शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

तुम गिट्टी को छोड़ो, मैं फुल्लु को भगाऊं

राजीव मित्तल
बागों में बहार है-कहां, किधर? फूलों पे निखार है-दिखता तो नहीं! फिर भी तुमको मुझसे प्यार है-हां है पर ताले में बंद है। क्यों? सीट दिलाओ तब तो बागों में बहार दिखे, फूलों पे निखार नजर आये। जाओ अपने फुल्लु के पास, मेरी तो गिट्टी ही भली। उसे कम से कम बहार और निखार मेरे कहने पर दिख तो जाते हैं। तो मैं भी चली अपने फुल्लु के पास। उसके पास कई सीटें हैं। तो साहेबान यह है 21 वीं सदी की चुनाव की तालमेली राजनीति का लब्बोलुआब।

अब जबकि चुनाव के पहले चरण की तैयारी का दौर शुरू हो चुका है, ऐसे न जाने कितने जोड़े पहले गुटरगूं और फिर धत्त तेरे की कह अपने-अपने घोंसले में तिनके बिछाने में लग गये हैं। अब तो कहीं से दहाड़ने की आवाजें आ रही हैं-देख लूंगा नासपीटों को। छठी का दूध याद दिला दूंगा। हमारी बिल्ली हमीं से म्याऊं। तो कहीं से सिसकने की-हाय राम अब यह दिन भी देखना था। इन चप्पुओं को दाल में देसी घी ये दिन देखने को खिलाया था? बोरिया-बिस्तरा तक उठा कर ले गये। बर्तन-भांडा भी नहीं छोड़ा। तो किसी की घरवाली ताने मार रही है-और समझो उनको अपना अगले-पिछले आठ जनमों का दोस्त। एक ही जनम में कलई खुल गयी।

कहते थे-भौजी, इस छुटकन का ब्याह मेरे हाथों होगा और अब कह रहे हैं कि सांप के संपोले ही होते हैं। रात हो या बिरात दौड़े-दौड़े आते थे अठन्नी-चवन्नी मांगने को। अब कह रहे हैं कि स्वेटर बुनने की जो सिलाइयां पिछले जाड़ों में दी थीं, नौकर के हाथ भिजवा देना। किसी के यहां जन्म-जन्मांतर की जोड़ी ही आपस में भिड़ी है-तुम्हारे बाप ने मेरे भतीजे को टिकट इस बार क्यों नहीं दिया? पिछली बार देकर देख तो लिया। इधर-उधर से कमाया सारा पैसा खुद दबा कर बैठ गये। बाबूजी की तब याद नहीं आयी, अब कह रहे हो टिकट नहीं दिया! अरे तो उसकी बीबी को टिकट दिलवा दो! देखो जी, टिकट तो मैं दिलवाऊंगी अपने बहनोई को। बेचारे कई दिन से बेकार बैठे हैं। दाल-रोटी से ही पेट भर रहे हैं।

एक सरकारी मकान में टिकट मांगने वालों में ज्यादातर रिश्तेदार ही कतार लगाये हैं। कतार में लगे एक बुढ़ऊ कांखते हुए बोले-इस बार भटक्कन ने अपने इस मौसा को टिकट नहीं दिया तो इसी चौखट पर प्राण त्याग दूंगा। एक सजे-धजे कमरे में कई नामी-गिरामी बैठ इस बात पर चर्चा कर रहे हैं कि कल मंच पर सब मिल कर हाथ उठाएंगे और सीढ़ियां उतरते ही दुश्मन के गले में हाथ डाले नजर नहीं आएंगे इसकी क्या गारंटी है?

चलो, हम सब किसी मंदिर में चल कर साथ निभाने की शपथ लेते हैं! शपथ तो हम संविधान की भी लेते हैं जीतने के बाद, मंत्री बनने के बाद, तो कौन सी निभाते हैं। हां भई, जैसे जिंदगी का कुछ पता नहीं, वैसे ही इस गठबंधन का। किसी तरह चुनाव ठीकठाक निपट जाएं तो कथा कराऊं। लेकिन बाग में मिले गिट्टी के उनका और फुल्लु की उनकी का क्या होगा यह पहला दौर निपट जाने के बाद।

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