शनिवार, 13 नवंबर 2010

जुम्मन मियां बता तो दो वोट क्यों दोगे

राजीव मित्तल
जुम्मन मियां इन दिनों बहुत परेशान चल रहे हैं। सिर में अक्सर दर्द रहता है। रात में नींद भी ठीक से नहीं आती। वह दीवार से टेक लगाये एक आंख से सोये और एक से जागे वाली मुद्रा में बैठे थे कि एक मौलवी टाइप नेता उनके पास आए और बोले-देखिये चचा जान, अब मैं आ गया हूं सब ठीक हो जाएगा। इन कम्बख्तों की बातों में तो आइएगा नहीं। इन्हींने आपकी मस्जिद गिरवायी। भगवान कसम, अब हम जो मंदिर बनवाने जा रहे हैं, उसमें एक कोना आपके लिये भी होगा। बस आप हमारा साथ दीजिये, हम जगह-जगह भागलपुरी संस्कृति का प्रचार-प्रसार करेंगे। अमां, वहीं जहां दंगे हुए थे? ओह चचा, मुआफी चाहता हूं। आजकल रोजाना 25 से 30 भाषण देने पड़ रहे हैं तो गड़बड़ा जाता हूं। हां तो मैं कह रहा था कि हमारी पार्टी सत्ता में आने के बाद बिहार में इंसानियत को प्रमुखता देगी न कि हिंदु या मुसलमां को। और हां, उस माय वाले से तो सौ कोस दूर रहें। अच्छा चलूं, मनीषा कोइराला का डांस रखवाया है चौक पट्टी पर, सारा इंतजाम मैं ही देख रहा हूं। वह दरवाजे से बाहर होते कि पीछे वाली खिड़की से सामाजिक न्याय वाले अंदर आ गए।
चचा, यह मरदूद जरूर आपको बरगला रहा होगा। पिछली बार मेरे गले लग कहा था कि जब तक दम में दम है हम एक ही गिलास में पानी पिएंगे और अब कहता है कि इसे तो पायरिया है। देखिये, मैं वो वाला टेप लेकर आया हूं, जिसमें अजमेर वालों ने आपकी कौम के लिये फरमान निकाला है, लेकिन बिजली तो आ नहीं रही, बाद में सुनवाऊंगा। चुनाव का वक्त है इसलिये ज्यादा देर तो नहीं बैठूंगा, पर इतना कहे दे रहा हूं कि दो साल में आपकी सूरत बदल दूंगा। दर्जी भेज रहा हूं अपनी अचकन की नाप दे देना। पायजामा बाद में सिलता रहेगा, बस, एक तो इस भड़भूजे से दूर रहना, दूसरे वो रामनौमी दुपट्टे वाले आएं तो झाड़ू मार कर भगा देना। अचानक बाहर जोर-जोर की आवाजें आने लगीं तो कांखते हुए मियां उठे और दरवाजा खोल कर झांका तो बाहर कई मौलाना एक-दूसरे पर चीख रहे थे-किस पार्टी को वोट देना है इसका फरमान हम जारी करेंगे। तो दूसरे ने छड़ी घुमाते हुए कहा-लाहौल विला कुव्वत, हम जनाब वाजिदअली शाह के जमाने से यही करते आ रहे हैं आप कहां से आ टपके। देखिये मियां, फरमान हम जारी करेंगे, हम अजमेर शरीफ से सिर्फ इस काम के लिये भेजे गए हैं। जुम्मन मियां ने अलकसा कर एक पेड़ की तरफ आंख उठायी तो देखा एक बंदर अपनी बंदरिया की जूं बीनता हुआ खोखिया रहा है।

वोट का कालाजारी समीकरण

राजीव मित्तल
अब तक के जितने चुनाव हुए उनमें वहुत सारे वादों पर थोक के भाव वोट उलीचे गये और जीत कर जिनको जहां पहुंचना था पहुंच गए। वो साइकिल की फटीली गद्दी से उतर स्कार्पियो के काले शीशों से बाहर झांकने लगे, जिसमें हर कड़वा सच, बदबू मारता सच आंखों को बुरा नहीं लगता है और वोट देने वाले एक मीठे झूठ के जाल में फंस मधुमक्खी की तरह छटपटाते रहते हैं। तो वोटर साहेबान, इस बार वोट कड़वे सच पर क्यों न दिये जाएं। मसलन, जिसने आपसे वादा किया है कि वह कालाजार के खात्मे का प्रण करता है और जब तक वह नष्ट नहीं हो जाता वह जमीन पर सोएगा, तो आप उससे कहें कि जब वह कालाजार की बाहों में जकड़ जाए, उसे वोट तभी मिलेंगे और इसके लिये आप उसे किसी मुशहर टोली के उस इलाके तक पहुंचा सकते हैं, जहां कई सारे रामदीनवाओं, उनकी पत्नियों और उनके बच्चों के शरीर काले पड़ चुके हैं और अंतिम सांसे गिन रहे हैं।किसी ने जिनके बाल भी नहीं कटवाए और नहलाया भी नहीं। आप उन्हीं की बगल में उनकी भी चटाई बिछा दें। खाट कतई मत बिछाना क्योंकि दुर्भाग्य से कालाजार का मच्छर दो फुट से ऊपर नहीं जा पाता और खाट पर लेटे किसी शरीर का वो अंग उसे नहीं मिल पाता, जिसको वह डंस सके। लेकिन जब वह ऐंठने लगे तो उसे तुरंत देश-विदेश से मंगा कर फंगीजोन जरूर दिलवा देना क्योंकि राम न करे अगर वह टें बोल गया तो वोटों के खेल का मजा ही क्या रहा। अपने अस्पतालों में फंगीजोन को एस्पिरीन कहते हैं। वैसे यह कालाजार उत्तर बिहार की पसंदीदा बीमारी है, जहां मतदान दूसरे-तीसरे चरण में होने हैं। इसलिये अभी थोड़ा सा मौका है, चूक गये तो पछताने का भी समय नहीं मिलेगा।
उस कालाजारी को डीडीटी भी पिलाया जा सकता है, जो राज्य की सीमा पर किसी सड़क के किनारे किसी ट्रक के इंतजार में ड्रमों में लदा है। वैसे तो यह छिड़कने के काम आता है, लेकिन जब से गुलाबजल का छिड़काव शुरू हुआ है, किसी नूरजहां या किसी जहांगीर ने बदबू मारते डीडीटी को स्वास्थ्य विभाग की फाइल से बाहर करवा दिया है। यूं तो कालाजार के मच्छर को गुलाबजल भी नहीं भाता लेकिन लाल गुलाब को काला करना उसका प्रिय शगल है। कालाजारी वोटर, कालाजारी विधायक और कालाजारी मच्छर है न एक शानदार समीकरण।

बच्चो, अ से अनार नहीं, अपराधी

राजीव मित्तल
क्यों मास्टर जी, अ से तो अब तक अनार ही पढ़ाया जा रहा था। और अनार तो देखने में, खाने में कितना बढ़िया होता है। नहीं मास्टर जी, हम तो अ से अनार ही पढ़ेंगे। मास्टर जी रुंधे गले से बोले-बच्चों, ऊपर से आदेश आया है कि अब अ से अनार नहीं होगा क्योंकि अब अपराधी शब्द खराब लोगों के लिये नहीं है। जैसे ऋ से ऋषि वैसे ही अ से अपराधी, समझे! हां तो बच्चों, अ से?
तभी एक बच्चा खड़ा हुआ और बोला- मैं बतलाऊं मास्टर जी? अ से अपहरण भी होता है और क से कबूतर नहीं कत्ल होता है, ख से खरगोश नहीं खून होता है, आ से आम नहीं आतंक होता है, ब से बकरी नहीं बदमाश होता है, ल से लड़का नहीं लंठई होता है। बस-बस कह मास्टर जी सिर पकड़ कर बैठ गये। काक भुशुण्डि ने बड़े गम्भीर आवाज में गरुड से कहा-देखा वत्स, हिंदी की अक्षरमाला में नये-नये शब्दों का अविष्कार! अभी देखते जाओ। श से शेर नहीं शराब होगा, अ से अनारा भी सामने आएगा और ब से बत्तख नहीं बंदूक निकलेगी इन छोटे-छोटे बच्चों के मुंह से। जब राजनीतिक दल जेबकतरों तक को बुला-बुला कर टिकट थमाने लगेंगे तो यही होगा अब।
महाशय जी, आप बेकार परेशान हो रहे हैं, लालू जी ने कह तो दिया कि उनके दल ने किसी अपराधी को टिकट नहीं दिया। बल्कि पप्पू यादव के लिये तो यहां तक कहा कि उनके जैसे लोग जितनी जल्दी हो साथ छोड़ दें तभी पार्टी का भला होगा। नामाकूल हो तुम, अरे बेअक्ले, लोमड़ी को अंगूर खट्टे कब लगे, जब उसे नहीं मिले न। अभी तो सारी भीड़ लोजपा की तरफ भाग रही है। सुना है पासवान जी ने अपने दो चार सेवकों को सिसली भी भेज रखा है, जहां से माफिया शुरू हुआ था। अगर एकाध हाथ लग गया तो उसे भी टिकट मिल जाएगा। यानी कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा भानुमति ने कुनबा जोड़ा। एक से एक नायाब हीरे तलाशे गए हैं। डोंन भी हैं तो हिस्ट्रीशीटर भी, तो ठेकेदार भी हैं, जो सड़क से लेकर कब्रिस्तान बनवाने का ठेका ठांय-ठायं कर के लेते हैं। उसके बाद सड़क विक्रम का बेताल बन पलों में ही गायब हो जाती है और कब्रिस्तान के मुर्दे खुदकुशी करने पर मजबूर हो जाते हैं। जिनकी पकड़ में ये नहीं आए तो उनके किसी भाई को, किसी भतीजे को, भांजे को या उनके घर की किसी भद्र महिला को ही टिकट थमा दिया।
मतलब नाल तो वहीं गड़ी है न। और जिनको सैंया भी नहीं और कोतवाल भी नहीं, वो माथे पर हाथ रख अपने को चिंघाड़-चिंघाड़ कर सती-सावित्री बता रहे हैं और सुबह शाम हनुमान जी के चरणों में लोट लगा कर बस एक ही वरदान मांग रहे हैं-भगवन, बस एक बार फिर नौ महीने पुराने दिन ला दे, वे सब पके आम की तरह हमारी झोली में टपक पड़ेंगे। तो बेटा गरुड अ से.....तभी पीछे के पेड़ के सुबकने की आवाज आने आयी...बच्चों, अ से अनार ही होता है भूल मत जाना।

बस,जनता इसी तरह अंगूठा छाप बनी रहे

राजीव मित्तल
चुनाव ही नहीं, कनाडा में एक राज्य के विधायक भी बिहार का हाल देख खून के आंसू रो रहे हैं। यहां के कई नामी-गरामी नेता, जो सामाजिक न्याय के छापे वाला घुटन्ना पहन सुर्खरू बने घूम रहे हैं उनको जाकर विधु शेखर झा से अपनी बिहारी दबंगई दिखाते हुए पूछना चाहिये-हां जी, क्या होता है सामाजिक न्याय, जरा बताइये तो! सुना है आप और ही कोई परिभाषा निकाल दिये हैं। देखिये, कनाडा में क्या पूरे विश्व में सामाजिक न्याय का मतलब सबके लिये शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार होता हो, लेकिन हमारे बिहार में सामाजिक न्याय का मतलब है सामाजिक न्याय, बस। यह हमें बहुत तलाश करने के बाद मिला है। आप इसका चेहरा बदलने वाले कौन होते हैं? स्कूलों का छत नहीं है तो पढ़ाई नहीं होती, पढ़ाने को टीचर नहीं है तो पढ़ने के लिये उसका होना जरूरी है क्या, विद्यार्थियों के बैठने को टाट नहीं है तो धरती मां किस लिये है।
किसी नेता के बिटवा के तिलक की वजह से स्कूल बंद कर दिया गया है तो सामाजिक कार्य बंद हो जाएं? गांव के स्वास्थ्य केंद्र में डाक्टर होकर भी क्या कर लेगा बगैर दवाइयों के। और अगर दवाइयां अलमारी में भरी हैं तो वे क्या कर लेंगी बगैर डाक्टर के। जहां तक रोजगार का सवाल है तो हमारे युवक-युवतियों के लिये पूरा देश पड़ा है रोजगार के लिये। उसके लिये बिहार ही क्यों? कई तो आपकी तरह कनाडा में ही रह कर खा कमा रहे हैं। बस हो गया न सामाजिक न्याय। देखो झा जी, ये चल रहे हैं हमारे पब्लिक में भाषण देने के दिन, हमें अच्छी तरह मालूम है कि सामाजिक न्याय क्या होता है। अब हमारे खेल में व्यवधान मत डालो। जिसके लिये आप अभियान छेड़े हुए हो, उसको बोलते बोलते तो हमारा गला ही दुख गया है। गनीमत है कि हर साल इतना नहीं बोलना पड़ता।
देखिये सत्ता में आ गये तो हम आपको अपना मीडिया सलाहकार बना लेंगे, लेकिन अभी आप चुप लगा जाओ। अरे, अभी तक आपका अपहरण भी नहीं हुआ! यह क्या हो गया है बिहार को? हमें दुख है कि आप इस मौके पर आए कि हम बिजी होने की वजह से आपको अगवा भी नहीं करा सके। खैर, कोई बात नहीं, आगे ऐसे कई मौके आएंगे। बस, आप आते रहना। काक भुशुण्डि ने चने के दाने निगल रहे गरुड से कहा-सुभाष चंद्र बोस ने आजादी मिलने से कुछ साल पहले कहा था कि जवाहर बहुत लोकतंμा-लोकतंμा कर रहे हैं, लेकिन जिस देश की जनता सदियों से जहालत में जी रही है, वहां यह लोकतंμा, यह बालिग मताधिकार मजाक बन कर रह जाएगा। पहले कम से कम दस साल जनता को शिक्षित किया जाये, उसके बाद ये अपने मन से अपनी सरकार चुनने काबिल होंगे। बगैर शिक्षा के तो सबकुछ अंधकारमय है। तभी कहीं से एक नेता की आवाज गूंजी, अरे, यही है सामाजिक न्याय का दुश्मन।

वहां मंगल गीत यहां जनाजे

राजीव मित्तल
तीन राज्यों में एक साथ चुनाव हुए। एक मेें पूरे तो दो में अधूरे। चुनाव का तौर-तरीका वही, ईवीएम मशीन वही और वोट डालने वाले भी सभी इंसान योनि के, लेकिन सबसे बड़ा फर्क माहौल का, सामाजिक प्राणी होने की शर्त कमोबेश पूरी करने का और लोकतंμा का नाता वोट से और कस कर जोड़ने का या वोट को बारूद की गलियों से होकर गुजारने का है। हरियाणा भी इसी देश का होने के नाते कम भ्रष्ट नहीं है, लड़की पैदा होते ही उसका गला टीपने में सबसे आगे, वहां का मर्द शराबखोरी में ‘हम किसी से कम नहीं’ वाला, पानी-बिजली की समस्याओं का वहां भी बोलबाला लेकिन वहां लोकतंμा को हाथ-पांव बांध कर घसीटा तो नहीं जा रहा, जो यहां हर चुनाव में बंधक बना दिया जाता है। जिसके हर बूथ पर कहां-कहां से मंगवा कर फौज-फाटा तैनात करना पड़ता है और उसकी संगीनों के साये में वोट डलवाने पड़ते हैं लेकिन मरने वालों की संख्या हर बार बढ़ जाती है।
इस खून-खराबे के पीछे नाराजगी यह है कि अगले ने वोट डाला ही क्यों और डाला तो अपने मन से क्यों डाला। तभी तो हरियाणा में सारी विकृतियों के बावजूद वोट डालने के लिये महिलाएं कोई लोकगीत गाती हुई जाती हैं और यहां अपनी ही अर्थी को कंधा देती हुई। इसीलिये यहां अखबार का शीर्ष शीर्षक होता है ‘खून खराबे की बलि चढ़ा पहला चरण’। यह शीर्षक पहली बार नहीं लग रहा है, दस साल में इससे पहले हुए छह चुनावों का भी यही शीर्षक रहा है। लालू जी, प्लीज, ‘किसलय मुम्बई घूमने गया होगा’ जैसा कोई जुमला न उछालियेगा। पर हां, आपको यह बोलने से तो खुदा भी नहीं रोक सकता ‘देखा, झारखंड में तो एक ही जगह पर सात को उड़ा दिया। हमारे यहां तो 15-20 जगह हुई हिंसा में इतना लोग मरा। हम न कहते थे कि बिहार को बदनाम किया जा रहा है’।
आपका कहा सिर आंखों पर। लेकिन सोचने की बात है कि क्या 10 साल पहले किसी भी चुनाव में बिहार इतना हिंसक होता था क्या! अच्छा चलिये, आपकी बात मान ली। अभी दो बार और होेनी है न वोटिंग, किसी एक में भी किसी भी बूथ पर वोट डालने जातीं महिलाओं के लिये माहौल उत्सवी बना दीजिये। कहीं पर महिलाओं का वो समूह दिखा दीजिये, जिसके होठों से किसी भी बोली का कोई लोकगीत निकल रहा हो। भोजपुरी में तो अब कोई कुछ भी गाने से रहा क्योंकि वहां तो इस समय जगह-जगह रूदन फूट रहा है।

आजा मेरी गाड़ी में बैठ जा

राजीव मित्तल
भारतीय रेलवे दुनिया के सबसे ज्यादा यμिायों को ढोने के मामले में सुविख्यात है और मंμाालय के क्या कहने, वह तो बड़े-बड़े यार्डों और स्टेशनों को ही अपनी मालगाड़ी में लदवा देता है। उसकी यह गाड़ी पिछले कई सालों से वोटों के पहिये पर चल रही है। जैसे हर चुनाव में मुस्लिम वोट बैंक, दलित वोट बैंक चर्चा में आते हैं, उसी तरह बगैर चर्चा में आये यह काम रेलवे मंμाालय चुनाव के दिनों में ही नहीं, आमतौर पर करता रहता है। इस काम में डिपेंड करता है कि ‘वो’ उस पार के हैं या इस पार के।
गरुड की इस हरि अनंतकथा पर काक भुशुण्डि ने जोर से ब्रेक मारा और झल्लाते हुए बोले-यह सब कह कर तू वोटरों को कन्फ्यूज कर रहा है। अभी-अभी कन्फ्यूजन का पहला दौर खत्म हुआ है। उस कन्फ्यूजनी दौर में मरने वालों का फिगर इतना नपुंसक टाइप का है कि दर्ज करते शर्म आती है। खैर, रेलवे की बात कर रहा था न तू, एक के बाद एक तीन हो लिये। अब नाम बोल कर बात कर। नाम लेने से डरता है तो गढ़हरा यार्ड की बात कर। तीनों एक ही मंदिर में एक ही पटरे पर विराजमान ब्रह्मा-विष्णु-महेश नजर आएंगे। महाशय जी, यार्ड तो बहुत सुने यह किस बंदरगाह का है? काक ने लम्बी सांस ली और बोले- हुआ करता था कभी गढ़हरा यार्ड। बहुत पहले कभी ऐसे ही घूमते हुए चाचा नेहरू जब वहां पहुंचे, जहां आज गढ़हरा पोलो मैदान है, तो उन्होंने बेख्याली में एक राजमिस्μाी को बुला कर अपने सामने ही पत्थर कटवाया, तरशवाया और वहां लगवा कर उस पर लिखवा दिया गढ़हरा यार्ड।
उसे उन दिनों शिलान्यास भी कहा गया। उन्होंने वहां कुछ तमाशबीन लोगों से कहा- देखते क्या हो, यही हैं आजाद भारत के मक्का और मंदिर। पर चाचा नेहरू तो अब सपना हो गये, उनके बनाये मक्का में हजयाμाी और मंदिरों में तीर्थयाμाी भी जाते तो इतना न खलता, लेकिन वहां तो अब कबाड़ी तराजू लेकर बैठे रहते हैं और चोरों का आवागमन बगैर तराजू के रहता है। रह गयी वोट झपटुओं की कौम, तो उसके लिये नेहरू कांग्रेसी बन कर रह गये। बड़ी छोटी और बड़ी प्यारी सी कहनी है गढ़हरा यार्ड के कबाड़ में तब्दील हो चुनावी सभी में पोलो का मैदान बनने की। सुनेगा तो सुन-दस साल से गढ़हरा गाथा हिचकोले खा रही है। वहां अक्सर यही होता है कि वो आते हैं लाव लश्कर के साथ और मुंडी ऊपर-नीचे हिला कर चले जाते हैं। उनके जाते ही लश्कर के दो-चार वहीं रुक कविता लिखते हैं। वह कविता जब मेरी समझ में नहीं आयी तो तेरे खाक आएगी? फिर किसी अमावस्या की रात वो भी खिसक लेते हैं तब वहां जमता है बैठका-बोतलें खोली नहीं तोड़ी जाती हैं और सुबह यार्ड का एक हिस्सा खाली-खाली सा नजर आता है। तो महाशय जी, हम यहां क्या कर रहे हैं, गंगा अब जहां-जहां बह रही है, हमें भी वहीं चल कर गोता लगाना चाहिये। नहीं, पहले एकाध का सिर लुढ़कने दे, तब सारा माल बेच कर पोलो भी खेलेंगे।

हवनकुंड से उठता कसैला धुआं

राजीव मित्तल
गरुड और काक भुशुण्डि बरगद के उस पेड़ पर बैठे हैं, जहां से मतदान केंद्र साफ नजर आ रहा है। अभी कुहासा छंटा नहीं है, पर वोटर या उन्हीं जैसे लोग आने शुरू हो गये हैं। सुबह-सुबह जगा दिये गए गरुड ने उबासियां लेते हुए अपने ज्ञान का परिचय दिया-महाशय जी, यह इस देश का महायज्ञ है, जिसमें एक साथ करोड़ों जन आहुति डालते हैं। लेकिन पहले तो यह हर पांच साल में एक ही वेदी पर होता था, अब कभी भी और कहीं भी होने लगता है। बेवकूफ, महायज्ञ जानता है किसे कहते हैं! जिस यज्ञ में अग्नि की लपटें नहीं धुआं निकले वो यज्ञ अपविμा माना जाता है।
रामायण काल में अपने आश्रमों में यज्ञ कर रहे ऋषि-मुनियों के हवनकुंड को राक्षस और दानव अपविμा करते थे, जिस कारण अग्नि प्रज्वलित ही नहीं हो पाती थी। उनका उद्धार किया विश्वामिμा ने। उन्होंने राजा दशरथ से राम और लक्ष्मण को मांग उनसे सारा उत्पात रुकवाया। तुम इसे महायज्ञ कह रहे हो, जिसके होने में 10 हजार महिलाओं को ऊपर वाले से निर्जल और भूखे रह यह कर कामना करनी पड़ रही है कि उनके पति सकुशल घर लौट आएं। यह तो रजिस्टर्ड संख्या है। अनरजिस्टर्ड संख्या तो लाखों में होगी, जिनका यही जाप चल रहा होगा कि वोट डालने निकला घर का कोई भी पुरुष अपने पैरों से चल कर लौटे। और वो देखो वहां, उस बख्तरबंद ट्रक से हथियारों से लैस सीआरपीएफ के जवान उतरे हैं ताकि किसी तरह वोट पड़ जाएं और वे अपनी ड्यूटी निबाह कर लौट जाएं।
तो महाशय जी, राम-लक्ष्मण तो दो ही थे ये तो बहुत सारे हैं! लल्लू, तब एक जंगल में दानव और राक्षस भी 10-20 ही करते थे, आज तो फौज की फौज है। दूर-दूर तक फैले खेत और जंगल, पहाड़, नदी-नाले प्रकति की गोद नहीं रणभूमि हैं, जहां चुन्नू गिरोह, मुन्नू गिरोह, लल्लन गिरोह, टिल्लन गिरोह और पता नहीं कौैन-कौन से गिरोह खेतों में आलू-टमाटर नहीं नाशपाती और सेब जितने साइज के बम तैयार करते हैं। और हाथों में हैं बल्लम, रायफलें, दुनालियां। मुंह पर बंधा है अंगौछा। क्यों महाशय जी? ये सब एक खास किस्म की क्रांति को वो खाद दे रहे हैं, जो जाति के मलमूμा से तैयार होती है, जिसमें धर्म की विष्ठा भी मिली होती है और चौरासी लाख योनियों में जीने की लालसा भी। इस क्रांति में जो खून बहता है वह लाल नहीं, कहीं हरा, कहां गेरुआ तो कहीं काले रंग का होता है। तो फिर चुनाव क्यों? क्योंकि अब यही चुनाव इस खास किस्म की क्रांति के अखाड़े बन गए हैं। अच्छा अब चुप हो जा, देख मतदान शुरू हो गया है, पीं-पें की आवाज आने लगी है।

जिंदा रहने की कोई शर्त तो पूरी करो

राजीव मित्तल
काक जी, ऐसा तो पहली बार देखने में आ रहा है कि मतदाता अपनी दुश्वारियों की टोकरी वोट मांगने वाले पर उडेल कर कह रहा है-पहले इसे साफ करो तब वोट की बात करना। काक भुशुण्डि ने चोंच ऊपर उठायी और बोले-हां गरुड, इसके लिये हमें लालू जी का शुक्रगुजार होना पड़ेगा। उन्हीं के दिखाये सतरंगी इंद्रधनुष को अब तक सब ताक रहे थे, सातों रंग जब मैले पड़ गए तोे आंखें पथराने लगीं इसलिये इस बार मतदाता किसी एक से नहीं हर दल से पांच साल का नहीं पंद्रह साल का हिसाब मांग रहा है।
काक जी, कल बेगूसराय में एक प्रत्याशी परेशान घूम रहा था, पूछा कि बगैर फौज के सेनापति बने कैसे टहल रहे हो प्यारे, वोट वगैरह मांगे, आपकी गाड़ी-जीप-कार्यकर्ता वगैरह सब कहां है? भाई ने पहले तो चाय की गुमटी से लेकर पांच-दस गिलास पानी पिया तब जाकर गले से आवाज निकली-इस चुनाव ने तो मिट्टी खराब कर दी। पहले तो ‘हम विद्या-तुम विद्या’ के नाम पर आसानी से वोट मिल जाते थे लेकिन इस बार जिस वोटर के दरवाजे पर जाओ, वह एक परचा लेकर आ जाता है, न बैठने को कहता है, न पानी पिलाता है। शुरू हो जाता है-वोट पड़वाना है तो पहले यह सब डिमांड पूरी कर दो। एक के यहां तो अंदर से किसी जनानी की आवाज आयी- अरे परचा बाद में दिखाइयेगा, पहले दो बाल्टी पानी मंगवा लो, एक बूंद नहीं है खाना कब बनेगा?
उसने जो परचा पढ़ कर सुनाया उससे दिमाग का मलीदा ही निकल गया है। पूरे गांव के चापाकल चला कर पानी निकालना, सड़क पर 80 किलोमीटर की रफ्तार से मोटरसाइकिल चलाना, बच्चों के स्कूल में उसके भवन की छत पर चढ़ कर पतंग उड़ाना, फिर स्कूल में ही लघुशंका का स्थान तलाशना, उसके बाद बाजार में कोई खाली स्थान तलाश कर अपनी गाड़ी खड़ी करना, रात को बगैर लालटेन जलाए रामचरितमानस की चौपायी गाना, हर एक के घर से पोलिंग बूथ की तरफ चलते हुए कदम नापना, कोई भी घर सौ गज से ज्यादा दूर न हो और फिर धान के खेत में खड़े हो कर गाना-ओ...ओ...मेरे देश की धरती सोना उगले। आप ही बताओ जी मैं कैसे इतने काम कर सकता हूं। सब कहते हैं कि अब तक तो विधायकी आपने की है इसलिये ये सब काम भी आप ही करोगे, तभी वोट पड़ेगा।
गरुड, कुछ समझा तू-इसके होश इसलिये फाख्ता हैं-क्योंकि सब चापाकल सूं.....की आवाज निकाल रहे हैं, किसी स्कूल में भवन ही नहीं है तो छत कहां से होगी, सड़क पर बैलगाड़ी नहीं चल सकती तो मोटरसाइकिल कहां से दौड़ेगी, बिजली का खम्भा बरसों से नहीं है तो लाइट कहां से जलेगी, बाजार में सबकी दुकानें सड़क तक आ गयी हैं, तो गाड़ी कहां से खड़ी करेगा, खेत में बाढ़ का पानी पसरा हुआ है तो धान क्या खाक उगेगा। मतदाताओं की एक शर्त तो इनका पायजामा ढीला किये है। कौन सी काक जी? रात को सोएं तो सुबह का सूरज दिखे और दिन को बाहर निकलें तो शाम को सकुशल घर वापसी। औरत की अस्मत और बच्चों की किस्मत भी इन्हीं के जिम्मे। यह कैसे होगा काक जी, फिर इन्हें चुनाव लड़ने के लिये पैसा और बूथ लुटवाने को गुंडों की फौज कहां से मिलेगी?

हुर्रे, कई मुर्गियों ने अंडे दे दिये

राजीव मित्तल
काक भुशुण्डि पूरे जोश में थे। मूंगफली टूंग रहे गरुड से पूछ बैठे-अच्छा बता, आज के दिन की खास बात क्या है? एमू ने अंडा दिया, गरुड का जवाब रसगुल्ले की माफिक प्लेट में धरा था। अबे, कौन है यह नामाकूल? महाशय जी, यह हमारी-आपकी तरह एक प्रकार की चिड़िया है। जल्द ही पांच और जनेगी। तो इसमें इतना खुश होने की क्या बात है? इसलिये जी कि एक बड़ा सा अंडा मादा देती है और सेता नर है। अच्छा छोड़, और क्या खबर है? महाशय जी, आज बापू की पुण्यतिथि है। अच्छा-अच्छा साल का वो एक और दिन जब गांधी जी की चौक-चौराहों पर लगी हर मूर्ति पर से धूल-धक्कड़ झाड़ी जाती है, चश्मे और नाक पर पड़ी चिड़ियों की बीट साफ की जाती है, अगरबत्ती जला कर कोई माला-वाला भी पहनायी जाती है! बहुत याद आते हैं उन सबको गांधी जी।
उन सबके लिये तो एक या दो दिन ही ऐसे होते हैं जिसमें सब बढ़ चढ़ कर गांधी को याद करने का ऐलान करते हैं। जैसे हर दीवाली पर घर की साफ-सफाई होती है, मकड़े के जाले झाड़े जाते हैं, गांधी को याद करना कुछ वैसा नहीं लगता है गरुड? अच्छा, और क्या खबर है? महाशय जी, मुर्गियां भी अंडे दे रही हैं। यह कोई खबर है बेवकूफ! अभी-अभी तेरी उस ऐमू ने अंडा दिया तो है, अब ये क्यों दे रही हैं? नहीं जी, वो तो चिड़ियाघर में ऐसे ही दे दिया था, ये मुर्गियां विधानसभा का टिकट पाने के लिये अंडे दे रही हैं। लेकिन इन अंडों का होगा क्या, कंडों में भून कर खाये जाए जाते हैं क्या? आप भी महाशय जी कैसी बात करते हैं, समझते क्यों नहीं। ये वो वाले नहीं, बड़े काम के अंडे हैं। क्या इन्हें दूसरी पार्टी वाले की सभा में फेंका जाएगा? नहीं जी, इन्हें सिरके से भरे घड़े में रखा जाएगा। अरे, चाहे स्विस बैंकों के लॉकर में रखा जाए, पर अंडे देने से मुर्गी को टिकट कैसे मिल जाएगा? महाशय जी, जैसे ये अंडे वो वाले अंडे नहीं हैं वैसे ही ये मुर्गियां भी वो वाली मुर्गियां नहीं हैं। निगोड़े, तेरे इस अंडे और मुर्गियों ने तो मेरा हाजमा ही बिगाड़ दिया, कुछ समझ में नहीं आ रहा कि क्या कह रहा है?
अच्छा, अब में अपनी कोड भाषा में बताता हूं-मुर्गी अपनी जान से गयी और मियां जी खड़े मुंह बिचकाते रहे। हां, अब समझ में आयी तेरी बात। कितना-कितना देना पड़ा तेरी उन मुर्गियों को? यही महाशय जी, चार आने, दस आने, आठ आने, सवा रुपया, डेढ़ रुपया और कहीं-कहीं ढाई-तीन भी चला। इडियट, मंदिर में भगवान जी को रिश्वत खिलाने की राशि बतला रहा है तू तो! आजकल ये आने-वाने तो भिखारी भी नहीं लेते। महाशय जी, अगर इन अठन्नी-चवन्नी को एकाध करोड़ से गुणा कर दें तो कैसा रहे। यह सुन काक जी गुनगुनाने लगे-वैष्णव जन...।

अबे पढ़ेगा! देखता नहीं चुनाव सिर पर हैं

राजीव मित्तल
वो आ गये हैं, तुम्हारी क्लासों में खटिया डाल रास्ते की थकान उतार रहे हैं। तुम्हारे ब्लैकबोर्ड पर उस चुनाव बूथ का नक्शा बनाया गया है, जहां वोट पड़ने हैं। जाओ, घर वापस जाओ। एक महीने बाद शक्ल दिखाना। मास्टर जी, स्कूल क्यों बंद हो गया, हमारी पढ़ाई कैसे होगी? हम इम्तिहान में क्या करेंगे? तुम्हें पता नहीं कि कुछ दिन बाद चुनाव हैं! तुम्हारी कक्षाओं में उनके ठहरने का इंतजाम किया गया है। मास्टर जी, वो तो सब वर्दी वाले हैं। उनके हाथ में रायफलें हैं। उनकी बड़ी-बड़ी मूछें हैं, उन्होंने तो गेट पर हमको रोका भी। हां, ये सब अब तक सीमा की रखवाली कर रहे थे। लेकिन मास्टर जी, हमारे चुनाव में इनकी क्या जरूरत? हमारे यहां भी तो इत्ती सारी पुलिस है।
ओफ्फ ओ, कान मत खाओ, यहां की पुलिस उन सबके आगे रिरियाती है, जो अब इनको देख कर कांखेंगे। परीक्षा के लिये क्या तैयारी करें मास्टर जी? वो सब चुनाव के बाद। ट्यूशन पढ़ने घर आ जाया करना। मास्टर जी क्या चुनाव इतने जरूरी हैं कि स्कूल बंद कर दिये जाएं? फालतू बात नहीं। अब जाओ, हमें अपने केंडीडेट के साथ उसका नामांकन करवाने जाना है। उनके सरकारी अंगरक्षक तो वापस हो गये, अब हमीं तो बचे हैं। एक ने एक आंख थोड़ी छोटी कर पूछा-मास्टर जी, इस बार नकल तो होगी न! या इम्तिहान दिये बगैर सब पास हो जाएंगे? अबे, भागता है कि नहीं या दूं एक झापड़? ये तो थी उनकी पढ़ाई की बात जो फिलहाल अभी नौनिहाली के दायरे से बाहर नहीं आए हैं, और जो देश का भविष्य बन मैदान में उतरने वाले हैं उनके टीचरों को यह चुनाव दो-दो हाथ करने का अति शानदार मौका लग रहा है।
तभी तो सबने पहली पंक्ति भूल दूसरी को ‘देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है’ गुनगुनाते हुए नगरी-नगरी, द्वारे-द्वारे कांव-कांव करने का फैसला किया है। काक भुशुण्डि ने गरुड के थोबड़े को हिलाते हुए कहा-अब तू इनसे यह मत पूछ लेना कि सर, इत्ते लाखों लड़के-लड़कियों की पढ़ाई का क्या होगा। उन बेचारों की तो वैसे ही बिहार के बाहर पांव धरते ही परेशानी बढ़ जाती है। सब पूछते हैं कहां से...अच्छा बिहार से....वहां एक्जाम होते हैं क्या...नालंदा के बारे में क्या जानते हो...पप्पू यादव को कौन सी जेल में भेजा जाएगा....अच्छा हम इमला बोलते हैं, जरा लिख कर दिखाओ....रंजीत डॅान के क्या हाल हैं, उनसे मास्टर्स ऑफ यूनिवर्सल लिटरेचर की डिग्री ली कि नहीं, बहुत अच्छी बनाते हैं...गया का तिलकुट और उनकी डिग्री के स्वाद के क्या कहने...आजकल राज्यसभा में हैं या यूनेस्को में...बिपापा, बिजपापा और जीपापा में क्या फर्क है? अबे, सो गया क्या-काक महाशय चिंघाड़े।

ऐसा मत कहो, वे हमारे जनप्रतिनिधि हैं

राजीव मित्तल
फलाना गिरफ्तार, ढिमाका फरार, वो सींखचों के पीछे, तो इनकी जमानत खारिज-यह है बिहार विधानसभा चुनाव की लोकलुभावनी तस्वीर। आपका एक वोट चुनाव में जिन-जिन को जिता कर विधानसभा भेजता है और वहां बिसात बिछा कर आपकी जिंदगी को तीन पत्ती की तरह फेंटा जाता है तो आपको कैसा लगता है? एई, उन गंवार लोगों से क्या पूछता है इधर को आ हम बताएं। किनको अपराधी कहते हो तुम? अपराधी की परिभाषा जानते हो? अपराधी वो जिन पर अपराध साबित हो जाए। यहां क्या अपराध होता है जी, अपराध जाकर देखना है तो ग्वातेमाला जाओ, शिकागो जाओ, मनीला जाओ, कांगो जाओ-अपराध वहां होता है।
यहां तो ये सब आपस की दुश्मनी में फंसा दिये गए हैं। अगर ये अपराधी हैं तो पुलिस क्या कर रही थी अब तक। जी, वो, पांच साल में 19 हजार की हत्या कश्मीर में आतंकवाद के बावजूद ज्यादा संख्या नहीं लगती? और जो 84 हजार हर साल सड़क पर टें बोल जाते हैं वो क्या है, सुनामी में इतना लाख लोग मरा हमने कुछ कहा, उस लुच्चे बुश ने इराक में कितने हजार को मार डाला हमने कभी जिक्र किया, बेबिलोन के बगीचे को बंजर बना दिया हमने उफ भी की, चार साल पहले लादेन के आदमियों ने इत्ती ऊंची-ऊंची बिल्डिंगें गिरा दीं, उसमें सैर कर रहे न जाने कितने सैंकड़ों लोग मारे गए हमने तो बगल वाले को भी कुछ नहीं कहा, तो आपको यहीं क्यों यह सब दिखायी देता है? बिहार बुद्ध-महावीर की धरती है।
गांधी जी इत्ते दिन रहे, उनका बाल भी बांका नहीं हुआ यहां। शेर खां यहीं से गया और शेरशाह बन कर पूरे देश पर राज्य किया। मुगलों की थैया-थैया बुला दी उसने। लेकिन आजाद भारत के आजाद बिहार का अब उन बातों से क्या मतलब? यहीं तो आपकी टुईं बोल गयी न! अरे, बगैर भूतकाल के कैसा वर्तमान और कैसा भविष्य! देखिये राज्य में आज 50 कम पांच सौ गिरोह लोगों की हत्याएं करते घूम रहे हैं....रुकिये, हम आपको असलियत बताएं। वो सब अगल-बगल के राज्यों से आकर खून-खराबा करते हैं और इल्जाम पोत देते हैं हमारे इन लड़कपन्नों पर। काक भुशुण्डि जी का मूड ऑफ हो चुका था। वो गुर्राये-क्या टर्र-टर्र लगा रखी हैं इतनी देर से आयं! टिकट मिलने की खुशी में आज जेल में ही वो सबको मिठाई बांट रहे हैं दो ठो खाते आना और दो लेते आना। वो हमारे जनप्रतिनिधि हैं, कल मंμाी होंगे। उनकी इज्जत करना सीखो।

कहां चला रे तू चितचोर

राजीव मित्तल
पिछले 10 साल में बिहार ने क्या खोया क्या पाया इसकी नाप-तोल कर पाना तो बहुत मुश्किल है लेकिन यह सच है कि किसलय, रॉकी, दीपक और उनके जैसे न जाने कितने लड़के-लड़कियां अपने ‘खैर-ख्वाहों’ के चंगुल से अगर मुक्त हुए तो वे कम से कम इस राज्य में तो नहीं ही रहना चाहेंगे। खुदा कसम, चुनाव के बाद भी नहीं। अपने मां-बाप की हैसियत के अनुसार वे देश के किसी भी कोने में रह कर अपनी जिंदगी बिता लेंगे लेकिन बिहार में नहीं रहेंगे। उसी तरह जैसे पचास अरब का खजाना कहीं और पनाह ले चुका है, उसी तरह जैसे ऐश्वर्य या उस जैसे ने जाने कितने होनहार किसी और राज्य में जा बसे हंैं, न जाने कितने डॅाक्टर, न जाने कितने उद्योगपति, न जाने कितने दिमागदार लोग यहां कभी न लौटने के लिये अपना आशियाना कहीं और बसा चुके हैं। कोई पूछे न उन मां-बाप के दिल से, जिनके बच्चे सुबह पढ़ने स्कूल या कॅालेज जाते हैं फिर उनका एक-एक पल उनके इंतजार में कैसे कटता है।
ऊपर वाले से न जाने कितनी दुआएं मांगी जाती हैं और अगर 10-20 मिनट की देर हो गयी तो पता नहीं कौन-कौन से व्रत रखे जाते हैं। और जिसमें झल्ला कर कहा जाता है कि मुम्बई घूमने गया होगा ‘वो’। जिस ‘वो’ के लिये उसके हर हमउम्र का आज दिल-ओ-दिमाग आंदोलित है। वे स्कूल-कॉलेज जाने के बजाय उसकी मुक्ति के लिये सड़क पर आ गए हैं, उसकी सलामती के लिये दुआएं मांग रहे हैं क्योंकि उनको पता है कि वह मुम्बई घूमने नहीं गया है। क्योंकि उन्हें मालूम है कि वह नेता नहीं है, वह किसी हालत में कर्णधार नहीं कहलाया जा सकता। और वे यह भी नहीं बता सकते कि जिसके लिये उनकी आंखों से आंसू बह रहे हैं वह इस समय कहां है किस हालत में है और वह कब लौटेगा, लेकिन उन्हें यह विश्वास है कि वह मुम्बई घूमने नहीं गया है। यह रोना केवल किसलय के लिये नहीं है, यह रोना ‘मुम्बई गये’ किसलय के लिये नहीं है, यह रोना है उस दुख के लिये कि उनके बाप-दादों के बिहार को कौन सा रोग लग गया है।
यहां की शामें कब तक इतनी खौफनाक रहेंगी, यहां की रातों का सन्नाटा कौन सी किलकारी तोड़ेगी, यहां की सुबह कब मुस्कुराएगी, यहां की दोपहरी कब अपनी होगी। नादिरशाह तो एक बार आया और दिल्ली वीरान कर गया, यहां तो हर कोने में नादिरशाह कुंडली मारे बैठा है। कम से कम कोहिनूर हीरा खुशकिस्मत तो है कि वह लंदन के एक म्यूजियम में शोकेस से दमकता हुआ झांक रहा है। यहां तो हर मां-बाप को अपने कोहिनूरों को घर के अंदर सौ तालों में ही सजाने की मुराद पूरी करनी होगी, घर के दरवाजे से बाहर भेजते समय क्या अब यही करना बाकी रह गया है कि उनके तन पर मिट्टी से सने फटे-पुराने कपड़े हों, पैर नंगे हों और मुंह पर काला रंग पुता हुआ हो ताकि वे सुंदर न लगें, उनके चेहरे या कपड़ों से यह पता न चले कि उनके घर दोनों वक्त रोटी बनती है। काक भुशुण्डि के मुंह से एकाएक निकल पड़ा-और उससे भी बड़ी बात यह कि उनकी वल्दियत का उन कम्बख्तों को पता न चले।

विधायकी का बायोडाटा

राजीव मित्तल
निवर्तमान विधायक जी, आप जरा ये बताएंगे कि 45 बनाम 5 से आपका क्या मतलब है? पहले तो मुझे आपके इस निवर्तमान शब्द पर घोर आपत्ति है, विधायक वो प्रजाति है जिसके अंदर जलकुम्भि के काफी सारे गुण समाहित हैं, उखाड़ते जाओ-उखाड़ते जाओ पर उसका एक पत्ता पानी पर झूमता रहेगा। हम भगवान न करे चुनाव हार भी जाएं तो भी अपने लोग हमें विधायक जी ही कहेंगे। इस बार आपके पार्टी टिकट पर शनि की कुदृष्टि है, आपको कैसा लग रहा है? देखिये, विन्ध्याचल के एक बहुत बड़े साधु ने हमें देखते ही कहा था-बच्चा, तुम साक्षात शनि हो, इसलिये हर शनिवार को मुहल्ले वालों से कुछ तेल अपने ऊपर गिरवा लिया करो, तो शनि की कुदृष्टि का हमारे लिये कोई मतलब नहीं। आपने पिछली बार ‘हजार में तीन सौ चव्वालीस कम’ टाइटिल से एक डाक्युमेंट्री बनवायी थी, उसके पीछे किसकी प्रेरणा थी? उस काम में गोविंद निहिलानी की ‘हजार चौरासी की मां’ का बहुत बड़ा हाथ था। वह फिल्म मैंने रात को 12 से 3 के स्पेशल शो में देखी थी, उसे देख कर मुझे लगा कि एक हजार चौरासी बेटों की मां होना कितना महान कार्य है तो मैंने जो इतने सारे काम कराए, उनका गुूणगान भी कुछ ऐसा ही होना चाहिये। लेकिन अपनी फिल्म में गोविंद जी ऐसा तो कुछ नहीं दिखाते? हां, लाइट चले जाने से मैं फिल्म पूरी नहीं देख पाया, लेकिन उसका मूल मैंने पकड़ लिया। लाइट से याद आया कि आपके क्षेμा में बिजली का इतना बुरा हाल क्यों है? उसके लिये आपने क्या किया? देखिये, बिजली हमारी सम्पदा है और सम्पदा एक कुएं के समान होती है। मेरा अपना मानना है कि कुएं से अगर एक लोटा पानी निकालिये तो दो लोटे पानी उसको वापस कीजिये। इसी तरह बिजली भी हमारी सम्पदा है अगर हम उसे उसका लिया वापस नहीं कर रहे तो उसे खर्च भी न कीजिये। इसलिये लोगों को प्रेरणा देने का बीड़ा उठाते हुए सबसे पहले मैंने जेनरेटर अपने घर में लगवाया।
आज देखिये, घर-घर धक-धक कर रहा है। ये बिजली वाले बेवजह और जगह से काट कर मेरे घर बिजली देने का प्रयास करते हैं, जिसका मैं विरोध भी कर चुका हूं। सुना है कि निर्माण कार्य में तो आपने गजब ढा दिया? हांं, बस कुछ मिμा, जो अपराध की दुनिया से उकता चुके थे, वे मेरे विधायक बनने से भी पहले से पीछे पड़े थे कि भाई साहब हमारे लिये कुछ करो। तो मैंने उनसे यही कहा कि पहले आप सब गांधी जी की समाधि पर जाकर शपथ लो कि अब हिंसा नहीं करोगे, उसके बाद मैंने उन सबको सड़क निर्माण, नाला निर्माण, खड़ंजा, ईंट सोलिंग आदि के ठेके दिलवा दिये। यह काम बारहमासी है, इसमें आदमी कभी खाली नहीं बैठता। आज यहां टूटा, तो कल वहां। तो कल के अपराधी मेरी जनता की खुशहाली में मेरा हाथ बंटाने में लगे हुए हैं। उन्होंने हिंसा का पूरी तरह त्याग कर दिया है।
बस, कभी-कभी मन बहलाने को एकाध का अपहरण कर लेते हैं। पर उसका बहुत ख्याल रखते हैं सब। कुछ लेन-देन से मामला निपट जाता है, इसमें मेरा भी सकारात्मक हस्तक्षेप रहता है। अब आप देख ही सकते हैं कि शहर कितना बदल गया है। तभी कहीं से काक भुशण्डि की आवाज आयी-हां, जैसे सड़क पर बहता नाला, खाद बनाने के लिये जगह-जगह कूड़े के ढेर। हर महीने बनती-टूटती सड़कें, रिक् शे के भार से धसकती पुलिया। बीच में गरुड पिनपिनाया-महाशय जी, कुछ जलपान कर लो। आपका ब्लड प्रेशर हाई जा रहा है।

घोंघा चुनूं या तुम को!

राजीव मित्तल
विधायक जी, अब तक आपने कितने चापाकल लगवाये? गांव-गांव में जी, पर डिमांड इतनी ज्यादा थी कि कम्पनी सप्लाई नहीं कर पाई। इस समय कितने काम कर रहे हैं? देखिये जी, माल कम मिलने से कहीं बांस गाड़ कर हेड लगवा दिया है, तो कहीं चापाकल। पब्लिक ने एक और मौका दिया तो चापाकल को हेड मिल जाएगा और हेड को चापाकल। जनता के लिये पिछले पांच सालों में आपका कोई जनोपयोगी कार्य? जब मैं विधायक नहीं था तो यह नदी यहां नहीं थी, मेरे विधायक बनते ही नदी इधर से बहने लगी। खेतों को सिंचाई के लिये पानी की अब कोई कमी नहीं है। पीने के पानी के लिये लोगों को भी अब दूर-दराज नहीं जाना पड़ता है बस, घर से बाहर निकलते ही पानी। हर बरसात में तो घर-घर पानी। चाहे जितना पियो, चाहे जितना बहाओ। पर खेत तो अब नदी के उस पार हो गये, वहां जाने के लिये क्या इंतजाम है? हमारे क्षेμा का बच्चा-बच्चा केले खाते हुए उसी के तने के सहारे नदी पार करता है। लेकिन नदी का पाट तो काफी चौड़ा है, कभी कोई हादसा घट जाए तो? यही तो, हम आपको यही बताने जा रहे हैं कि हमारे यहां जितनी आबादी पांच साल पहले थी, उससे दो-चार कम ही होंगे इस समय।
हम तो राष्ट्र्पति जी को लिखवा भेजे हैं कि बिना सरकारी सहायता के जनसंख्या कंट्रोल के लिये इस 26 जनवरी को हमें कोई मैडल प्रदान किया जाए। कोई सड़क, विद्यालय, चिकित्सा केन्द्र, कोई पक्का भवन वगैरह? पहले सड़क थी, लेकिन हमने खुदवा दी। दुनिया जानती है कि जहां-जहां सड़क गयी, वहां-वहां पाप बढ़ा। हम नहीं चाहते कि हमारे क्षेμा में किसी तरह की अशांति पैदा हो। विद्यालय से आपका तात्पर्य किसी पक्के भवन में छाμाों को पढ़ा रहे मास्टर से है तो उसके लिये हमारा घर है न! पढ़ाता मेरा लड़का है। और चिकित्सा केन्द्र? सब है जी, भांजा जेल से लौट आया है। वही रोगियों को देखता है। आइये, अब अब हम आपको कामकाजी महिलाओं से मिलवाएं। वो देखिये, उस चौर के किनारे वो सब काम में लगी हुई हैं। अरी रमिया, अरी देवतलिया, आज का काम अभी तक खत्म नहीं हुआ? तुम फिर आ धमके, सुबह से अब तक सिर्फ एक के खाने लायक घोंघे मिले हैं, बाकी चार को क्या खिलाऊंगी?
तभी चार-पांच पुलिस वाले वहीं के दो नौजवानों को धकियाते हुए आते दिखायी दिये। उनको घेरे चल रही भीड़ भारत माता की जय के नारे लगा रही थी। गरुड ने छींक मारते काक भुशुण्डि से कहा-महाशय जी, क्या हम इसे आदर्श विधानसभा क्षेμा का दर्जा नहीं दे सकते? सुनते ही काक जी को खांसी आने लगी।

सन् 39 की बंदूक में 1857 के कारतूस

राजीव mittal
बिहार पुलिस इस बार के चुनावों को लेकर बेहद उत्साहित है। कुछ नये हथियार विभाग के खजाना ए असलाह में ऐसे आए हैं, जिन्हें चलाने के लिये विशेष ट्रेनिंग की जरूरत पड़ती है। थोड़ी देर में उन हथियारों का प्रशिक्षण शुरू होगा। मुख्यअतिथि की कुर्सी पर गुलाबजल छिड़क दिया गया है। मेज पर गुलदाउदी के फूल एक कुल्हड़ में सजे हैं। सारे जवान जैसे-तैसे वर्दी के अंदर ठुंसे सावधान की मुद्रा में खड़े हैं। कुछेक की बनियान फटी लीची के गूदे की तरह बाहर झांक रही है। पैरों में हर प्राचीन-आधुनिक मॉडल के चप्पल, जूते और सेंडिल हैं। मुख्य अतिथि के आते ही बैंड बजने लगा। भाषण भी हुए और रिवाज के अनुसार मुख्य अतिथि ने सबसे आखिर में अच्छी-अच्छी बातें कीं। अब उन हथियारों पर एक निगाह डालने के लिये कुर्सी वाले उठ खड़े हुए और जो खड़े थे वे और तन गए।
मुख्य अतिथि ने एक बंदूकनुमा हथियार हाथ में उठाया और उसे अपने कंधों पर ले जाते हुए अगल-बगल खड़े अफसरों की तरफ मुस्कुराते हुए कहा-वंडरफुल! ऐसी कितनी बंदूकें मिली हैं? सर, साढ़े नौ हजार लम्बी नाल वाली और सवा 11 हजार छोटी नाल की। ये सब तब की हैं जब नाजी जर्मनी ने सोवियत संघ पर हमला किया था। उसी दौरान हिटलर के एक साथी ने, जो बाद में तस्कर बन गया, काफी माल भारत भिजवाया था। साठ साल पहले जिस जहाज से यह असलाह आया था, उसे पिछले ही महीने विशाखापट्नम में कबाड़ियों को बेच दिया गया, जिन्हें जहाज के तहखाने से यह माल मिला। जैसे ही इस बारे में पता चला, हमारी सरकार ने बगैर निविदा के ही उन कबाड़ियों से सस्ते में ये सब खरीद लिया। सर, यह बड़े फख्र की बात है कि अब हमारे किसी जवान के हाथ में लाठी या डंडा नहीं रहेगा। इन बंदूकों की खासियत है कि हर गोली दागने के बाद इनकी नाल को पांच मिनट के लिये पानी में डुबोना पड़ता है। बीस हजार फुट की ऊंचाई पर उसकी भी जरूरत नहीं पड़ती। लेकिन सर, कारतूसों की एक सच्चाई के बारे में आपको बताना अपना फर्ज समझता हूं। हमारे जाबांज सिपाही शायद उन्हें छूने में भी नाक-भौं सिकोड़ें। मुख्य अतिथि के चेहरे पर प्रश्नवाचक चिन्ह तैरने लगा।
सर, इम्फाल के एक कबाड़ी ने जो पांच लाख कारतूस हमें बेचे, पता चला है कि ये वही कारतूस हैं, जिनकी वजह से 1857 में अंग्रेजों के शब्दों में गदर और वीर सावरकर जी के शब्दों में पहला स्वतंμाता संग्राम हुआ था। मुख्य अतिथि ने फौरन कहा-ओह, हाऊ सैड, यह बंदूक पकड़ो, मैं इस बारे में इंक्वायरी बिठाता हूं। काक भुशुण्डि की आंख में सुरमा डाल रहे गरुड ने पूछा- महाशय जी, एके 47 नजर नहीं आ रही किसी के हाथ में? मूरख, लाठी-डंडे वाले हाथों में एके 47 एकदम से नहीं पकड़ायी जाती और जिनके हाथों में वो है वे उन्हें कंधे पर टांगे उनकी कार का दरवाजा, बंगले का फाटक और बोतल का ढक्कन खोल रहे हैं।

बच्चो बजाओ ताली

राजीव मित्तल
आ गये दिन बहार के। इकरार के, इसरार के। उनके वादों ने तो मौसम चक्र को ही बदल डाला। नजर आने लगे आमों पर मंजर, किसी-किसी पेड़ पर तो उनके मुंह और हाथ-पांव तक दिखने लगे, लीची अभी से बेवजह झूलने-झूलने को है। लगता है गिली-गिली करते जादूगरों की फौज आ गयी है। अपना पिटारा खोल उन्हीं में से एक ने यहां-वहां भटक रहे गौरवशाली इतिहास को पकड़ने के लिये चूहेदानी लगाने का वादा किया। यह भी कि उनका शासन मुक्त, चुस्त और दुरुस्त होगा। और यह तीनों गुण तभी आते हैं जब सुबह एक घंटे बिना नागा सांस को खींच कर पंद्रह से तीस सैकेंड रोके रखा जाए। इससे ऊपर वाली ऊपर निकल जाती है और नीचे की नीचे से।
उसके बाद जो बचती है वह इतनी पारदर्शी होती है कि उसे एक बोतल में बंद कर रख देना चाहिये। इससे घर का वातावरण इतना स्वच्छ होता है कि दरो-दीवारें तक पारदर्शी हो जाती हैं। विकासोन्मुखता से भी कई सारे बवाल काटे जाते हैं। इस बार मौका जरूर दें, साबित कर दूंगा कि जीवन बड़ा होना चाहिये लम्बा नहीं। दूसरे ने आते ही आव देखा न ताव म्यान से तलवार निकाली, फिर चारों दिशाओं की तरफ घुमा कर जोर से चिल्लाये-तीन महीने, बस तीन महीने, सुन लिया कि नहीं! उसके बाद नजर आये तो तुम्हारी साविμिायां भी तुम्हें यम के हाथों से नहीं बचा पाएंगी। इनकी पटकथा में किन्हीं बिजलीघरों के खोलने की बात भी है ताकि हरएक में से कांटी थर्मल पॉवर की पुण्य आत्मा झांके, और पटना की अट्टालिकाओं में भी किरासन महके।
तीन महीने वाली ललकार सुन अगले ने फौरन बंदूक उठायी और एक चील को निशाना बना कर दाग दी, चील का क्या हुआ यह तो पता नहीं, लेकिन वे जरूर कंधा सहलाते हुए बोले-महाभारत में अगर घटोत्कच की चली होती तो उसने एक ही दिन में कौरवों का संहार कर दिया होता। हमें सत्ता दो, सारे अपराधी एक दिन में अंतरराष्ट्रीय सीमा के उधर। हमीं ने दर्द दिया हमीं दवा देंगे। तो वो क्यों पीछे रहते-बोल पड़े कि कानून-व्यवस्था के लबादे को झींगुरों ने कुतर दिया है, उसे दर्जी के यहां दे कर रफू कराएंगे। और हां, उस आयोग को भी बिठाएंगे, जो खड़े-खड़े उनके पापों की पहचान कर हमें रिपोर्ट करेगा, तब तक हम पुण्य बरसाएंगे। या खुदा, अब आई उनकी बारी-ए नट्टू, खड़ा क्यों है बैठ जा, आगे कोई न खड़ा हो। पीछे वाले भाईयों को भी तो दिखना चाहिये। तो हम यह कह रहे हैं कि न कोई रहा है न कोई रहेगा! बस, हमें इतना ही कहना है। बाकी आप सबको पता तो है कि हम क्या-क्या कर सकते हैं और क्यों कुछ नहीं करते हैं।

बहना, हमारी तो किस्मत ही फूट गयी

राजीव मित्तल
आज सभी के ‘वहां’ से सिसकियों की आवाजें आ रही हैं। कहीं-कहीं तो यह तक सुनायी पड़ रहा है-मेरी तो किस्मत फूटी थी, तुम इसके चंगुल में कहां से फंस गयीं जीजी? तो अगली ने लम्बी सांस भरी और रुंधे गले से बोली-क्या बताऊं बहना, हमारा तो जन्म ही इसलिये हुआ है कि जिसने मालिक के सामने रुपयों की गड्डी फेंकी, वो हमें हांक ले गया। पता नहीं कौन से पाप किये थे, जो यहां आना पड़ा। दस दिन पहले सासाराम गयी थी, आज भी कमर सीधी नहीं हो रही, रात भर दुखती है। तुम कमर की कह रहो हो, मेरा तो गया से लौटने के बाद से एक पैर ही लचकने लगा है। और यह जो बगल वाली है न जीजी, सीतामढ़ी से शनिवार को लौटने के बाद से ही ऑक्सीजन पर है।
ये उनका दुखड़ा है, जिनके पीछे दुनिया भागती है। इनके शरीर पर यह जो खूबसूरत सा गोदना गुदा है, उससे पता चलता है कि यही हैं स्कार्पियो, सूमो, क्वालिस, सफारी जैसी राजसी ठाठ वाली कारें। हमारे गरीब परवर उमरावों के पास देश-दुनिया की कौन सी कार नहीं है। पांच साला हों या दस साला, कारों के रेवड़ जमा करने में कोई कोताही नहीं। कारें दूध भले ही न देती हों, पर जैसे घर के आंगन में गाय बंधी देख प्रेमचंद का किसान पुलक-पुलक उठता था, इन चौपायों को अपने गैरेज में खड़ा देख इनके गलफड़े फड़कने लगते हैं। चौराहे पर पान खाने भी जाएंगे तो ड्राईवर को आवाज मारेंगे- सब को बाहर निकाल ले, जिसमें मन करेगा उसी में बैठ लेंगे। कुदरत का चमत्कार देखिये कि गाय के भी चार पैर और इनके भी और दोनों का मालिक दोपाया। अब चुनाव का समय है और बिहार की सड़कें इजाजत नहीं देतीं कि इन चौपायों का झुंड इन दिनों यहां-वहां चरता फिरे, इसलिये सबके दलों ने हवा में उड़ने का इंतजाम किया है।
मकरसंक्रांति के बाद से तो मौसम है भी हवाईजहाज से बाहर झांकने लायक। हमने तो भय्या पहले ही बड़े नेता जी को 20 लाख का चैक भेज दिया है ताकि अपने क्षेμा में जाने को किसी चिरकुट का सहारा न लेना पड़े। बाढ़ के दिनों में मजा आ गया था हवाईजहाज पर घूमने का। बाप रे बाप दूर-दूर तक फैला पानी कैसा डरावना दिखता था! जब नीचे भीड़ हाथ उठाए चिल्लाती तो मन करता कि जेब में पड़ी सारी रेजगारी उन्हें ऊपर से फेंक दूं। चलो, वो तो सावन-भादों में फिर देख लेंगे, अब तो चुनाव की तैयारी करनी है। वादों के पर्चो का गटठþर बन गया है, लालकार्ड-पीलाकार्ड के फार्म भी छपवा लिये हैं। चुनाव अफसरों की निगाह बचा कर दो-चार सौ को तो पकड़ा ही दूंगा। फोटो नहीं खिंचवा पाया जल्दी में, तो कोई बात नहीं, तीन साल पहले की फोटो से काम चला लूंगा। लेकिन है सींखचों के पीछे की। क्या फर्क पड़ता है। चुनाव की तैयारियों का ये हाल देख काक भुशुण्डि से रहा न गया और तान भर डाली-रामचंद कह गये सिया से............।

साहब जी, हमरा भी बकाया है उन पर

राजीव मित्तल
पहली बार वो इतने परेशान हैं। सुबह की चाय ठंडी हो गयी, दोपहर के खाने की थाली वैसी की वैसी ही पड़ी है, पर क्या करें सामने मेज पर अब तक तो शिकायती चिट्ठियों का ही ढेर रहता था, अब यहां-वहां-सारे जहां के बिलों की भरमार है। अभी तो जेल में बंद पप्पू, गप्पू, टीपू, छलिया वगैरह के ही मामले नहीं सुलटे हंै, ऊपर से वो, जो कहने को तो घर से भागे हुए हैं, पर रात को सिटिंग अपने ही ड्राईंगरूम में करते हैं, साथ में कई बार थानेदार भी ‘एल्लो मैं हारी पिया’ साथ बैठ कर सुनते हैं। अब इन बिलों का क्या करें? कल रात तो एक घर पर ही टपक गया। कहने लगा, माई-बाप आप ही कुछ करो।
सन् 59 में मेरे पिताजी ने उनके पिताजी को भैंस खरीदने के लिये ढाई हजार रुपये दिये थे। आज छियालीस साल हो गये, अब उनके 16 ट्रक और पच्चीसों साईबर कैफे चलते हैं। चार कोठियों की तो मुझे भी पता है, एक फार्म हाउस भी है लेकिन मेरे पैसे नहीं दे रहे। कहते हैं ऊपर जाकर ले लो मेरे बाप से। यह देखिये कागज भी है मेरे पास। आज बिजली वालों ने दुखड़ा रोया है कि साहब ये सब मिल कर अगर पिछला बकाया चुका दें तो लालटेन की जरूरत नहीं पड़ेगी। करोड़ों का बकाया है। यह बिल कपड़े प्रेस करने वाले का है, उसी पर हाथ से लिखा हुआ है-साहब जी, आप ही कुछ करो, मेरे बकाये की रकम 25 हजार पहुंच गयी है। तो यह होटल वाले का बिल है, वकील के नोटिस की कॉपी के साथ-मेरे मुवक्किल का कभी एक होटल था, जिसके यहां की ग्रिल्ड ऑक्स किडनी दुनिया भर में मशहूर थी, लेकिन अब बेचारा ठेले पर कबाब, बिरयानी बेच रहा है, क्योंकि इसका होटल उन लोगों के निवास के सामने पड़ता था। करीब 112 लोगों पर 10-10 साल की चार-चार हजार प्लेटें बकाया हैं। एक प्लेट किडनी बैठी 68 रुपये की, बिल संलग्न है।
एक और विभाग का खत है, जो मकान अलॉट करता है। लिखा है-ऑनरेबुल सर, फलाने जी को बिना विभाग का मंμाी होने के नाते जो बंगला अलॉट किया गया था, उसे कल बाहर से कुछ लोगों को बुलवा कर खाली कराना पड़ा, क्योंकि पिछले कई सालों से वे मंμाी नहीं हैं, पर बंगला नहीं छोड़ रहे थे। लेकिन अब उस बंगले की हालत देखी नहीं जाती। हर कमरे के चार-चार हिस्से कर दिये गये हैं और हर कमरे के बाहर एक कागज चिपका है कि फलाने को किस दिन मुक्त करना है। दो-चार नाम भी पढ़ने में आये हैं, वे आपसे मिल कर ही बताये जा सकते हैं। पत्नी जब एक बार फिर खाने की याद दिलाने आयी तो वो सज्जन बेसुध हो डॉक्टर को बुलाओ-डॉक्टर को बुलाओ बड़बड़ा रहे थे। देखा नालायक! काक भुशुण्डि दहाड़े गरुड पर, अगर तू नहीं सुधरा तो अगली बार मैं तुझे चुनाव में खड़ा कर दूंगा और तेरी सारी शिकायतें उनको लिख कर भेज दूंगा।

शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

बोलो-बोलो कौन है वो

राजीव मित्तल
गांव अभी बसा नहीं और पत्तलें बिछ गयीं-उनकी काफी समय से चल रही गुहार से इसी उक्ति की गंध निकल रही है। सरसों के फूलों से लदे खेत में नाचते हुए तो इस पहेली के एक जमाने में कई सारे जवाब हुआ करते थे-जैसे हिया, जिया, दिया और पिया। अब नाच-गाना बंद है तो पहेली का जवाब सत्ता की कुर्सी ही फिट बैठ रहा है। लेकिन ऐन चुनाव के वक्त और वो भी ऐसी पार्टी में, जिसके विधायकों से विधायक निवास की कुठरिया भी न भर पाये, उस बदहाली में ‘मां मुझे बस वो कुर्सी दिलवा दे’ की रट का क्या अर्थ।
यह तो वही बात हुई कि लड़की की फोटो देखते ही उसे दुल्हन मानने लगना। अरे भाई लड़की से, उसके घर वालों से भी तो पूछ लो कि आप उसे कैसे लग रहे हो। काफी समय तक वाजपेयी जी के कान खाते रहे कि मुझे कुच्छ नहीं चाहिये बस बिहार दे दो। वाजपेयी जी ने पलट कर शायद यह नहीं पूछा कि विधानसभा में अपन कितने हैं प्यारेलाल। वैसे भाई जी बहुत कुछ हैं। अमेरिका में होते तो रीगन जूनियर के नाम से जाने जाते। लेकिन अपने देश में भी कम भारी नहीं पड़ रहे। इस बार उनका कुर्सी-राग रांची में कई दिन पहले हुई एक महफिल से ही बज रहा है।
मंच पर बैठे पार्टी के सबसे बड़े नेता, उनसे नीचे के कई नेता और हजारों अद्र्ध नेता-अद्र्ध कार्यकर्ता और सामने नीचे बैठे प्योर कार्यकर्ता सब एक से दूसरे यही पूछने लगे कि इन्हें क्या हो गया है। अरे भई, पहले तो चुनाव हों, फिर इतनी सीटें मिलें कि राज्यपाल के पास जाने की मन में तरंगें उठे तभी तो सोचा जाए कि मुख्यमंμाी कौन होगा। यह नहीं देखते कि 34+38 के जोड़ से टुइंया भी नहीं बन पाओगे। लाला, 122 चाहिये 122! यह तक नहीं देख रहे कि हर जगह मार मची हुई है, मामला संभालने के लिये चचा-ताऊ को बुलवाना पड़ रहा है लेकिन इनकी सुर्इं वही रिकार्ड बजा रही है- कौन है वो, कौन है वो?
काक भुशुण्डि ने बाहर से मस्तानी चाल से चले आ रहे गरुड पर ताना मारा-बस ऐसे ही छिछौर बन घूमते रहना, कहां गये थे? बाहर पेड़ पर बैठा था जी। काक जी, वो ऊपर देखिये, हवाईजहाज ऊपर चक्कर ही काट रहा है नीचे नहीं उतर रहा। तभी बाहर से भोंपू पर कई आवाजें सुनायी दीं-सतरु भैया, पायलट बहुत परेशान है, तेल खत्म होने वाला है आप नीचे क्यों नहीं आते? जनसभा में सभी नेता बोल चुके, आपके लिये ही सबको बैठाए रखने को धर्मेंन्दर जी से शोले के डायलॉग बुलवाये, अब हेमा जी से भजन गवाये जा रहे हैं। काफी नीचे आ गये प्लेन से माइक पर किसी के दहाड़ने की आवाज आयी-अबे चुप बुड़बक, पहले आडवाणी जी से पूछ के आ-कौन है वो?

माता लगा..आ..आ बेड़ा पार

राजीव मित्तल
टिकट मिला तो 10 मन लड्डू पक्के धनुर्धारी! और कहीं विधायक बनवा दिया तो इस मैली-कुचैली धोती की जगह बनारसी रेशम बंधवाऊंगा, कानों में सोने के झुमके, गले में चांदी का हार। यह सुन बगल में बैठी घरवाली ने कोहनी मारी-सीता मैया को भी तो खुश करो। हां-हां, मैया के लिये सोने के कड़े। तो दूसरे मंदिर में- तेरी चौखट पर हर गुरुवार को सारे काम छोड़ कर मत्था टेका है दुखहरण! पिछली बार जरूर मेरी श्रद्धा में थोड़ी कमी रह गयी होगी तभी वो कम्बख्त कनखजूरा जीत गया। इस बार कोई कमी नहीं रहने दूंगा। विधायक बन जाने पर सरकारी निवास में ही तेरा मंदिर बनवाऊंगा। अब जरा वैष्णों देवी और तिरुपति जी के भी दर्शन कराऊं। शिरडी की याμाा मंμाी बनने पर। इस तरह आजकल हर धामिर्क स्थल ओवरफ्लो कर रहा है। दूसरा दृष्य-ज्योतिषि μिाकोणाचार्य यजमान के पैरों की छाप वाले कागज को निहार रहे हैं। सामने पूरा कुनबा बैठा है। ..चार्य जी ने कुछ बड़बड़ाते हुए अंगुलियों पर हिसाब लगाया। फिर यजमान से पूछा-आपने टिकट किसी फूल वाली या रौशनी देने वाली पार्टी का ही लिया है न? नहीं पंडित जी, उनका तो मिल ही नहीं रहा तभी तो आपको बुलवाया है कि कुछ कीजिये। देखो यजमान, तुम्हारी दुश्मन बल्ब की यह रौशनी ही है। बिजली आने पर जले तो जले, लेकिन जेनरेटर चला कर मत जलाना। सबसे अच्छा तो यही होगा कि घर के सारे बल्ब शुक्रवार से गुरुवार तक के लिये फोड़ दो। अगले शुक्रवार को घर अपने आप जगमगा उठेगा। रौशनी देने वाले दल का टिकट ही नहीं मिलेगा, रणभूमि में तुम विजयी भी होगे। आबकारी मंμाी बनने का भी योग है। लेकिन पंडित जी मैं तो 10 दिन पहले ही हाथी वाली का साथ छोड़ साइकिल वालों के साथ आया हूं! इस वजह से रौशनी वालों ने पीछे कुत्ते तक छोड़ दिये। क्या श्वान वाली कोई पार्टी है, तुम्हारे लिये बड़ी फलदायक रहेगी? नहीं पंडित जी। देखो यजमान, साइकिल और हाथी दोनों की तुमसे दुश्मनी है और वे ही टिकट को तुमसे दूर कर रहे हैं। तो अब क्या करूं पंडित जी? 10 तोले का सोने का हाथी और उसी धातु की पांच तोले की साइकिल बनवा कर गणतंμा दिवस से पहले ही मेेरे घर के पास वाले तालाब में डलवा दो। फूल वाला टिकट तो कहीं नहीं गया। तभी बगल वाले घर में ‘माता लगा..आ...आ.. बेड़ा पार’ गंूजने लगा। गरुड़ को भी गुनगुनाते देख काक भुशुण्डि गुर्राये-मूढ़, माता का भजन उस भद्दे ‘कांटा लगा’ की धुन पर गाया जा रहा है! झूमना बंद कर। यह सुन गरुड को शेफाली जरीवाला याद आने लगी।

दुल्हा बन कर लौटना दिल्ली से

राजीव मित्तल
चुनाव बिहार विधानसभा के हैं पर टिकट तय दिल्ली में हो रहे हैं। इसलिये दिल्ली से लौट रहा हर नेता आज की डेट में किसी दुल्हे से कम नहीं चाहे टिकट मिले या आश्वासन की पर्ची। दिल्ली दूर है और न ही रह गया अब शेरशाह सूरी का जमाना, नहीं तो नेता जी चमचों की फौज के साथ घोड़े पर बैठ कड़बड़-कड़बड़ करते ही लौटते। हवाईजहाज से भी लौट सकते थे, लेकिन दिक्कत यह है कि उसमें अगल-बगल का याμाी उनकी ओर देखना ही नहीं चाहता, पहचानना तो दूर रहा। उसे यह भी मालूम नहीं कि वह दो साल कुर्सी पर बैठ चुके हैं और ऊपर के कितने करीब हैं। बस, नंगी तस्वीरों वाली कोई विदेशी मैगजीन में रमा रहता है। सड़क के रास्ते हुंडई या होंडा जैसी कारों का जुलूस निकाल कर भी वापसी हो सकती थी, मजा भी खूब आता, पेड़ों से अमरूद तोड़ कर खाते हुए आते, रास्ते में पड़ने वाले गांव-गोट के लोग भी देखते कि कोई नेता जी जा रहे हैं। पर, कमबख्त सड़कों के गेटअप ने अरमानों पर पानी फेर दिया। हाथ-पैर तुड़वाने से अच्छा है कि ट्रेन की एसी बोगी ही बुक करा ली जाए। अब तो वैसे भी कई दिन इन्हीं सड़कों पर ही मारे-मारे फिरना है। वल्लाह, रेलगाड़ी के एसी डिब्बे की बात ही कुछ और है। याμाा भर में जयजयकारा चलता रहता है। किसी भी स्टेशन पर गाड़ी रुकवा कर अपने से बड़े वाले नेता जी की प्रशंसा में भाषण झाड़ा जा सकता है। स्टेशन मास्टर से लेकर कुलियों तक को बताने की जरूरत नहीं होती कि हम कौन हैं। अंदर कुछ चम्पू ताश खेल रहे होते हैं, कुछ अंताक्षरी कर रहे होते हैं, तो कुछ चुटकुले सुना रहे होते हैं। कुछ भैंडासुरों को गरिया रहे होते हैं। रास्ते भर हाथ-पांव भी दबते रहते हैं। और वो ढाई मन वाला जब विधायक जी-विधायक जी करता है तो छाती अपने आप फूल जाती है। रास्ता इसी तरह मौज-मस्ती से कट जाता है। अरे भाई, कोई देखो अपना स्टेशन आ गया क्या? नेता जी, देखिये-देखिये एक नम्बर प्लेटफार्म पर सैंकड़ों की भीड़ है। बाजे भी बज रहे हैं। सबके हाथ में आपकी तस्वीर वाले पोस्टर भी हैं। देख क्या रहे हो, ड्राईवर को बोलो वहीं खड़ी करे गाड़ी ताकि इन सबको यही पता चले कि टिकट हमारा ही है। भन्नाये हुए काक भुशुण्डि ने आंखें तरेर कर गरुड़ की तरफ देखा और बोले-तू इतना क्यों खुश हो रहा है? अभी तो नेता जी को टिकट भी नहीं मिला है। दिल्ली में कहा गया है कि अपने क्षेत्र में जाकर रोज डेढ़ घंटे मॉर्निग वॉक करो और 25 लाख का इंतजाम करो, सुनामी के नाम पर भी कुछ जमा करोगे कि नहीं। काक जी, खुश मैं नहीं, ये लोग हो रहे हैं, पर पता नहीं क्यों? इसलिये मूरख कि नेता जी को ऐसे मौके पर खुश ही दिखना चाहिये अन्यथा घरवालों और समर्थकों को गलत मैसेज जाता है।

एक पुल की गौरवगाथा

राजीव मित्तल
बिहार की कई चीजों को धरा की धरोहर बनाने में बख्तियार खिलजी का अभूतपूर्व योगदान है। मसलन नालंदा, जिसको बनते-बढ़ते डेढ़ हजार साल लग गये, लेकिन खिलजी साहब ने आठ सौ साल पहले चुटकियों में ध्वस्त कर दिया। जनाब का यही गुण बिहार की जनता के प्रतिनिधियों में कुछ इस तरह आया है कि केले में केले का ही नहीं अमरूद का भी स्वाद मिले। खिलजी ने तो बने-बनाये पर हथौड़े चलाये, पर ये जो कुछ बनवाते हैं वो हर तरफ से पुरावशेष ही नजर आता है। चाहे वह नदी पर बना पुल ही क्यों न हो। नदी धारा बदल दे पर, वह पुल अवशेष का रूप धरे वैसे का वैसा ही खड़ा रहेगा बनने के इंतजार में। उसका एक खम्भा इस पार होगा और दूसरा होगा जाहिर है उस पार ही। भोलेभाले विधायक जी, जिनके भोलेपन को किसी दुश्मन की नजर न लगे, ने इतना बांका इंतजाम तो कर ही दिया है कि एक तरफ के लोग रस्सी के सहारे उस खम्भे पर आराम से चढ़ सकें और बीच में दस-बीस या पचास-साठ बांस बांध-बूंध कर दूसरे खम्भे से छुआ कर नदी पार करें। अब तलवार हाथ में लिये खिलजी का तो डर नहीं है लेकिन नदी का ममत्व ही चुक गया हो तो टप से नीचे गिर कर ऊपर जाने का कोई टिकट नहीं। बेखटके, दिन-दहाड़े आप सरकार को टैक्स दिये बगैर ऊपर जाने का यह खेल खेल सकते हैं। हां, इस खम्भे और उस खम्भे के बीच अगर अब वो नदी इन दस-पांच सालों में नहीं रह गयी है तो कोई मनचला किसी भी एक खम्भे पर चढ़ ‘तू गंगा की मौज मैं जमुना का धारा’ गाते हुए सियार भगा सकता है। चैनलों को इस तरह के पुरावशेष ‘बूझो तो जाने’ कार्यक्रम में भी दिखाने चाहिये। यह तो रही पुल जैसी बेजान चीज की बात, जिन सीताजी को पूरा देश माता-माता करता फिरता है, जरा उनके मायके (नेपाली नहीं भारतीय) और मायके की उस जगह का हाल जान लीजिये, जिसके बारे में दुनिया भर में डुगडुगी बजायी जा रही है कि मैया इसी तालाब से एक घड़े में राजा जनक को मिली थीं। आज की डेट में वह तालाब एक और ईश्वतार वराह की क्रीड़ा के लिये बेहद मुफीद है। पेट में जब कुछ होने लगे तो वहां जाने से भक्त जन भी कोई परहेज नहीं करते। काक भुशुण्डि जी गरुड़ से कहते हैं- रे मूर्ख, मन की आंखें खोल, इन दोनों उदाहरणों को तू पुल या धार्मिक स्थल के संकुचित दायरे में न बांध न लेना। यहां की सड़कों, यहां के स्कूल भवनों, यहां के पुलों, यहां के स्वास्थ्य केंद्रो को बिहार की आत्मा समझ, क्योंकि जो बचता है वह आत्मा ही तो होती है, शरीर तो खाक हो जाता है। ऐसे विधायकों का जमावड़ा और ऐसी निश्चल आत्माओं का सदाबहार बगीचा है बिहार।

तंदरुस्त लोकतंत्र

राजीव मित्तल
स्टूडियो में ‘लोकतंत्र के पहरेदार’ कार्यक्रम में आज कुछ विदेशी मेहमान भी हाजिर हैं। उनमें एक मोजाम्बिक डिमोलिशन पार्टी के महासचिव, तो दूसरे कोलम्बिया नारकोटिक्स लिबरल फ्रंट के अध्यक्ष हैं।

दर्शकों को दोनों विदेशी नेताओं का परिचय कराने के बाद काकभुशुण्डि ने पहला सवाल मोजाम्बिक नेता से किया-आपके देश में लोकतंत्र इतना सबल कैसे हो गया और वह भी इतनी जल्द? मिस्टर टलाकू होप ने थोड़ी खूं खा कर गला खंखारा और बोले-मिस्टर कैकै....तभी काक के सामने रखे डिब्बे की लाल बत्ती जल उठी। काक ने फौरन उन्हें चुप रहने का इशारा किया और डिब्बे की तरफ मुखातिब होकर बोले- हां, गुरुड़ बोलो क्या खबर है? काके सर, अभी-अभी कुछ लोगों में मारपीट हो गयी है, काफी तनाव है। कहां, पान की दुकान पर? नहीं काके, एक राजनैतिक पार्टी के दफ्तर में। इतनी छोटी सी बात के लिये डिस्टर्ब कर रहे हो? पार्टी दफ्तर में यह तो होता ही रहता है । तुम जानते नहीं कि कितना इम्पोर्टेंट प्रोग्राम चल रहा है यहां।

सर जी सुनो तो, हाथापई टिकटों को लेकर हो रही है। तो, इसमें कौन सी खास बात है? कोई और खबर तलाश करो। भाई मेरे, लाइन मत काटो, यह बवाल टिकट लेने को नहीं टिकट वापस करने के लिये हो रहा है। क्या? फिर से बोलो। हां, काके, मां कसम बिल्कुल यही हो रहा है। लेकिन उम्मीदवार टिकट वापस क्यों कर रहे हैं? उनका कहना है कि उन्हें एक नहीं दो टिकट चाहिये, ताकि एक जगह से हार भी जाएं तो दूसरा काम आए। लेकिन यह राज्यसभा का नहीं विधानसभा का चुनाव है। कोई पार्टी अपने हर उम्मीदवार को दो-दो सीटों पर कैसे खड़ा कर देगी, यह सुविधा तो केवल मुख्यमंμाी या पार्टी अध्यक्ष के लिये है।
यही तो मैं आपको समझाना चाह रहा हूं कि उनमें कई मुख्यमंμाी पद की दावेदारी कर रहे हैं तो कई प्रदेश पार्टी अध्यक्ष की। पार्टी आलाकमान का क्या कहना है गरुड़? तुमने किसी का इंटरव्यू किया? सर, इंटरव्यू देने वाला क्या मेरे सामने खड़ा है, सब भाग कर छत पर चढ़े हुए नीचे झांक रहे हैं। सीढ़ियों के दरवाजे पर ताला मार दिया है। किसी के चोट भी आयी है? अरे, चोट की कह रहे हो, सबके कपड़े फटे हुए हैं। दो-एक की तो धोती तक उतर गयी। किसी का माथा फट गया, किसी के गाल लाल हुए पड़े हैं। एक पहलवान छाप उम्मीदवार ने तो एक बड़े नेता को ऐसा पटका कि उसे तीन लोगों को उठा कर ले जाना पड़ा।
छत पर से हया मरा की आवाजें आ रही हैं। कैमरे में है सारा माल। तो कैमरामैन को बोलो कि सारी आवाजें भी रिकार्ड कर ले। वक्त पर काम आएंगी। और तुम वहां से हिलना मत। मैं यहां से दो-चार को और भेज रहा हूं। डिब्बे की बत्ती फिर हरी हो गयी। काक विदेशी मेहमान की तरफ हुए मुखातिब हुए-सॉरी मिस्टर होप, आप कुछ कह रहे थे! लेकिन दोनों विदेशी एकाएक खड़े हुए और बोले-अब हम क्या बोलें मिस्टर कैकै। हमारे पास कहने को कुछ नहीं है। बस आप हमें आज की इस घटना की फुटेज भिजवा दें प्लीज। हम अपने देश में इसे दिखाना चाहेंगे।

लगा कुनबा पीछे सारा...

राजीव मित्तल
भारतीय राजनीति में बेटा ही बाप के तख्त का वारिस होता है। हालांकि पुराने युग में राजा भरत ने इस परम्परा को उलट दिया था। उन्होंने डीएनए की जगह आईक्यू टेस्ट पर ज्यादा भरोसा जताया था और राजपाट अपने किसी बेअक्ले बेटे को न देकर समझदारी और विवेक को प्राथमिकता दी थी। इस सिद्धांत को राजा भरत के ही वंशज शांतनु ने कबाड़ में डाल दिया। और फिर उसके बाद क्या-क्या गुल खिले यह हर आम-ओ-खास को पता है। उस जमाने में राजा विवाह कर दुल्हन को तो घर लाते ही थे, अक्सर उसकी छोटी बहन यानी साली की पालकी भी उठवा लाते थे हंसी-मजाक के लिये क्योंकि नवब्याहता तो रानी साहिबा बन परदे में रह कर सारे रोमांस का कबाड़ा कर देती थी। परम्परा भी यही थी। लेकिन राजा भरत के पड़-पड़ पोते धृतराष्ट्र आंखों पर पट्टी बंधी गांधारी के साथ-साथ साले साहब शकुनि को भी हस्तिनापुर ले आये। पितामह भीष्म ने तीसरे को देख चुटकी भी ली-बरखुरदार, दीवार बिगाड़ी आलों ने-घर बिगाड़ा सालों ने। पर धृतराष्ट्र को यह बारीक बात समझ में नहीं आयी और लगे साले के साथ पांसे खेलने और मच गया महाभारत। सौ बेटे भी गंवाये, दुलारा साला भी गंवाया, राजापाट भी गंवाया और जाना पड़ा बर्फ से ढंके हिमालय की तरफ। फिर आया कलियुग-जिसमें गद्दी को लेकर बाप-बेटों में जम कर जूतम-पैजार हुई। कुछ ने बाप को जेल की कोठरी में डाला तो कुछ बेटे सड़े जेल में। इस मामले में अक्सर सौतेली माएं भी अपना हुनर दिखाने से बाज नहीं आती थीं। फिर देश में तुर्कों के प्रवेश हुआ, जो अपने खानदान और बेगमों के खानदान के साथ-साथ पूरे मोहल्ले को ही साथ ले आते थे यह आशा बंधा कर कि थोड़ी लूटपाट तुम भी कर लेना। सल्तनत पीरियड में तो कई नौकर-चाकरों ने भी दिल्ली की गद्दी संभाली। तो कई के दामाद ही ससुर पर तलवार चमकाते फिरे। अंग्रेजों ने जरूर इस मामले में कुछ नियम कानून बनाये पर भारतवर्ष नाम के इस देश को कुनबों से पीछा छुड़ा पाना उनको भी नाको चने चबवा गया। आखिरकार वे उकता कर -यह ले अपनी लकुटि कमरिया बहुत ही नाच नचायो-कह कर चलते बने। सत्ता मिलने के कुछ दिन बाद तक तो-हम खोये हैं इन रंगरलियों में-की बहार रही पर उसके बाद जैसे ही बेटा-बेटी का कद बाप के बराबर पहुंचा, उनके उद्धार की होड़ मच गयी, जो आज पूरे शबाब पर है। पर अब मामला और पेचीदा हो गया है। छुटकू की मौसी, झम्मन की चाची, लटकन के चाचा, सिटकू के मामा, बुट्टन के भतीजा। और अभी न जाने कितने ताऊ, फूफा, बुआ वगैरह-वगैरह हैं, जो एक मरदूद टिकट के पीछे हाथ धोकर पड़े हैं क्योंकि यह टिकट नहीं, अलादीन का चिराग है, जिसे घिसने की भी जरूरत नहीं। बस रुपया फेंक कर, कुछ वायदे मुंह से निकाल कर उस टिकट के पीछे कोठरी में बोरे में पड़े वोट पाने हैं। और वे मिल गये तो बिना कुछ किये धरे दो-चार पुश्तें निहाल। काक भुषुंडी जी आखिर में कहते हैं- तो कुनबा क्यों नहीं पीछे पड़ेगा जी!

तुम गिट्टी को छोड़ो, मैं फुल्लु को भगाऊं

राजीव मित्तल
बागों में बहार है-कहां, किधर? फूलों पे निखार है-दिखता तो नहीं! फिर भी तुमको मुझसे प्यार है-हां है पर ताले में बंद है। क्यों? सीट दिलाओ तब तो बागों में बहार दिखे, फूलों पे निखार नजर आये। जाओ अपने फुल्लु के पास, मेरी तो गिट्टी ही भली। उसे कम से कम बहार और निखार मेरे कहने पर दिख तो जाते हैं। तो मैं भी चली अपने फुल्लु के पास। उसके पास कई सीटें हैं। तो साहेबान यह है 21 वीं सदी की चुनाव की तालमेली राजनीति का लब्बोलुआब।

अब जबकि चुनाव के पहले चरण की तैयारी का दौर शुरू हो चुका है, ऐसे न जाने कितने जोड़े पहले गुटरगूं और फिर धत्त तेरे की कह अपने-अपने घोंसले में तिनके बिछाने में लग गये हैं। अब तो कहीं से दहाड़ने की आवाजें आ रही हैं-देख लूंगा नासपीटों को। छठी का दूध याद दिला दूंगा। हमारी बिल्ली हमीं से म्याऊं। तो कहीं से सिसकने की-हाय राम अब यह दिन भी देखना था। इन चप्पुओं को दाल में देसी घी ये दिन देखने को खिलाया था? बोरिया-बिस्तरा तक उठा कर ले गये। बर्तन-भांडा भी नहीं छोड़ा। तो किसी की घरवाली ताने मार रही है-और समझो उनको अपना अगले-पिछले आठ जनमों का दोस्त। एक ही जनम में कलई खुल गयी।

कहते थे-भौजी, इस छुटकन का ब्याह मेरे हाथों होगा और अब कह रहे हैं कि सांप के संपोले ही होते हैं। रात हो या बिरात दौड़े-दौड़े आते थे अठन्नी-चवन्नी मांगने को। अब कह रहे हैं कि स्वेटर बुनने की जो सिलाइयां पिछले जाड़ों में दी थीं, नौकर के हाथ भिजवा देना। किसी के यहां जन्म-जन्मांतर की जोड़ी ही आपस में भिड़ी है-तुम्हारे बाप ने मेरे भतीजे को टिकट इस बार क्यों नहीं दिया? पिछली बार देकर देख तो लिया। इधर-उधर से कमाया सारा पैसा खुद दबा कर बैठ गये। बाबूजी की तब याद नहीं आयी, अब कह रहे हो टिकट नहीं दिया! अरे तो उसकी बीबी को टिकट दिलवा दो! देखो जी, टिकट तो मैं दिलवाऊंगी अपने बहनोई को। बेचारे कई दिन से बेकार बैठे हैं। दाल-रोटी से ही पेट भर रहे हैं।

एक सरकारी मकान में टिकट मांगने वालों में ज्यादातर रिश्तेदार ही कतार लगाये हैं। कतार में लगे एक बुढ़ऊ कांखते हुए बोले-इस बार भटक्कन ने अपने इस मौसा को टिकट नहीं दिया तो इसी चौखट पर प्राण त्याग दूंगा। एक सजे-धजे कमरे में कई नामी-गिरामी बैठ इस बात पर चर्चा कर रहे हैं कि कल मंच पर सब मिल कर हाथ उठाएंगे और सीढ़ियां उतरते ही दुश्मन के गले में हाथ डाले नजर नहीं आएंगे इसकी क्या गारंटी है?

चलो, हम सब किसी मंदिर में चल कर साथ निभाने की शपथ लेते हैं! शपथ तो हम संविधान की भी लेते हैं जीतने के बाद, मंत्री बनने के बाद, तो कौन सी निभाते हैं। हां भई, जैसे जिंदगी का कुछ पता नहीं, वैसे ही इस गठबंधन का। किसी तरह चुनाव ठीकठाक निपट जाएं तो कथा कराऊं। लेकिन बाग में मिले गिट्टी के उनका और फुल्लु की उनकी का क्या होगा यह पहला दौर निपट जाने के बाद।

एक निरर्थक कवायद

राजीव मित्तल
अब जबकि चुनाव की तिथि घोषित हो गयी है, यहां-वहां अपने को फिट करने के खेल का एक दौर हो चुका है और अब मामला आखिरी जाम को एक झटके से गले के नीचे उतारने का आ गया है, तब एक मिनट के लिए कहीं अकेले में सोचने की जरूरत महसूस नहीं होती कि, यह चुनाव क्यों? जैसे कई बार सच का कोई अर्थ नहीं रह जाता, ईश्वर बोझ लगने लगता है, रिश्तों की गर्माहट क्रूरता की हद तक सर्द हो जाती है, तो बिहार में होने जा रहा यह चुनाव पैसे, समय और श्रम की होली जलाना नहीं है? करीब 20 अरब का खर्च, कई दिन पहले शुरू हो चुकी कदमताल के ढाई महीने और, रैला-रैलियों का भीड़ जमाऊ खेल केवल लोकतंत्र की एक जरूरी शर्त को पूरा करने के लिए? क्योंकि पति परमेश्वर है इसलिए चाहे वह शराबी हो, वेश्याओं के यहां रातें गुजारता हो, दिन-रात कहर ढाता हो-लेकिन अगले सात जनम तक उससे गांठ बंधी रहे इसलिए दिन भर भूखे-प्यासे रह कर करवाचौथ जरूरी?

खंडहर में दिया जरूर जलाया जाए क्योंकि दीवाली पे लक्ष्मी आती है? आज यही सारी बातें क्या बिहार के लिए मौजूं नहीं हैं। मार्च के पहले सप्ताह में कुछ भी नया नहीं होना है-जैसा चला आ रहा है वही अगले पांच साल चलाने का महज ठप्पा नहीं होगा यह? चुनाव का मतलब है कुछ नये की कामना, राज्य और राज्य के नागरिकों की बेहतरी की कामना, जो गुजर गया उसे भूल आगे कुछ कर गुजरने का उल्लास, वो सपने जो धरती पर भले ही न उतरें पर आंखों में उनकी टिमटिमाहट तो हो। क्या यह सब कुछ है इस चुनाव में? कोई सपना, विकास की कोई झलक, कोई मुद्दा कहां नजर आ रहा है, जो लोकतंत्र को ऑक्सीजन देते हैं, चुनाव के होने को मुकम्मल बनाते हैं।

सिर्फ कान में सीसा उडेलती बयानबाजियां, अंधकार को उजाले में बदलने के लिए जादूगर की तरह छड़ी घुमाना और मतदाता को गधा समझ लाल-लाल गाजर दिखा कर बहलाना। कल, आज और कल के वही क्षण, वही घंटे, वही दिन, वही रात। कुछ सोचिये जनाब! जी हां, यह निराशा है, अब यह मत कहियेगा कि आशा के दीप जलाओ!