राजीव मित्तल
भारतीय रेलवे दुनिया के सबसे ज्यादा यμिायों को ढोने के मामले में सुविख्यात है और मंμाालय के क्या कहने, वह तो बड़े-बड़े यार्डों और स्टेशनों को ही अपनी मालगाड़ी में लदवा देता है। उसकी यह गाड़ी पिछले कई सालों से वोटों के पहिये पर चल रही है। जैसे हर चुनाव में मुस्लिम वोट बैंक, दलित वोट बैंक चर्चा में आते हैं, उसी तरह बगैर चर्चा में आये यह काम रेलवे मंμाालय चुनाव के दिनों में ही नहीं, आमतौर पर करता रहता है। इस काम में डिपेंड करता है कि ‘वो’ उस पार के हैं या इस पार के।
गरुड की इस हरि अनंतकथा पर काक भुशुण्डि ने जोर से ब्रेक मारा और झल्लाते हुए बोले-यह सब कह कर तू वोटरों को कन्फ्यूज कर रहा है। अभी-अभी कन्फ्यूजन का पहला दौर खत्म हुआ है। उस कन्फ्यूजनी दौर में मरने वालों का फिगर इतना नपुंसक टाइप का है कि दर्ज करते शर्म आती है। खैर, रेलवे की बात कर रहा था न तू, एक के बाद एक तीन हो लिये। अब नाम बोल कर बात कर। नाम लेने से डरता है तो गढ़हरा यार्ड की बात कर। तीनों एक ही मंदिर में एक ही पटरे पर विराजमान ब्रह्मा-विष्णु-महेश नजर आएंगे। महाशय जी, यार्ड तो बहुत सुने यह किस बंदरगाह का है? काक ने लम्बी सांस ली और बोले- हुआ करता था कभी गढ़हरा यार्ड। बहुत पहले कभी ऐसे ही घूमते हुए चाचा नेहरू जब वहां पहुंचे, जहां आज गढ़हरा पोलो मैदान है, तो उन्होंने बेख्याली में एक राजमिस्μाी को बुला कर अपने सामने ही पत्थर कटवाया, तरशवाया और वहां लगवा कर उस पर लिखवा दिया गढ़हरा यार्ड।
उसे उन दिनों शिलान्यास भी कहा गया। उन्होंने वहां कुछ तमाशबीन लोगों से कहा- देखते क्या हो, यही हैं आजाद भारत के मक्का और मंदिर। पर चाचा नेहरू तो अब सपना हो गये, उनके बनाये मक्का में हजयाμाी और मंदिरों में तीर्थयाμाी भी जाते तो इतना न खलता, लेकिन वहां तो अब कबाड़ी तराजू लेकर बैठे रहते हैं और चोरों का आवागमन बगैर तराजू के रहता है। रह गयी वोट झपटुओं की कौम, तो उसके लिये नेहरू कांग्रेसी बन कर रह गये। बड़ी छोटी और बड़ी प्यारी सी कहनी है गढ़हरा यार्ड के कबाड़ में तब्दील हो चुनावी सभी में पोलो का मैदान बनने की। सुनेगा तो सुन-दस साल से गढ़हरा गाथा हिचकोले खा रही है। वहां अक्सर यही होता है कि वो आते हैं लाव लश्कर के साथ और मुंडी ऊपर-नीचे हिला कर चले जाते हैं। उनके जाते ही लश्कर के दो-चार वहीं रुक कविता लिखते हैं। वह कविता जब मेरी समझ में नहीं आयी तो तेरे खाक आएगी? फिर किसी अमावस्या की रात वो भी खिसक लेते हैं तब वहां जमता है बैठका-बोतलें खोली नहीं तोड़ी जाती हैं और सुबह यार्ड का एक हिस्सा खाली-खाली सा नजर आता है। तो महाशय जी, हम यहां क्या कर रहे हैं, गंगा अब जहां-जहां बह रही है, हमें भी वहीं चल कर गोता लगाना चाहिये। नहीं, पहले एकाध का सिर लुढ़कने दे, तब सारा माल बेच कर पोलो भी खेलेंगे।
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