शनिवार, 13 नवंबर 2010

कहां चला रे तू चितचोर

राजीव मित्तल
पिछले 10 साल में बिहार ने क्या खोया क्या पाया इसकी नाप-तोल कर पाना तो बहुत मुश्किल है लेकिन यह सच है कि किसलय, रॉकी, दीपक और उनके जैसे न जाने कितने लड़के-लड़कियां अपने ‘खैर-ख्वाहों’ के चंगुल से अगर मुक्त हुए तो वे कम से कम इस राज्य में तो नहीं ही रहना चाहेंगे। खुदा कसम, चुनाव के बाद भी नहीं। अपने मां-बाप की हैसियत के अनुसार वे देश के किसी भी कोने में रह कर अपनी जिंदगी बिता लेंगे लेकिन बिहार में नहीं रहेंगे। उसी तरह जैसे पचास अरब का खजाना कहीं और पनाह ले चुका है, उसी तरह जैसे ऐश्वर्य या उस जैसे ने जाने कितने होनहार किसी और राज्य में जा बसे हंैं, न जाने कितने डॅाक्टर, न जाने कितने उद्योगपति, न जाने कितने दिमागदार लोग यहां कभी न लौटने के लिये अपना आशियाना कहीं और बसा चुके हैं। कोई पूछे न उन मां-बाप के दिल से, जिनके बच्चे सुबह पढ़ने स्कूल या कॅालेज जाते हैं फिर उनका एक-एक पल उनके इंतजार में कैसे कटता है।
ऊपर वाले से न जाने कितनी दुआएं मांगी जाती हैं और अगर 10-20 मिनट की देर हो गयी तो पता नहीं कौन-कौन से व्रत रखे जाते हैं। और जिसमें झल्ला कर कहा जाता है कि मुम्बई घूमने गया होगा ‘वो’। जिस ‘वो’ के लिये उसके हर हमउम्र का आज दिल-ओ-दिमाग आंदोलित है। वे स्कूल-कॉलेज जाने के बजाय उसकी मुक्ति के लिये सड़क पर आ गए हैं, उसकी सलामती के लिये दुआएं मांग रहे हैं क्योंकि उनको पता है कि वह मुम्बई घूमने नहीं गया है। क्योंकि उन्हें मालूम है कि वह नेता नहीं है, वह किसी हालत में कर्णधार नहीं कहलाया जा सकता। और वे यह भी नहीं बता सकते कि जिसके लिये उनकी आंखों से आंसू बह रहे हैं वह इस समय कहां है किस हालत में है और वह कब लौटेगा, लेकिन उन्हें यह विश्वास है कि वह मुम्बई घूमने नहीं गया है। यह रोना केवल किसलय के लिये नहीं है, यह रोना ‘मुम्बई गये’ किसलय के लिये नहीं है, यह रोना है उस दुख के लिये कि उनके बाप-दादों के बिहार को कौन सा रोग लग गया है।
यहां की शामें कब तक इतनी खौफनाक रहेंगी, यहां की रातों का सन्नाटा कौन सी किलकारी तोड़ेगी, यहां की सुबह कब मुस्कुराएगी, यहां की दोपहरी कब अपनी होगी। नादिरशाह तो एक बार आया और दिल्ली वीरान कर गया, यहां तो हर कोने में नादिरशाह कुंडली मारे बैठा है। कम से कम कोहिनूर हीरा खुशकिस्मत तो है कि वह लंदन के एक म्यूजियम में शोकेस से दमकता हुआ झांक रहा है। यहां तो हर मां-बाप को अपने कोहिनूरों को घर के अंदर सौ तालों में ही सजाने की मुराद पूरी करनी होगी, घर के दरवाजे से बाहर भेजते समय क्या अब यही करना बाकी रह गया है कि उनके तन पर मिट्टी से सने फटे-पुराने कपड़े हों, पैर नंगे हों और मुंह पर काला रंग पुता हुआ हो ताकि वे सुंदर न लगें, उनके चेहरे या कपड़ों से यह पता न चले कि उनके घर दोनों वक्त रोटी बनती है। काक भुशुण्डि के मुंह से एकाएक निकल पड़ा-और उससे भी बड़ी बात यह कि उनकी वल्दियत का उन कम्बख्तों को पता न चले।

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