तरफ 1948 की तीस जनवरी की शाम जैसा मंजर नजर आ रहा था। लेकिन 1948 की तीस जनवरी की शाम नेहरू हमारे साथ थे। गांधी के बाद नेहरू..बस। उसके बाद शून्य। गांधी और नेहरू के बाद इसी शून्य को भरने वाले व्यक्ति का नाम लालबहादुर शास्त्री था।

उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद शुरू के महीने कैसे रहे होंगे यह तो याद नहीं, लेकिन यह जरूर लगने लगा था कि नेहरू विहीन भारत समुद्र की लहरों को चीरते पोत की तरह डगमगाये बिना चल रहा है। 1965 का आधा हिस्सा पार होते ही पाकिस्तान से युद्ध छिड़ गया। फिर याद करें वो समय और उन दिनों का मिलान करें 1962 के सर्द दिनों से, जब भारत जूझ रहा था चीन से। तब नेहरू हमारे रहनुमा थे। लेकिन सब तरफ किस कदर अवसाद का माहौल छाया हुआ था। वह अवसाद और उसकी पीड़ा फूट रही थी कैफी आजमी और कवि प्रदीप और न जाने कितने कवियों और लेखकों की कलम से। ....ऐ मेरे वतन के लोगों....गा कर देश भर को लता मंगेशकर की आवाज रुला रही थी। नेहरू जी भर आयी आंखें पोंछ रहे थे। उस पीड़ा को सेल्यूलाइड पर उतार रहे थे चेतन आनंद। उस जैसी पीड़ा का अहसास एक पल को भी हुआ था 1965 में पाकिस्तान से युद्ध करते समय? आजादी के बाद पहली बार सन् 65 के अगस्त और उसके बाद के पांच महीने एक साथ कई धाराओं में भारत और भारतवासियों को जोश के ज्वार से भर रहे थे।

कुल मिला कर डेढ़ साल का शास्त्री जी का प्रधानमंत्री वाला समय मीठी याद बन कई सारी तहों के नीचे दबा पड़ा है। दर्द यही है कि युवा पीढ़ी नहीं जानती और न कभी जान पाएगी उन डेढ़ साल के बारे में। किसी परीक्षा में इस सवाल का जवाब शायद कोई दे दे कि जय जवान जय किसान का नारा किसने बुलंद किया था और हर सोमवार को सारा देश किसके कहने पर एक ही वक्त भोजन करता था ताकि हमें किसी के सामने झोली न फैलानी पड़े।

भुनेगा तो तब ना, जब दाना हो




राजीव मित्तल

देश की दो प्रमुख पार्टियों कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी में इन दिनों झनक-झनक पायल हो रही है। लेकिन न सुर है न ताल है न घंघरू हैं। मुद्दा है अगले आम चुनाव में प्रधानमंत्री कौन होगा। भारतीय
जनता पार्टी के ख्वाब ज्यादा उछाल मार रहे हैं, मानो प्रधानमंत्री पद सामने रखा हो। इसीलिये पार्टी में रार भी ज्यादा ही मची हुई है, जिसे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने और भी भड़का दिया है। पहले सुप्रीमकोर्ट से तथाकथित राहत और राहत मिलने की खुशी में शाही किस्म का उपवास उनके सपनों को चार चांद लगा रहा है। लेकिन यही चार चांद लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली और पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी की रातों को स्याह बनाने पर तुले हैं। मोदी के उपवास स्थल पर पार्टी नेताओं का जो जमावड़ा मनभावन नजर आ रहा था, कुछ ही दिन बाद दिल्ली में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में मोदी की गैरमौजूदगी ढोल बजा रही थी कि भारतीय जनता पाटी में प्रधानमंत्री पद को लेकर ताकधिन्नाधिन शुरू हो गयी है। जो हाथ उपवास स्थल पर मोदी के होठों पर जूस के गिलास नवाज रहे थे, वो उन पर मुट्ठियां तानने में लगे हुए हैं।

खेल की शुरुआत हमेशा की तरह बैठे ठाले चुनाव नजदीक जान आडवाणी जी की रथयात्रा के ऐलान से हुई। उनकी रथयात्रा हमेशा कुछ ऐसी करतबी होती है कि और दलों में गायत्री मंत्र का जाप गूंजता है, तो उनकी पार्टी के नेताओं का अमाशय कमजोर होने लगता है। वैसे इस बार की रथयात्रा एक तरह से नख और दन्त विहीन है। बना भले ही लिया हो, लेकिन भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने से कुछ हासिल होना नहीं उन्हें, क्योंकि कई महीनों से अन्ना हजारे की अनामिका पर उछल रहा है वो। फार्मूला -1 रेस जैसा चार्म भी नजर नहीं आ रहा किसी को उनकी रथयात्रा में। न खुद पार्टी में न पार्टीजनों में न जनता में कोई उत्साह। अगले आम चुनाव में पार्टी क्या हासिल करेगी, इसके बारे में अभी तो सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि चमत्कार शब्द न आशंका से जुड़ा है न संभावना से।

सत्तारूढ़ गठबंधन की आगुआई कर रही कांग्रेस का हाल खुद उसको भी पता नहीं। 2009 के चुनाव में खासी सफलता हासिल करने के बाद उसको प्रधानमंत्री तो पिछली पफॉर्मेंस के आधार पर बैठे-बिठाए मिल गये थे, इस बार कुर्सी उनको काट रही है या उन्हें कटवाया जा रहा है या वो खुद कुर्सी से बेजार हैं, यह समझ से बाहर है। सरकार चलाने के लिये मनमोहन सिंह कौन सा जरूरी पुर्जा हैं यह बात कोई मैकेनिक या इंजानियर भी नहीं बता पाएगा। पार्टी की तरफ से मुंह खोलने वालों की बातों से जाहिर हो रहा है कि ढाई साल बाद वाले चुनाव में युवराज को सत्ता सौंप दी जाएगी। पहले दिग्विजय सिंह बोले...अब दादा भी बोल रहे हैं। दिग्विजय का काम कई सालों से बोलने का ही रह गया है, तो बात आई-गई टाइप लगी, लेकिन प्रणव मुखर्जी के बोलने में ठोसपन और अवसाद दोनों थे। सन् 84 में राजीव गांधी और अब राहुल गांधी यानि उनकी हालत आडवाणी ही जैसी। सरकार के कामकाज को कैसी भी संभावना से जोड़ा जाए, तो धूल उड़ती दिखायी पड़ेगी।

अब एक नजर पूरे राजनीतिक हालात पर डाल लें। 2009 में दोबारा सत्ता में आए अतीव उत्साही कांग्रेसी गठबंधन में जैसे हर कोई अपनी कब्र खोदने में लगा हुआ है। बेताल की तरह विक्रम के कंधों पर लदा हर घोटाला यही पूछे जा रहा कि अब और क्या करना है जल्दी बता, नहीं तो तेरा सिर काट दूंगा। इस वजह से हर कोई अपना सिर अपने हाथ में लिये है..तू कौन मैं खामखां वाला हाल।
भाजपा का फीलगुड सिरके की तरह महक रहा है। उसके पुरोधा आरएसएस ने अपनी छवि से कोई समझौता नहीं किया है। लॉटरी के नम्बर मटके से निकालने का काम उसी का है। जिस दिन जिसका नम्बर आ जाए..कुछ समय की जय-जयकार..कुछ समय बाद फिर महक मार रहे सिरके वाले जार में। तीसरे मोर्चे के अगुआ वामपंथी सब कुछ गंवा कर आईसीयू में ही पड़े थे, अब बाहर बरामदे में डाल दिये गये हैं। उस मरीज जैसा हाल, जिसके घरवालों के पास नसिंगहोम होम का बिल जमा करने को पैसे न हों। बाकी दल अपने मोहल्ले में ही जागरण करवा कर पड़ौसियों की नींद हराम कर रहे हैं।

देश का यह राजनैतिक परिदृष्य देश की आजादी के बाद पहली बार देखने में आ रहा है कि किसी पार्टी के पास करने को कुछ नहीं है। इसीलिये रोटी-बेटी-खेती-किसानी-स्वास्थ्य-शिक्षा-लोकपाल-भ्रष्टाचार-सदाचार -मिल-मजदूर-सावन-भादों -बाढ़-अनावृष्टि-चुनाव-वोट-उम्मीदवारी...न जाने कितने मुद्दों को नन्ही सी जान के हवाले कर दिया गया है। और मतदाता इस कदर बेजार है कि कहीं राष्ट्रीय सरकार का मुंह न देखना पड़ जाए, जिसमें हर पार्टी का करछुल कढ़ाई में घूमता है । यानि एक ऐसी सरकार जो सोमवार का व्रत रख सावन तो किसी तरह काट ले, पर भादों की एक बौछार सब कुछ बहा ले जाए। इसी तरह क्वार की खुशियां कार्तिक को गमगीन बनाएं।