शनिवार, 28 मार्च 2020

मुज़फ्फरपुर में रहते नर्मदा को जान पाया तो इसका श्रेय अमृतलाल वेगड़ जी को ही दूँगा..मेरी तरह दुनिया के बहुतेरे व्यक्तियों ने नर्मदा के सौंदर्य को समझा जाना तो वेगड़ जी की नर्मदावली की बदौलत..

2006 की गर्मियों में संयोग देखिये कि जबलपुर से प्रकाशित "पहल" 84 में मेरा लेख होने के चलते वो जब मुझे मिली तो उसी में पहली बार मिलना हुआ वेगड़ जी और नर्मदा से.. दोनों से मिल कर दिल बाग बाग हो उठा था..और उससे भी बड़ा संयोग यह कि अगले ही वर्ष नईदुनिया का संपादक हो कर मैं नर्मदा के किनारे जबलपुर में था..नर्मदा से मिलना हो ही चुका था, जब नर्मदा के उपासक से मिला तो नर्मदा को और बेहतर समझ पाया..

उस पहली मुलाकात के बाद ही नर्मदा से लगन लग गई और वेगड़ जी का सहयात्री बनने की इच्छा ज़ोर मारने लगी..इत्तेफ़ाक देखिये यह मौका तब मिला जब जबलपुर छोड़ चुका था..उन्होंने नर्मदा परिक्रमा के अपने आखिरी अभियान में शामिल होने को कहा तो एक तरह से सब कुछ छोड़ कर आ गया..तीस परिक्रमावासियों के साथ शामिल होना मेरे लिए उपलब्धि थी..वेगड़ जी के सानिध्य में वो सात दिन अद्भुत थे..

नर्मदा के नदीय सौंदर्य पर वेगड़ जी ने जितना लिखा, खूब लिखा..बार बार पढ़ने की इच्छा होती है...

लेकिन फिरभी नर्मदा के प्रति वेगड़ जी के अगाध प्रेम को देख एक सवाल मन में ज़रूर उठता रहा है..यह सवाल उनके ही रहते कई बार कचोटा कि 1977 से नर्मदा के सानिध्य में आये वेगड़ जी ने नर्मदा को छीजते देख इतने वर्षों में कोई आवाज़ क्यों नहीं उठाई..कोई आंदोलन क्यों नहीं खड़ा किया..पिछले 35 साल से सरदार सरोवर बांध के खिलाफ निरंतर एक लड़ाई लड़ रहीं मेधा पाटकर को वेगड़ जी का कोई सक्रिय सहयोग मिला क्या..



उन्हें इस देश की सबसे पुरानी नदी का विस्थापन आक्रोशित नहीं कर पाया... लेकिन अब वो सवाल कोई मायने रखता भी नहीं.. वेगड़ जी ने अपनी किताबों के जरिये नर्मदा को जिस सहजता और अपनेपन से सामने रखा..उनके इस काम के सदृश एक ही व्यक्ति का नाम सामने आता है तुलसीकृत रामायण के साधक और कथा वाचक पंडित राम किंकर का..जिन्होंने राम को घर घर पहुंचाया..

10/18/18