जब समाज ही कालाजारी हो जाये तो..
कालाजार की दवा पेन्टामीडीन की असुलभता ने इसका एक जबरदस्त कारोबारी गुण पेश किया.. पांच सौ रुपये वाली इस दवा की खाली शीशी पचास रुपये में आसानी से बिक जाती है, बस उस पर रैपर अपनी जगह मौजूद रहे. उस खाली शीशी में पानी भर कर भी बेचा जाये तो 200 रुपये तो कहीं नहीं गये.. 10 से 40 दिन तक इस दवा की सुईं लगवानी जरूरी है।
इस तरह न जाने कितने फटेहाल रोगियों को डॉक्टरों के दलाल कम पैसे के नाम पर पेन्टामीडीन की जगह डिस्ट्रिल्ड वाटर की सुईं लगवा रहे हैं..यह तो हुआ मरे को मारे वाली दवा का बायोडाटा, अब आइये दूसरी दवा की चारित्रिक विशेषताओं पर..
सोडियम एन्टीमनी कलकत्ता की एक कम्पनी बनाती है..कुछ साल से मुजफ्फरपुर के एक बाहुबली ने भी इसकी फैक्टरी लगा ली। इस दवा का एक वायल सौ रुपये का बैठता है। एक वायल में 30 मिलीलीटर दवा होती है। कोर्स है 300 मिलीलीटर अर्थात 10 वायल का। पूरा कोर्स 20 से 40 दिन में हो जाना जरूरी है। खेल यहीं से शुरू होता है।
पहले सरकारी अस्पताल चलें। वहां कालाजार के मरीजों की भारी-भरकम संख्या को देखते हुए रोगियों की छोटी-छोटी यूनिट बना दी जाती हैं। मसलन सौ रोगी हुए तो बीस-बीस की पांच यूनिट बना कर उन्हें पांच डॉक्टर के हाथों में सौंप दिया कि तुम जानो तुम्हारा काम जाने। अस्पताल में सोडियम एन्टीमनी की मारामारी मची ही रहती है। दवा आयी तो सबसे बड़ा हाथ मारता है, लाठी और भैंस के सिद्धांत पर चलते हुए वो डॉक्टर, जिसका साला या बहनोई मंत्री है या बड़ा नेता है और जो सवर्ण जाति का है। भूमिहार या ब्राह्मण हुआ तो क्या कहने। कोटे से ज्यादा मिली दवा का इस्तेमाल वह अपने निजी क्लीनिक में आये रोगियों पर करता है। सरकारी डॉक्टर की कमाई ऐसे होती है।
सरकारी अस्पताल का खेल और ज्यादा भयानक है। वहां का कम्पाउंडर मरीज को कभी भी पूरी खुराक की दवा भरकर सुईं नहीं लगाता। अगर एक बार में छह मि.लीटर दवा मरीज के शरीर जानी है तो वह पचास फीसदी भी हो सकती है और 25 भी। बाकी का काम पानी से चलता है। दूसरे, इस दवाई की वायल 30 मिलीली. की ही बनायी जा रही है, इसके चलते रोगी या उसके परिजनों को यह दवाई खरीदने के लिये हर थोड़े दिनों में पैसों का जुगाड़ करना पड़ता है, जब हुआ तो सुईं लगवाली, नहीं हुआ तो कोर्स टूट गया, यानी कालाजार का वजूद उतने ही परिमाण में कायम। इसीलिये कुछ डाक्टरों ने सोटियम एन्टीमनी के डेढ़-डेढ़ सौ के वायल बनाने का अनुरोध किया था, ताकि दवा का आधा कोर्स तो रोगी के शरीर में पहुंच जाए। लेकिन दवा निर्माता कम्पनी यह कब चाहती है कि कालाजार का सफाया हो..
फिलहाल तो इस समय सोडियम एन्टीमनी बिहार में कालाजार से निपटने की सबसे सुलभ और सस्ती दवा है। यह भी पेन्टामीडीन की तरह कम घातक दवा नहीं है..इसका इस्तेमाल करने वाले के ह्दय में सूजन आ जाती है और शरीर में शुगर की मात्रा कम हो जाती है। सरकारी अस्पतालों में इसकी सप्लाई अक्सर एक्सपायरी डेट करीब आने पर की जाती है, जहां पहुंचते-पहुंचते वो डेट भी निकल जाती है। ऊपर से आदेश आता है कि इसे नष्ट कर दिया जाये, पर ऐसा होता नहीं। सरकारी अस्पताल वालों के जरिये दवा बनाने वाली स्थानीय कम्पनी ही कौड़ियों के भाव खरीद कर, वायल की शीशियों पर नया रैपर लगा कर इसे फिर बाजार में उतार देती है।
कालाजार की तीसरी दवा फंगीजोन गुर्दों के लिए बेहद घातक है। महंगी भी बहुत है। इसका 7-10 दिन का कोर्स 5 से 15 हजार रुपये तक का बैठता है। एड्स रोग के फंगल इन्फैक्शन में भी इसी की सुर्इं लगती है, जिसके चलते इसकी मांग ज्यादा है।
इस रोग में एकमात्र खाने की गोली है इम्पेविडो, जो एक विदेशी कम्पनी बनाती है। इसे बाजार में काफी जोर-शोर से उतारा गया, लेकिन यह इस कदर नामुराद साबित हई कि साढ़े आठ हजार रुपये फूंकने और 28 दिन तक नियमित खाने के बाद भी परिणाम शून्य ही रहा। कम्पनी ने इस डाक्टरों को भरपूर चढ़ावा चढ़ाया ताकि दवा क्लिक कर जाये, लेकिन स्वास्थ्य सेवा ने हाथ खड़े कर दिये।
कालाजार उन्मूलन के नाम पर अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत कुछ इसलिये नहीं हो रहा है क्योंकि इस बीमारी के लपेटे में केवल भारत का बिहार राज्य है। और जो दवाइयां विदेशी कम्पनियां बना रही हैं वे और कई सारे घातक रोग देने वाली साबित हुई हैं। इस समय इस बीमारी के उन्मूलन को लेकर चार शोध केन्द्र चल रहे हैं। मुजफ्फरपुर, दरभंगा, पटना और वाराणसी। शोेध कर रही कुछ शख्सियत के बारे में ऊपर इशारा किया जा चुका है। मुजफ्फरपुर इस बीमारी का मुख्य केन्द्र है। शहर में वाराणसी मेडिकल कॉलेज के सहयोग से कालाजार ट्रीटमेंट सेंटर जरूर चल रहा है। दरभंगा में कुछ ठोस काम हुआ, पर किसी ने ध्यान नहीं दिया।
यह एक छोटी सी झलक है हमारी स्वास्थ्य सेवा और घातक रोगों की तासीर के एक ही होने की। फर्क बस इतना है कि रोग का फलसफा है-मारो और डॉक्टर जेब पर हाथ फेरते हुए बुदबुदाता है- मरने दो। सरकारी स्तर पर राहत व बचाव के बजाये जा रहे नगाड़े कैसे भी रोग के लिये शहनाई से ज्यादा कुछ नहीं।
बिहार का सामाजिक तानाबाना कालाजार के मच्छर फ्लेबोटोमस की सवर्णवादी सोच के बेहद अनुकूल है। इसी के चलते वह समाज के सबसे धकियाये मुसहर समुदाय का जानी दुश्मन बना हुआ है। दवा बनाने वाली कम्पनियां भी सवर्णों के हाथों में, तो स्वास्थ्य सेवा में सवर्णों का बोलबाला। कुल मिला कर कालाजार सवर्णवादी व्यवस्था की उस राक्षसी प्रवृति का द्योतक बन गया है, जो आजादी के साठ साल बाद भी बिहार के जर्रे-जर्रे में लहलहा रही है।
9/21/18