राजा चंदापुर की कोठी
राजीव मित्तल
चंदापुर रियासत के राजा फलाने सिंह कैसे भी हों, जगह लाजवाब। पेड़ों, फूलों की भरमार और घास के कई छोटे-बड़े मैदान। उनका वैवाहिक जीवन बिल्लौरी जाम की तरह एक दिन खनाक की आवाज निकालता टूट गया। बीवी उन्हें वहीं पोर्च के साथ लगे बरामदे में पड़ी किसी आरामकुर्सी पर बैठा कर वो जा..वो जा.. बच्चों समेत.. और तलाक के वक्त उससे ज्यादा की वसूली.. जो.. बाप ने दहेज में पकड़ाया होगा। मुकदमे के दौरान अक्सर लखनऊ से रायबरेली आती और राजा साहब को थपडि़या कर..नकद नारायण वसूल कर खिसक लेती..
ऐसे राजा को देखे-सुने दशाब्दियां बीत गयीं, पर एक कुत्ते की कहानी पिछले ही साल सुनी, जो अक्सर जंगल के राजा शेर-और उसकी अर्द्धांगनी को खूब गरिया कर दोनों की दुम से अपनी खाज मिटाया करता था..तो शेरनी तो अब थी नहीं, और जनाब राजा साहब का सिर अक्सर हमारे बल्ले से निकली गेंदों से टकराने से कई बार बाल-बाल बचा। उनके महल के अंदर घुस कर और उनकी कार पर तो हमारी गेंदों ने कई बार कलाबाजियां खायी होंगी। ऐसे में जब वो किकियाते हुएअपने दीवान जी को बुलाते -भगाओ इन सबको.. तो हम हंसने के इंतजार में उनके सामने सिर झुकाये खड़े रहते। धड़ और सिर जैसे कद्दू पे धरा खरबूजा। शेरनी गयी तो बकरी को ले आए। दोनों की सुहागरात के दो-चार दिन बाद ही हमने एक क्लब बना कर उन्हीं के बगीचे में उन्हीं से फीता कटवा लिया। अब हम कैसी भी गेंद को उछाल कर मारने के लिये स्वतंत्र थे।
अब आइये कोठी का मुआयना कर लिया जाए। राजा साहब की रिहायश इक मंजिला इमारत में। उसके ठीक सामने मेंहदी की नन्ही-मुन्नी बाड़ से घिरा बड़ा सा लॉन, जो हमारा स्टेडियम था। बीच में बजरी वाला रास्ता..जो खूब ऊंचे गेट तक जाता। उसी रास्ते से लौटिये तो चलते चले जाइये, बजरी की सड़क खत्म.. पहले एक ढलान, ढलान से लगा कुआं। फिर कुछ दूर तक ईंट-पत्थर का रास्ता। फिर कच्ची पगडंडी, जो सामने के पांच दो मंजिला मकानों के ब्लॉक से होती हुई इठलाती चलती और कंकड़-पत्थर पर से होती हुई बाहर सड़क का रास्ता दिखाती, जहां से दूसरा मोहल्ला शुरू।
चंदापुर कोठी का परिसर करीब दस एकड़ का। चारों तरफ ऊंची बाउंड्री का घेरा। किरायेदारों में सबसे आखिरी घर टंडन जी का। एक मंजिला। उसमें बेहद खूबसूरत बगीचा। वहां से शुरू हुआ जाए तो तीसरे ब्लॉक में अपना घर पहली मंजिल पर। नीचे चटर्जी मोशाय..हमारे और अग्रवाल साहब के घरों के बीच सीढि़यां। सीढि़यों से नीचे उतरने पर उसके अगल-बगल दो कमरे..किसी आए-गए को ठहराने के वास्ते। अग्रवाल साहब के नीचे त्यागी परिवार। चटर्जी, अग्रवाल, त्यागी और मित्तल परिवार में खास समानता..हम दो हमारे दो..
घर के ठीक सामने घास का छोटा सा मैदान..बाहर निकल रहे रास्ते के ठीक बगल में दो गैरेज। उसके बायीं ओर वाले किनारे पर बड़ा सा खपरैल का बेहद पुरातन झड़ीला मकान..उसमें सपरिवार वकील साहब की बसावट। बगीचे वाले टंडन जी के तीन बेटे और शायद इतनी ही बेटियां। यह तो हुआ कोठी वासियों का लेखा-जोखा। सात-आठ लगुए-भगुए भी। कोठी के दायें हिस्से की बाउन्ड्री के उस ओर वोकेशनल स्कूल। राजा साहब के महल के सामने के लॉन से लगा घास का मैदान और फिर ऊंची दीवार,पतंग उड़ाने की मुफीद जगह। गिरे तो टांग टूटना या सिर फूटना तय। फलांद कर स्कूल में उगीं सब्जियां जब-तब तोड़ीं। पकड़े गए तो प्रिंसीपल के सामने हाजिर। उस दिन उनके खाने में हमारी तोड़ी सब्जी जरूर होती होंगी। वो दीवार मंदिर तक। उसके बाद ईंटों की बनी नींवों की कतार। वहां राजा साहब कई सारे मकान बनवाना चाहते होंगे, पर बीवी के साथ चल रही कोर्ट की लड़ाई ने कर उनके अरमानों को खाक में मिला दिया। उस तरफ उसी स्कूल का खेल का मैदान, जहां कोई दीवार नहीं। सीमा रेखा पर मिट्टी की मुंडेरी, जो हमारे कर्मो से धराशायी हो चुकी थी।
सवा तीन कमरों वाले घर में दो टैरेस..सारे कमरों, रसोई, स्टोर के दरवाजों को चूमता बड़ा सा आंगन..ऊपर छत ..सीढ़ी विहीन....दोनों टैरेस दो कमरों से सटे ..बीच में एक बड़ा कमरा। दाएं साइड वाले टैरेस से कोठी का पूरा नजारा आंखों के सामने। कुएं के सामने से एक रास्ता दायीं ओर जाता हुआ। डेढ़ गज की चौड़ाई वाले कच्चे रास्ते के दोनों और ईंटें लगी हुई और दोनों तरफ कनेर के फूलों की रंग-बिरंगी बहार। शुरुआत होती विशालकाय नीम से। रास्ता मंदिर तक जाता। मंदिर के पुजारी और मंदिर के देवी-देवताओं के अगले साढ़े चार साल सुखदायक नहीं रहे। पुजारी पूजा कम करता, खोखियाता ज्यादा और देवी-देवता मन्नत मांगते नजर आते। दोनों पक्षों के दुखों का एकमात्र कारण.. मंदिर की दीवार से सटा अमरख का पेड़..ठिगना..गठीला।
कुछ ही दिन बाद नजर आया प्रदीप । सेमल के पेड़ के नीचे बैठ कर दोस्ताना हुआ। खपरैल वाले घर का राघवेन्द यार नम्बर दो। मोहल्ले की तरफ निकलती सड़क के पार वाले ईसाई परिवार का दीपक तीसरा यार। उसके बाद तो यारों की संख्या बारात निकालने लायक हो गयी। लड़कियों की एंट्री भी खुली रखी। लेकिन हम सब का साथी..अमरख का पेड़..।
घर के किसी भी कोने से झांको, इशारे करता नजर आता। तब दुनिया की कोई ताकत वहां जाने से रोक नहीं पाती थी। पिता की बैठक दरवाजे के पास ही, निकलना उनके सामने से ही, जिसमें खतरे ही खतरे। चूंकि महीने के सात दिन उनको ही सांस के रोगी बेटे को गोद में लिये रहना पड़ता, इसलिये उस पेड़ से खुन्नस तो होनी ही थी। दबे पांव नीचे उतरते ही पंख लग जाते और वहां पहुंच कर ही थमते। तने के बीच के खोखल में पैर फंसा कर ऊपर की ओर उछलना और दूसरी शाख पर अपने को टिका लेना। मिजाजपुरसी के बाद उसकी हर शाख पर पहले से ही आसन जमाए गिरगिटान, गिलहरी, टिढ्डों, पतंगों और पक्षियों से मौज-मस्ती। फिर गिद्ध की आंख तलाशती उस पेड़ के अमृतफल को, जो रोज-रोज की तोड़ा-तोड़ी से अब फुनगी पर ही बचे थे। तब टहनी हिलाने से लेकर पत्थर चलाने तक..सारे उपाय। लॉन में जब क्रिकेट, फुटबॉल, हॉकी टूर्नामेंट किसी कारण बंद पड़े होते तो अमरख का पेड़ हम 10-12 जनों के आमोद-प्रमोद, झगड़े-फसाद के लिये काफी था। पेड़ क्या, गॉड फादर डॉन वीटो कारलोन था, सारे मर्जों की दवा। फिर... जाने का समय आ गया...रोते धोते सब संगी साथी,जिसको जाना है जाता है...। लखनऊ से बहुत दूर नहीं..रायबरेली जा कर चंदापुर की कोठी देखने का कई बार मन हुआ, लेकिन बस एक आशंका उधर जाने से रोकती है....हां, बस यही डर कि अगर अमरख का पेड़ न हुआ तो क्या होगा।
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