सोमवार, 30 मार्च 2020

भूखे सोएं

अमेरिका में आज करीब चार करोड़ लोग भूखे पेट
सोते है यूरोप में भी चार करोड़ लोग भूखे सो रहे
हैं..भारत में सरकारी आंकड़ों के अनुसार करीब 32
करोड़ लोग भूखे सोते हैं..
अगर जीडीपी विकास का मापदंड होती तो अमेरिका में भूखे नहीं होने चाहिये थे..पर अमेरिका और
यूरोप में भूखों की संख्या लगातार बढ़ रही है..
भारत में भी जीडीपी के बढ़ने के साथ साथ भुखमरी तेजी से बढ़ रही है..

किसी देश की सम्पत्ति या समृध्दि जीडीपी
से नहीं, बल्कि जीएनपी से बढ़ती है। जीडीपी
का अर्थ हुआ ग्रॉस डोमेस्टिक प्रॉडक्ट -- आपके
देश की भौगोलिक सीमाओं के अंदर होने वाला
कुल प्रोडक्शन। फिर भले ही एक्साइड जैसी
कम्पनियां प्रोडक्शन यहां करती हों और
मुनाफा अपने देश में ले जाती हों, और भोपाल
गैस कांड की जिम्मेदारी से बच निकलती हों-
लेकिन जीडीपी की ओर टकटकी लगाने वाले
अर्थवेत्ता इसी को विकास कहते हैं।
.
इससे उल्टा जीएनपी का शास्त्र है। ग्रॉस नेशनल
प्रॉडक्ट मापते समय दूसरे देश में आए इन्वेस्टर ने
कितनी लागत आपके देश में लगाई उसे नहीं जोड़ना,
बल्कि जो मुनाफा वे अपने देश में ले गए थे उसे
घटाते हैं और आप के देश के नागरिकों ने यदि
विदेशों में इन्वेस्ट (निवेश) किया है और मुनाफा
कमाकर देश में भेजा है, तो उसे जोड़ते हैं। इस
प्रकार आपकी आर्थिक क्षमता की असली
पहचान बनती है जीएनपी से न कि जीडीपी से।
फिर भी हमारी रिजर्व बैंक, हमारे सारे
अर्थशास्त्री और हमारी सरकारें हमें जीडीपी
का गाजर क्यों दिखाती हैं!!! क्योंकि 
गाजर या मूली  बिना सींग वाले प्राणी को दिखाई जाती
है।

7/16/18



जीडीपी में ख़मीर उठाना अर्थात पुनरावलोकन पार्ट-2

पुनरावलोकन के पहले भाग में हमने पढ़ा था कि भारतवर्ष को जल्द से जल्द हरियाली तीज, सावन के झूलों, आषाढ़ का इक दिन, कालिदास के मेघों, दो बैलों की जोड़ी, गाय को माता मानना, सांड़ को पिता मानना, गंगा को मैया मानना बंद करना होगा और तुलसी की पूजा, वनदेवी का गान, तालाब, पोखर, ताल-तलैया, नदी यानी बहती धाराओं से अपना पीछा छुड़ाना बहुत ज़रूरी है.. अर्थात हमें जीडीपी तय करने के मापदंड बदलने  होंगे तभी हम अगले पांच साल में घरेलू सकल उत्पाद दर 27 फीसदी, बल्कि 30 फीसदी तक पहुंचा पाएंगे..जबकि इस दौरान दुनिया भर के देशों की जीडीपी दर दस फीसदी भी हुई तो बहुत बड़ी बात होगी..

भारतवासियों के सौभाग्य से इस दिशा में जो बीज ढाई दशक पहले हमने बोये थे..आज वो यूक्लिपटिस का पेड़ बन गए हैं..हमने जीडीपी की जो परिभाषा पिछले वर्षों में तैयार की है, उसे समझना बहुत जरूरी है.. 

अगर आपने मूली के पत्ते रगड़ या अन्य घरेलू नुस्खे से दाद-खाज-खुजली ठीक कर ली तो जीडीपी भैंस बन कर गयी पानी में.. लेकिन अगर आप उकौता हरण के लिए बाबा रामदेव को पुकारते हैं तो आपको आराम मिले न मिले लेकिन उस लंगोटिये के काढ़े, सरसो का तेल और गाय का घी जीडीपी का कटोरा लबालब कर देंगे....

हमारे देश में सरकारी स्वास्थ्य सेवा को  त्यागने की प्रक्रिया बहुत ही सकारात्मक तरीके से शुरू हो गई है..सरकारी अस्पतालों में रोगियों के जिन बिस्तरों पर कुत्ते लोटते पाए जाते थे. अब उन पर मरीज अपने कटे अंगों का सिरहाना बना कर मीठे मीठे सपने देख रहे हैं..किसी सरकारी अस्पताल में कोई मरीज ऑपेरशन के बाद अपने ही कटे हाथ पर सिर टिकाए सो रहा हो तो उसकी फोटो खींच कर, उस फोटो के बड़े बड़े होर्डिंग बनवा कर देश भर में लगाये जाने चाहिए..इससे देश के सरकारी अस्पतालों को तोड़े बगैर उन पर सुखानी, रामपुरिया, अबेजानी, टिकरिया जैसे बड़े औद्योगिक घरानों के बोर्ड टांगने में बहुत आसानी होगी..जो पर्चा पहले एक रुपये में 15 दिन के लिए बनता था, 15 रुपये में एक दिन का बनेगा..

अगर आप कोई कार खरीदते हैं, आपने पैसा दियाकिसी ने पैसा लिया तो जीडीपी बढ गयी..
आपने कार को चलाने के लिए पेट्रोल ख़रीदा
जीडीपी फिर बढ़ गयी, कार के दूषित धुएं से
आप बीमार हुए, आप डॉक्टर के पास गए, आपने फीस दी उसने फीस ली और फिर जीडीपी बढ़ गयी। जितनी कारें आएंगी देश में
उतनी जीडीपी तीन बार बढ़ जाएगी...

इस देश में 4000 से ज़्यादा कारें हर साल खरीदी जाती हैं..25000 से ज्यादा मोटर साइकल खरीदी जाती हैं और सरकार भी इस पर सारा ज़ोर देती है क्योंकि
यह एक शानदार तरीका है  देश की जीडीपी बढ़ाने का.

हर बड़े अख़बार में और चैनल पर कोकाकोला और पेप्सीकोला का विज्ञापन छाये रहते हैं और ये भी सब जानते हैं कि ये दोनों पेय कितने खतरनाक और जहरीले हैं सेहत के लिए ... पर फिर भी सब सरकारें चुप हैं और अपनी जनता को ज़हर पीता देख रही हैं
क्योंकि जब भी आप कोकाकोला पीते हैं देश की जीडीपी दो बार बढ़ती है । 
पहले आपने कोका कोला ख़रीदा पैसे दिये..देश का जीडीपी बढ गया, फिर पीने के बाद बीमार पड़े .. डॉक्टर के पास गए, डॉक्टर को फीस दी.. जीडीपी दोबारा बढ़ गयी ।

हमें देश को मोटा करना है..अन्यथा परंपरागत कुपोषण से काम चलाना है..अमेरिका का उदाहरण आपके सामने है..आज अमेरिका में चार लाख लोग हर साल मरते हैं
कारण है उनका भोजन...क्योंकि जो जंक
फ़ूड है और कार्बोनेटेड ड्रिंक्स है .. उसके सेवन से मोटापा और बीमारी बढ़ती है... जिसके चलते आज 62 % अमेरिकी क्लीनिकली मोटापे के शिकार हैं और हमारे देश में 62 % लोग कुपोषण का शिकार हैं। ये भी जीडीपी बढ़ाने का एक तरीका है , जितना ज्यादा प्रदूषण खाने में होगा उतना ज्यादा जीडीपी बढ़ता है।

पहले तो फ़ूड इंडस्ट्री की तेजी से  जीडीपी बढ़ी
उसके साथ दवा का बाज़ार बढ़ा..फिर
जीडीपी बढ गयी ... फिर इसके साथ इंश्योरेंस का बाज़ार बढ़ा..ये तीनों बाज़ार आपस में जुड़े हुए हैं इसीलिए आज  जितना ज्यादा
ख़राब फ़ूड खायेंगे तीनों बाज़ार तेजी से फैलेंगे.
और तभी जीडीपी दौड़ेगी..

अब आपको जीडीपी बढ़ानी है या घर में
खाना बनाना है ! घर में खाना बनाने से
जीडीपी नहीं बढ़ती। इस मायाजाल को समझ कर अन्न और गैस की बरबादी बंद करें.....



7/16/18
और भीड़ प्रेमचंद को तलाशने निकल पड़ी

दाऊदयाल भी महाजन थे। कचहरी में मुख्तारगिरी करते और जो कुछ बचत होती थी, उसे 25-30 रुपये सैकड़ा वार्षिक ब्याज पर उठा देते। सारा धंधा छोटे लगों से ही रहता था। उच्च वर्ण वालों से लाला बहुत चौकन्ने रहते थे, उन्हें अपने यहाँ फटकने ही न देते थे। 

उनका कहना था कि ब्राह्मण, क्षत्रिय या कायस्थ को रुपये देने से अच्छा है कि रुपया कुएँ में डाल दिया जाय। 

लाला एक दिन कचहरी से घर आ रहे थे। रास्ते में  एक मुसलमान अपनी गाय बेच रहा था, और कई आदमी उसे घेरे खड़े थे। कोई उसके हाथ में रुपये रख रहा, कोई उसके हाथ से गऊ की पगहिया छीन रहा..लेकिन वो मुसलमान पगहिया को मजबूती से पकड़े रहा.. 

दाऊदयाल गऊ को देखकर रीझ गये। पूछा- क्यों जी, यह गऊ बेचते हो ? क्या नाम है तुम्हारा ?

मुसलमान ने दाऊदयाल को देखा तो प्रसन्नमुख उनके समीप जाकर बोला- हाँ हजूर, बेचता हूँ।

दाऊ.- कहाँ से लाये हो ? तुम्हारा नाम क्या है ?

मुस.- नाम तो है रहमान। 

दाऊ.- दूध देती है ?

मुस.- हाँ हजूर, एक बेला में तीन सेर दुह लीजिये। अभी दूसरा ही तो बेत है। इतनी सीधी है कि बच्चा भी दुह ले। बच्चे पैर के पास खेलते रहते हैं, पर क्या मजाल कि सिर भी हिलावे।

दाऊ.- कोई तुम्हें यहाँ पहचानता है।

मुख्तार साहब को शुबहा हुआ कि कहीं चोरी का माल न हो।

मुस.- नहीं, हजूर, गरीब आदमी हूँ, मेरी किसी से जान-पहचान नहीं है।

दाऊ.- क्या दाम माँगते हो ?

रहमान ने 50 रु. बतलाये। मुख्तार साहब को 30 रु. का माल जँचा। कुछ देर तक दोनों ओर से मोल-भाव होता रहा। एक को रुपयों की गरज थी और दूसरे को गऊ की चाह। सौदा पटने में कोई कठिनाई न हुई। 35 रु. पर सौदा तय हो गया।

रहमान ने सौदा तो चुका दिया; पर अब भी वह मोह के बंधन में पड़ा हुआ था। कुछ देर तक सोच में डूबा खड़ा रहा, फिर गऊ को लिये मंद गति से दाऊदयाल के पीछे-पीछे चला। तब एक आदमी ने कहा- अबे हम 36 रु. देते हैं। हमारे साथ चल।

रहमान- नहीं देते तुम्हें; क्या कुछ जबरदस्ती है ?

दूसरे आदमी ने कहा- हमसे 40 रु. ले ले..
मगर रहमान ने हामी न भरी। आखिर उन सबने निराश होकर अपनी राह ली।

रहमान जब जरा दूर निकल गया, तो दाऊदयाल से बोला- हजूर, आप हिंदू हैं इसे लेकर आप पालेंगे, इसकी सेवा करेंगे। ये सब कसाई हैं, इनके हाथ मैं 50 रु. को भी कभी न बेचता। आप बड़े मौके से आ गये, नहीं तो ये सब जबरदस्ती से गऊ को छीन ले जाते। बड़ी बिपत में पड़ गया हूँ सरकार, तब यह गाय बेचने निकला हूँ। नहीं तो इस घर की लक्ष्मी को कभी न बेचता। इसे अपने हाथों से पाला-पोसा है। कसाइयों के हाथ कैसे बेच देता ? सरकार, इसे जितनी ही खली देंगे, उतना ही यह दूध देगी। भैंस का दूध भी इतना मीठा और गाढ़ा नहीं होता। हजूर से एक अरज और है, अपने चरवाहे को डाँट दीजियेगा कि इसे मारे-पीटे नहीं।

दाऊदयाल ने चकित हो कर रहमान की ओर देखा। भगवान् ! इस श्रेणी के मनुष्य में भी इतना सौजन्य, इतनी सहृदयता है ! यहाँ तो बड़े-बड़े तिलक त्रिपुंडधारी महात्मा कसाइयों के हाथ गउएँ बेच जाते हैं; एक पैसे का घाटा भी नहीं उठाना चाहते। और यह गरीब 5 रु. का घाटा सहकर इसलिए मेरे हाथ गऊ बेच रहा है कि यह किसी कसाई के हाथ न पड़ जाय। गरीबों में भी इतनी समझ हो सकती है !

उन्होंने घर आकर रहमान को रुपये दिये। रहमान ने रुपये गाँठ में बाँधे, एक बार फिर गऊ को प्रेम-भरी आँखों से देखा और दाऊदयाल को सलाम करके चला गया।

रहमान एक गरीब किसान था..और जमींदार ने इजाफा-लगान का दावा दायर किया था। उसी की जवाबदेही करने के लिए रुपयों की जरूरत थी। घर में बैलों के सिवा और कोई सम्पत्ति न थी। वह इस गऊ को प्राणों से भी प्रिय समझता था; पर रुपयों की कोई तदबीर न हो सकी, तो विवश होकर गाय बेचनी पड़ी।

उन्हीं गांव के कितने ही स्त्री-पुरुष हज करने चले। रहमान की बूढ़ी माता भी हज के लिए तैयार हुई। रहमान के पास इतने रुपये कहाँ थे, पर माता की आज्ञा कैसे टालता ? सोचने लगा, किसी से उधर ले लूँ। कम से कम 200 रु. हों, तो काम चले। बाकी महाजन तो सब नीलाम करा लेंगे। हारकर दाऊदयाल के ही पास गया और रुपये कर्ज माँगे।

दाऊ.- तुम्हीं ने तो मेरे हाथ गऊ बेची थी न ?

रहमान- हाँ हजूर !

दाऊ.- रुपये तो तुम्हें दे दूँगा, लेकिन मैं वादे पर रुपये लेता हूँ। अगर वादा पूरा न किया, तो तुम जानो। फिर मैं जरा भी रिआयत न करूँगा। बताओ कब दोगे ?

रहमान ने मन में हिसाब लगाकर कहा- सरकार, दो साल की मियाद रख लें।

दाऊ.- अगर दो साल में न दोगे, तो ब्याज की दर 32 रु. सैकड़े हो जायगी। तुम्हारे साथ इतनी मुरौवत करूँगा कि नालिश न करूँगा।

रहमान- जो चाहे कीजिएगा। हजूर के हाथ में ही तो हूँ।

रहमान को 200 रु. के 180 रु. मिले। कुछ लिखाई कट गई, कुछ नजराना निकल गया, कुछ दलाली में आ गया। घर आया, थोड़ा-सा गुड़ रखा हुआ था, उसे बेचा और स्त्री को समझा-बुझाकर माता के साथ हज को चला।

मियाद गुजर जाने पर लाला दाऊदयाल ने तकाजा किया। एक आदमी रहमान के घर भेजकर उसे बुलाया और कठोर स्वर में बोले- क्या अभी दो साल नहीं पूरे हुए ! लाओ, रुपये कहाँ हैं ?

रहमान ने बड़े दीन भाव से कहा- हजूर, बड़ी गर्दिश में हूँ। अम्माँ जब से हज करके आयी हैं, तभी से बीमार पड़ी हुई हैं। रात-दिन उन्हीं की दवा-दारू में दौड़ते गुजरता है। मुसीबत से दिन कट रहे हैं। हजूर के रुपये कौड़ी-कौड़ी अदा करूँगा, साल-भर की और मुहलत दीजिए। अम्माँ अच्छी हुई और मेरे सिर से बला टली।

दाऊदयाल ने कहा- 32 रुपये सैकड़े ब्याज हो जायगा।

रहमान ने जवाब दिया- जैसी हजूर की मरजी।

रहमान यह वादा करके घर आया, तो देखा माँ का अंतिम समय आ पहुँचा है। 
पड़ोसियों से उधार लेकर दफन-कफन का प्रबंध किया, किंतु मृत आत्मा की शांति और परितोष के लिए ज़कात और फ़ातिहे की जरूरत थी, कब्र बनवानी जरूरी थी, बिरादरी का खाना, गरीबों को खैरात, कुरान की तलावत और ऐसे कितने ही संस्कार करने परमावश्यक थे।

उसने सोचना शुरू किया, रुपये लाऊँ कहाँ से ? अब तो लाला दाऊदयाल भी न देंगे। एक बार उनके पास जाकर देखूँ तो सही, कौन जाने, मेरी बिपत का हाल सुनकर उन्हें दया आ जाय। बड़े आदमी हैं, कृपादृष्टि हो गयी, तो सौ-दो-सौ उनके लिए कौन बड़ी बात है।

इस भाँति मन में सोच-विचार करता हुआ वह लाला दाऊदयाल के पास चला। रास्ते में एक-एक कदम मुश्किल से उठता था। कौन मुँह लेकर जाऊँ ? अभी तीन ही दिन हुए हैं, साल-भर में पिछले रुपये अदा करने का वादा करके आया हूँ। अब जो 200 रु. और माँगूगा, तो वह क्या कहेंगे। मैं ही उनकी जगह पर होता तो कभी न देता। उन्हें जरूर संदेह होगा कि यह आदमी नीयत का बुरा है। कहीं दुत्कार दिया, घुड़कियाँ दीं, तो ? पूछें, तेरे पास ऐसी कौन-सी बड़ी जायदाद है, जिस पर रुपये की थैली दे दूँ, तो क्या जवाब दूँगा ? जो कुछ जायदाद है, वह यही दोनों हाथ हैं। उसके सिवा यहाँ क्या है ? घर को कोई सेंत भी न पूछेगा। खेत हैं, तो जमींदार के, उन पर अपना कोई काबू ही नहीं। बेकार जा रहा हूँ, वहाँ धक्के खाकर निकलना पड़ेगा, रही-सही आबरू भी मिट्टी में मिल जायगी।

लाला साहब झल्लाये बैठे थे रुष्ट होकर बोले- तुम क्या करने आये हो जी ? क्यों मेरे पीछे पड़े हो। मुझे इस वक्त बातचीत करने की फुरसत नहीं है।

रहमान कुछ न बोल सका। यह डाँट सुनकर इतना हताश हुआ कि उलटे पैरों लौट पड़ा। हुई न वही बात ! यही सुनने तो मैं आया था ? मेरी अकल पर पत्थर पड़ गये थे!

दाऊदयाल को कुछ दया आ गयी। जब रहमान बरामदे के नीचे उतर गया, तो बुलाया, जरा नर्म होकर बोले- कैसे आये थे जी ! क्या कुछ काम था ?

रहमान फूट-फूटकर रोने लगा। दाऊदयाल ने अटकल से समझ लिया। इसकी माँ मर गयी। पूछा- क्यों रहमान, तुम्हारी माँ सिधार तो नहीं गयीं ?

रहमान- हाँ हजूर, आज तीसरा दिन है।

दाऊ.- रो न, रोने से क्या फायदा ? सब्र करो, ईश्वर को जो मंजूर था, वह हुआ। ऐसी मौत पर गम न करना चाहिए। तुम्हारे हाथों उनकी मिट्टी ठिकाने लग गयी। अब और क्या चाहिए ?

रहमान- हजूर, कुछ अरज करने आया हूँ, मगर हिम्मत नहीं पड़ती। अभी पिछला ही पड़ा हुआ है, और अब किस मुँह से माँगूँ ? लेकिन अल्लाह जानता है, कहीं से एक पैसा मिलने की उम्मेद नहीं और काम ऐसा आ पड़ा है कि अगर न करूँ, तो जिंदगी-भर पछतावा रहेगा। आपसे कुछ कह नहीं सकता। आगे आप मालिक हैं। यह समझकर दीजिए कि कुएँ में डाल रहा हूँ। जिंदा रहूँगा तो एक-एक कौड़ी मय सूद के अदा कर दूँगा। मगर इस घड़ी नहीं न कीजिएगा।

दाऊ.- तीन सौ तो हो गये। दो सौ फिर माँगते हो। दो साल में कोई सात सौ रुपये हो जायँगे। इसकी खबर है या नहीं ?

रहमान- गरीबपरवर ! अल्लाह दे, तो दो बीघे ऊख में पाँच सौ आ सकते हैं। अल्लाह ने चाहा, तो मियाद के अंदर आपकी कौड़ी-कौड़ी अदा कर दूँगा।

दाऊदयाल ने दो सौ रुपये फिर दे दिये। जो लोग उनके व्यवहार से परिचित थे, उन्हें उनकी इस रिआयत पर बड़ा आश्चर्य हो रहा था।

अगहन का महीना था; रहमान खेत की मेठ पर बैठा रखवाली कर रहा था। ओढ़ने को केवल एक पुराने गाढ़े की चादर थी, इसलिए ऊख के पत्ते जला दिये थे। सहसा हवा का एक ऐसा झोंका आया कि जलते हुए पत्ते उड़कर खेत में जा पहुँचे। आग लग गयी। गाँव के लोग आग बुझाने दौड़े; मगर आग की लपटें टूटते तारों की भाँति एक हिस्से से उड़कर दूसरे सिर पर जा पहुँचती थीं, सारे उपाय व्यर्थ हुए। पूरा खेत जलकर राख का ढेर हो गया और खेत के साथ रहमान की सारी अभिलाषाएँ नष्ट-भ्रष्ट हो गयीं। गरीब की कमर टूट गयी। दिल बैठ गया। 

दाऊदयाल के रुपयों की फिक्र सिर पर सवार हुई। अपनी कुछ फिक्र न थी। बाल-बच्चों की भी फिक्र न थी। भूखों मरना और नंगे रहना तो किसान का काम ही है। फिक्र कर्ज की। दूसरा साल बीत रहा है। दो-चार दिन में लाला दाऊदयाल का आदमी आता होगा। उसे कौन मुँह दिखाऊँगा ? चलकर उन्हीं से चिरौरी करूँ कि साल-भर की मुहलत और दीजिए। लेकिन साल-भर में तो सात सौ के नौ सौ हो जायेंगे। कहीं नालिश कर दी, तो हजार ही समझो। 

सुबह का वक्त था। वह अपने खेत की मेड़ पर खड़ा अपनी तबाही का दृश्य देख रहा था। देखा, दाऊदयाल का चपरासी कंधे पर लट्ठ रखे चला आ रहा है। प्राण सूख गये। खुदा, अब तू ही इस मुश्किल को आसान कर। कहीं आते-ही-आते गालियाँ न देने लगे। या अल्लाह कहाँ छिप जाऊँ ?

चपरासी ने समीप आकर कहा- रुपये लेकर देना नहीं चाहते ? मियाद कल गुजर गयी। जानते हो न सरकार की ? एक दिन की भी देर हुई और उन्होंने नालिश ठोकी। बेभाव की पड़ेगी।

रहमान काँप उठा। बोला- यहाँ का हाल तो देख रहे हो न ?

चपरासी- यहाँ हाल-हवाल सुनने का काम नहीं। ये चकमे किसी और को देना। सात सौ रुपये ले चलो और चुपके से गिनकर चले आओ।

रहमान- जमादार, सारी ऊख जल गयी। अल्लाह जानता है, अबकी कौड़ी-कौड़ी बेबाक कर देता।

चपरासी- मैं यह कुछ नहीं जानता। तुम्हारी ऊख का किसी ने ठेका नहीं लिया। अभी चलो सरकार बुला रहे हैं।

यह कहकर चपरासी उसका हाथ पकड़ कर घसीटता हुआ चला। गरीब को घर में जाकर पगड़ी बाँधने का मौका न दिया।

दाऊदयाल द्वार पर टहल रहे थे। रहमान जाकर उनके कदमों पर गिर पड़ा और बोला- खुदाबंद, बड़ी बिपत पड़ी हुई है। अल्लाह जानता है कहीं का नहीं रहा।

दाऊ.- क्या सब ऊख जल गयी ?

रहमान- हजूर सुन चुके हैं क्या ? सरकार जैसे किसी ने खेत में झाड़ू लगा दी हो। गाँव के ऊपर ऊख लगी हुई थी गरीबपरवर, यह दैवी आफत न पड़ी होती, तो और तो नहीं कह सकता, हजूर से उरिन हो जाता।

दाऊ.- अब क्या सलाह है ? देते हो या नालिश कर दूँ।

रहमान- हजूर मालिक हैं, जो चाहें करें। मैं तो इतना ही जानता हूँ कि हजूर के रुपये सिर पर हैं और मुझे कौड़ी-कौड़ी देनी है। अपनी सोची नहीं होती। दो बार वादे किये, दोनों बार झूठा पड़ा। अब वादा न करूँगा जब जो कुछ मिलेगा, लाकर हजूर के कदमों पर रख दूँगा। मिहनत-मजूरी से, पेट और तन काटकर, जिस तरह हो सकेगा आपके रुपये भरूँगा।

दाऊदयाल ने मुस्कराकर कहा- तुम्हारे मन में इस वक्त सबसे बड़ी कौन-सी आरजू है ?

रहमान- यही हजूर, कि आपके रुपये अदा हो जायँ। सच कहता हूँ हजूर अल्लाह जानता है।

दाऊ.- अच्छा तो समझ लो कि मेरे रुपये अदा हो गये।

रहमान- अरे हजूर, यह कैसे समझ लूँ, यहाँ न दूँगा, तो वहाँ तो देने पड़ेंगे।

दाऊ.- नहीं रहमान, अब इसकी फिक्र मत करो। मैं तुम्हें आजमाता था।

रहमान- सरकार, ऐसा न कहें। इतना बोझ सिर पर लेकर न मरूँगा।

दाऊ.- कैसा बोझ जी, मेरा तुम्हारे ऊपर कुछ आता ही नहीं। अगर कुछ आता भी हो, तो मैंने माफ कर दिया; यहाँ भी, वहाँ भी। अब तुम मेरे एक पैसे के भी देनदार नहीं हो। असल में मैंने तुमसे जो कर्ज लिया था, वही अदा कर रहा हूँ। मैं तुम्हारा कर्जदार हूँ, तुम मेरे कर्जदार नहीं हो। तुम्हारी गऊ अब तक मेरे पास है। उसने मुझे कम से कम आठ सौ रुपये का दूध दिया है ! दो बछड़े नफे में अलग। अगर तुमने यह गऊ कसाइयों को दे दी होती, तो मुझे इतना फायदा क्योंकर होता ? तुमने उस वक्त पाँच रुपये का नुकसान उठाकर गऊ मेरे हाथ बेची थी। वह शराफत मुझे याद है। उस एहसान का बदला चुकाना मेरी ताकत से बाहर है। जब तुम इतने गरीब और नादान होकर एक गऊ की जान के लिए पाँच रुपये का नुकसान उठा सकते हो, तो मैं तुम्हारी सौगुनी हैसियत रखकर अगर चार-पाँच सौ रुपये माफ कर देता हूँ, तो कोई बड़ा काम नहीं कर रहा हूँ। तुमने भले ही जानकर मेरे ऊपर कोई एहसान न किया हो, पर असल में वह मेरे धर्म पर एहसान था। मैंने भी तो तुम्हें धर्म के काम ही के लिए रुपये दिये थे। बस हम-तुम दोनों बराबर हो गये। तुम्हारे दोनों बछड़े मेरे यहाँ हैं, जी चाहे लेते जाओ, तुम्हारी खेती में काम आयेंगे। तुम सच्चे और शरीफ आदमी हो, मैं तुम्हारी मदद करने को हमेशा तैयार रहूँगा। इस वक्त भी तुम्हें रुपयों की जरूरत हो, तो जितने चाहो, ले सकते हो।

रहमान को ऐसा मालूम हुआ कि उसके सामने कोई फरिश्ता बैठा हुआ है। मनुष्य उदार हो, तो फरिश्ता है; और नीच हो, तो शैतान। ये दोनों मानवी वृत्तियों ही के नाम हैं। रहमान के मुँह से धन्यवाद के शब्द भी न निकल सके। बड़ी मुश्किल से आँसुओं को रोककर बोला- हजूर को इस नेकी का बदला खुदा देगा। मैं तो आज से अपने को आपका गुलाम ही समझूँगा।

दाऊ.- नहीं जी, तुम मेरे दोस्त हो।

रहमान- नहीं हजूर, गुलाम।

दाऊ.- गुलाम छुटकारा पाने के लिए जो रुपये देता है, उसे मुक्तिधन कहते हैं। तुम बहुत पहले ‘मुक्तिधन’ अदा कर चुके। अब भूलकर भी यह शब्द मुँह से न निकालना।

7/18/18
प्यार अगर थामता न पथ में...

जब गुनगुनाने से मामला आगे बढ़ा तो हकीक़त का होके मजबूर मुझे और कारवां गुजर गया जुबान पे चढ़ चुके थे..बस थोड़ा फर्क यह था कि कैफ़ी आज़मी बहुत दूर थे और नीरज बहुत पास..

फिर 1970 के फागुन में प्रेमपुजारी देख क़त निकला तो दिल ओ दिमाग में बस .फूलों के रंग से दिल की कलम..से गूंज रहा था..गीत के रोम रोम में रोमांस छलक रहा था..लेकिन तब तलक रोमांस से अपन की एक कदम की दूरी बची थी..और जो मिली भी तो उससे बहुत शरमा रहा था, अन्यथा नीरज की प्रतिमा तभी न बन जाती..

उसके बाद 1971 की बरसातों में मद्रास में देखा गई ...तेरे मेरे सपने..देख सुन कर एक बार फिर दुनिया घूमने लगी..

हम और बंधेंगे..
हम तुम कुछ और बंधेंगे..
होगा कोई बीच तो हम और बंधेंगे

माई गॉड..दिल ओ दिमाग के पुर्जे हिला दिए थे इंटर का इम्तिहान दिए इस छोरे के..

और कुछ महीनों बाद उषा दीदी की डायरी में एक गीत मिला नीरज का..


प्यार अगर थामता न पथ में उँगली इस बीमार उमर की
हर पीड़ा वैश्या बन जाती, हर आँसू आवारा होता।
निरवंशी रहता उजियाला
गोद न भरती किसी किरन की,
और ज़िन्दगी लगती जैसे-
डोली कोई बिना दुल्हन की,
दुख से सब बस्ती कराहती, लपटों में हर फूल झुलसता
करुणा ने जाकर नफ़रत का आँगन गर न बुहारा होता।
प्यार अगर...
मन तो मौसम-सा चंचल है
सबका होकर भी न किसी का
अभी सुबह का, अभी शाम का
अभी रुदन का, अभी हँसी का
और इसी भौंरे की ग़लती क्षमा न यदि ममता कर देती
ईश्वर तक अपराधी होता पूरा खेल दुबारा होता।
प्यार अगर...
जीवन क्या है एक बात जो
इतनी सिर्फ समझ में आए-
कहे इसे वह भी पछताए
सुने इसे वह भी पछताए
मगर यही अनबूझ पहेली शिशु-सी सरल सहज बन जाती
अगर तर्क को छोड़ भावना के सँग किया गुज़ारा होता।
प्यार अगर...
मेघदूत रचती न ज़िन्दगी
वनवासिन होती हर सीता
सुन्दरता कंकड़ी आँख की
और व्यर्थ लगती सब गीता
पण्डित की आज्ञा ठुकराकर, सकल स्वर्ग पर धूल उड़ाकर
अगर आदमी ने न भोग का पूजन-पात्र जुठारा होता।
प्यार अगर...
जाने कैसा अजब शहर यह
कैसा अजब मुसाफ़िरख़ाना
भीतर से लगता पहचाना
बाहर से दिखता अनजाना
जब भी यहाँ ठहरने आता एक प्रश्न उठता है मन में
कैसा होता विश्व कहीं यदि कोई नहीं किवाड़ा होता।
प्यार अगर...
हर घर-आँगन रंग मंच है
औ’ हर एक साँस कठपुतली
प्यार सिर्फ़ वह डोर कि जिस पर
नाचे बादल, नाचे बिजली,
तुम चाहे विश्वास न लाओ लेकिन मैं तो यही कहूँगा
प्यार न होता धरती पर तो सारा जग बंजारा होता।
प्यार अगर...
7/18/18
गांधी, गीता और गोलवलकर...
संघ साम्प्रदायिक संस्था है : गांधी

जहाँ एक ओर गीता अहिंसा की बात करती है, वहीं दूसरी तरफ़ हिंसा को भी परिस्थितिवश ज़रूरी मानती है। लेकिन गांधी जी ने गीता से केवल अहिंसा का सिद्धान्त लेकर बाक़ी सब कुछ नकारने की चेष्टा की है।”  

यहां गांधी जी के सचिव प्यारेलाल की पुस्तक पूर्णाहुति चतुर्थ खण्ड से एक छोटा सा प्रसंग दिया जा रहा है, जिसमें सितम्बर 1947 में आरएसएस अधिनायक गोलवलकर से गांधी जी की मुलाकात, विभाजन के बाद हुए दंगों में गांधी और फिर उनकी हत्या (संघियों के शब्दों में ‘गांधी वध’ ) में संघ की भूमिका का विस्तार से वर्णन है..

गोलवलकर से गांधी जी के वार्तालाप के बीच में गांधी मंडली के एक सदस्य बोल उठे – ‘संघ के लोगों ने निराश्रित शिविर में बढ़िया काम किया है...उन्होंने अनुशासन, साहस और परिश्रमशीलता का परिचय दिया है.’ 

गांधी जी ने उत्तर दिया – ‘ परंतु यह न भूलिए कि हिटलर के नाजियों और मुसोलिनी के फ़ासिस्टों ने भी यही किया था.’ गांधी जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को तानाशाही दृष्टीकोण रखनेवाली सांप्रदायिक संस्था’ बताया...

अपने एक सम्मेलन में गांधीजी का स्वागत करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता ने उन्हें ‘हिन्दू धर्म द्वारा उत्पन्न किया हुआ एक महान पुरुष’ बताया.. 

उत्तर में गांधीजी बोले – ‘ मुझे हिन्दू होने का गर्व अवश्य है.परंतु मेरा हिन्दू धर्म न तो असहिष्णु है और न बहिष्कारवादी है . हिन्दू धर्म की विशिष्टता, जैसा मैंने उसे समझा है, यह है कि उसने सब धर्मों की उत्तम बातों को आत्मसात कर लिया है ...यदि हिन्दू यह मानते हों कि भारत में अ-हिन्दुओं के लिए समान और सम्मानपूर्ण स्थान नहीं है और मुसलमान भारत में रहना चाहें तो उन्हे घटिया दरजे से संतोष करना होगा… तो इसका परिणाम यह होगा कि हिन्दू धर्म श्रीहीन हो जाएगा . .. मैं आपको चेतावनी देता हूं कि  अगर आपके खिलाफ लगाया जानेवाला यह आरोप सही हो कि मुसलमानों को मारने में आपके संगठन का हाथ है, तो उसका परिणाम बुरा होगा.’ 

 इसके बाद जो प्रश्नोत्तर हुए उसमें गांधीजी से पूछा गया – ‘क्या हिन्दू धर्म आतताइयों को मारने की अनुमति नहीं देता ? यदि नहीं देता तो गीता के दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण ने कौरवों का नाश करने का जो उपदेश दिया है, उसके लिए आपका क्या स्पष्टीकरण है ?’

 गांधीजी ने कहा -‘पहले प्रश्न का उत्तर ‘हां’ और ‘नहीं’ दोनों है . मारने का प्रश्न खडा होने के पहले हम इस बात का अचूक निर्णय करने की शक्ति अपने में पैदा करें कि आततायी कौन है ? दूसरे शब्दों में, हमें ऐसा अधिकार तभी मिल सकता है जब हम पूरी तरह निर्दोष बन जांए ..

एक पापी दूसरे पापी का न्याय करने अथवा फांसी लगाने के अधिकार का दावा कैसे कर सकता है ? रही बात दूसरे प्रश्न की, तो यह  मान भी लिया जाए कि पापी को दंड देने का अधिकार गीता ने स्वीकार किया है, तो भी कानून द्वारा उचित रूप में स्थापित सरकार ही उसका उपयोग भली भांति कर सकती है.. अगर आप न्यायाधीश और जल्लाद  दोनों एक साथ बन जायें तो सरदार और पंडित नेहरू दोनों लाचार हो जांएगे.. उन्हें आपकी सेवा करने का अवसर दीजिए, कानून को अपने हाथों में ले कर उनके प्रयत्नों को विफल मत कीजिए..

...अफलातून देसाई..



7/20/18
भारत में फासीवाद (2 )
 प्रेमकुमार मणि 

 कोई भी चीज अस्तित्व में आती है ,तब उसके पार्श्व में कुछ कारण होते हैं . संघ के गठन के पीछे भी कुछ कारण थे .पहला कारण था इस समय तक राजनीति में सामाजिक  स्वार्थों और उनकी टकराहटों का उदय . यानि राजनीति में वर्चस्व की तलाश . दरअसल यह सामाजिक रूप से वर्चस्वशाली हिन्दू -मुस्लिम तबकों की राजनीति में वर्चस्व हासिल करने की छटपटाहट थी . इसी प्रयास में मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा की स्थापना हुई . यह हिन्दू द्विजों और मुस्लिम अशरफों के सबसे दकियानूसी तबकों की  राजनीतिक अंगड़ाई थी  

        ह्यूम के प्रयासों से उन्नीसवीं सदी के आखिर (1885 ) में इंडियन नेशनल कांग्रेस का गठन हो गया था . सुधारवादी आंदोलनों से जुड़े लोगों ने सामाजिक दायरे से कुछ ऊपर आ कर आर्थिक -राजनीतिक स्थितियों पर भी विचार करना शुरू किया . जैसे ही कांग्रेस का स्वरूप उभरने लगा समाज के निहित स्वार्थ वालों ने इस पर कब्ज़ा ज़माने की बात सोची . इसका एक भीषण रूप 1895 के पुणे कांग्रेस में दिखा ,जब बाल गंगाधर तिलक ने अचानक पंडाल फूँक डालने की धमकी दी . डॉ आंबेडकर ने  अपनी प्रसिद्ध किताब " what congress  and  Gandhi  have done to the untouchables " की शुरुआत इसी प्रसंग से की है . परिपाटी थी कि कांग्रेस की सभा ख़त्म होने के बाद उसी मंच पर  सोशल कॉन्फ्रेंस की सभा होती थी . इस कॉन्फ्रेंस  के करता -धर्ता सुप्रसिद्ध समाज सुधारक महादेव गोविन्द रानाडे थे . इस में समाज के कमजोर तबकों यथा दलितों और पिछड़े वर्गों के विकास के उपायों पर विमर्श होता था . 1895 के पुणे कांग्रेस के स्वागत मंत्री तिलक थे .उन्होंने हंगामा कर दिया कि यदि सोशल कॉन्फ्रेंस की बैठक इस मंच से होगी तब मैं पंडाल फूँक दूंगा . लोग डर गए और यह सभा नहीं हुई . आंबेडकर तो  इसे ही कांग्रेस से दलितों के अलगाव की शुरुआत मानते हैं . तिलक महाराष्ट्रीय ब्राह्मणों के हितों और वर्चस्व की कामना का प्रतिनिधित्व करते थे . वह कांग्रेस को अपने कब्जे में ताकत के बल लेना चाहते थे . 1906 में कांग्रेस की भरी सभा में उनने अध्यक्ष पर जूता चला दिया और नतीजतन कांग्रेस दो फाड़ हो गयी . तिलक की विद्वता पर कोई प्रश्न नहीं है ,लेकिन यह बात सही है कि भारतीय राजनीति में मार -पीट जैसी अशिष्टता की शुरुआत उन्होंने ही की . दूसरे छोर पर गोपाल कृष्ण गोखले थे . पुराने ख्याल के इतिहासकार तिलक को गरमदली (रेडिकल ) और गोखले को नरमदली (मॉडरेट ) कहते हैं . मॉडरेट सामाजिक रूप से अधिक प्रगतिशील थे और रेडिकल सामाजिक दकियानूसी ताकतें थीं जो जातपात और सामाजिक ऊंचनीच का समर्थन करती थीं ,लेकिन ब्रिटिश विरोध पर वे अधिक जुझारू थे .  जवाहरलाल नेहरू जब पढ़ते थे तब तिलक के प्रशंसक थे . अंग्रेज विरोधी उनकी अक्खड़ता जवाहरलाल को आकर्षित करती थी .  उनके पिता ने उन्हें समझाया कि जो सामाजिक रूप से दकियानूसी होगा ,उसकी राजनीतिक प्रगतिशीलता के कोई अर्थ नहीं हैं . गाँधी जब दक्षिण अफ्रीका से लौटे तब उन्होंने गोखले कैंप से खुद को जोड़ा ,उन्हें गुरु रूप में स्वीकार किया ; तिलक से  दूरी बनाई . उत्तर भारत में तिलक का बोलबाला था ,लेकिन इलाहबाद में मोतीलाल नेहरू गोखले की पताका थामे हुए थे . स्वाभाविक था गाँधी नेहरू परिवार से भी आरंभिक दौर में ही जुड़ गए . 

1920 के 1 अगस्त को तिलक की मृत्यु हो गयी . मृत्यु के कुछ पूर्व  गाँधी उनसे मिले थे . तिलक ने विकसित राजनीतिक स्थितियों में गाँधी को समर्थन और आशीर्वाद दिया . लेकिन तिलक के अवसान के बाद उनके शिष्यों ने अपने गुरु के आदेश की ही अवहेलना की .  गाँधी जैसे एक गैरब्राह्मण का नेतृत्व स्वीकार करना उनके लिए कठिन था . ये पांडिचेरी महर्षि अरविंदो को बुलाने गए .उन्होंने राजनीति में आने से इंकार कर दिया . इसी  बीच सावरकर एक नए विचारक के रूप में उभर आये थे . उनकी प्रेरणा से आरएसएस का गठन 1925 ईस्वी में विजयादशमी के रोज नागपुर में हुआ . संस्थापक थे - डॉ ए बी एस मुंजे , डॉ एल बी परांजये , डॉ के बी हेडगेवार , डॉ थोलकर और बाबाराव सावरकर . मुंजे और हेडगेवार तो कांग्रेस से भी प्रमुखता से जुड़े थे ,शेष हिन्दू महासभा में सक्रिय थे . हिन्दू महासभा में भी दो धाराएं बन गयी थीं ,जिसकी चर्चा बाद में होगी .  

   वह समय राष्ट्रीय आंदोलन का था . गाँधी के नेतृत्व में ब्रिटिश साम्राज्य विरोधी महासंग्राम चल रहा था .इसमें कई न्यूनताएँ भी थीं और अंतर्विरोधों की तो भरमार थी ,लेकिन इन तमाम अंतर्विरोधों के बीच से एक भारतीय राष्ट्र को विकसित करने की कोशिश हो रही थी . कांग्रेस और गाँधी ने कई दफा खुद को बदला . 1932 में आंबेडकर ने जब दलितों का प्रश्न उठाया ,तब गाँधी सहित अनेक नेता भौंचक रह गए . पुणे समझौते पर विस्तार  से बात इसलिए नहीं रखूँगा कि इससे विषयांतर होने का खतरा है . किन्तु एक बात तो स्पष्ट है कि इस प्रसंग ने माथे  के बल खड़े राष्ट्रीय आंदोलन को पैरों के बल ला खड़ा किया . 1934 में जब कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन हुआ तब मज़दूर-किसानों के प्रसंग भी राष्ट्रीय आंदोलन के हिस्सा बने . स्वामी सहजानंद के नेतृत्व में ज़मीदार विरोधी किसान आंदोलन का विकास भी इसी दौर में हुआ . ये तमाम आंदोलन राष्ट्रीय आंदोलन को परिष्कृत कर रहे थे . कांग्रेस के अंदर दक्षिणपंथी और छद्म सांप्रदायिक  ताकतें मज़बूत स्थिति  में थीं ,जहाँ समाजवादी और कई दफा जवाहरलाल नेहरू उससे भिड़ रहे थे ,मुकाबला कर रहे थे . लेकिन हिन्दू -मुस्लिम साम्प्रदायिकता की राजनीति जो खतरनाक मोड़ ले रही थी ,उस पर राष्ट्रीय संघर्ष के उत्साह में लोगों ने समुचित ध्यान नहीं दिया . इसके दुष्परिणाम  हमें  आज़ादी मिलते -मिलते मिल गए  . आज़ादी का दिन ,जो हमारे राष्ट्रीय उत्कर्ष का दिन होना चाहिए था ,राष्ट्रीय पतन का दिन हो गया . जिस राष्ट्र को कवियों ,दार्शनिकों और जनता ने हज़ारों साल में गढा- बनाया था ,वह बिखर गया ; दो टुकड़ों में बँट गया . कोहराम और खून से लथपथ भग्न आज़ादी हासिल हुई . आज़ादी मिलने के छह महीने भी नहीं बीते थे कि इसी साम्प्रदायिकता ने उस महान व्यक्ति को गोलियों से ख़त्म कर दिया ,जिसे लम्बे जंग के दौरान अंग्रेज हुकूमत भी मारने की हिम्मत न कर सकी थी .  
 (क्रमशः )

7/21/18
भारत में फासीवाद  
प्रेमकुमार मणि

  हाल के वर्षों में हिन्दू कट्टरतावादी ताकतों की हरकतों से भय की लकीरों की तरह यह आवाज़ कई बार उठी है कि भारत में फासीवादी संकट गहरा रहा है . कुछ समय पहले कम्युनिस्ट नेता सीताराम येचुरी ने इससे इंकार किया था .वह गलत भी नहीं थे . पारिभाषिक रूप से फासीवाद वह है ,जो इटली में बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध (1920 -45 ) में मुसोलिनी के नेतृत्व में स्थापित हुआ . इसके पुख्ता कारण  थे . इटली की सामाजिक -आर्थिक और राजनीतिक स्थितियां ऐसी हो गई थीं कि मुसोलिनी की बातें सुनी गईं .1922 में उसके संघटन के रंगरूटों ने संसद को घेर लिया और जबरन सत्ता हासिल कर ली . उनके समर्थक फासे(fasce ) यानि लोहे के डंडों  (आयरन रॉड) से लैस थे . एक तरह से इसे  डंडावादी  राजनीति कह सकते हैं . जर्मनी में थोड़े  अंतर के साथ हिटलर का  नाज़ीवाद उभरा .यह भी वही था . ठीक यही समय था जब भारत में 1925  में आरएसएस का जन्म हुआ . ऐसी तमाम राजनीति के पीछे एक सामाजिक भय होता है .   येचुरी जैसे कम्युनिस्ट यह नहीं समझते कि भारत में इस तरह की प्रवृतियां ठीक इटली या नाज़ी अंदाज़ में ही नहीं उभरेंगी . ईरान में खोमैनी के नेतृत्व में या पाकिस्तान में इस्लामिक राष्ट्र के रूप में ये प्रवृतियां उभरीं . बांग्लादेश में उसके उभार का एक भिन्न अंदाज़ है . अनेक यूरोपीय देशों में ये प्रवृतियां भिन्न -भिन्न रूपों में दबे रूप में काम कर रही हैं . 

 लेकिन हर जगह इन  प्रवृतियों द्वारा जो कार्रवाइयां हुई उनमे कुछ समानताये दिखती हैं . मसलन हर जगह इन लोगों ने तरक्कीपसंद ,आज़ादख़याल और मानवतावादी लोगों को नेस्तनाबूत करने की कोशिश की . इटली और जर्मनी में कम्युनिस्टों का खात्मा किया .ईरान ,पाकिस्तान ,बांग्लादेश हर जगह कम्युनिस्ट तबाह कर दिए गए . भारत में भी आरएसएस ने गाँधी, नेहरू  और कम्युनिस्टों को  निशाना बनाया . नरेंद्र मोदी भले ही कांग्रेस मुक्त भारत की बात करते हों . उनका लक्ष्य केवल  नेहरू की विरासत को ध्वस्त करने का रहा है . कोंग्रेसी तो पटेल भी थे ,जिसकी ऊँची मूर्ति बनाने में ये लगे हैं या बना चुके हैं .  

      एक और वहम या गलत -फ़हम है . वह है इन ताकतों द्वारा राष्ट्र और धर्म का अपने तरीके से उपयोग . राष्ट्र और धर्म को ये एक साथ जोड़ देना चाहते हैं . कोई भी धर्म या मजहब उस देश समाज की स्थितियों ,ज़रूरतों और उससे जनित मनोविज्ञान की उपज होता है ,लेकिन जब यह  राष्ट्र की सीमाएं लांघ कर अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण करता है ,तब उसके लिए मानवीय होना आवश्यक हो जाता है . बौद्ध अधिक मानवीय हुए तब अंतर्राष्ट्रीय भी हो गए . सावरकर ने इसे ही बौद्धों की कमजोरी मानी . इस्लाम अरब से बाहर निकला तब अरबी स्थानीयता से थोड़ा ही सही मुक्त हुआ और अधिक मानवीय हुआ . उसमे नए विचारों की कोपलें फूटी . मसलन ईरान और भारत में सूफीवाद का प्रकटीकरण हुआ और भारत में तो इस्लाम मस्जिदों और कुरान से निकलकर मज़ारों और संगीत के अनेक रूपों में उभरा . पारम्परिक इस्लाम संगीत से परहेज करता है .लेकिन सूफीवाद की जान कव्वाली (संगीत ) में बसती है .यह इस्लाम का आतंरिक विद्रोह था जो कुरान और मस्जिदों के घेरे -घरानों को तोड़ता था . भारत में इस्लाम अस्सी फीसद इन मजारों से केंद्रित रहा . हाँ ,हाल के दिनों में प्रयासपूर्वक उसका कट्टर रूप उभारा जा रहा है . यह राजनीतिक कवायद है, जिसमे सरकारों की भी भूमिका है .जिन्ना ने जिस इस्लाम का राजनीतिक इस्तेमाल  किया वह कुरान वाला शास्त्रीय   पारम्परिक इस्लाम था ,क्योंकि इसी के साथ मुल्लाओं-पुरोहितों  की एक फ़ौज उनके लिए राजनीतिक कसीदे बुन सकती थी . कट्टरता केलिए एक ग्रन्थ और शास्त्र जरुरी होता है . इसीलिए वैष्णव और सूफी संतों ने शास्त्रों से विद्रोह किया और धर्म को दिल की धड़कन का हिस्सा बनाया . 

हिन्दू समाज में भी यही हुआ . उन्नीसवीं सदी  के आखिर तक हिन्दू धर्म पीठों में वेदों की गिनी- चुनी प्रतियां थीं . मैक्समूलर ने कृष्ण द्वैपायन के बाद वेदों का एक बार फिर सम्पादन किया . संस्कार भी . ईस्ट इंडिया कम्पनी के सहयोग से वह प्रकाशित हुआ . काशी के पंडितों ने मैक्समूलर- सम्पादित वेद से अपने प्रतियों का मिलान किया और उसे संवारा . (हम तो केवल गाल बजाना जानते हैं ,काम तो कुछ दूसरे लोग करते हैं . ) इसका अर्थ यह हुआ की भारत में जो हिंदुत्व था ,वह वेद केंद्रित कम  ही था . यह हिन्दुओं के एक बहुत ही छोटे हिस्से का हिंदुत्व था . पोंगा -हिंदुत्व , जिसके प्रवक्ता दकियानूस पण्डे-पुरोहित होते थे . कबीर ने इन्ही पांडे जनों को ललकारा था .  लेकिन वास्तविक हिंदुत्व अलग रहा . यही वस्तुतः सांस्कृतिक हिंदुत्व था और है . हज़ारों संतों ने जाने कितनी सदियों में इस हिंदुत्व को संवारा -संस्कारित किया   . यही हिंदुत्व भारत के किसानों ,दस्तकारों और मजदूरों का था और है .  कबीर ,रैदास ,नानक  ,दादू ,नाभा जाने कितने संत थे जिन्होंने वेद -पुराणों को दरकिनार कर एक मानवीय हिंदुत्व का पाठ विकसित किया था . यह हिंदुत्व का भागवत पंथ था , जो दूसरों की पीड़ा का ख्याल करता था - "वैष्णव जन तो तेने कहिये जेने पीर पराई जानी रे " इस हिंदुत्व ने आधुनिक ज़माने में फुले और गाँधी को विकसित किया .        
  
 लेकिन इस हिंदुत्व से फासीवादी राजनीति नहीं हो सकती थी . कारण था यह भागवत अथवा वैष्णव हिंदुत्व ; नफरत का भाव सृजित करने में अक्षम था . कबीर और रैदास के राम किसी खास काल या देश में किसी की कोख से जन्मे नहीं थे . वे निर्गुण राम थे ,जो सांसों में बसे थे ,धड़कनों में शामिल थे . "ना मैं मंदिर ,ना मैं मस्जिद ,ना काबे कैलाश में " .मंदिर -मस्जिद में अटने-सिमटने वाले ये राम नहीं थे . मीरा के गुरु रैदास थे . मीरा के कृष्ण उन्मुक्त थे . अपने कृष्ण को उन्होंने अपने प्रेम से ख़रीदा था -"मैंने लियो है गोविंदा मोल , कोई कहै महंगो ,कोई कहे सस्तो ,लियो है बजाके ढोल ." इस कृष्ण को अपने पैर के घुंघरुओं से उन्होंने बाँध लिया था और नाच उठी थीं . स्त्री मुक्ति का यह अबतक का सर्वश्रेष्ठ पाठ है . यह हमारा हिंदुत्व है . इसी हिंदुत्व ने हज़ारों साल से इस भारत देश को संवारा . जाने कितने सांस्कृतिक और सैन्य हमलों को इसके बूते हमारे किसान -मजदूरों -दस्तकारों ने झेला और डिगे नहीं . अपनी सांस्कृतिक अस्मिता अक्षुण्ण रखी . 

   लेकिन इस हिंदुत्व से कोई राजनीति नहीं हो सकती थी . खून खराबा तो और नहीं . इसके लिए हिंसा के भाव चाहिए . यह हिंदुत्व तो  प्रेम का पाठ पढ़ाता है . इसके लिए जरुरी था इसे ख़ारिज किया जाय . सावरकर ने यह काम किया . अपनी पोथी  "हिंदुत्व " में उन ने एक नए हिंदुत्व को प्रतिपादित किया . पारम्परिक इस्लाम की कटटरता उन्हें प्रभावित करती थी . उनका अवचेतन कट्टर  इस्लामिक तंतुओं से बुना था . उन्होंने राजनीति का हिन्दुकरण और हिन्दुओं का सैन्यीकरण का नारा दिया . यह हिन्दू फासीवाद की शुरुआत थी . इससे प्रभावित होकर ही 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानि आरएसएस की स्थापना हुई . 
( क्रमशः)

7/21/18
बाजारू मीडिया में अश्वत्थामा पत्रकार

बाजारू मीडिया हर उस व्यक्ति या वस्तु की उपेक्षा करता है, जिसका मुनाफे से कोई संबंध नहीं..कल्पेश याज्ञनिक जैसे पत्रकार किन परिस्थितियों में आत्महत्या करने को मजबूर होते हैं, यह मीडिया के बाजारूपन में निहित है...समझ लीजिए आज मीडिया में वही सर्वाइव कर पा रहा है जो कृष्ण के हाथों अपने माथे की मणि निकलवा कर अश्वत्थामा बन चुका है..
तीस साल कागजी और कम्प्यूटरीय पत्रकारिता में गुजारने के बाद यही समझ में आया कि हिंदी पत्रकारिता और भारत का मध्यम वर्ग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों की नाल का सिरा जिस जगह से जुड़ा हुआ है वहां अज्ञानता, लिजलिजापन, घटियापन, उदासीनता, मूर्खता के सिवा कुछ नहीं। दोनों ही के अंदर बाहर न भीतर..न भौगोलिक, न सामाजिक और न साहित्यक कैसी भी जानकारी नहीं है। 
अपने ही देश में उत्तरभारत वालों को दक्षिण के चार राज्यों, उनकी लिपि, उनकी भाषा, उनका सामाजिक परिवेश, उनका रहन-सहन, उनके रीति-रिवाज आदि की क्या जानकारी है? उनके लिये आज भी तेलुगू या कन्नड़ की कोई समझ नहीं..वह सिर्फ मद्रासी है। हां, रविवारीय स्तंभ किसी फीचर एजेंसी से खरीदे गए लेखों में केरल के तटों की सुंदरता, कांजीवरम साड़ी, कन्नड़ संगीत या फिल्मों के बारे में सतही और बेहुदा कंटेट ही देखने को मिलता है। 
उत्तर पूर्व के सात राज्यों को हम कितना जानते हैं...बस हमारी पहुंच असम के चाय बागानों तक है या एक सींग वाले गेंडे तक..हमें आज भी यही बताया जाता है कि भारत में सबसे अधिक बारिश चेरापूंजी में होती है..जबकि असलियत यह है कि खदानों के चलते अंधाधुंध जंगल कटाई से चेरापूंजी में अब बहुत कम बारिश होती है और वहां पानी के सभी स्रोत सूख चुके हैं...
आधे से ज़्यादा उत्तर पूर्वी इलाका नशे की गिरफ्त में है...नागालैंड का बच्चा बच्चा नशीले पदार्थ खरीदने के लिए शाम गहराते ही गिरोह में लूटपाट करना शुरू कर देता है...किस तरह एक पीढ़ी बरबाद हो चुकी है..यह कितनों को पता है..लाखों भारतीय फौजियों के चलते गुवाहाटी से आगे बढ़ते ही पूरा इलाका बाकी देश के लिए उतना ही परदेसी है जितना कश्मीर...
दिल्ली में बैठ कर मंगोल चेहरे वालों को विदेशी मान कर उनके साथ हर तरह की अमानुषिक हरकत करने वाले हम भारतीयों को को मीडिया ने अपने ही देश के इतने महत्वपूर्ण हिस्से की कितनी जानकारी दी है...
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो या प्रिंट मीडिया, इन दोनों में काम करने वाले पत्रकारों की भीड़ के लिए पत्रकारिता का मतलब केवल हनक है, पैसा है और रुतबा है। 
हिंदी का सम्पादक प्रबंधन और मालिक की दया पर जीने वाला वो प्राणी है, जिसका सारा समय अपनी कुर्सी को बचाए रखने में बीतता है। करीब दस साल से तो रीढ़विहीन सम्पादक के चलते सारा सम्पादकीय विभाग प्रबंधन मालिक का नौकर बना हुआ है और मालिक अपने गलत-सलत धंधों को बचाए रखने के लिये अखबार का जमकर इस्तेमाल कर रहा है। बल्कि काली कमाई से अखबार खोले ही इसलिये जा रहे हैं ताकि एक सुरक्षित आड़ बन जाए...
नेताओं को रिझाने के लिये उनका प्रशस्तिगान, सरकारी विज्ञापनों के लिये कटोरा लेकर घूमना, यह अब गली-गली का धंधा बन गया है। क्योंकि अखबार ही एकमात्र ऐसा चिराग है जिसका अलादीन कोई और नहीं, खुद मालिक बन जाता है। चिराग घिस कर दौलत, हनक और रुतबा कमाने का काम सम्पादक के जरिये किया जाता है..
हमारा मीडिया आज तलक अपने पाठकों और दर्शकों को भली-भांति नहीं बता पाया कि इस दुनिया के कई देशों में भ्रष्टाचार एक बुराई है। किन देशों में ट्रेन के कूपे में कोई महिला भी पूरी तरह सुरक्षित हो कर सफर कर सकती है या सन 1934 में अंग्रेजी शासन काल में महिलाएं आज के मुकाबले लाख गुना सुरक्षित थीं। या कई देशों में शारीरिक श्रम कतई बुरा नहीं है। या प्यार करना समाज अवहेलना नहीं है। लेकिन यह सब लिखने का क्या फायदा, जब इलेक्ट्रोनिक माडिया का हर चैनल दिन भर बाबाओं, ज्योतिषियों के जरिये पूरे देश को अंधविश्वास में जकड़ रहा है और अखबारों की वेबसाइट पर बताया जा रहा है कि 29 फरवरी को किस आसन से संभोग करना चाहिये...

7/24/18
बाबर की माँ का पूर्वज और विश्व इतिहास का सबसे क्रूर और वहशी लुटेरा चंगेज़ खान, जिसकी सेना जहाँ से भी गुजरती थी, अपने पीछे बर्बादी की ऐसी कहानियां छोड़कर चली जाती थी की सदियों तक उनको याद कर लोगों की रूह काँपती रही !

एक अनुसंधान के अनुसार इस क्रूर मंगोल योद्धा ने अपने हमलों में इस कदर लूटपाट और खून-खराबा किया कि एशिया में चीन, अफगानिस्तान सहित उज्बेकिस्तान, तिब्बत और बर्मा आदि देशों की बहुत बड़ी आबादी का सफाया ही हो गया था !
उसने सन 1219 में ईरान पर हमला कर वहां की 75 प्रतिशत आबादी का समूल खात्मा कर दिया !
उज़्बेकिस्तान के बड़े शहर बुखारा और राजधानी समरकंद को पूरी तरह जला कर राख कर दिया, बुखारा की 10 लाख की आबादी में से सिर्फ 50 हज़ार लोग ही जिंदा बच सके थे !
इतिहासकारों के अनुसार चंगेज़ ख़ान के हमले के समय जितनी आबादी पूरे ईरान की थी, उतनी आबादी वापिस होने में 750 साल का लंबा समय लगा !
चंगेज़ ने जब चीन की दीवार को भेदकर उसकी राजधानी बीजिंग पर कब्जा किया तो उसके बाद चीन की जनसंख्या में अब तक की सबसे बड़ी गिरावट दर्ज की गई थी !
एक अनुमान के अनुसार उसने अपने समय की 11 फीसदी आबादी का सफाया कर दिया जो तकरीबन 4 करोड़ बनती है !

लेकर एक दिलचस्प बात यह है कि उसके रक्तपात ने वातावरण से 70 करोड़ टन कार्बन हटाने में मदद की !
एक अनुसंधान के मुताबिक उसके हमलों से खेती और इंसानी आबादी वाली जमीन जंगलों में तब्दील हो गई जिसके पेड़ों ने तकरीबन 70 करोड़ टन कार्बन वातावरण से सोख लिया ! यह मात्रा आज की दुनिया में 1 साल में इस्तेमाल पेट्रोल से फैलने वाले प्रदूषण के बराबर है !
यह वैश्विक तापमान को कम करने की मानव-निर्मित पहली घटना थी !
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"चंगेज़" नाम के साथ "ख़ान" लगा होने की वजह से अधिकतर लोग यह मान लेते है कि वह मुसलमान था, जबकि ऐसा नही है !

चंगेज़ ख़ान का असली नाम "तेमुजिन" था और वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था !

मंगोलों की सभा ने उसे अपना सरदार घोषित कर दिया और "कागान" की उपाधि दी जो आगे चलकर "ख़ान" में बदल गया ! "कागान" का अर्थ होता है "सम्राट सरदार" !

"चंगेज़" नाम उसे बाद में मिला जब कई कबीलों ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली और पृथ्वी का एक बड़ा क्षेत्र उसके कबज़े में आ गया ! "चंगेज़" शब्द का अर्थ होता है "विश्व का समुंद्र" !

तुमेजिन अब "चंगेज़ ख़ान" बन चुका था जिसका मतलब होता है ‘विश्व सम्राट" !
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आम तौर पर चंगेज़ खान को मुसलमान समझ लिया जाता है , लेकिन ऐसा नहीं था ! 
वास्तविकता तो ये थी की, मुसलमानों के लिए तो चंगेज खान मौत और दहशत का दूसरा नाम था 
चंगेज खान ने मुस्लिम साम्राज्य को लगभग नष्ट ही कर दिया था !

Girraj Ved

7/27/18
एक ऐसा व्यक्ति और पत्रकार जिसने जन्म और शिक्षा कहीं और ली, पर अपनी जिंदगी के बेहतरीन साल बिहार में गुजारे। सिर्फ गुजारा ही नही बिहार उनके भीतर ऐसा उतरता चला गया कि लोग उन्हें सबसे बड़ा बिहारी मानने लगे। एक किताब लिखी #कबीरा उसमे बिहार जिंदा हो उठा। किताब में एक पाठ लिखा #बाढ़नामा जो उत्तर बिहार के बाढ़ पर रिपोर्टिंग की नजीर बन गयी। सिर्फ रिपोर्टिंग ही नहीं उसके साथ किस्सागोई ऐसी की पढ़ने की ललक बरकरार रहे। मैं बात इस पोस्ट के लेखक वरिष्ठ पत्रकार Rajeev Mittal की कर रहा हूँ। परसो उन्होंने कहा कि यार मुजफ्फरपुर काँड पर लिखूंगा जरूर और आज पोस्ट सामने है। बेहतरीन सर।।

Santosh Kumar jha

आओ #ब्रजेश ठाकुर तुम्हें कहानी सुनाऊं

वैसे तो ईश्वर की कृपा से देश भर में ब्रजेश ठाकुर संस्कृति ठाठे मार रही है..हर राज्य की सरकार तुम्हारे दम पर अठखेलियाँ कर रही है..नीतीश बाबू तुम्हारे काम से मुतमईन हैं..नीतीश खुश तो नीतीश के दिल्ली वाले अब्बा भी खुश..तुमसे तुम्हारा समाज भी खुश..अपने पिता की समाजसेवा वाली भावना से बेटी निकिता आनंद भी गदगद..

तुमसे बात करने का मन इसलिए हुआ कि कुछ साल मैंने भी मुज़फ्फरपुर में गुजारे..हो सकता है किसी पान की दुकान पर तुमसे दो चार बात भी हुई हो..पेशा हम दोनों का एक ही..पर तुम पत्रकार के अलावा समाजसेवा में भी लगे रहे..जबकि अफसोस..अपन रूखी सूखी पत्रकारिता ही करते रहे और एक दिन मुज़फ्फरपुर से विदा हो लिये..

चलो तुम्हें तुम्हारे सेवाभाव के मद्देनजर तुम्हें कुछ बताऊँ..कूट भाषा में बता रहा हूँ..मतलब खुद ब खुद निकाल लेना..

* उसे कल्पना में जीप में रखी टोकरी में पंजे बांध कर रखे गए मुर्गों की आंखें दिखाई देने लगीं..जान पड़ा कि मकान में बंद वो सभी औरतें उन मुर्गों जैसे हाल में हैं..जब चाहे उनकी गर्दन मरोड़ कर उन्हें समाप्त किया जा सकता है और खाने वाले पूरा मजा ले सकते हैं..*

* वो किसी अंग्रेज की अवैध औलाद..गोरी मेम जैसे..गांव के जमींदार के बेटे को उससे आशनाई हो गई..कुछ दिन तो गांव के ऊंची जात वाले रसूखदार लोग खामोश रहे..एक दिन जमींदार के छोकरे की अनुपस्थिति में उस लड़की को मंदिर में बुलाकर उसके साथ सारे करम कर डाले गए..और नदी किनारे उसे मरा जान फेंक दिया गया.. नाव से लौट रहे जमींदार के बेटे को वो किनारे पड़ी मिली तो उसे नाव पे लाद लिया..उसे गोद में लिए पड़ा रहा..फटे कपड़ों से झांक रहा बदन उसको उकसाने लगा..लड़की के प्राण पखेरू कब के उड़ चुके थे..वो मुर्दा शरीर से ही खेलता रहा और कहीं रुक कर उसका शरीर फेंक दिया*

बोर तो नहीं हो रहे न ठाकुर..लो एक और कहानी सुनो..तुम्हारे बहुत काम आएगी जब बालिकागृह कांड से निर्दोष छूट जाओगे..
पिछला जो सुनाया वो यशपाल और कोंकणी 
लेखक खनोलकर का है..अब मंटो को सुनो..

* बेहद रसूखदार रिटायर्ड अफसर के घर उनकी दस साल की बेटी की हमउम्र लड़की घर के ऊपर के कामकाज को रख ली गई थी..बेगम साहिबा फ़राग दिल की थीं..उसके लिए अच्छे अच्छे कपड़े सिलवा दिए..काम से फ़ारिग हो कर दोपहर में वो लड़की अफसर के बेटी बेटे के साथ धमाचौकड़ी मचाती..

उस शोरगुल से कई बार बैठकखाने में आराम फर्मा रहे खानबहादुर साहिब को परेशानी भी होती..

उन जाड़ों में रिश्तेदारी में शादी के चलते बेगम साहिबा बच्चों को लेकर वहां चली गयीं.. रात को लौटना था..किसी काम से बीच में ही आ गयीं तो देखा बैठकखाना अजीब सी बदबू भरा है और खान बहादुर साहिब उस जाड़े की रात में गुसलखाने में नहा रहे हैं..बदबू का कारण तलाशते बेगम को तख़्त के नीचे खून से लिथड़ी खानबहादुर की दातौन मिली..

सुबह खानबहादुर को गिरफ्तार कर लिया गया..जुर्म संगीन था..उस रात शादां अपनी झोपड़ी बहुत बुरे हाल में पहुंची..घर पहुंचते ही बेहोश हो गई..उसे तुरंत अस्पताल ले गए..शादां को थोड़ा होश आया..मुहँ से सिर्फ  खान बहादुर निकला और फिर बेहोशी में ही मर गयी..मुकदमा चला..लेकिन कोई गवाह न होने से साफ छूट गए खान बहादुर साहिब को कोई फर्क नहीं पड़ा..बस, उन्होंने दातौन करना छोड़ दिया..

7/30/18
प्रेमचंद का "कर्बला"

गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन वापस लेने के बाद देश कई बरस साम्प्रदायिक दंगों में झुलसता रहा..उसी दौरान
प्रेमचंद ने नाटक ‘कर्बला’ लिखा, जो हिन्दू-मुसलिम एकता की अद्भुत मिसाल बन सकता था लेकिन उसे छापने की हिम्मत उर्दू का कोई प्रकाशक नहीं दिखा पाया। यहां तक कि उनके बेहद करीबी दयानारायन निगम भी उसे दाबे बैठे रहे। 

मुंशी जी उन्हें 17 फरवरी 1924 में लिखते हैं-मैंने इधर पांच महीने में अपने नाविल रंगभूमि के साथ एक ड्रामा लिखा है जिसका नाम कर्बला है। इसमें कर्बला के वाक़यात पर तारीख़ी हैसियत को कायम रक्खे हुए एक ड्रामा लिखा गया है। मैंने खत तो हिंदी में रखा है लेकिन जुबान सरासर उर्दू में है। किस्सा निहायत दिलचस्प है, पर निहायत दर्दनाक। 

मैंने माधुरी में कर्बला पर एक मजमून लिखा था, जिसकी कद्र भी काफी हुई। कोई वजह नहीं कि उर्दू में ड्रामा मक़बूल न हो। तब बस खत तब्दील कर देना पड़ेगा। बाद को यह सिलसिला किताबी सूरत में निकल जाएगा। इसका यकीन रखिये कि मैंने एहतराम को कहीं नजरअंदाज नहीं होने दिया है। एक-एक लफ्ज़ पर इस बात का ख्याल रखा है कि मुसलमानों के मज़हबी एहसासात को सदमा न पहुंचे। मक़सद है पॉलिटिकल-आपसी इत्तहाद को आगे बढ़ाना, और कुछ नहीं। 

(कर्बला की लड़ाई में उनको अपनी मनचाही विषयवस्तु मिल गयी थी। हज़रत हुसैन कर्बला के मैदान में शहीद हुए थे। मुहर्रम उसी की याद और उसी का मातम है। अक्सर दंगे मुहर्रम के मौके पर ही हुआ करते थे और इसे एक व्यंग ही कहना चाहिये कि उसी मुहर्रम की विषयवस्तु में मुंशी जी को एकता का आधार मिल गया।)


नाटक की की भूमिका में मुंशीजी ने लिखा था-कितने खेद और लज्जा की बात है कि कई शताब्दियों से मुसलमानों के साथ रहने पर भी अभी तक हम लोग उनके इतिहास से अनभिज्ञ हैं। हिन्दू-मुसलिम वैमनस्य का एक कारण यह भी है कि हम हिन्दुओं को मुसलिम महापुरुषों के सच्चरित्रों का ज्ञान नहीं है। जहां किसी मुसलमान बादशाह का जिक्र आया कि हमारे सामने औरंगजेब की तस्वीर खिंच गयी।

नाटक लिखने के पीछे एक कारण यह भी है कि कर्बला की लड़ाई में कुछ हिन्दू भी हज़रत हुसैन के साथ लड़े थे। इस बात के ऐतिहासिक प्रमाण हैं कि कुछ हिन्दू हुसैन के साथ कर्बला में शहीद हुए थे। 

बहुत दुखी मन से मुंशी जी ने 22 जुलाई 1924 को दयानारायन निगम को लिखा----
बेहतर है कर्बला न निकालिये। मेरा कोई नुकसान नहीं है। न मैं मुफ्त का झंझट सर पे लेने को तैयार हूं। मैंने हज़रत हुसैन का हाल पढ़ा उनसे श्रद्धा हुई। उनकी बलिदान भावना ने मोहित कर दिया। उसका नतीजा यह ड्रामा था।

7/31/18
जेहाद...

सौ साल पहले लिखी गई मुंशी प्रेमचंद की कहानी जो पाठ्यपुुु
 काओ एक काफ़िला अपने धर्म की रक्षा के लिए पश्चिमोत्तर के पर्वत-प्रदेश से भागा चला आ रहा था. मुद्दतों से उस प्रांत में हिंदू और मुसलमान साथ-साथ रहते चले आये थे. धार्मिक द्वेष का नाम न था. पठानों के जिरगे तो हमेशा लड़ते रहते थे. उनकी तलवारों पर कभी जंग न लगने पाता था. बात-बात पर उनके दल संगठित हो जाते थे. शासन की कोई व्यवस्था न थी. हर एक जिरगे और कबीले की व्यवस्था अलग थी. आपस के झगड़ों को निपटाने का भी तलवार के सिवा और कोई साधन न था. जान का बदला जान था, खून का बदला खून, इस नियम में कोई अपवाद न था. यही उनका धर्म था, यही ईमान, मगर उस भीषण रक्तपात में भी हिंदू परिवार शांति से जीवन व्यतीत करते थे.
परन्तु एक महीने से देश की हालत बदल गयी है. एक मुल्ला ने न जाने कहाँ से आ कर अनपढ़ धर्मशून्य पठानों में धर्म का भाव जागृत कर दिया है. उसकी वाणी में कोई ऐसी मोहिनी है कि बूढ़े, जवान, स्त्री-पुरुष खिंचे चले आते हैं. वह शेरों की तरह गरज कर कहता है - "खुदा ने तुम्हें इसलिए पैदा किया है कि दुनिया को इस्लाम की रोशनी से रोशन कर दो, दुनिया से कुफ्र का नमोनिशान मिटा दो. एक काफिर के दिल को इस्लाम के उजाले से रोशनी कर देने का सवाब सारी उम्र के रोजे, नमाज और जकात से कहीं ज्यादा है. जन्नत की हूरें तुम्हारी बलाएँ लेंगी और फरिश्ते तुम्हारे कदमों की खाक माथे पर मलेंगे, खुदा तुम्हारी पेशानी पर बोसे देगा." और सारी जनता यह आवाज सुन कर मजहब के नारों से मतवाली हो जाती है. उसी धार्मिक उत्तेजना ने कुफ्र और इस्लाम का भेद उत्पन्न कर दिया है. प्रत्येक पठान जन्नत का सुख भोगने के लिए अधीर हो उठा है. उन्हीं हिंदुओं पर जो सदियों से शांति के साथ रहते थे, हमले होने लगे हैं. कहीं उनके मंदिर ढाये जाते हैं, कहीं उनके देवताओं को गालियाँ दी जाती हैं. कहीं उन्हें जबरदस्ती इस्लाम की दीक्षा दी जाती है. हिंदू संख्या में कम हैं, असंगठित हैं, बिखरे हुए हैं, इस नयी परिस्थिति के लिए बिलकुल तैयार नहीं. उनके हाथ-पाँव फूले हुए हैं, कितने ही तो अपनी जमा-जथा छोड़ कर भाग खड़े हुए हैं, कुछ इस आँधी के शांत हो जाने का अवसर देख रहे हैं. यह काफिला भी उन्हीं भागनेवालों में था.
दोपहर का समय था. आसमान से आग बरस रही थी. पहाड़ों से ज्वाला-सी निकल रही थी. वृक्ष का कहीं नाम न था. ये लोग राज-पथ से हटे हुए, पेचीदा औघट रास्तों से चले आ रहे थे. पग-पग पर पकड़ लिये जाने का खटका लगा हुआ था। यहाँ तक कि भूख, प्यास और ताप से विकल होकर अंत को लोग एक उभरी हुई शिला की छाँह में विश्राम करने लगे. सहसा कुछ दूर पर एक कुआँ नजर आया, वहीं डेरे डाल दिये. भय लगा हुआ था कि जिहादियों का कोई दल पीछे से न आ रहा हो. दो युवकों ने बंदूक भर कर कंधे पर रखीं और चारों तरफ गश्त करने लगे, बूढ़े कम्बल बिछा कर कमर सीधी करने लगे, स्त्रियाँ बालकों को गोद से उतार कर माथे का पसीना पोंछने और बिखरे हुए केशों को सँभालने लगीं, सभी के चेहरे मुरझाये हुए थे, सभी चिंता और भय से त्रस्त हो रहे थे, यहाँ तक कि बच्चे भी जोर से न रोते थे. दोनों युवकों में एक लम्बा, गठीला रूपवान है, उसकी आँखों से अभिमान की रेखाएँ-सी निकल रही हैं, मानो वह अपने सामने किसी की हकीकत नहीं समझता, मानो उसकी एक-एक गत पर आकाश के देवता जयघोष कर रहे हैं. दूसरा कद का दुबला-पतला, रूपहीन-सा आदमी है, जिसके चेहरे से दीनता झलक रही है, मानो उसके लिए संसार में कोई आशा नहीं, मानो वह दीपक की भाँति रो-रो कर जीवन व्यतीत करने ही के लिए बनाया गया है, उसका नाम धर्मदास है, इसका ख़ज़ाँचन्द.
धर्मदास ने बंदूक को जमीन पर टिका कर एक चट्टान पर बैठते हुए कहा - तुमने अपने लिए क्या सोचा. कोई लाख-सवा लाख की सम्पत्ति रही होगी तुम्हारी.
ख़ज़ाँचंद ने उदासीन भाव से उत्तर दिया - लाख, सवा लाख की तो नहीं, हाँ, पचास-साठ हजार तो नकद ही थे,
‘तो अब क्या करोगे.
जो कुछ सिर पर आयेगा, झेलूँगा ! रावलपिंडी में दो-चार सम्बन्धी हैं, शायद कुछ मदद करें.
तुमने क्या सोचा है?’
‘मुझे क्या गम ! अपने दोनों हाथ अपने साथ हैं। वहाँ इन्हीं का सहारा था, आगे भी इन्हीं का सहारा है।’
‘आज और कुशल से बीत जाये तो फिर कोई भय नहीं।’
‘मैं तो मना रहा हूँ कि एकाध शिकार मिल जाय। एक दर्जन भी आ जायँ तो भून कर रख दूँ।’
इतने में चट्टानों के नीचे से एक युवती हाथ में लोटा-डोर लिये निकली और सामने कुएँ की ओर चली। प्रभात की सुनहरी, मधुर, अरुणिमा मूर्तिमान हो गयी थी। धर्मदास पानी लेकर लौट ही रहा था कि उसे पश्चिम की ओर से कई आदमी घोड़ों पर सवार आते दिखायी दिये। जरा और समीप आने पर मालूम हुआ कि कुल पाँच आदमी हैं। उनकी बंदूक की नलियाँ धूप में साफ चमक रही थीं। धर्मदास पानी लिये हुए दौड़ा कि कहीं रास्ते ही में सवार उसे न पकड़ लें लेकिन कंधे पर बंदूक और एक हाथ में लोटा-डोर लिये वह बहुत तेज न दौड़ सकता था। फासला दो सौ गज से कम न था। रास्ते में पत्थरों के ढेर टूटे-फूटे पड़े हुए थे। भय होता था कि कहीं ठोकर न लग जाय, कहीं पैर न फिसल जायँ। इधर सवार प्रतिक्षण समीप होते जाते थे। अरबी घोड़ों से उसका मुकाबला ही क्या, उस पर मंजिलों का धावा हुआ। मुश्किल से पचास कदम गया होगा कि सवार उसके सिर पर आ पहुँचे और तुरंत उसे घेर लिया। धर्मदास बड़ा साहसी था, पर मृत्यु को सामने खड़ी देख कर उसकी आँखों में अँधेरा छा गया, उसके हाथ से बंदूक छूट कर गिर पड़ी। पाँचों उसी के गाँव के महसूदी पठान थे।
एक पठान ने कहा-उड़ा दो सिर मरदूद का। दग़ाबाज़ काफिर।
दूसरा - नहीं नहीं, ठहरो, अगर यह इस वक्त भी इस्लाम कबूल कर ले, तो हम इसे मुआफ कर सकते हैं। क्यों धर्मदास, तुम्हें इस दग़ा की क्या सजा दी जाय ? हमने तुम्हें रात-भर का वक्त फैसला करने के लिए दिया था। मगर तुम इसी वक्त जहन्नुम पहुँचा दिये जाओ, लेकिन हम तुम्हें फिर मौका देते हैं। यह आखिरी मौका है। अगर तुमने अब भी इस्लाम न कबूल किया, तो तुम्हें दिन की रोशनी देखनी नसीब न होगी।
धर्मदास ने हिचकिचाते हुए कहा-जिस बात को अक्ल नहीं मानती, उसे कैसे…
पहले सवार ने आवेश में आकर कहा-मजहब को अक्ल से कोई वास्ता नहीं।
तीसरा - कुफ्र है ! कुफ्र है !
पहला - उड़ा दो सिर मरदूद का, धुआँ इस पार।
दूसरा - ठहरो-ठहरो, मार डालना मुश्किल नहीं, जिला लेना मुश्किल है। तुम्हारे और साथी कहाँ हैं धर्मदास ?
धर्मदास - सब मेरे साथ ही हैं।
दूसरा - कलामे शरीफ़ की कसम, अगर तुम सब खुदा और उनके रसूल पर ईमान लाओ, तो कोई तुम्हें तेज निगाहों से देख भी न सकेगा।
धर्मदास - आप लोग सोचने के लिए और कुछ मौका न देंगे।
इस पर चारों सवार चिल्ला उठे - नहीं, नहीं, हम तुम्हें न जाने देंगे, यह आखिरी मौका है।
इतना कहते ही पहले सवार ने बंदूक छतिया ली और नली धर्मदास की छाती की ओर करके बोला-बस बोलो, क्या मंजूर है?
धर्मदास सिर से पैर तक काँप कर बोला-अगर मैं इस्लाम कबूल कर लूँ तो मेरे साथियों को तो कोई तकलीफ न दी जायेगी?
दूसरा - हाँ, अगर तुम जमानत करो कि वे भी इस्लाम कबूल कर लेंगे।
पहला - हम इस शर्त को नहीं मानते। तुम्हारे साथियों से हम खुद निपट लेंगे। तुम अपनी कहो। क्या चाहते हो ? हाँ या नहीं ?
धर्मदास ने जहर का घूँट पी कर कहा-मैं खुदा पर ईमान लाता हूँ।
पाँचों ने एक स्वर से कहा-अलहमद व लिल्लाह ! और बारी-बारी से धर्मदास को गले लगाया।
श्यामा हृदय को दोनों हाथों से थामे यह दृश्य देख रही थी। वह मन में पछता रही थी कि मैंने क्यों इन्हें पानी लाने भेजा ? अगर मालूम होता कि विधि यों धोखा देगा, तो मैं प्यासों मर जाती, पर इन्हें न जाने देती। श्यामा से कुछ दूर ख़ज़ाँचंद भी खड़ा था। श्यामा ने उसकी ओर क्षुब्ध नेत्रों से देख कर कहा- अब इनकी जान बचती नहीं मालूम होती। 
ख़ज़ाँचंद - बंदूक भी हाथ से छूट पड़ी है।
श्यामा - न जाने क्या बातें हो रही हैं। अरे गजब ! दुष्ट ने उनकी ओर बंदूक तानी है !
ख़ज़ाँ. - जरा और समीप आ जायँ, तो मैं बंदूक चलाऊँ। इतनी दूर की मार इसमें नहीं है।
श्यामा - अरे ! देखो, वे सब धर्मदास को गले लगा रहे हैं। यह माजरा क्या है ?
ख़ज़ाँ. - कुछ समझ में नहीं आता।
श्यामा - कहीं इसने कलमा तो नहीं पढ़ लिया ?
ख़ज़ाँ. - नहीं, ऐसा क्या होगा, धर्मदास से मुझे ऐसी आशा नहीं है।
श्यामा - मैं समझ गयी। ठीक यही बात है। बंदूक चलाओ।
ख़ज़ाँ. - धर्मदास बीच में हैं। कहीं उन्हें न लग जाय।
श्यामा - कोई हर्ज नहीं। मैं चाहती हूँ, पहला निशाना धर्मदास ही पर पड़े। कायर ! निर्लज्ज ! प्राणों के लिए धर्म त्याग किया। ऐसी बेहयाई की जिंदगी से मर जाना कहीं अच्छा है। क्या सोचते हो। क्या तुम्हारे भी हाथ-पाँव फूल गये। लाओ, बंदूक मुझे दे दो। मैं इस कायर को अपने हाथों से मारूँगी।
ख़ज़ाँ. - मुझे तो विश्वास नहीं होता कि धर्मदास …
श्यामा - तुम्हें कभी विश्वास न आयेगा। लाओ, बंदूक मुझे दो। खडे़ क्या ताकते हो? क्या जब वे सिर पर आ जायँगे, तब बंदूक चलाओ? क्या तुम्हें भी यह मंजूर है कि मुसलमान हो कर जान बचाओ? अच्छी बात है, जाओ। श्यामा अपनी रक्षा आप कर सकती है; मगर उसे अब मुँह न दिखाना।
ख़ज़ाँचंद ने बंदूक चलायी। एक सवार की पगड़ी को उड़ाती हुई निकल गयी। जिहादियों ने ‘अल्लाहो अकबर !’ की हाँक लगायी। दूसरी गोली चली और घोड़े की छाती पर बैठी। घोड़ा वहीं गिर पड़ा। जिहादियों ने फिर ‘अल्लाहो अकबर !’ की सदा लगायी और आगे बढ़े। तीसरी गोली आयी। एक पठान लोट गया, पर इसके पहले कि चौथी गोली छूटे, पठान ख़ज़ाँचंद के सिर पर पहुँच गये और बंदूक उसके हाथ से छीन ली। एक सवार ने ख़ज़ाँचंद की ओर बंदूक तान कर कहा-उड़ा दूँ सिर मरदूद का, इससे खून का बदला लेना है।
दूसरे सवार ने जो इनका सरदार मालूम होता था, कहा-नहीं-नहीं, यह दिलेर आदमी है। ख़ज़ाँचंद, तुम्हारे ऊपर दगा, खून और कुफ्र, ये तीन इल्ज़ाम हैं, और तुम्हें कत्ल कर देना ऐन सवाब है, लेकिन हम तुम्हें एक मौका और देते हैं। अगर तुम अब भी खुदा और रसूल पर ईमान लाओ, तो हम तुम्हें सीने से लगाने को तैयार हैं। इसके सिवा तुम्हारे गुनाहों का और कोई कफारा (प्रायश्चित्त) नहीं है। यह हमारा आखिरी फैसला है। बोलो, क्या मंजूर है?
चारों पठानों ने कमर से तलवारें निकाल लीं, और उन्हें ख़ज़ाँचंद के सिर पर तान दिया मानो ‘नहीं’ का शब्द मुँह से निकलते ही चारों तलवारें उसकी गर्दन पर चल जायँगी! अचानक ख़ज़ाँचंद का मुखमंडल विलक्षण तेज से आलोकित हो उठा। उसकी दोनों आँखें स्वर्गीय ज्योति से चमकने लगीं। दृढ़ता से बोला-तुम एक हिन्दू से यह प्रश्न कर रहे हो? क्या तुम समझते हो कि जान के खौफ से वह अपना ईमान बेच डालेगा? हिंदू को अपने ईश्वर तक पहुँचने के लिए किसी नबी, वली या पैगम्बर की जरूरत नहीं! चारों पठानों ने कहा - काफिर ! काफिर !
ख़ज़ाँ. - अगर तुम मुझे काफिर समझते हो तो समझो। मैं अपने को तुमसे ज्यादा खुदापरस्त समझता हूँ। मैं उस धर्म को मानता हूँ, जिसकी बुनियाद अक्ल पर है। आदमी में अक्ल ही खुदा का नूर (प्रकाश) है और हमारा ईमान हमारी अक्ल…
चारों पठानों के मुँह से निकला ‘काफिर ! काफिर !’ और चारों तलवारें एक साथ ख़ज़ाँचंद की गर्दन पर गिर पड़ीं। लाश जमीन पर फड़कने लगी। धर्मदास सिर झुकाये खड़ा रहा। वह दिल में खुश था कि अब ख़ज़ाँचंद की सारी सम्पत्ति उसके हाथ लगेगी और वह श्यामा के साथ सुख से रहेगा, पर विधाता को कुछ और ही मंजूर था। श्यामा अब तक मर्माहत-सी खड़ी यह दृश्य देख रही थी। ज्यों ही ख़ज़ाँचंद की लाश जमीन पर गिरी, वह झपट कर लाश के पास आयी और उसे गोद में लेकर आँचल से रक्त-प्रवाह को रोकने की चेष्टा करने लगी। उसके सारे कपड़े खून से तर हो गये। उसने बड़ी सुंदर बेल-बूटोंवाली साड़ियाँ पहनी होंगी, पर इस रक्त-रंजित साड़ी की शोभा अतुलनीय थी। बेल-बूटोंवाली साड़ियाँ रूप की शोभा बढ़ाती थीं, यह रक्त-रंजित साड़ी आत्मा की छवि दिखा रही थी। ऐसा जान पड़ा मानो ख़ज़ाँचंद की बुझती आँखें एक अलौकिक ज्योति से प्रकाशमान हो गयी हैं। उन नेत्रों में कितना संतोष, कितनी तृप्ति, कितनी उत्कंठा भरी हुई थी। जीवन में जिसने प्रेम की भिक्षा भी न पायी, वह मरने पर उत्सर्ग जैसे स्वर्गीय रत्न का स्वामी बना हुआ था।

धर्मदास ने श्यामा का हाथ पकड़ कर कहा-श्यामा, होश में आओ, तुम्हारे सारे कपड़े खून से तर हो गये हैं। अब रोने से क्या हासिल होगा ? ये लोग हमारे मित्र हैं, हमें कोई कष्ट न देंगे। हम फिर अपने घर चलेंगे और जीवन के सुख भोगेंगे? श्यामा ने तिरस्कारपूर्ण नेत्रों से देख कर कहा-तुम्हें अपना घर बहुत प्यारा है, तो जाओ। मेरी चिंता मत करो, मैं अब न जाऊँगी। हाँ, अगर अब भी मुझसे कुछ प्रेम हो तो इन लोगों से इन्हीं तलवारों से मेरा भी अंत करा दो। धर्मदास करुणा-कातर स्वर से बोला-श्यामा, यह तुम क्या कहती हो, तुम भूल गयीं कि हमसे-तुमसे क्या बातें हुई थीं? मुझे खुद ख़ज़ाँचंद के मारे जाने का शोक है, पर भावी को कौन टाल सकता है?
श्यामा-अगर यह भावी थी, तो यह भी भावी है कि मैं अपना अधम जीवन उस पवित्र आत्मा के शोक में काटूँ, जिसका मैंने सदैव निरादर किया। यह कहते-कहते श्यामा का शोकोद्गार, जो अब तक क्रोध और घृणा के नीचे दबा हुआ था, उबल पड़ा और वह ख़ज़ाँचंद के निस्पंद हाथों को अपने गले में डाल कर रोने लगी। चारों पठान यह अलौकिक अनुराग और आत्म-समर्पण देख कर करुणार्द्र हो गये। सरदार ने धर्मदास से कहा-तुम इस पाकीजा खातून से कहो, हमारे साथ चले। हमारी जाति से इसे कोई तकलीफ न होगी। हम इसकी दिल से इज्जत करेंगे।
धर्मदास के हृदय में ईर्ष्या की आग धधक रही थी। वह रमणी, जिसे वह अपनी समझे बैठा था, इस वक्त उसका मुँह भी नहीं देखना चाहती थी। बोला-श्यामा, तुम चाहो इस लाश पर आँसुओं की नदी बहा दो, पर यह जिंदा न होगी। यहाँ से चलने की तैयारी करो। मैं साथ के और लोगों को भी जा कर समझाता हूँ। खान लोेग हमारी रक्षा करने का जिम्मा ले रहे हैं। हमारी जायदाद, जमीन, दौलत सब हमको मिल जायगी। ख़ज़ाँचंद की दोैलत के भी हमीं मालिक होंगे। अब देर न करो। रोने-धोने से अब कुछ हासिल नहीं।
श्यामा ने धर्मदास को आग्नेय नेत्रों से देख कर कहा - और इस वापसी की कीमत क्या देनी होगी? वही जो तुमने दी है? धर्मदास यह व्यंग्य न समझ सका।
बोला - मैंने तो कोई कीमत नहीं दी। मेरे पास था ही क्या ?
श्यामा - ऐसा न कहो। तुम्हारे पास वह खजाना था, जो तुम्हें आज कई लाख वर्ष हुए ऋषियों ने प्रदान किया था। जिसकी रक्षा रघु और मनु, राम और कृष्ण और शंकर, शिवाजी और गोविंदसिंह ने की थी। उस अमूल्य भंडार को आज तुमने तुच्छ प्राणों के लिए खो दिया। इन पाँवों पर लोटना तुम्हें मुबारक हो! तुम शौक से जाओ। जिन तलवारों ने वीर ख़ज़ाँचंद के जीवन का अंत किया, उन्होंने मेरे प्रेम का भी फैसला कर दिया। जीवन में इस वीरात्मा का मैंने जो निरादर और अपमान किया, इसके साथ जो उदासीनता दिखायी उसका अब मरने के बाद प्रायश्चित्त करूँगी। यह धर्म पर मरने वाला वीर था, धर्म को बेचनेवाला कायर नहीं ! अगर तुममें अब भी कुछ शर्म और हया है, तो इसका क्रिया-कर्म करने में मेरी मदद करो और यदि तुम्हारे स्वामियों को यह भी पसंद न हो, तो रहने दो, मैं सब कुछ कर लूँगी।
पठानों के हृदय दर्द से तड़प उठे। धर्मान्धता का प्रकोप शांत हो गया। देखते-देखते वहाँ लकड़ियों का ढेर लग गया। धर्मदास ग्लानि से सिर झुकाये बैठा था और चारों पठान लकड़ियाँ काट रहे थे। चिता तैयार हुई और जिन निर्दय हाथों ने ख़ज़ाँचंद की जान ली थी उन्हीं ने उसके शव को चिता पर रखा। ज्वाला प्रचंड हुई। अग्निदेव अपने अग्निमुख से उस धर्मवीर का यश गा रहे थे। पठानों ने ख़ज़ाँचंद की सारी जंगम सम्पत्ति ला कर श्यामा को दे दी। श्यामा ने वहीं पर एक छोटा-सा मकान बनवाया और वीर ख़ज़ाँचंद की उपासना में जीवन के दिन काटने लगी। उसकी वृद्धा बुआ तो उसके साथ रह गयी, और सब लोग पठानों के साथ लौट गये, क्योंकि अब मुसलमान होने की शर्त न थी। ख़ज़ाँचंद के बलिदान ने धर्म के भूत को परास्त कर दिया। मगर धर्मदास को पठानों ने इस्लाम की दीक्षा लेने पर मजबूर किया। एक दिन नियत किया गया। मसजिद में मुल्लाओं का मेला लगा और लोग धर्मदास को उसके घर से बुलाने आये, पर उसका वहाँ पता न था। चारों तरफ तलाश हुई। कहीं निशान न मिला।
साल-भर गुजर गया। संध्या का समय था। श्यामा अपने झोंपड़े के सामने बैठी भविष्य की मधुर कल्पनाओं में मग्न थी। अतीत उसके लिए दुःख से भरा हुआ था। वर्तमान केवल एक निराशामय स्वप्न था। सारी अभिलाषाएँ भविष्य पर अवलम्बित थीं।
और भविष्य भी वह, जिसका इस जीवन से कोई सम्बन्ध न था ! आकाश पर लालिमा छायी हुई थी। सामने की पर्वतमाला स्वर्णमयी शांति के आवरण से ढकी हुई थी। वृक्षों की काँपती हुई पत्तियों से सरसराहट की आवाज निकल रही थी, मानो कोई वियोगी आत्मा पत्तियों पर बैठी हुई सिसकियाँ भर रही हो। उसी वक्त एक भिखारी फटे हुए कपड़े पहने झोंपड़ी के सामने खड़ा हो गया। कुत्ता जोर से भूँक उठा। श्यामा ने चौंक कर देखा और चिल्ला उठी - धर्मदास !
धर्मदास ने वहीं जमीन पर बैठते हुए कहा-हाँ श्यामा, मैं अभागा धर्मदास ही हूँ। साल-भर से मारा-मारा फिर रहा हूँ। मुझे खोज निकालने के लिए इनाम रख दिया गया है। सारा प्रांत मेरे पीछे पड़ा हुआ है। इस जीवन से अब ऊब उठा हूँ; पर मौत भी नहीं आती!
धर्मदास एक क्षण के लिए चुप हो गया। फिर बोला - क्यों श्यामा, क्या अभी तुम्हारा हृदय मेरी तरफ से साफ नहीं हुआ! तुमने मेरा अपराध क्षमा नहीं किया! श्यामा ने उदासीन भाव से कहा-मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझी।
‘मैं अब भी हिंदू हूँ। मैंने इस्लाम नहीं कबूल किया है।’
‘जानती हूँ !’
‘यह जान कर भी तुम्हें मुझ पर दया नहीं आती !’
श्यामा ने कठोर नेत्रों से देखा और उत्तेजित होकर बोली - तुम्हें अपने मुँह से ऐसी बातें निकालते शर्म नहीं आती ! मैं उस धर्मवीर की ब्याहता हूँ, जिसने हिंदू-जाति का मुख उज्ज्वल किया है। तुम समझते हो कि वह मर गया ! यह तुम्हारा भ्रम है। वह अमर है। मैं इस समय भी उसे स्वर्ग में बैठा देख रही हूँ. तुमने हिंदू-जाति को कलंकित किया है। मेरे सामने से दूर हो जाओ.


धर्मदास ने कुछ जवाब न दिया ! चुपके से उठा, एक लम्बी साँस ली और एक तरफ चल दिया. प्रातःकाल श्यामा पानी भरने जा रही थी, तब उसने रास्ते में एक लाश पड़ी हुई देखी. दो-चार गिद्ध उस पर मँडरा रहे थे। उसका हृदय धड़कने लगा। समीप जा कर देखा और पहचान गयी. यह धर्मदास की लाश थी.

7/31/18



बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम ने साबित किया था कि 1947 में धर्म के आधार पर पाकिस्तान का निर्माण गलत था। इसीलिए भारत ने 1971 में एक करोड़ से ऊपर पूर्वी पाकिस्तान  के नागरिकों को शरण दी थी..

पूरे देश ने इसके लिए शरणार्थी रिलीफ टैक्स दिया था..उनके लिए अनाज इकट्ठा करते वक्त बोनगां की गलियों में हमने नारे लगाए थे, ओपार थेके आशचे कारा ? आमादेरी भाई-बोनेरा' तथा ' भाईएर जन्न अन्न चाई'..

शरणार्थी शिविरों में कोलकाता के मेडिकल छात्र छात्राएं टीका लगाते थे ताकि महामारी न फैल जाए..इन मेडिको छात्रों में मेरी बहन संघमित्रा भी थी, जो तब नीलरतन सरकार मेडिकल कॉलेज में पढ़ती थी.. सर्वोदय वाले, रामकृष्ण मिशन और मदर टेरेसा के लोग शरणार्थियों में धर्म के आधार पर भेद नहीं करते थे लेकिन RSS वाले करते थे..

पश्चिमी पाकिस्तान की फौज का क्रूर दमन बांग्लादेशियों पर था, हिन्दू और मुसलमान दोनों पर.. रोशनआरा बेगम नामक युवती शरीर पर बम लपेट कर पाकिस्तानी टैंक के सामने कूद गई थी..सर्वोदय नेता रामचंद्र राही और इंदिरा राही को उसी दौर में पुत्री-रत्न की प्राप्ति हुई तब मेरी बा उसको रोशनआरा नाम से बुलाती थी..कोलकाता के साथी अशोक सेकसरिया के पड़ोस के मकान से 'बांग्लादेश बेतार' रेडियो प्रसारण होता था..जेपी ने बांगलादेश को मान्यता दिलाने के लिए विश्वजनमत तैयार करने के लिए दुनिया भर का जब दौरा किया तब सरकारों के निर्णय से पहले पूरी दुनिया के नागरिकों का मन बांग्लादेश मुक्ति के हक में बन चुका था..

धर्मवीर भारती और ओमप्रकाश दीपक जैसे पत्रकार जोखिम उठाकर सुलगते पूर्व पाकिस्तान में गए और लंबी रपट छापी.. इंदिरा गांधी की तुलना अटलबिहारी ने दुर्गा से की..जगजीवन बाबू जैसे अनुभवी रक्षा मंत्री ,सेनाध्यक्ष मानेकशॉ और पूर्वी कमान के जगजीत सिंह अरोड़ा के नेतृत्व में पाकिस्तान के जनरल नियाजी की रहनुमाई में सबसे बड़ा आत्मसमर्पण हुआ..शेख मुजीब और उनकी पार्टी अवामी दल सेक्युलर थी,है। मसले को सांप्रदायिक आधार पर तूल देने की भाजपाई मंशा विफल होगी..

हम नहीं भूले हैं कि भाजपाई बोडो, गोरखालैंड, कामतापुरी और कश्मीर को चीर कर लद्दाख को केन्द्रशासित राज्य बनाने वाली विच्छिनतावादी ताकतों से हाथ मिलाते हैं, फिर भी खुद को राष्ट्रवादी कहते हैं। उनका राष्ट्र तोड़क राष्ट्रवाद विफल हो।



अफलातून देसाई के फेसबुक वॉल से...

8/1/18
पीते भैंस का दूध हैं लेकिन माता गाय है

एक शाम रेलवे स्टेशन पर एक स्वामीजी के दर्शन हो गए. ऊंचे, गोरे और तगड़े साधु थे. चेहरा लाल. गेरुए रेशमी कपड़े पहने थे. साथ एक छोटे साइज़ का किशोर संन्यासी था. उसके हाथ में ट्रांजिस्टर था और वह गुरु को रफ़ी के गाने के सुनवा रहा था.

मैंने पूछा – स्वामी जी, कहां जाना हो रहा है

स्वामीजी बोले – दिल्ली जा रहे हैं बच्चा

स्वामीजी बात से दिलचस्प लगे. मैं उनके पास बैठ गया. वे भी बेंच पर पालथी मारकर बैठ गए. सेवक को गाना बंद करने के लिए कहा.

कहने लगे – बच्चा, धर्मयुद्ध छिड़ गया. गोरक्षा-आंदोलन तीव्र हो गया है. दिल्ली में संसद के सामने सत्याग्रह करेंगे.

मैंने कहा – स्वामीजी, यह आंदोलन किस हेतु चलाया जा रहा है?

स्वामीजी ने कहा – तुम अज्ञानी मालूम होते हो, बच्चा! अरे गौ की रक्षा करना है. गौ हमारी माता है. उसका वध हो रहा है.

मैंने पूछा – वध कौन कर रहा है?

वे बोले- विधर्मी कसाई.

मैंने कहा – उन्हें वध के लिए गौ कौन बेचते हैं? वे आपके सधर्मी गोभक्त ही हैं न?

स्वामीजी ने कहा – सो तो हैं. पर वे क्या करें? एक तो गाय व्यर्थ खाती है, दूसरे बेचने से पैसे मिल जाते हैं.

मैंने कहा – यानी पैसे के लिए माता का जो वध करा दे, वही सच्चा गो-पूजक हुआ!

स्वामीजी मेरी तरफ़ देखने लगे. बोले – तर्क तो अच्छा कर लेते हो, बच्चा! पर यह तर्क की नहीं, भावना की बात है. इस समय जो हज़ारों गोभक्त आंदोलन कर रहे हैं, उनमें शायद ही कोई गौ पालता हो. पर आंदोलन कर रहे हैं. यह भावना की बात है.

– स्वामीजी, आप तो गाय का दूध ही पीते होंगे?

– नहीं बच्चा, हम भैंस के दूध का सेवन करते हैं. गाय कम दूध देती है और वह पतला होता है. भैंस के दूध की बढ़िया गाढ़ी मलाई और रबड़ी बनती है.

– तो क्या सभी गोभक्त भैंस का दूध पीते हैं?

– हां बच्चा, लगभग सभी.

– तब तो भैंस की रक्षा हेतु आंदोलन करना चाहिए. भैंस का दूध पीते हैं, मगर माता गौ को कहते हैं. जिसका दूध पिया जाता है, वही तो माता कहलाएगी.

– यानी भैंस को हम माता… नहीं बच्चा, तर्क ठीक है, पर भावना दूसरी है.

– स्वामीजी, हर चुनाव के पहले गोभक्ति क्यों ज़ोर पकड़ती है? इस मौसम में कोई ख़ास बात है क्या?

– बच्चा, जब चुनाव आता है, तम हमारे नेताओं को गोमाता सपने में दर्शन देती है. कहती है – बेटा चुनाव आ रहा है. अब मेरी रक्षा का आंदोलन करो. देश की जनता अभी मूर्ख है. मेरी रक्षा का आंदोलन करके वोट ले लो. बच्चा, कुछ राजनीतिक दलों को गोमाता वोट दिलाती है..ये नेता एकदम आंदोलन छेड़ देते हैं और हम साधुओं को उसमें शामिल कर लेते हैं. हमें भी राजनीति में मज़ा आता है. बच्चा, तुम हमसे ही पूछ रहे हो. तुम तो कुछ बताओ, तुम कहां जा रहे हो?

– स्वामीजी मैं ‘मनुष्य-रक्षा आंदोलन’ में जा रहा हूं.

– यह क्या होता है, बच्चा?

– स्वामीजी, जैसे गाय के बारे में मैं अज्ञानी हूं, वैसे ही मनुष्य के बारे में आप हैं.

– पर मनुष्य को कौन मार रहा है?

– इस देश के मनुष्य को सूखा मार रहा है, अकाल मार रहा है, महंगाई मार रही है. मनुष्य को मुनाफ़ाखोर मार रहा है,काला-बाज़ारी मार रहा है. भ्रष्ट शासन-तंत्र मार रहा है. सरकार भी पुलिस की गोली से चाहे जहां मनुष्य को मार रही है, स्वामीजी, आप भी मनुष्य-रक्षा आंदोलन में शामिल हो जाइए न!

– नहीं बच्चा, हम धर्मात्मा आदमी हैं. हमसे यह नहीं होगा. एक तो मनुष्य हमारी दृष्टि में बहुत तुच्छ है. ये मनुष्य ही तो हैं, जो कहते हैं, मंदिरों और मठों में लगी जायदाद को सरकार जब्त करले, बच्चा तुम मनुष्य को मरने दो. गौ की रक्षा करो. कोई भी जीवधारी मनुष्य से श्रेष्ठ है. तुम देख नहीं रहे हो, गोरक्षा के जुलूस में जब झगड़ा होता है, तब मनुष्य ही मारे जाते हैं. एक बात और है, बच्चा! तुम्हारी बात से प्रतीत होता है कि मनुष्य-रक्षा के लिए मुनाफ़ाख़ोर और काला-बाज़ारी के खिलाफ़ संघर्ष लड़ना पड़ेगा. यह हमसे नहीं होगा. यही लोग तो मंदिरो, मठो व गोरक्षा-आंदोलन के लिए धन देते हैं. हम इनके खिलाफ़ कैसे लड़ सकते हैं?

– ख़ैर, छोड़िए मनुष्य को. गोरक्षा के बारे में मेरी ज्ञान-वृद्धि कीजिए. एक बात बताइए, मान लीजिए आपके बरामदे में गेहूं सूख रहे हैं. तभी एक गोमाता आकर गेहूं खाने लगती है. आप क्या करेंगे?

– बच्चा? हम उसे डंडा मारकर भगा देंगे.

– पर स्वामीजी, वह गोमाता है पूज्य है. बेटे के गेहूं खाने आई है. आप हाथ जोड़कर स्वागत क्यों नहीं करते कि आ माता, मैं कृतार्थ हो गया. सब गेहूं खा जा.

– बच्चा, तुम हमें मूर्ख समझते हो?

– नहीं, मैं आपको गोभक्त समझता था.

– सो तो हम हैं, पर इतने मूर्ख भी नहीं हैं कि गाय को गेहूं खा जाने दें.

– पर स्वामीजी, यह कैसी पूजा है कि गाय हड्डी का ढांचा लिए हुए मुहल्ले में काग़ज़ और कपड़े खाती फिरती है और जगह-जगह पिटती है!

– बच्चा, यह कोई अचरज की बात नहीं है. हमारे यहां जिसकी पूजा की जाती है उसकी दुर्दशा कर डालते हैं. यही सच्ची पूजा है. नारी को भी हमने पूज्य माना और उसकी जैसी दुर्दशा की सो तुम जानते ही हो.

– स्वामीजी, दूसरे देशों में लोग गाय की पूजा नहीं करते, पर उसे अच्छी तरह रखते हैं और वह खूब दूध देती है.

– बच्चा, दूसरे देशों की बात छोड़ो. हम उनसे बहुत ऊंचे हैं. देवता इसीलिए सिर्फ़ हमारे यहां अवतार लेते हैं. दूसरे देशों में गाय दूध के उपयोग के लिए होती है, हमारे यहां वह दंगा करने, आंदोलन करने के लिए होती है. हमारी गाय और गायों से भिन्न है.

– स्वामीजी, और सब समस्याएं छोड़कर आप लोग इसी एक काम में क्यों लग गए हैं?

– इसी से सबका भला हो जाएगा, बच्चा! अगर गोरक्षा का क़ानून बन जाए, तो यह देश अपने-आप समृद्ध हो जाएगा. फिर बादल समय पर पानी बरसाएंगे, भूमि ख़ूब अन्न देगी और कारखाने बिना चले भी उत्पादन करेंगे. धर्म का प्रताप तुम नहीं जानते. अभी जो देश की दुर्दशा है, वह गौ के अनादर का परिणाम है.

– स्वामीजी, पश्चिम के देश गौ की पूजा नहीं करते, बल्कि गो-मास खाते हैं, फिर भी समृद्ध हैं?

– उनका भगवान दूसरा है बच्चा. उनका भगवान इस बात का ख़्याल नहीं करता.

– और रूस जैसे देश भी गाय को नहीं पूजते, पर समृद्ध हैं?

– उनका तो भगवान ही नहीं बच्चा. उन्हें दोष नहीं लगता.

– यानी भगवान रखना भी एक झंझट ही है. वह हर बात का दंड देने लगता है.

– तर्क ठीक है, बच्चा, पर भावना ग़लत है.

– स्वामीजी, जहां तक मैं जानता हूं, जनता के मन में इस समय गोरक्षा नहीं है, महंगाई और आर्थिक शोषण है. जनता महंगाई के ख़िलाफ़ आंदोलन करती है. जनता आर्थिक न्याय के लिए लड़ रही है. और इधर आप गोरक्षा-आंदोलन लेकर बैठ गए हैं. इसमें तुक क्या है?

– बच्चा, इसमें तुक है. तुम्हे अंदर की बात बताता हूं. देखो, जनता जब आर्थिक न्याय की मांग करती है, तब उसे किसी दूसरी चीज़ में उलझा देना चाहिए, नहीं तो वह ख़तरनाक हो जाती है. जनता कहती है – हमारी मांग है महंगाई कम हो, मुनाफ़ाख़ोरी बंद हो, वेतन बढ़े, शोषण बंद हो, तब हम उससे कहते हैं कि नहीं, तुम्हारी बुनियादी मांग गोरक्षा है, आर्थिक क्रांति की तरफ़ बढ़ती जनता को हम रास्ते में ही गाय के खूंटे से बांध देते हैं. यह आंदोलन जनता को उलझाए रखने के लिए है.

– स्वामीजी, किसकी तरफ़ से आप जनता को इस तरह उलझाए रखते हैं?

– जनता की मांग का जिन लोगो पर असर पड़ेगा, उसकी तरफ़ से. यही धर्म है. एक उदाहरण देते हैं.

बच्चा, ये तो तुम्हे पता ही है कि लूटने वालों के ग्रुप में सभी धर्मो के सेठ शामिल हैं और लूटे जाने वाले गरीब मज्दूरो में भी सभी धर्मो के लोग शामिल हैं, मान लो एक दिन सभी धर्मो के हज़ारों भूखे लोग इकट्ठे होकर हमारे धर्म के किसी सेठ के गोदाम में भरे अन्न को लूटने के लिए निकल पड़ें. सेठ हमारे पास आया. कहने लगा- स्वामीजी, कुछ करिए. ये लोग तो मेरी सारी जमा-पूंजी लूट लेंगे. आप ही बचा सकते हैं. आप जो कहेंगे, सेवा करेंगे. बस बच्चा, हम उठे, हाथ में एक हड्डी ली और मंदिर के चबूतरे पर खड़े हो गए. जब वे हज़ारों भूखे गोदाम लूटने का नारा लगाते आये, तो मैंने उन्हें हड्डी दिखायी और ज़ोर से कहा- किसी ने भगवान के मंदिर को भ्रष्ट कर दिया. वह हड्डी किसी पापी ने मंदिर में डाल दी. विधर्मी हमारे मंदिर को अपवित्र करते हैं. हमारे धर्म को नष्ट करते हैं. हमें शर्म आऩी चाहिए. मैं इसी क्षण से यहां उपवास करता हूं. मेरा उपवास तभी टूटेगा, जब मंदिर की फिर से पुताई होगी और हवन करके उसे पुनः पवित्र किया जाएगा. बस बच्चा, वह जनता जो इकट्ठी होकर सेठ से लड़ने आ रही थी, वो धर्म के नाम पर आपस में ही लड़ने लगी. मैंने उनका नारा बदल दिया. जव वे लड़ चुके, तब मैंने कहा–धन्य है इस देश की धर्म-प्राण जनता! धन्य हैं अनाज के व्यापारी सेठ अमुकजी! उन्होंने मंदिर की शुद्धि का सारा ख़र्च देने को कहा है. बच्चा जिस सेठ का गोदाम लूटने भूखे लोग जा रहे थे, वो उसकी ही जय बोलने लगे. बच्चा, यह है धर्म का प्रताप. अगर इस जनता को गोरक्षा-आंदोलन में न लगाएंगे, यह रोजगार प्राप्ति के लिये आंदोलन करेगी, तनख़्वाह बढ़वाने का आंदोलन करेगी, मुनाफ़ाख़ोरी के ख़िलाफ़ आंदोलन करेगा. जनता को बीच में उलझाए रखना हमारा काम है बच्चा.

– स्वामीजी, आपने मेरी बहुत ज्ञान-वृद्धि की. एक बात और बताइए. कई राज्यों में गोरक्षा के लिए क़ानून है. बाक़ी में लागू हो जाएगा. तब यह आंदोलन भी समाप्त हो जाएगा. आगे आप किस बात पर आंदोलन करेंगे.

– अरे बच्चा, आंदोलन के लिए बहुत विषय हैं. सिंह दुर्गा का वाहन है. उसे सर्कस वाले पिंजरे में बंद करके रखते हैं और उससे खेल कराते हैं. यह अधर्म है. सब सर्कस वालों के ख़िलाफ़ आंदोलन करके, देश के सारे सर्कस बंद करवा देंगे. फिर भगवान का एक अवतार मत्स्यावतार भी है. मछली भगवान का प्रतीक है. हम मछुओं के ख़िलाफ़ आंदोलन छेड़ देंगे. सरकार का मछली पालन विभाग बंद करवाएंगे.

बच्चा, लोगो की मुसीबतें तो तब तक खत्म नही होंगी, जब तक लूट खत्म नहीं होगी. एक मुद्दा और भी बन सकता है बच्चा, हम जनता में ये बात फैला सकते हैं कि हमारे धर्म के लोगों की सभी मुसीबतों का कारण दूसरे धर्मो के लोग हैं, हम किसी ना किसी तरह जनता को धर्म के नाम पर उलझाए रखेंगे बच्चा.

इतने में गाड़ी आ गई. स्वामीजी उसमें बैठकर चले गए. बच्चा, वहीं रह गया.



हरिशंकर परसाईं...

8/3/18
प्रभाष जोशी ने क्या कहा था, सुनिये

चंडीगढ़ में 1991 का वो महीना, जिसके एक दिन एक होटल में जनसत्ता की वर्षगांठ मनाने की रस्म बड़े बेमन से निभाई जा रही थी..प्रभाष जोशी को तो होना ही था..थे भी लेकिन अवसाद से घिरे हुए..कुछ महीने पहले उनके प्रिय मित्र राजेन्द्र माथुर का आकस्मिक निधन और फिर मेंटर रामनाथ गोयनका भरपूर उम्र में गुजर जाना..

लेकिन प्रभाष जी की मलालता का कारण दूसरा था..वो था अखबार के तेवर ढीले करने का दबाव..जो लगभग इन व्यथित शब्दों में व्यक्त हुआ कि.. गोयनका जी नहीं रहे..राजीव गांधी भी नहीं रहे..तो अब गांधी परिवार को गरियाने का क्या मतलब..

उसके बाद गोयनका के दोनों अखबारों ने क्या रुख अख्तियार किया होगा..यह समझना बहुत मुश्किल नहीं..लेकिन प्रभाष जी की लाचारी तो सामने आ ही चुकी थी..उसमें यह भी था कि अब नए मालिक यानी गोयनका जी के नाती को जनसत्ता सिर्फ इसलिए चलाना है क्योंकि जनसत्ता उसके नाना का सपना था...तो किसी तरह वो सपना पूरा किया जाने लगा..

फिर खुद प्रभाष जी कई छुटभैय्ये संपादकों के सिंहासन के तहत भीष्मपितामह की भूमिका में आ कर मृत्युपर्यंत नमकहलाली करते रहे..

इस पूरे वाक़ये को पत्रकारिता की आज के पारी से तुलनात्मक अध्ययन कीजिये तो विशेष तौर पर हिंदी पत्रकारिता पर विधवा विलाप का कोई अर्थ नहीं रह जाता..

सरकारी नौकरी छोड़ कर दिल्ली में नवभारत टाइम्स में गुजरा वो एक साल कई बड़े बड़े संपादकों को ग़दर के बाद के बहादुरशाह ज़फर की भूमिका निभाने का गवाह बना..उनमें रघुवीर सहाय और कन्हैयालाल नंदन भी शामिल थे..जिन्हें ऐसे केबिनों में बिठा दिया गया था, जहां अखबारों की रद्दी रखी जाती थी..सहाय जी तो ज़्यादा अपमान नहीं झेल सके, नंदन जिन तरीकों से संपादक की कुर्सी तक पहुंचे, उस गुण का लंबे समय तक इस्तेमाल किये..हाँ संपादक का स्तर इस हद तक गिर गया कि दिनमान के संपादक घनश्याम पंकज बने..

तो दोस्तो पत्रकारिता का पेशा बड़े बड़ों को इतिहास में धकेल देता है..महा कद्दावर धर्मवीर भारती को देखिए न..कुर्सी से हटते ही गुजर गए..ऐसे कई महावीरों की यही दशा हुई..इसलिए हर पत्रकार को अपनी सलाह है कि पत्रकारिता मंटो के शब्दों में रंडी का कोठा है वहां बाबू गोपीनाथ की तरह दिल न लगाइए



8/3/18
मुजफ्फरपुर कांड पर एक कराह..

मैं जिस दुनिया का सोग मना रही हूं वो पहले से ही बीमार है. अब वो मर चुकी है. जब औरतों की देह पर हमला हो या बच्चियों के बदन से उनका मांस नोच लिया जाए तो ये समझना होगा कि इसके पीछे पूरा विचार है. सत्ता और अश्लील पूंजी का खेल है. पता नहीं कैसी-कैसी भयानक बातों के आसार हैं. ये कल्पना का अंत है. ये वीभत्स विचारधारा बैठकों में, बदबूदार बिस्तरों में जन्म लेती है. हमारा सामान्य व्यवहार, हमारा समाज हमारे सपने तक रक्तरंजित हैं.

इस घटना ने देश की सत्ता को पूरी तरह उधेड़ दिया है. काश कि हमारा देश उबल पड़ता. आग लग जाती, खेत-खलिहान जल उठते. इन बच्चियों की अंतहीन अंधेरी यातना भरी रात का अंत भी हो जाता. पर नहीं मालूम कि अभी और कितने दर्द और ख़ौफ़ के बीच इन्हें गुज़रना है. कोर्ट-कचहरी में हर बार अपने साथ हुए बलात्कार का बयान करना है.

8/4/18
रिश्वत की जांच में रिश्वत की बीयर पी डाली


उत्तरप्रदेश सूचना विभाग के निदेशक श्रीलाल शुक्ल ने पांच बजे तक खाली हो जाने वाले इस सरकारी विभाग के विज्ञापन अधिकारी के कमरे की बत्ती देर तक जलने का कारण जान लिया होगा, तभी उन्होंने एक दिन मुझे अपने बड़े से कमरे में बुलवाया, जहां उपनिदेशक ठाकुरप्रसाद सिंह भी विराजमान थे..

श्रीलाल शुक्ल रागदरबारी वाले तो ठाकुर साहब बंसी और मादल के रचयिता..शुक्ल जी ने इस बेहद जूनियर पद वाले को चाय पिलाई तो ठाकुर साहब ने बस्ती शहर जाने का आदेश सुनाया..वहां से निकलने वाले अखबारों की जन्मपत्री लानी थी, जो विज्ञापन के नाम पर सरकार को लाखों का चूना लगा रहे थे..

पूरे उत्तरप्रदेश के छोटे बड़े हज़ारों हज़ार अखबारों का पेट पाल रहे सूचना विभाग का विज्ञापन अधिकारी 35 साल पहले करोड़पति की हैसियत में तो आ ही गया होगा..तो सूचना विभाग के बड़े अफसरान ने इन अखबारों की जांच के जरिये उस विज्ञापन अधिकारी को परखने का जिम्मा इस नाचीज़ को सौंपा, इस आदेश के साथ कि जांच रिपोर्ट में कोई कोताही न हो..

बस्ती..पूर्वी उत्तरप्रदेश का सबसे पिछड़ा इलाका..जो शायद कभी कागजों पर ही देखा था..जब हाथ पांव पूरी तरह फूल गए तो दिमाग के पट खुले...कि अपने साथ प्रकाशन विभाग के एक सहकर्मी को अपने खर्चे पर साथ ले जाना ही बेहतर होगा.. तेजतर्रार और ईमानदार राजेन्द्र पांडे का आगे भी बढ़िया साथ रहा..

सुबह ट्रेन ने बस्ती के वीरान स्टेशन पर उतार दिया..चलते समय अकल ने साथ दिया था तो ठाकुर साहब से प्रेस कार्ड बनवा लिया, जो उन दिनों अलादीन के चिराग के जिन से भी ऊंची हैसियत रखता था..उस प्रेसकार्ड से टीटी को आतंकित कर दो बर्थ लीं और स्टेशन पर उतर वेटिंग रूम के ताले खुलवा कर स्टेशनमास्टर को अपनी सेवा में ले लिया.. वहीं नहा धो कर नाश्ता किया और आठ बजते बजते शहर में घुसे.. और पते के अनुसार जिस अखबार का दफ्तर सबसे पास था, वहीं धंस लिए..

अखबार का मालिक रूपी संपादक एक मन्दिर में पुजारी के वेश में देवियों देवताओं की आरती उतारते हुए घंटा बजा रहा था..हमें भगवानों में कोई शौक नहीं था तो विघ्न डाल आरती रुकवा कर सरकारी प्रेस कार्ड दिखाया... 

बहुत बड़ा लेड़ी निकला..जब उसकी खाल खींचनी शुरू की तो भाग कर केले का थम्ब ले आया कि केले तोड़ तोड़ के खाओ आप..विज्ञापन और अख़बारी कागज की मद में सूचना विभाग को जम कर चूना लगा रहा वो सरकारी दामाद पांच पैसे खर्च करने को तैयार नहीं दिखा..क्योंकि एक तो ब्राह्मण, ऊपर से धर्म के कोठे का दलाल..बड़ी खामोशी से उसे ब्लैक लिस्ट में डाल भन्नाते हए उठ लिए..

दूसरे का पता पूछते पूछते स्वतंत्रता सेनानी से जा टकराये.. जो अपने दफ्तर में बैठ कुछ दर्शनार्थियों से महात्मा गांधी की जय बुलवा रहा था..बहरा था इसलिए ऊंची आवाज़ में हमारा दीदार किया..और जब पता लगा कि हम क्यों आए हैं तो प्रेमचंद की बूढ़ी काकी वाली मुद्रा में आ गया.. तब उसने हमें देशसेवा करने वालों की सेवा करने के गुर सिखाने शुरू किए...जब हम अघा गए तो हमारे बोल फूटे..कि हम भूखे हैं पेट में कुछ डाल दे..

बुजुर्गवार ने तुरंत अपने अखबार के महाप्रबंधक को हमारे साथ भेजा कि किसी ढाबे पर वो हमें खाना खिला दे..जैसे तैसे अपना पेट भरवा कर हम वहीं आ गए..जब मुद्दे पर आए तो स्वतंत्रता सेनानी ने देश की सेवा करते हुए प्राण त्यागने की धमकी दी और हमसे क्लीन चिट देने की गुहार मचाई..हम दोनों आंसू पोंछते हुए उठ खड़े हुए कि हम उनके लिए कुछ स्पेशल करेंगे..

उनके दफ़्तर से बाहर निकल कदम बढ़ाए ही थे कि पीछे चूड़ियां खनकीं..अचकचाए से पीछे घूमे तो एक सुंदर महिला हमें इशारे से बुला रही और महिला की बगल में खड़े बुजुर्ग बिना दांतों की हंसी निकाल रहे..

वो बोलीं..हमारे लिए कुछ अच्छा कीजियेगा..अपन ने कुछ हें हें वाली साउंड निकाली और बोला..आप चिंता न करें..तभी उन्होंने हमारे हाथ में सौ सौ के कुछ गांधी बाबा रख दिये..my god पसीने छूट गए.. और रुपये उनके हाथ में थमा कर भागे वहां से..पीछे सुनिये जी की करुण पुकार को अनसुना कर..

सड़क पर पहुंच सिर पे पैर रख पाते कि तभी महाप्रबंधक अपने दो कर्मचारियों के साथ रुकिये रुकिये चिल्लाते हुए भागे चले आते दिखे..रुके तो उन्होंने हमारे पैर पकड़ लिए..उनके हाथ में वो ही सौ सौ के गन्नी जी वाले नोट.. हम कुछ बोलते कि वो आंसू पोंछते हुए बोले.. देखिये अगर आप ये आठ सौ रुपये नहीं ले रहे हैं तो हमें दे दीजिए..कई महीने से तनख्वाह नहीं मिली है..हमारे बच्चे आपको दुआएं देंगे...एक मिनट सोचा और फिर महा प्रबंधक के हाथ में सात सौ रुपये रख दिये..और फिर उन तीनों से पैर छुआ कर हम दोनों बढ़ लिए..हाँ उनसे यह जरूर पूछा कि वो देवि कौन थीं..तो पता चला .. स्वतंत्रता सेनानी की तीसरी पत्नी..

रिश्वत के उन सौ रुपयों से बियर खरीद कर पी गई..और यह सोच कर कि यहां अपना धर्म भ्रष्ट हो जाएगा, सामने से निकल रही लखनऊ की बस पकड़ने को दौड़ लगा दी..

जारी...

8/6/18