राजीव मित्तल
तीन राज्यों में एक साथ चुनाव हुए। एक मेें पूरे तो दो में अधूरे। चुनाव का तौर-तरीका वही, ईवीएम मशीन वही और वोट डालने वाले भी सभी इंसान योनि के, लेकिन सबसे बड़ा फर्क माहौल का, सामाजिक प्राणी होने की शर्त कमोबेश पूरी करने का और लोकतंμा का नाता वोट से और कस कर जोड़ने का या वोट को बारूद की गलियों से होकर गुजारने का है। हरियाणा भी इसी देश का होने के नाते कम भ्रष्ट नहीं है, लड़की पैदा होते ही उसका गला टीपने में सबसे आगे, वहां का मर्द शराबखोरी में ‘हम किसी से कम नहीं’ वाला, पानी-बिजली की समस्याओं का वहां भी बोलबाला लेकिन वहां लोकतंμा को हाथ-पांव बांध कर घसीटा तो नहीं जा रहा, जो यहां हर चुनाव में बंधक बना दिया जाता है। जिसके हर बूथ पर कहां-कहां से मंगवा कर फौज-फाटा तैनात करना पड़ता है और उसकी संगीनों के साये में वोट डलवाने पड़ते हैं लेकिन मरने वालों की संख्या हर बार बढ़ जाती है।
इस खून-खराबे के पीछे नाराजगी यह है कि अगले ने वोट डाला ही क्यों और डाला तो अपने मन से क्यों डाला। तभी तो हरियाणा में सारी विकृतियों के बावजूद वोट डालने के लिये महिलाएं कोई लोकगीत गाती हुई जाती हैं और यहां अपनी ही अर्थी को कंधा देती हुई। इसीलिये यहां अखबार का शीर्ष शीर्षक होता है ‘खून खराबे की बलि चढ़ा पहला चरण’। यह शीर्षक पहली बार नहीं लग रहा है, दस साल में इससे पहले हुए छह चुनावों का भी यही शीर्षक रहा है। लालू जी, प्लीज, ‘किसलय मुम्बई घूमने गया होगा’ जैसा कोई जुमला न उछालियेगा। पर हां, आपको यह बोलने से तो खुदा भी नहीं रोक सकता ‘देखा, झारखंड में तो एक ही जगह पर सात को उड़ा दिया। हमारे यहां तो 15-20 जगह हुई हिंसा में इतना लोग मरा। हम न कहते थे कि बिहार को बदनाम किया जा रहा है’।
आपका कहा सिर आंखों पर। लेकिन सोचने की बात है कि क्या 10 साल पहले किसी भी चुनाव में बिहार इतना हिंसक होता था क्या! अच्छा चलिये, आपकी बात मान ली। अभी दो बार और होेनी है न वोटिंग, किसी एक में भी किसी भी बूथ पर वोट डालने जातीं महिलाओं के लिये माहौल उत्सवी बना दीजिये। कहीं पर महिलाओं का वो समूह दिखा दीजिये, जिसके होठों से किसी भी बोली का कोई लोकगीत निकल रहा हो। भोजपुरी में तो अब कोई कुछ भी गाने से रहा क्योंकि वहां तो इस समय जगह-जगह रूदन फूट रहा है।
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