शनिवार, 4 अगस्त 2012

कितने साल हो गए

राजीव मित्तल


कल भी  हमेशा की तरह कहीं खोया हुआ था..अचानक निगाहें बाजार की रौनक पर ठहर गयीं। दुकानें राखियों से सजी हुई थीं..सभी  पर खूब भीड़..वहां से ऑफिस  पांच मिनट की दूरी पर..उन पांच मिनट में बीते समय के सारे खिड़की दरवाजे अपने आप खुलते चले गए..ऑफिस  पहुंचा तो रक्षाबंधन के लिये छुट्टी के कई आवेदन..शाम को चियां से फोन पर बात हुई..यह वाकया बताया तो बोली..आप इस पर लिखिये..अरे नहीं..कितना कुछ खंगालना पड़ेगा..कितना कुछ छिपाना पड़ेगा..पर, वो अड़ गयी..

राखियां दुकानों पर सजी देख दाहिने हाथ की कलाई पर निगाह गयी..उस पर कई दिन पहले का अमरनाथ यात्रा से लौटे मुकेश का लाल धागा बंधा हुआ था। बदरंग हो चुका है..

कनु.. तुम्हें याद है तुमने कब मुझे राखी बांधी थी और मैंने खूब मिठाई खायी थी..
मीठे के पीछे मेरे पागलपन को लेकर तुम कहा भी  करती थीं..मम्मी..इसकी शादी हलवाई की लड़की से करना।

हम दोनों ने कितना वक्त साथ-साथ गुजारा..

बालविद्या  मंदिर स्कूल के  उस कमरे में दो खिड़कियां थीं ..एक सामने..दूसरी बायीं तरफ.. एक पर तुम और एक पर मैं..दोनों से ही आकाश दिखायी पड़ता था..हम दोनों जब कई-कई दिन एक-दूसरे से बात नहीं कर रहे होते थे..या तो किसी किताब में आंखें गढ़ाए होते या उन्हीं खिड़कियों से बाहर झांक रहे होते..अचानक तुम उठतीं..कुछ बना कर लातीं..और प्लेट मेज पर रख देतीं..कमरा उसी तरह खामोशी से भरा होता..फिर तुम अपनी पढ़ाई में लग जातीं और मैं..और भी  अकेला हो जाता..

जब हम दोनों कनखियों से एक-दूसरे को देख देख अबोलेपन से उकता जाते तो मैं मां से तुम्हारी दो महीने पहले की किसी बात की शिकायत करते हुए आंसू बहाने लगता और तुम मुझे चुप कराने में लग जातीं..कमरा फिर गुलजार हो जाता।

तुम पढ़ाई में बहुत तेज थीं..आंखों की पीड़ा के  बावजूद तुम्हारा रिजल्ट शानदार रहता.. और मैं.. बिल्कुल नामुराद..

तुम्हें याद है कनु..मेरे एक्जाम करीब थे..और मैंने किताब खोल के भी  नहीं देखी थी..तुम अपने कॉलेज के एक टीचर को लायी थीं..ताकि मैं फेल न हो जाऊं..साथ में उनका दोस्त भी  था..तुमने मिलवाया..और आदतन बोल पड़ीं..यह गाता बहुत अच्छा है..तो ट्यूशन की शुरुआत गाने से हुई।

तुम्हारा यही राग था..जिससे भी  मिलवाओ..अपनी दोस्तों से..सभी  के यहां तुम मुझे पकड़ कर ले जाती थीं..तो उनके घरवालों से भी ..बस एक ही बात..इसका गाना..

उन बरसातों में हम दोनों भीगते-भीगते भातखंडे म्यूजिक कॉलेज के प्रिंसीपल के रूम में घुसे थे। अहसान जताते हुए बैठा तो लिया था, पर एडमिशन के नाम पर साफ मना कर दिया..आप दो महीना लेट हो गए हैं..तब तुमने गुजारिश की थी..कुछ सुन तो लीजिये..सुना तो फौरन ले लिया..तुम कितना खुश हुई थीं..

होली से दो दिन पहले तुम अपनी एक दोस्त के घर ले गयीं। तुम तो गीता के साथ पढ़ने बैठ गयीं..उसकी मम्मी मुझे गुंझिया बनाना सिखाती रहीं  और मेरे गाने सुनती रहीं । दो बेटियां..बेटा नहीं था..आवभगत खूब होती..फिर तो अगले दस साल तक गीता के घर का मैं सबसे चहेता प्राणी बन गया था..उसके पापा भी  कितना मजा करते थे न हमारे साथ..नीचे मकान मालिक के यहां तक से वाह-वाह की आवाजें आतीं..
हम कितना साथ-साथ रहते थे..हम दोनों ने न जाने कितनी फिल्में देखीं..और..

जहां जाना हो साथ-साथ..तुम पांच फुट की गिट्टी सी.. ..तुझे देखने को तो गर्दन पूरी ऊपर उठानी पड़ती है।

धत्त..अब मैं तुझे कहीं ले कर नहीं जाऊंगी..सब तेरी ही परवाह करते हैं।

मां कहतीं..इसको भी  अपने साथ पढ़ने बैठा लिया कर..पढ़ते तो हैं साथ-साथ..खरीदी कौड़ियों  के मोल..चौरंगी..बेगम मेरी विश्वास..क्राइम एंड पनिशमेंट..ये सब कहानी किस्से नहीं पढ़ो..कोर्स की किताबें..तब तो यह मुझे भी  फेल करा देगा..

तुम्हें याद है उस तोते की..तुम उसे कुछ न कुछ सिखाने में लगी रहतीं..मैं बम्बई चला गया था..एक दिन तुम्हारा फोन आया..तुम रो रही थीं..तोता उड़ गया राजी..तो मैने तुम्हें कितना समझाया था..वैसे तो हम दोनों रायबरेली से ही तोतों के न रहने, उनके उड़ जाने, बिल्ली का शिकार बन जाने का गम पालते और अगली कोशिश में लग जाते। एक बार मैं पेड़ पर चढ़ कर तीन नवजात उठा लाया था। तुमने कितने दुलार से उन्हें बड़ा किया था..इतने छोटे कि पिंजरे में क्या रखते..उस दिन पंख फड़फड़ाए..उड़ान भरी..निकल लिये..कौन किसको दिलासा देता..

मैं एमए करने बाहर चला गया..जब छुट्टियों में आता..तुम पहले से ही सारे प्रोग्राम तय कर लेतीं..जाड़ों में एक स्वेटर बुना हुआ मिलता..तुम एक अमेरिकी लड़की को ट्यूशन दे रही थीं ..वो कमरे में आते ही योग आसन करने लगती..तुम्हारी एक दोस्त थीं भूमा दीदी..उनके पति केजीएमसी में प्रोफेसर थे..उनके यहां कितना जाते थे..

उन दिनों तुम कई सारे काम एक साथ कर रही थीं..पीएचडी..एक और एमए..और..रशियन में डिप्लोमा..तुम्हारे साथ अक्सर यूनिवर्सिटी जाता..तुम अपने प्रोफेसरों से..दोस्तों से मिलवातीं..

रशियन की मैडम साबिरा हबीब..देखते ही ठान लिया कि एडमिशन तो लेना ही लेना है। तुम्हारे हाथ-पांव जोड़े..बड़े नखरे कर उनसे मिलवाया..एडमिशन हो गया..कुछ दिन बाद हम दोनों रूसी भाषा में बात करने लगे।

बाप रे.. तुमने तो कमाल ही कर दिया था.. तुम्हें अपनी क्लास की एक लड़की बहुत पसंद थी..उसे अक्सर घर लातीं..वो मुझे पसंद करने लगी..मैं बेपरवाह..तुम उसकी हामी जान कर मेरे पीछे पड़ गयीं..घर-भर  को इकट्ठा कर लिया ..अनिल जनविजय से खूब सारी बंगाली मिठाई मंगवायी थी तुमने..
मेरे मना करने पर तुम क्या नाराज हुई थीं..ढाई महीने तक बोलचाल बंद..

एक दिन तुम डॉ. मीरा हो गयीं..नाना जी..जब तुम छोटी सी थीं..फ्रॉक पहनती थीं..तुमको यह कह कर बुलाया करते थे..
बस.. फिर..हम दोनों कहीं खो गए..

हाथ में मुकेश का अमरनाथ से लाया धागा बंधा है..बेजान सा..अभी  उतारने का मन नहीं कर रहा लेकिन..

शुक्रवार, 20 जुलाई 2012



 
राजा चंदापुर की कोठी 

राजीव मित्तल

चंदापुर रियासत के राजा  फलाने सिंह कैसे भी हों, जगह लाजवाब।  पेड़ों, फूलों की भरमार और घास के कई छोटे-बड़े मैदान।  उनका वैवाहिक जीवन बिल्लौरी जाम की तरह  एक दिन खनाक की आवाज निकालता टूट गया।  बीवी उन्हें वहीं पोर्च के साथ लगे बरामदे में पड़ी किसी आरामकुर्सी पर बैठा कर वो जा..वो जा.. बच्चों समेत.. और तलाक के वक्त उससे ज्यादा की वसूली.. जो.. बाप ने दहेज में पकड़ाया होगा।  मुकदमे के दौरान अक्सर लखनऊ से रायबरेली आती और राजा साहब को थपडि़या कर..नकद नारायण वसूल कर खिसक लेती..

ऐसे राजा को देखे-सुने दशाब्दियां बीत गयीं, पर एक कुत्ते की कहानी पिछले ही साल सुनी, जो अक्सर जंगल के राजा शेर-और उसकी अर्द्धांगनी को खूब गरिया कर दोनों की दुम से अपनी खाज मिटाया करता था..तो शेरनी तो अब थी नहीं, और जनाब राजा साहब का सिर अक्सर हमारे बल्ले से निकली गेंदों से टकराने  से कई बार बाल-बाल बचा।  उनके महल के अंदर घुस कर और  उनकी कार पर तो हमारी गेंदों ने कई बार कलाबाजियां खायी होंगी।  ऐसे  में जब वो किकियाते हुएअपने दीवान जी को बुलाते -भगाओ इन सबको.. तो हम हंसने के इंतजार में उनके सामने सिर झुकाये खड़े रहते।  धड़  और सिर जैसे कद्दू  पे धरा खरबूजा।  शेरनी गयी तो बकरी को ले आए।  दोनों की सुहागरात के दो-चार दिन बाद ही हमने एक क्लब बना कर उन्हीं के बगीचे में  उन्हीं से फीता कटवा  लिया।  अब हम कैसी भी गेंद  को उछाल कर मारने के लिये स्वतंत्र थे।

अब आइये कोठी का मुआयना कर लिया जाए। राजा साहब की रिहायश इक मंजिला इमारत में।  उसके ठीक सामने मेंहदी की नन्ही-मुन्नी बाड़ से घिरा  बड़ा सा लॉन, जो हमारा स्टेडियम  था।   बीच में बजरी वाला रास्ता..जो खूब ऊंचे गेट तक जाता।  उसी रास्ते से लौटिये तो चलते चले जाइये, बजरी की सड़क खत्म.. पहले एक ढलान, ढलान से लगा कुआं।  फिर कुछ दूर तक ईंट-पत्थर का रास्ता।  फिर कच्ची पगडंडी, जो सामने के पांच दो मंजिला मकानों के ब्लॉक से होती हुई इठलाती चलती और कंकड़-पत्थर पर से होती हुई बाहर सड़क का रास्ता दिखाती, जहां से दूसरा मोहल्ला शुरू।

चंदापुर कोठी का परिसर करीब दस एकड़ का। चारों तरफ ऊंची बाउंड्री का घेरा। किरायेदारों में सबसे आखिरी घर टंडन जी का। एक मंजिला। उसमें बेहद खूबसूरत बगीचा।  वहां से शुरू हुआ जाए तो तीसरे ब्लॉक में अपना घर पहली मंजिल पर।  नीचे चटर्जी मोशाय..हमारे और अग्रवाल साहब के घरों के बीच सीढि़यां।  सीढि़यों से नीचे उतरने पर उसके अगल-बगल दो कमरे..किसी आए-गए को ठहराने के वास्ते। अग्रवाल साहब के नीचे त्यागी परिवार।  चटर्जी, अग्रवाल, त्यागी और मित्तल परिवार में खास समानता..हम दो हमारे दो..

घर के ठीक सामने घास का छोटा सा मैदान..बाहर निकल रहे रास्ते के ठीक बगल में दो गैरेज।  उसके बायीं ओर वाले किनारे पर बड़ा सा खपरैल का बेहद पुरातन झड़ीला मकान..उसमें  सपरिवार वकील साहब की बसावट।  बगीचे वाले टंडन जी के तीन बेटे और शायद इतनी ही बेटियां।  यह तो हुआ कोठी वासियों का लेखा-जोखा।  सात-आठ  लगुए-भगुए भी।  कोठी के  दायें  हिस्से की बाउन्ड्री के उस ओर वोकेशनल स्कूल। राजा साहब के महल के सामने के लॉन से लगा घास का मैदान और फिर ऊंची दीवार,पतंग उड़ाने की मुफीद जगह।   गिरे तो  टांग टूटना  या सिर  फूटना तय।  फलांद कर स्कूल में उगीं सब्जियां जब-तब तोड़ीं।  पकड़े गए तो प्रिंसीपल के सामने हाजिर। उस दिन उनके खाने में हमारी तोड़ी सब्जी जरूर होती होंगी। वो दीवार मंदिर तक। उसके बाद ईंटों की बनी नींवों की कतार। वहां राजा साहब कई सारे मकान बनवाना चाहते होंगे, पर बीवी के साथ चल रही कोर्ट की लड़ाई ने कर उनके अरमानों को खाक में मिला दिया।  उस तरफ उसी स्कूल का खेल का मैदान, जहां कोई दीवार नहीं।  सीमा रेखा पर मिट्टी की मुंडेरी, जो हमारे कर्मो से धराशायी हो चुकी थी।  

 सवा तीन कमरों वाले घर में दो टैरेस..सारे कमरों, रसोई, स्टोर के दरवाजों को चूमता बड़ा सा आंगन..ऊपर छत ..सीढ़ी विहीन....दोनों टैरेस दो कमरों से सटे ..बीच में एक बड़ा कमरा।  दाएं साइड वाले टैरेस से कोठी का पूरा नजारा आंखों के सामने। कुएं के सामने से एक रास्ता दायीं ओर जाता हुआ। डेढ़ गज की चौड़ाई वाले कच्चे रास्ते के दोनों और ईंटें लगी हुई और दोनों तरफ कनेर के फूलों की रंग-बिरंगी बहार। शुरुआत होती विशालकाय नीम से।  रास्ता मंदिर तक जाता।  मंदिर के पुजारी और मंदिर के देवी-देवताओं के अगले साढ़े चार साल सुखदायक नहीं रहे। पुजारी पूजा कम करता, खोखियाता ज्यादा  और देवी-देवता मन्नत मांगते नजर आते।  दोनों पक्षों के दुखों का एकमात्र कारण.. मंदिर की दीवार से सटा अमरख का पेड़..ठिगना..गठीला।
कुछ ही दिन बाद नजर आया प्रदीप ।  सेमल के पेड़ के नीचे बैठ कर दोस्ताना हुआ।  खपरैल वाले घर का राघवेन्द यार नम्बर दो।  मोहल्ले की तरफ निकलती सड़क के पार वाले  ईसाई परिवार का दीपक तीसरा यार।  उसके बाद तो यारों की संख्या बारात निकालने लायक हो गयी।  लड़कियों की एंट्री भी खुली रखी।  लेकिन हम सब का साथी..अमरख का पेड़..।

 घर के किसी भी कोने से झांको, इशारे करता नजर आता।  तब दुनिया की कोई ताकत वहां जाने से रोक   नहीं पाती थी।  पिता की बैठक दरवाजे के पास ही, निकलना उनके सामने से ही, जिसमें खतरे ही खतरे। चूंकि महीने के सात दिन उनको ही  सांस के रोगी बेटे को गोद में लिये रहना पड़ता, इसलिये उस पेड़ से  खुन्नस तो होनी ही थी।  दबे पांव नीचे उतरते ही पंख लग जाते और  वहां पहुंच कर ही थमते।  तने के बीच के खोखल में पैर फंसा कर ऊपर की ओर उछलना और दूसरी शाख  पर अपने को टिका लेना।  मिजाजपुरसी के बाद उसकी हर शाख पर  पहले से ही आसन जमाए  गिरगिटान, गिलहरी, टिढ्डों, पतंगों और पक्षियों से मौज-मस्ती।  फिर गिद्ध की आंख तलाशती उस पेड़ के अमृतफल को, जो रोज-रोज की तोड़ा-तोड़ी से अब फुनगी पर ही बचे थे।  तब टहनी हिलाने से लेकर पत्थर चलाने तक..सारे उपाय।  लॉन में जब क्रिकेट, फुटबॉल, हॉकी टूर्नामेंट  किसी कारण बंद पड़े होते तो अमरख का पेड़ हम 10-12 जनों के आमोद-प्रमोद, झगड़े-फसाद  के  लिये  काफी था।  पेड़ क्या, गॉड फादर डॉन वीटो कारलोन था, सारे मर्जों की दवा।  फिर... जाने का समय आ गया...रोते धोते सब संगी साथी,जिसको जाना है जाता है...। लखनऊ से बहुत दूर नहीं..रायबरेली जा कर चंदापुर की कोठी देखने का कई बार मन हुआ, लेकिन बस एक आशंका उधर जाने से रोकती है....हां, बस यही डर कि अगर अमरख का पेड़ न हुआ तो क्या होगा।
   
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