रविवार, 31 अक्तूबर 2010

ठोस जमीन पर पांव रख रखने की कवायद

राजीव मित्तल
दादी-नानी की कहानियों में एक खंडहरनुमा महल का जिक्र अक्सर आता है, जिसमें भूतों का वास है। उसमें एक राजकुमारी कैद है। लोग-बाग उस तरफ जाने से भी घबराते हैं। एक दिन रास्ता भटक कर घोड़े पर सवार एक राजकुमार वहां आता है और अपने आलौकिक करतबों से राजकुमारी को छुड़ाता है। फिर दोनों का विवाह होता है और महल की खुशियां लौट आती हैं। अब कहानी छोड़ एक सच से मुकाबिल हों। एक साल पहले बिहार में विधानसभा चुनाव होने तक बिहार न तो भुतहा महल था, न लालू प्रसाद का व्यक्तित्व ही ऐसा था, कि जो सपने में दिख जाए तो हालत खराब कर दे और न ही नीतीश कुमार घोड़े पर सवार हो कर सत्ता में आए। और न ही बिहार का एक साल में कोई कायापलट हुआ है। लेकिन इस एक साल में ऐसा कुछ जरूर हुआ है, जो कई सालों से नहीं नहीं दिखा था। इस बात को एक उदाहारण से समझा जा सकता है। पिछले महीने उत्तरप्रदेश में पंचायत चुनाव हुए थे। वहां के अखबार चुनावी आरोप-प्रत्यारोपों से लदे हुए थे। विपक्ष का रोना यही था कि वहां की सरकार अपनी सारी मशीनरी इन चुनावों को अपने पक्ष में करने में लगी हुई है, तो मुख्यमंत्री-मंत्री विपक्ष के आरोपों का उपहास उड़ाने में लगे हुए थे। वोट पड़ने वाले दिन इस अफवाह ने खासा जोर पकड़ा कि मतपेटियों में तो रात को वोट पड़ गए। अगले दिन सारे अखबार चुनावी हिंसा से भरे हुए थे। उसके बाद कई शहरों में कुछ खास पदों पर जीते उम्मीदवारों को शपथ दिलाने का काम संगीनों के साये में हुआ क्योंकि उस मौके पर जबरदस्त हिंसा की आशंका थी। वहां का यह हाल देख केन्द्र सरकार में शामिल कई दलों को को अब यह चिंता सता रही है कि विधानसभा चुनाव में क्या कुछ नहीं होगा। इसलिये यह सोच का विषय बना हुआ है कि उत्तरप्रदेश विधानसभा के चुनाव राष्ट्रपति शासन में कराए जाएं।
अब बिहार पर लौटें-नीतीश कुमार द्वारा मुख्यमंत्री पद संभालने के छह महीने बाद राज्य में बरसों बाद पंचायत चुनाव हुए। चुनाव आयोग को पिछले कई चुनावों का अनुभव देख कई आशंकाएं और चिंताएं सता रही थीं। इसलिये हर जगह सुरक्षा बलों की मौजूदगी सुनिश्चित करने को पंचायत चुनावों का फैलाव आठ चरणों में करना पड़ा। एक के बाद एक आठ चरणों में चुनाव हो गये, पर किसी अखबार में हिंसा लीड नहीं थी। जबकि इस बार के पंचायत चुनावों की सबसे बड़ी खासियत थी आरक्षण, जिसके तहत पिछड़ा वर्ग को कहीं ज्यादा सीटें दी गयीं थीं और महिलाओं के लिये पचास फीसदी सीटें आरक्षित की गयीं। वोट पड़ गए, जिनको जीतना था जीत गए, हारे लोग अपना भाग्य कोसने में लग गए, लेकिन कहीं खून नहीं बहा। त्रि-स्तरीय पंचायत चुनावों को शांतिपूर्ण ढंग से निपटाने के लिये नीतीश सरकार ने केन्द्र से अर्द्ध
सैन्य बलों की मांग न कर अपने बलबूते कुछ करने की ठानी और राज्य के अवकाश प्राप्त सैनिकों को साथ लेकर सैप का गठन कर डाला। सैप ने अपने काम को इतने बेहतर ढंग से अंजाम दिया कि जनता को पिछले साल के विधानसभा चुनावों की याद आ गयी, जब राज्य में केन्द्रीय चुनाव आयोग के सलाहकार केजे राव की धमक गूंज रही थी। उसी दौरान नीतीश सरकार ने राज्य के पढ़े-लिखे रोजगारों को हिल्ले से लगाने और बरसों से चल रही दो सौ छात्रों पर दो अध्यापकों वाली सरकारी स्कूलों की मसखरी दूर करने की सोची और दो लाख से ऊपर शिक्षिकों की भर्ती का ऐलान किया। आवेदन से लेकर जांच-पड़ताल तक एक इतना बड़ा अभियान कई तरह के हिचकोले खा कर अब पटरी पर आ गया है। इसी तरह नीतीश सरकार ने सत्ता संभालते ही राज्य की बेहाल सड़कों को दुरुस्त करने की ठानी। हालांकि इस मामले में सरकारी घोषणाओं का अम्बार लगा पड़ा है और काम के नाम पर जो कुछ हुआ है वह नाकाफी है।लेकिन इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है मुख्यमंत्री की यह सोच कि कोई भी सड़क ऐसी न बने, जो साल पूरा होते-होते मुंह फाड़ दे। जबकि राज्य के ठेकेदारों को लत लगी हुई है हर साल सड़क बनाने की और लागत का मोटा हिस्सा जेब में रखने की। अपनी इस सोच के चलते नीतीश कुमार का राज्य से बाहर की कम्पिनयों को सड़क बनाने का काम सौंपने पर खासा जोर है। ये कम्पनियां बिहार आने को राजी हो गयीं, यही अपने आप में कम बड़ी बात नहीं, क्योंकि इससे पहले इन सबने बिहार आने के नाम पर तौबा कर रखी थी। मामला अटका पड़ा है काम करने की एवज में दी जाने वाली राशि को ले कर, जिसको सुलटाने में मुख्यमंतरी लगे हुए हैं।
डेढ़ दशक से रंगदारी, अपहरण और अन्य अपराध बिहार के लिये अभिशाप बने हुए हैं। इस मामले में पिछले 365 दिनों पर नजर डाली जाए तो कम से कम एक बात साफ नजर आती है कि अब मामला खुला खेल फर्रुखाबादी वाला नहीं है। अपहरण हो रहे हैं, हत्याएं भी बंद नहीं हुई, रंगदारी जारी है। पर कहीं ऐसा नहीं लगता कि यह सब सत्ता के संरक्षण में हो रहा है, या इसलिये हो रहा है क्योंकि पुलिस ने आंखें मूंद रखी हैं। कुल मिला कर संगठित तौर पर चले अपराधों का सैलाब थमा है। इन पर अंकुश लगाया स्पीडी ट्रायल ने, जिसके चलते अब पुलिस की जवाबदेही पहले से कई गुना ज्यादा है। पहले थानों में एफआईआर लिखने के लिये कलम ही नहीं उठती थी, अब वह मुस्तैदी से इस काम को कर रहे हैं।नीतीश सरकार का का सबसे बड़ा कारनामा सोये पड़े निगरानी विभाग को झटके से उठा कर खड़ा करने का है। इस समय बिहार ही शायद ऐसा राज्य है, जहां जिलाधिकारी, सिविल सर्जन, सडीओ, बीडीओ और ऐसे न जाने कितने अफसरों को रिश्वत लेते निगरानी विभाग ने दबोचा है। ये सब किस हाल को प्राप्त होंगे, यह तो पता नहीं, पर इनकी सबकी नौकरी पर दाग तो लग ही गया है।
विकास की सोच (जी हां, यह वही सोच है, जो इस राज्य में सिरे से गायब थी) और संगठित अपराधों में कमी के चलते अब बिहार में देश के नामी-गिरामी उद्योगपति पधारने लगे हैं। इनमें रतन टाटा जैसी शख्सियत भी शामिल हैं। यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि बिहार को ये लोग क्या दे पाते हैं,
लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि अब कुहासा छंटने लगा है। बिहार के बाहर बिहारी लगना या बिहारी होना दोनों ही एक बहुत बड़ा मजाक समझे जाते रहे हैं। मजाक भी हंसने-हंसाने वाला नहीं, बल्कि इस कदर तीखा कि दिलो-दिमाग तिलमिला जाए। और अब कहा जाने लगा है कि लालू प्रसाद ने केन्द्र में रेलवे संभाल कर और नीतीश कुमार ने बिहार की बागडौर संभाल कर बिहारीपन की कायापलट कर दी है। राजनीति में एक दूसरे के जबरदस्त प्रतिद्वनद्वी इन दोनों नेताओं के कामकाज का तरीका अच्छे-अच्छों को चौंका रहा है और दोनों ही प्रबंधन गुरू की हैसियत पा गए हैं। बिहार के लिये इससे बड़ा गौरव क्या हो सकता है कि विश्व पटल पर खास हैसियत रखने वाले अहमदाबाद के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट के प्रांगड़ में वहां के छात्रों को पहले लालू प्रसाद उच्च प्रबंधन का पाठ पढ़ाने को आमंत्रित किये गये और अब नीतीश कुमार को आमंत्रण भेजा गया है।
कुल मिला कर अगर नीतीश कुमार सरकार के साल भर के कामकाज पर कहा जाए कि बोलो क्या बदलाव नजर आ रहा है, तो केवल एक ही बात कही जा सकती है कि जब किसी को रहने के लिये कोई मकान टूटी-फूटी हालत में मिले तो सजाने-धजाने से तो उसकी शुरुआत कतई नहीं की जा सकती, पहले तो उसको दुरुस्त ही करना पड़ेगा। फिलहाल तो बिहार को दुरुस्त करने का काम चल रहा है। लेकिन बरसों से अपने राज्य की दुनिया भर में हो रहीं किस्म-किस्म की बदनामियों और अपनी बदहाली को लेकर कसमसा रही जनता को जो नतीजे अब दिखने को मिलने चाहिये थें, उनका अहसास तो है, पर वे नतीजे जमीन पर अब तक नजर नहीं आए हैं। इसके लिये कहीं न कहीं उस जमावड़े कई लोग कम जिम्मेदार नहीं, जिनके बलबूते नीतीश कुमार सत्ता में बने हुए हैं। देखना है कि उन पर कब लगाम कस पाते हैं नीतीश कुमार।

बिहार में जवानों की भर्ती

राजीव मित्तल
फलां जगह आयुध भंडार में आग लगी, असलहागार से हथियार चोरी, जवान ने अपने अफसर को गोली मारी, कर्नल की हत्या, रेलगाड़ी की बोगी में फलानी रेजीमेंट के जवानों और यात्रिओं में झड़प, जवानों ने लड़की को छेड़ा या जवानों ने चलती ट्रेन से यात्री को बाहर फेंका- सैक्रेड काऊ यानी सेना से संबंधित ये खबरें अखबारों में जहां-तहां नजर आती हैं। बिहार के अखबारों में इन खबरों के अलावा कुछ और भी बहुतायत से छपता है, उस पर भी नजर डाल ली जाए। जवानों की भर्ती में भगदड़-इतने मरे, इतने घायल, दरभंगा में रैली के दौरान दो दर्जन युवकों की नदी में डूबने से मौत, पूर्णियां में रैली के दैरान कई युवक बेहोश-तीन की मौत, मुजफ्फरपुर में पुलिस अफसर के घर पर बम फेंका, दरभंगा में सेना के बड़े अफसर ने दलालों से सावधान रहने को कहा, दलाल की हत्या आदि-आदि। एक महीना पहले मुजफ्फरपुर के एक दैनिक की लीड खबर जवानों की भर्ती में दलाली और उससे जुड़े अफसरों से सम्बंधित थी। मामला नौ साल पहले 1998 का है, जिसके तार भर्ती बोर्ड से जुड़े हैं। उस साल राज्य में हुई भर्ती में व्यापक धांधली हुई बताते हैं। सेना के ही कुछ अफसरों ने कई युवकों को फर्जी नियुक्तिपत्रों
के साथ रंगेहाथ पकड़ा था। और पकड़ में आने के बाद मामला अदालती बना। जिस पर आरोप लगा, उसी ने कुछ और नाम भी उगले, जो नाम उगले वे दलाल थे। वे दलाल जब तक अपना मुंह खोलते, सेना के कुछ अफसरों का यहां से तबादला हो गया। उन्हें मुजफ्फरपुर की अदालत में पेश होने को सम्मन पर सम्मन भेजे गये। पर कोई नहीं आया और मामला ठंडा पड़ता गया। अदालत ने जब कड़ा रुख अपनाया और उन अफसरों को सम्मन भेजने के साथ ही वरिष्ठ अधिकारियों को डीओ लिखा, तब जाकर कर्नल और मेजर रैंक के उन अफसरों ने मुजफ्फरपुर आकर मामले में गवाही दी। इस केस की अगली सुनवायी दो अप्रैल तय हुई है।
इससे पहले कुछ और वारदात हो चुकी थीं। मसलन मुजफ्फरपुर में ही सेना के अफसर के निवास पर बम फेंका गया और दरभंगा में कुछ सैन्य अफसरों की बाकायदा पिटायी हुई। एक ऐसे राज्य में जहां लाखों युवक बेरोजगार हैं, तो सेना में फौजी, ड्राइवर, चपरासी, धोबी, रसोइया और पुजारी के रूप में भर्ती उन्हें बारोजगार तो बनाती ही है, समाज में सिर उठाने का हौसला भी देती है। लेकिन यही भर्ती जब दलालों के चंगुल में फंस कर नौटंकी बन जाए तो अराजकता और नैराश्य पैदा करती है। यही हो रहा है आज बिहार में ही नहीं बल्कि देश भर में। सेना में जवानों की भर्ती के लिये आमतौर पर मेजर या कैप्टन रेंक का डॉक्टर और कर्नल या लेफ्टिनेंट कर्नल रैंक का अफसर जिम्मेदार होते हैं। नियम तो यह है कि जवानों की भर्ती के लिये सेना के ये अफसरान स्कूल, कॉलेजों के नवयुवाओं को सेना में भर्ती के लिये प्रोत्साहित करें। अखबारों और टीवी पर भर्ती को खूब प्रचारित कराएं। लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है। भर्ती का काम देख रहे हैं सेना के कुछ अफसरों द्वारा पोषित दलाल। ये दलाल आम तौर पर गांव-गांव, शहर-शहर में अपने सम्पर्कों के जरिये उन युवकों को भर्ती के लिये प्रेरित करते हैं, जो किसी भी तरह चालीस-पचास हजार रुपयों का इंतजाम कर सकें। आज के समय में यह कोई बहुत बड़ी रकम नहीं है इसलिये एक बार में पांच-सात सौ युवाओं से वसूली आराम से हो जाती है। वसूली का मोटा हिस्सा उन अफसरों तक पहुंच जाता है, जो भर्ती को अंजाम देते हैं। लेकिन दिक्कत यह होती है कि जगह केवल दो सौ होती हैं, पैसा पांच सौ से ले लिया जाता है। उन दो सौ में 25-30 नाम उनके छांट दीजिये, जिनमें कुछ के लिये बड़ी सिफारिशें, कुछ के लिये यार-दोस्तों के फोन, तो कुछ के लिये ऊपर वालों का आदेश आना लाजिमी है। भर्ती के दो तरीके हैं, जिसमें खुली भर्ती कुल मिला कर एक प्रहसन बन जाती है क्योंकि इसमें कमाई नहीं है। इसमें आवेदन प्रक्रिया से लेकर सामान्य ज्ञान की परीक्षा, दौड़ और फिर मेडिकल फिटनेस तक एक से एक अड़ंगे लगा कर सैंकड़ों युवकों को हतोत्साहित कर बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। सैंकड़ों को रैली में दौड़ा-दौड़ा कर इस कदर तोड़ दिया जाता है कि वे पनाह मांग जाते हैं। इसी रैली में भगदड़ मचती है सैंकड़ों जख्मी होते हैं और दसियों मरते हैं और भर्ती आगे के लिये टल जाती है। परदे के पीछे की भर्ती में होते हैं वे युवक, जिनसे राशि वसूल की जा चुकी है, सिफारिशी तो अपनी जगह हैं ही। लेकिन दलालों ने पैसा थमा दिया होता है पांच सौ नामों का, उन सब को एडस्ट कर पाना नामुमकिन है। दो सौ-ढाई सौ को किसी तरह ले लिया जाता है, जो रह जाते हैं उन्हें आगे देख लेने का आश्वासन मिलता है। जब उसमें देरी होती है तो खड़ी होने लगती है मुसीबत। दलाल अपनी खाल बचाने को कई युवकों को फर्जी नियुक्तिपत्र थमा देते हैं, जब राजफाश होता है, तो उन्हें निकाल बाहर किया जाता है और वे युवक दलाल को तलाशते हैं और दलाल नियुक्ति अफसरों को, जिनका तबादला दो-तीन साल के भीतर कभी भी तय है। इस तरह न जाने कितने मां-बाप अपने नौनिहालों को हिल्ले से लगाने के लिये जमीन-जायदाद बेच कर पैसे का इंतजाम करते हैं, जो पानी में जाता है। और सेना को मिलते हैं वे जवान, जो आंख के अंधे भी हो सकते हैं और गांठ के पूरे भी।

उत्तर बिहार में ये भी है वो भी है आपको क्या चाहिये

राजीव मित्तल
दुनिया के सबसे पुराने साम्राज्यों में एक, सबसे पुराना गणतंत्र, बुद्ध और महावीर की आध्यात्मिक स्थली, गुलाम भारत में बापू की पहली कर्म स्थली, सीता की एक नहीं दो-दो जन्म स्थलियां, युवा हो रहे श्री राम की राक्षस संहार स्थली, जो आगे बढ़ते-बढ़ते कहीं उनकी सुसराल बनी -इन बातों को रटने के साथ-साथ और भी बहुत कुछ है सुतली से सिर की चोटी बांध या आंखों में कड़ुआ तेल डाल ‘राम-रामौ, राम रामौ हाय प्यारी संस्कृतम् तुम न आयीं मैं मरा रच्छ-गच्छ कचूरणम्’ करने के लिये। रामायणकालीन विदेह साम्राज्य, बुद्ध और महावीर कालीन वैशाली साम्राज्य, ईसा से छह सौ साल पहले सम्राट बिम्बसार की लिच्छवी ससुराल-अगर उत्तर बिहार के इतिहास को खंगाला जाए तो रस टपकाने वाली एक-एक बूंद ऐसी होगी कि क्या तिरहुत क्या मैथिल और क्या वृज्जि, सब एक अनंत सुख में डुबकी लगाते नजर आएंगे। और शायद लगा भी रहे हैं अपने इस वर्तमान को भूल कर, जो उस प्रेतशाला का आभास करा रहा है, जिसमें शिव के गण धतूरे और गांजे के नशे में चूर प्रेमचंद की कफन कहानी का चरित्र बने हुए हैं। कुल मिला कर उत्तर बिहार की स्थिति उस युवक सी है, जो कुएं में गिरने से बचने के लिए उस बरगद की जड़ को पकड़े लटका है, जिसकी किसी शाख पर बने मधुमक्खियों के छत्ते से उसके मुंह में शहद टपक रहा है और उसी जड़ पर लटका एक सांप फुंफकार मारता धीरे-धीरे उस तक बढ़ रहा है, नीचे कुएं में लबालब पानी तो ही है। तो अब या तो मीठे गौरवमय इतिहास का शहद चाट लीजिये, या वर्तमान के सांप से निपट लीजिये, इन दोनों का मजा न ले पा रहे हों तो नीचे पानी है ही। इतिहास और वर्तमान के ये दोनों स्वाद मई की लीची और जुलाई की लीची के फर्क को साफ-साफ दर्शा रहे हैं। खैर, इतिहास तो याद करने और भूल जाने का अध्याय है ऐसे में वर्तमान से ही रूबरू होना एक ऐसी जीजीविशा से दो-चार कराता कि हैरत से आंखें फटी की फटी रह जाती हैं। इतनी विपरीत परिस्थितियों में जीने की ऐसी लालसा!
इतिहास की तरह यह भी बिहार की अपनी खास पहचान है, जिस पर बिना मतलब नाज भी किया जा सकता है। प्रो. पोद्दार ने आज के उत्तर बिहार की कितनी सटीक पहचान दी है कि हाथ में सोने का कटोरा लेकर भीख मांगना। यह कुछ उसी तरह है जैसे लखनऊ के नवाबों के वंशज तांगा चलाते थे या टीपू सुल्तान के वंशज कलकत्ता में भीख मांगते थे। गुप्त साम्राज्य के नष्ट हो जाने के बाद बिहार की जो श्री डूबी तो फिर वह कभी उबर नहीं पायी। उत्तर बिहार की तबाही शुरू हुई तेरहवीं शताब्दी से, जब तिरहुत की जमीं पर पहली बार बर्बर तुर्क बंगाल के शासक गयासुद्दीन एवाज ने कदम रखा। फिर तो बरबादी का वह सिलसिला शुरू हुआ, जो अट्ठावन साल के आजाद भारत में भी नहीं थमा है। 1762 में अंग्रेजों को बंगाल और उड़ीसा के साथ-साथ बिहार की दीवानी भी क्या मिली कि पूरे राज्य के खाते-पीते समाज का चरित्र सामंतवादी हो गया। लेकिन रियाया का हाल बद से बदतर होता गया। किसी जमींदार के घर भोज पर चुड़ा-दही और हाथी के कान जितनी बड़ी पूड़ियां खाने के लिये गरीब-गुरबा अपने बच्चों को कंधे पर उठाए पचास-पचास कोस चल कर आते थे, क्योंकि उनके नसीब में कहां था यह ‘छप्पन भोग’।आजाद भारत के शुरुआती दिनों में बिहार इस बुरे हाल में नहीं था। लेकिन पहले से मौजूद सामंतवादी और घोर जातिवादी व्यवस्था ने उन सारी बुराइयों को फिर उचका दिया, जो आजादी की लड़ाई के जोम में दब गयी थीं। उसके बाद शुरू हुआ अपने ही लोगों के हाथों लुटने का दौर, जिसने विकास तो विकास, उसकी तलछट भी नहीं छोड़ी। पूरा उत्तर बिहार पानी से लबालब है, लेकिन उसका कोई उपयोग नहीं। यहां तक कि पीने का पानी भी दूषित हो चला है। बाकी बाढ़ और सुखाड़ के हवाले। जितने किस्म का जिंस और फल यह इलाका पैदा कर रहा है, उतने में ही इसके वारे-न्यारे हो गए होते। लेकिन माल ले जाने के लिये एक भी सड़क साबुत न हो, फूड प्रोसससिंग की फैक्टरियां पेड़ पर लदी लीची को मुंह चिढ़ा रही हों तो किसान दलालों के ही हाथ तो बिकेगा। उद्योग के नाम पर शून्य है यह इलाका। जो थे उस कबाड़ में कबाड़ी तराजू लेकर बैठे हुए हैं। पिछले 25 सालों में इस कदर गैरजिम्मेदाराना खेल खेला गया है उत्तर बिहार के साथ कि मिलान के लिये हमें किसी विदेशी आक्रमणकारी का मुंह जोहना पड़ेगा। पूरा इलाका एक बेतरतीब रिहायशों का जमावड़ा बन लुट-पिट कर सांस लिये जा रहा है क्योंकि उसकी आदत सी जो पड़ गयी है।

बाजार के तराजू पर तुलती क्रांति

अपने ही अखबार में बारह नंबर पेज पर जा रही खबर से पता चला कि अस्सी साल पहले सत्ताईस फरवरी को चन्द्रशेखर आजाद इलाहबाद के अल्फ्रेड पार्क में ब्रितानी पुलिस से लड़ते हुए मारे गए थे। और मुजफ्फरपुर में इन्हीं आँखों से कम्पनी बाग़ में वो जगह भी देखी है, जहां खुदी राम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने अंग्रेज जज को मारने की कोशिश की थी लेकिन अब वो ओपन संडास बने हुए हैं .....और देखें हैं दिल्ली में खूब सारे हरे भरे सजे हुए वन, जहां आज़ाद भारत के कई रहनुमा अपनी समाधियों में इतराए पड़े हैं कि देश को आज़ाद उन्हीं ने कराया तो वसूली तो पूरी हो.....मरने के बाद भी...

इस
लेख में आजाद की शहादत पर एक शब्द नहीं है क्योंकि दोस्तों, हम बाज़ार के साथ हैं और आजाद की , या बिस्मिल की या अशफाक की या उन जैसे हज़ारों की शहादत से बाज़ार को कोई कीमत वसूल नहीं होनी......ज़रा सोचिये, आजाद या बिस्मिल को लेकर केतन मेहता या कोई उन जैसा फिल्म बनाना चाहे तो वो किस हिरोइन को लेगा नाचने-गाने के लिएइन दोनों शहीदों ने बगैर किसी चोंचलेबाजी के केवल देश से प्यार किया थाकोई ठुमका नहीं कोई झुमका नहीं....तो स्स्सला ऐसा देशप्रेम किस भाव बिकेगा.....देश की सात सुन्दरियों को मिस वर्ल्ड और सात को ही मिस यूनिवर्स की उपाधि मिल गयी .....मार्केट पर कब्ज़ा करने के लिए बहुत है .....आइये देखें क्रांति का सेंसेक्स.............




राजीव मित्तल
इसे कहते हैं बाजार का खेल कि सन् 1857 के सैनिक विद्रोह के ठीक 50 साल बाद अंग्रेजी राज को दहशत में डालने वाली खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी की शहादत को लेकर देश भर के स्कूली बच्चों का निहायत बेगाना रवैया और 1857 की गदर शुरू होने से ठीक पहले फांसी पर लटके मंगल पांडे का देश भर में इस्तकबाल।

वैसे देखा जाए तो 1908 के मुजफ्फरपुर बम कांड का क्या असर हुआ इसकी आज देश भर में कितनों को जानकारी है! खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ बगावत का ऐलान करते हुए इसी मुजफ्फरपुर की धरती पर बम फोड़ा था और इससे भी बड़ी बात यह कि ब्रितानी बादशाहत पर 20 वीं शताब्दी के शुरू में ही यह पहला वार था। और उससे भी बड़ी बात यह कि 1757 के प्लासी युद्ध में जीत हासिल करने के बाद भारत में अपने पैर जमाने और फिर अपनी सत्ता स्थापित कर चुके अंग्रेजों पर यह पहला सुनियोजित गैर सैनिक हमला था।

लेकिन जब हम भारतीय क्रांति के अग्रदूत खुदीराम बोस की मूर्ति पर हर साल फूलमाला पहनाने से ज्यादा कुछ नहीं कर सकते तो हम इतना भी कैसे जान सकते हैं कि फांसी की सजा सुन खुदीराम बोस का वजन बढ़ गया था और जब उनके गले में जल्लाद ने रस्सी डाली तो उनकी उम्र अट्ठारह साल भी नहीं थी। और पुलिस के हाथों पड़ने से बचने के लिए 18 ही साल के प्रफुल्ल चाकी ने अपने को गोली मार ली थी। दोनों को मरते समय बस यही मलाल था कि आतातायी अंग्रेज जज किंग्सफोर्ड उनके बम से बच गया।

अब आइये बाजार की ताकत पर, तय मानिये कि अगले कुछ ही दिनों में सारे देश में मंगल पांडे का नाम घर-घर गूंज रहा होगा, इसलिए नहीं कि उन्होंने फांसी पर चढ़ कर कर कोई बहुत बड़ा तीर मारा था, बस इसलिए कि उनके नाम के साथ रानी मुखर्जी और अमीषा पटेल का नाम भी सट गया है और आमिर खान उन्हीं के गेटअप में देश भर के सैंकड़ों सिनेमाघरों में अपनी अदाकारी दिखा रहे हैं। यह बाजार का मीडियायी रूप ही है, जिसने तीन साल पहले ही इस बात को चर्चा का विषय बना दिया था कि मंगल पांडे बनने के लिए आमिर ने आठ करोड़ लिए........नब्बे साल के हिंदी फिल्मों में अभिनय के इतिहास की सबसे ऊंची कीमत.........वल्लाह .....

वास्तविकता यही है कि बाजार ही है जो तय करता है कि किस शहीद का चौखटा किस धातु से मढ़ा जाए। दो साल पहले भगतसिंह पर फिल्म बनाने की होड़ सी मच गयी थी, और जब कमाई आशानुरूप नहीं हुई तो सन्नी देओल और राजकुमार संतोषी ने पुरानी दोस्ती भुला कर एक-दूसरे की शान में ‘कसीदे’ काढ़े थे। यह आर्थिक उदारीकरण का वह दौर है जिसमें सब कुछ बिकाऊ है-क्रांति भी, क्रांतिकारी भी, भगवान भी और भगवान के भक्त भी-बस बिकने की तमीज होनी चाहिये और बेचने की कुव्वत।


देश की आजादी के लिए कुर्बान हुए क्रांतिकारियों की शहादत अलग-अलग तराजू पर तोलने की चीज नहीं है। लेकिन जब रामप्रसाद बिस्मिल की बहन अपने भाई की शहादत के बाद लोगों के घरों में बर्तन मांज कर जीवन यापन करे, या चंद्रशेखर आजाद की मां दो रोटी को तरसे, या अशफाकउल्ला, राजेन्द्र लाहिड़ी, रोशन सिंह, राजगुरु, सुखदेव, शचींद्र सान्याल, शचींद्रनाथ बख्शी या 19वीं सदी के अंत में अपने दम पर अंग्रेजों से लोहा लेने वाले बलवंत फड़के, जो जेल में तपेदिक से मरे या फांसी पर झूल गए चाफेकर बंधु या उन जैसे हजारों शहीदों का आज कोई नामलेवा नहीं तो आमिर खान का आठ करोड़ और केतन मेहता का सौ करोड़ वाला ‘मंगल पांडे’ कौन सा संदेश देशवासियों या अपने ग्राहकों को देना चाहता है!

जबकि सच यह है, भले ही कड़वा हो, कि मंगल पांडे देश को अंग्रेजों से आजाद कराने के लिए उनसे लड़ कर फांसी पर नहीं चढ़े थे। अंग्रेजों अफसरों की कमान वाली देशी जवानों की फौज में अगर यह अफवाह जोर न पकड़ती कि अब जो नये कारतूस दिये जाएंगे, उनका खोल गाय या सुअर की चर्बी से बना होगा और उन्हें दांत से काट कर बंदूक में डालना होगा, तो न तो मंगल पांडे के संस्कार को चोट पहुंचती और न वह जुनून जागता, जिसने एक अंग्रेज अफसर की जान ले ली। किसान मंगल पांडे प्रेसीडेंसी डिविजन की 34वीं नेटिव इन्फेंट्री का सिपाही बन कर रिटायर होते और तब तक...या तो परेड-परेड या अपने ही देशवासियों के खिलाफ किसी मोर्चाबंदी में हिस्सेदारी।

चिड़ियाघर में नवजागरण

राजीव मित्तल
पहले चिड़ियाघर टाइप के शहरों में किसी भी मुहाने पर एक लम्बी सी सड़क नामुदार हो जाया करती थी, जिसके इस किनारे पर अमलतास और उस किनारे पर गुलमोहर की कतार सुबह घूमने वालों के स्वागत में मुस्तैद रहती थीं। सड़क पर दो-चार स्कूटर या एकाध कार की आवाज से घूमने वालों के उत्साह में कोई फर्क नहीं पड़ता था। ऐसी सड़क मंत्रिओं के बंगले के सामने से जरूर निकलती थी, साज-सज्जा की धज भी कलफ लगे कुर्ते की तरह कड़कड़ाती थी। लेकिन अब सब बदल गया। मंत्री का बंगला एक तरह से हाईवे पर आ गया, जिन पर बसों और ट्रकों की ही सत्ता है। सात देवी और सात देवताओं को जेब में रखने वाले मंत्री जी इस सत्ता के आगे बेबस हैं तभी तो उन्होंने अपने घूमने के लिये एक शांत, प्राकृतिक और आस्था जगाने वाली जगह का अविष्कार किया है। इस मामले में वह कोलम्बस नहीं बल्कि वास्कोडिगामा साबित हुए, जो भारत के लिये निकला तो सीधे केरल के तट के किनारे पड़ी हल्दी की गांठ पर ही लंगर बांधा, न कि कोलम्बस की तरह अमेरिका में भटकता रहा और एक बड़े तबके को बेवजह इंडियाना बना दिया। तो हमारे आधुनिक वास्कोडिगामा ने, जिसकी आत्मा में एक अदद मंत्री बैठा है सुबह की ऑक्सीजन सपोड़ने और कार्बनडाईआक्साइड बेतकल्लुफ होकर बाहर करने के लिये बड़ा ही मौजूं स्थान तलाशा है, जिसे अभी तक तो चिड़ियाघर कहा जा रहा है, हो सकता है कुछ समय बाद वह मंत्री विचरणालय कहलाने लगे। मंत्री जी चिड़ियाघर को क्या दे रहे हैं या वहां से क्या हासिल कर रहे हैं, इसमें जाये बगैर इतना तो जरूर कहा जा सकता है कि उनकी सुबह की इस सैर ने अपने-अपने जंगलों या पिंजरों से झांकते शेरों, भालुओं, बंदरों, ऊदबिलावों, पानी में तैरती मुर्गाबियों, किसी शाख पर अटके लंगूरों, विभिन्न प्रकार के पक्षियों, रेंगने वालों, तैरने वालों, कुदक्कड़ी लगाने वाले भांति -भांति के इन नश्वर सांसारिक जीवों को जीने का मकसद दे दिया है। दस से पांच की ड्यूटी में जो हर उम, हर लिंग और हर किस्म के इंसान के लिये अजूबा बने रहते हैं, वे डूब रहे शुक्र के तारे के समय एक ऐसे जोरदार अजूबे से दो-चार होते हैं , जो दिन भर अपने अजूबे बने रहने का गम भुला देता है।
उन्हें रोज सुबह देखने को मिलता है कि सामने से हूं-हूं, हां-हां की आवाज निकालते पांच -छह लोग चले आ रहे हैं। जो सबसे आगे चल रहा है उसी की चाल में बाकी लोग भी चल रहे हैं। जो आगे चल रहा है वह बीच-बीच में एकाएक चिल्ला उठता है भारत माता की, बाकी उससे भी तेज आवाज निकालते हैं-जय। हमारा नेता कैसा हो? यहां पर आप और हम भले ही कन्फ्यूज हो लें पर वे लोग नहीं हैं, उन्हें मालूम हो कि उनका नेता कैसा है। लेकिन यह दोनों आवाजें कभी-कभार ही पिंजरे से झांकते जन्तुओं के कानों में पड़ती है। अक्सर तो कानों में यही सुनायी पड़ता है-बंदूक में गोली ठीक से भरी है कि नहीं, आज की फ्लाइट से दिल्ली जाना है, वह पत्रकार बहुत-उल्टा-सीधा लिख रहा है, ठीक करना है साले को। गांव में बुड्ढे-बुढ़िया की मूर्ति लगी कि नहीं। आज मुख्यमंत्री जी के यहां पंडित जी को लेकर जाना है, कोई ग्रह बहुत परेशान कर रहा है सरकार को। बातचीत का दायरा इससे ज्यादा नहीं फैलता। असली काम तो ऑक्सीजन और कार्बन को पाने और झटकने का है न! ऐसे ही नजारे वाले एक दिन एक जिराफ ने अपनी लम्बी गर्दन जेबरे के अहाते में डाली और पूछा, राष्ट्रपति शासन वाले इलाकों में चिड़ियाघर में सुबह क्या होता है जेबू? जवाब मिला- तब ये काम अफसर करते हैं जेरू।

उत्तर बिहार में हैं हजारों खैबर दर्रे

राजीव मित्तल
उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत के एक ही खैबर दर्रे ने इस देश को सदियों तक झिलाए रखा तो अब क्या कीजिएगा जहां खैबर दर्रों की फसल-ए-बहार है। उत्तर बिहार का का नेपाल से लगा सैकड़ों मील लम्बा इलाका किसी भी तरह की घुसपैठ और तस्करी के लिए आदर्शतम जगह है। इस साल जून के अंतिम सप्ताह में नेपाल के माओवादियों ने जिस तरह इस इलाके को झकझोर डाला, वह आने वाले दिनों में कश्मीर के से हालात के संकेत दे रहा है। 23 जून को मोतिहारी के मधुबन इलाके में घुस कर सीधे एक सांसद की हवेली पर हमला और उसके बाद सीतामढ़ी तक फैल कर पुलिस की नींद हराम कर देना और अब सीमाई इलाके में जगह-जगह प्रशिक्षण केंद्र खोलने की खबरें। उस पर तुर्रा यह कि नेपाल के माओवादियों की श्रीलंका के लिट्टे और पाकिस्तान के आईएसआई से भी मिलीभगत है-इस पर भी हमारी बिहार सरकार के पास माओवादियों से लड़ने के लिए हथियार के नाम पर सिर्फ घोषणाएं या राज्यपाल बूटासिंह के केंद्र सरकार के नाम दनादन एसएमएस कि कुछ तो मदद करो। माओवादी हमले के चार-पांच दिन बाद ही मुजफ्फरपुर शहर के एक नर्सिंगहोम में इलाज करा रहे कुछ उग्रवादी पकड़े जाते हैं तो पता चलता है कि यह तो आम बात है। यह धंधा तो शहर के कई नर्सिंगहोम में चल रहा है। कुछ डाक्टरों की अंधी कमाई का नायाब तरीका है यह। कभी-कभार काठमांडू के जुओं के अड्डों पर अय्याशी अलग से। जैसे कश्मीर में आधिकारिक तौर पर मान लिया गया है कि वहां के उग्रवाद को पनपाने में पाकिस्तान का हाथ है तो उत्तर बिहार के लिये यह सच मानने में क्या बुराई है कि माओवादियों की आड़ में चीन के खतरनाक इरादे हैं, जिसने कुछ साल पहले अपनी एक डिवीजन सेना के जवानों की वर्दी उतार कर उन्हें नेपाल में सड़क बनाने वाली अपने ही देश की एक कम्पनी में भर्ती करा दिया। यह तो तय है कि सड़क निर्माण कम्पनी के कर्मचारी बने उन चीनी फौजियों के इरादे नेक नहीं होंगे।
उत्तर बिहार के एक बड़े इलाके का नेपाल से बहुत गहरा संबंध रहा है और है। दोनों तरफ के आमजनों में रोटी-बेटी तक का रिश्ता है। अगर 1815 में अंग्रेजों ने नेपाल सरकार से सुगौली (पूर्वी चम्पारण ) संधि न की होती तो नेपाल और उत्तर बिहार में सीमाई फर्क भी न रह जाता, क्योंकि उस समय तक नेपाल का असर हाजीपुर तक था। उस संधि में महत्वपूर्ण शर्त यह थी अंग्रेजों की फौज गंगा के उस पार दानापुर (पटना के नजदीक) तक ही रहेगी, इधर वैशाली की तरफ मुंह भी नहीं करेगी।
लगता है दो सौ साल पुरानी वह संधि भारत आज तक निभाता आ रहा है। तभी तो दानापुर में जो सैनिक तामझाम है वह ट्रेनिंग कोर तक ही सीमित है। मुजफ्फरपुर छावनी में अब तक आधी-अधूरी 151 इन्फेंट्री जाट रेजीमेंट है, क्योंकि इसके कई जवान और अफसर कारगिल युद्ध में उतारे गए थे, उसके बाद उनकी तैनाती कश्मीर में हो गयी। नेपाल में 2001 में राजा वीरेंद्र और उनके पूरे परिवार के खात्मे के बाद जिस तरह माओवादियों ने वहां और भारत की तराई में अपने पैर फैलाए और उनके खतरनाक रुख के मुतल्लिक कई इंटेलिजेंस रिपोट सामने आयीं, उसके आधार पर करीब तीन साल पहले तत्कालीन सेना उपाध्यक्ष ले. जनरल यादव की पहल पर अत्याधुनिक हथियारों से लैस एक पूरी ब्रिगेड मुजफ्फरपुर छावनी में तैनात करने की बात करीब-करीब तय हो गयी थी। खुद जनरल यादव अपने स्टाफ के साथ कई दिन मुजफ्फरपुर में रहे और उनकी देखरेख में ब्रिगेड के कार्यालय भवन और उसके आवास बनाने को छावनी में जगह-जगह मिट्टी का सर्वेक्षण जैसी औपचारिकताएं तक हुईं। लेकिन राजनीति के गंदे खेल ने उस ब्रिगेड का मुंह कटिहार की तरफ मोड़ दिया, जो किसी भी हालत में चम्पारण जितना संवेदनशील नहीं है। कुछ सैन्य अधिकारी दबी जुबान से बताते हैं कि मुजफ्फरपुर छावनी इलाके में कुछ नेताओं के जमीन हड़पो अभियान के चलते ऐसा हुआ, जिन्होंने ठीक सैनिक मुख्यालय के सामने एकड़ों जमीन पर आवास बना रखे हैं और जिनका तालमेल रक्षामंत्री रहे स्थानीय सांसद के राजनीतिक गठबंधन से है।
अगर सेना की वह ब्रिगेड मुजफ्फरपुर में तैनात हो जाती तो चम्पारण से लेकर मिथिलांचल तक के इलाके को कैसे भी उग्रवाद से काफी हद तक निजात मिलती और रंगदारी जैसे अपराधों में कमी आती। इलाके की सड़कों वगैरह का उद्धार अलग से होता। और ऐसा हो गया होता तो राज्यपाल महोदय को सीआरपीएफ तक के लिये रिरियाना न पड़ता, जिसकी कम्पनियां कई बार इस इलाके में तैनात की गयीं, पर जिनके रहने को दो गज जमीन भी स्थानीय प्रशासन नहीं जुटा सका।
रोना उग्रवाद को लेकर ही नहीं है। हर बारिश में नेपाल से छोड़ा जाने वाला पानी भी पूरे उत्तर बिहार को तबाह कर रहा है। इस समस्या का हल भी हर स्तर पर केवल घोषणाओं और कई तरह के ऐलान से ही किया जाता रहा है। नेपाल से लगा उत्तर बिहार का यह इलाका खेती के लिहाज से बेहद समृद्ध है। नेपाल का यही पानी 20 साल पहले वरदान साबित होता था क्योंकि इस पानी में हर तरह का खनिज भरपूर मात्रा में होता था और वह चारों तरफ फैल कर सारी धरती को उपजाऊ बनाता था, आज अधकचरे और योजनाहीन तटबंधों के चलते यही पानी कहर बन गया है। अपने गांव से बेदखल हो हजारों लोग उन दियारों में बस गए हैं, जहां से हर साल नेपाल का पानी उन्हें उखाड़ता है। यही दियारे कभी सोना उगलते थे।
असलियत यह है कि नेपाल से लगी इस धरती की उर्वरता ने अंग्रेजों के शासन की शुरुआत में एक ऐसा सामाजिक ढांचा तैयार कर दिया, जिसमें शोषक और शोषित का खुला खेल शुरू हुआ, जो आज तलक जारी है। आजादी के बाद हुए भूमि सुधार बिहार की हद से ही वापस हो लिए। आज भी सारी सुख-सुविधाओं से लैस सैंकड़ों एकड़ की खेती वाले किसान यहां बसे हुए हैं, जो कभी भी मुम्बई-दिल्ली की सैर करा आते हैं, जिनके बच्चे बड़े-बड़े शहरों के स्कूल-कॉलेजों में पढ़ रहे हैं बाकी जनता के लिये नेपाल से लगे उत्तर बिहार के मोतिहारी से लेकर सीतामढ़ी तक के सारे इलाके में एक सड़क, एक पुल या पुलिया ऐसी नहीं बची है, जिस पर किसी तरह का सफर किया जा सके। इस पूरे इलाके में कहीं बिजली नहीं है, किसी तरह की स्वास्थ्य सेवा नहीं है, नीचे से लेकर ऊपर के स्तर तक कैसी भी शिक्षा व्यवस्था नहीं है। जो कुछ है वह अंग्रेजों के समय का है, इसलिये अब तक खिंच भी रहा है। वजह वही है कि सामंतवादी मानसिकता ने विकास के किसी भी काम को हाथ तक लगाने नहीं दिया। सरकार से लेकर नौकरशाही में ऐसी मानसिकता वाले व्यक्तियों की भरमार है क्योंकि अगर विकास यहां पहुंच जाएगा तो फिर रियाया किसके आगे हाथ फैलाएगी। सड़क, बिजली, पुल तो जाने दीजिये, मुजफ्फरपुर के पंताही हवाई अड्डे पर 20 साल पहले तक कुछ उडानें थीं, पटना तक के लिये तो नियमित उड़ान थी, एक फ्लाइंग क्लब भी था, आज यहां चुनावों के दिनों में या बाढ़ के समय किसी नेता या मंत्री को लिये हेलिकॉप्टर ही उतरते हैं। इस क्षेत्र के ये हालात और सरकारी उदासीनता माओवादियों की फसल के लिये खाद का काम ही करेगी।

हां, कभी हुआ करता था कोई महमूद

राजीव मित्तल
सालों से अपने में सिमटे महमूद का चले जाना आज की नौजवान पीढ़ी के लिये एक सूचना से ज्यादा नहीं हो सकता है। लेकिन जिन्होंने 60 के दशक में बनी फिल्म ‘मंजिल’ में पान के खोखे के अंदर बैठे महमूद को नृत्य की शास्त्रिय मुद्राओं के साथ ‘तेरी सुबह कह रही है तेरी रात का फसाना’ गाते देखा हो, उन्हें जरूर पता चल गया था कि क्या पानी है इस आदमी में। गुरुदत्त ने पहले ‘सीआईडी’ में विलेन और फिर ‘प्यासा’ में लालची बड़े भाई के रूप में पेश कर महमूद को हास्य से बिल्कुल अलग रखा था क्योंकि उनके लिये जोनीवाकर ही काफी थे हंसने-हंसाने को। लेकिन ‘छोटी बहन’ से शुरू हुआ महमूद का कामेडी का सफर एक ऐसे मुकाम पर जा पहुंचा, जहां फिल्म का नायक अपने रोल में ही सिमट कर रह जाता था और महमूद की कॉमेडी फिल्म की जान बन जाती थी। यह सिलसिला 70 के दशक के अंत तक चला।
याद कीजिये फिल्म गुमनाम को , जिसमें हो रहे एक के बाद एक कत्ल से आक्रान्त हो चले दर्शकों को ‘हम काले हैं तो क्या हुआ दिल वाले हैं’ पर धमाल मचा कर महमूद कितनी राहत पुहंचाते हैं। इस बीच उन्होंने अपने को बेहतरीन फिल्मकार के रूप में भी स्थापित किया। भूतबंगला, पड़ोसन , कुंवारा बाप और बाम्बे टु गोवा जैसी फिल्में बताती हैं कि उनके अंदर के कलाकार की कोई सीमा रेखा नहीं थी। एक समय तो ऐसा आया कि जब उन्हें केंद्र में रख कर फिल्में बनायी जाने लगीं। उनके बगैर क्या ‘जौहर-महमूद इन गोवा ’बनाने की सोच भी सकते थे आईएस जौहर! फिल्म साधु और शैतान जैसी फिल्में बताती हैं कि महमूद दक्षिण भारतीय निमार्ताओं के लिये भी अपरिहार्य हो चले थे। राहुल देव बर्मन जैसे जीनियस को दुनिया के सामने महमूद ही लाये। एक संगीतकार के रूप छोटे नवाब आरडी की पहली फिल्म थी, जिसके पीर-बावर्ची महमूद ही थे।
महमूद की ही दूसरी फिल्म भूत बंगला ने आरडी को पूरी तरह स्थापित कर दिया। इस फिल्म में महमूद ने उनसे अभिनय भी कराया था। 80 के दशक की शुरुआत में सामने आता है महमूद का एक और अहम योगदान। आज के मिलेनियम कलाकार अमिताभ बच्चन फिल्म सात हिंदुस्तानी के बाद एक और फिल्म पाने के लिये तरस रहे थे। कुछ फिल्मों में तो वह एक्स्ट्रा तक का रोल कर रहे थे, मुम्बई में उनके पास रहने-खाने तक का ठिकाना नहीं था, उस समय अपने छोटे भाई अनवर अली के इस दोस्त को महमूद ने सहारा दिया ताकि वह अपने पैर बोलीवुड में टिका सकें। फिल्म बॉम्बे टु गोवा में उन्हें नायक बनाया। महमूद ने अमिताभ को एक तरह से अपने परिवार में शामिल कर लिया था। कुछ सफलता पाने के बाद अमिताभ अपने घर में आ गये तब भी महमूद की छोटी बहन ही उनका घर संभालती थीं। और यह संबंध कहीं न कहीं दिल से भी जुड़े थे। इसका जिक्र डा. हरिवंश राय बच्चन ने अपनी जीवनी में किया है। उन्होंने तो यहां तक लिखा है कि महमूद की बहन अमिताभ पर जिस तरह अधिकार जताती थीं, वह अमिताभ की मां को बिल्कुल पसंद नहीं था। फिर जंजीर ने अमिताभ की किस्मत पलटी और उनके जीवन में जया भादुड़ी की भूमिका अहम हो गयी। महमूद का वो बेटा पहले ही मर गया था , जिसके पोलियो ग्रस्त पैर को लेकर उन्होंने एक रुला देने वाली फिल्म कुंवारा बाप बनायी थी। इसी फिल्म का एक गाना अब भी आंखें नम कर जाता है- आरी आजा ले चल मुझे- जिसका संगीत उस समय के संघर्षशाल संगीतकार राजेश रोशन ने दिया था।

एक न आयी मौत की मार्केटिंग

राजीव मित्तल
पहले एक किस्सा सुन लीजिये। लोदी सल्तनत के वक्तों में गुजरात का सुल्तान हुआ करता था महमूद बघर्रा। मुंह चलता रहे, इस पांच फुटे सुल्तान का यह सबसे प्रिय शगल था। सुबह उठते ही नाश्ते में दो सौ केले, 20-25 सेर शहद और इतनी ही मलाई। और यह सब खाद्य पदार्थ उसके ठीक सामने नहीं, बल्कि चारों तरफ रखे जाते थे, ताकि जिधर घूमे वहीं हाथ मारे। कुछ ही देर बाद वह फिर खाने के लिए दहाड़ने लगता था। अब उसे मिलना चाहिये-भुने हुए दो-चार बकरे, कई दर्जन मसालेदार मुर्गे और एक मन पका चावल और सौ-डेढ़ सौ रोटियां। तो, आज के टीवी चौनलों को महमूद बघर्रा की तरह 24 घंटे कुछ न कुछ चाहिए, ताकि दर्शकों को रिझाया जा सके। इन दिनों बिहार में चुनाव के चलते सभी चैनलों के पास दिखाने को कुछ न कुछ है, पर मजा नहीं आ रहा। ठीक नौ महीने बाद दोबारा हो रहे बिहार विधानसभा के चुनावों में दिखाने को कुछ नया है भी नहीं। वही नेता, वही चेहरे, वही वादे, वही आरोप और वही आशंकाएं। पुराना माल और पैकिंग तक पुरानी-धुरानी। जब इस बार मतदाता तक बोर हो रहा हो तो चैनल कैसे बचाएं अपने दर्शकों को इस चुनावी बोरियत से। अफगानिस्तान और ईरान शांत हैं, बुश को भी ईरान पर हमला बोलने की कोई खुजली नहीं हो रही। सारे तूफान, इना-मीना-रीटा-कैटरीना और भूकम्प आने थे वो सब अपना काम निपटा कर चले गए। लेकिन चैनलों की टीआरपी नाम की ‘राक्षसी’ का क्या किया जाए, जिसे हर समय कुछ नया स्वाद चाहिये। यह मौका दिया पुंजीलील उर्फ कुंजीलाल ने, जो किसी अजूबे हादसे में नहीं मरा, बल्कि अपने मरने की भविष्यवाणी खुद ही कर बैठा। किसी इंसान का मरना वह भी ज्योतिष शास्त्र के तय किये समय पर, इतना शानदार नजारा दर्शकों को दिखाने को और क्या हो सकता है। हर चैनल पर उत्साह की बयार बहने लगी कि आज मिला है कुछ नया करने को। मौत की आहट, फिर उसका चील की तरह अपने शिकार पर झपटना और फिर एक जिंदा व्यक्ति का लाश में तब्दील होना-उफ! मौत की इस आवाजाही के लाइव टेलीकास्ट के लिए टंग गए चारों तरफ कैमरे और आंखों देखी सुनाने के लिए हरएक के हाथ में मोबाइल। बस अब तो इंतजार है उस छिपकली का, जो इस टिड्डे के दबोचेगी और फिर निगलेगी। कैसा लगेगा जब कुंजीलीला की तरफ मौत बढ़ रही होगी और वह घिघिया रहा होगा? अच्छा यह बताओ कि मौत देखने में कैसी होती है? गुलाबी! धत्, वह तो चांदनी का रंग होता है। ‘गाइड’ में देवानंद को मरते हुए नहीं देखा क्या? उसकी आत्मा तो शरीर से बात भी कर रही थी। कह रही थी-सफेद रंग की है। आह, मजा आ रहा है। अरे, कुंजीलाल जी, जरा गर्दन इधर कीजिये, लिप्पल माइक लगाना है ताकि जब मौत आपको छुए तो आपके मुंह से निकली आखिरी साउंड हमारे दर्शकों को सुनायी दे। हे भगवान, ऐसा मौका रोज-रोज मिले तो मैं भी स्टार रिपोर्टर बन जाऊं और हमारे चैनल की टीआरपी सबसे ऊपर चली जाए। अभी और कितनी देर है कुंजीलील जी! भूख लगी है। कुछ देर रुको तो सामने वाले ढाबे में चाय ही पी आऊं! अरे, रुको, ध्यान से सुनो, झुन-झुन की आवाज आ रही है! अरे, देखो, कुंजीलाल को क्या हो रहा है! बेवकूफ, वह कमर खुजा रहा है तो हाथ तो पीछे जाएगा ही। चार बज गए, अभी तक तो इसे कुछ हुआ ही नहीं। तब तक कुंजीलाल उठे-कहां जा रहे हैं आप, बस, आने ही वाली है। दिशा मैदान को, हटो सामने से।

आस्था का सवाल है भई

राजीव मित्तल
अगर गुजरात का राजा भीमसिंह सोमनाथ के मंदिर को बचाने के लिये सेना लेकर न पहुंचता तो भारत के अगले हजार साल का इतिहास कुछ और ही होता। महमूद गजनवी को तो सोमनाथ मंदिर के पुजारियों की आस्था ने ही निपटा दिया होता। लेकिन मंदिर की रक्षा को आयी सेना देख देवता मूर्ति से बाहर ही नहीं आए। फिर क्या था मारकाट बेचारे गजनवी को ही करनी पड़ी। लेकिन अब 2004 में ऐसा बिल्कुल नहीं होगा। तम्बू-कनात लगा उसमें देवी-देवता और दानवों के सुडौल बुत खड़े कर आस्था को उस स्थान तक पहुंचा दिया गया है, जहां गोस्वामी तुलसीदास को भी परे हो जाना पड़ता है। उस तम्बू में देवी-देवता और दानवों के चेहरे विचार-मंथन से उसी तरह निकले हैं जैसे हजारों साल पहले समुद्र मंथन से अमृत और विष के घड़े निकले थे। तम्बू में चल रहे हवन की सुरक्षा के लिये किसी विश्वामित्र को धनुष-बाण से लैस किसी राम की जरूरत नहीं थी क्योंकि उनका राम तो उनकी आत्मा में बसा है। उनके भगवान उनके पास खड़े हैं, जो इस चुनाव में उन दुश्मनों का एक बार फिर संहार करेंगे, जो रावण की तरह मरते हैं और फिर जिंदा हो ललकारने लगते हैं। इन मासूम युवकों को किसी विभीषण का भी इंतजार नहीं है, जो आकर कान में फुसफुसाये कि अमृतकुंड रावण की नाभि में है, वहां तीर चलाओ। इनकी आस्था ही कई विभीषणों पर कई गुना भारी पड़ रही है। लेकिन यह सीता को रावण की कैद से छुड़ाने, अच्छाई की बुराई पर विजय जैसा मसला नहीं है। यहां मसला खड़ा हो गया है उन दो धाराओं का, जिनकी आपस में एक-दूसरे से अभी तो बिल्कुल ही नहीं पट रही। जब पटने लगेगी तो हवनकुंड के चारों ओर मिट्टी की मूरतों के चेहरे अपने आप बदल जाएंगे। जो देवता है वह दानवों की श्रेणी में, जो देवी है वह राक्षसी रूप में। यह उस खेल का आध्यात्मिक पक्ष है जो भौतिक रूप से किसी भी सत्ता के लिये कहीं भी कैसे भी शुरू हो जाता है। इसलिये भी कि- हे धरती पे उतरे चक्रधारी, हमीं तुम्हारे उद्धव हैं। हमारा भविष्य भी सुधार दीजो। यह हवन हो रहा है पांच साला कुर्सी के लिये, जिसे दुश्मनों की नजर न लगे और लगे तो कुर्सी से ही ब्रह्मास्त्र वगैरह-वगैरह निकलने लगें और अगला त्राहिमाम -त्राहिमाम करने लगे। आस्था के इस आयोजन में देश का भविष्य पूरे जोर-शोर से शामिल है।

तमसो मा ज्योतिर्गमय पर हावी हैप्पी दीवाली

राजीव मित्तल
निर्मल वर्मा ने बहुत पहले लिखा था कि भारत में धन का प्रदर्शन अश्लील होता जा रहा है। निर्मल वर्मा ने यह तब लिखा था, जब देश पर समाजवादी व्यवस्था गहरे तक छायी हुई थी। आज जबकि हर खुशी हर गम बाटा के शो केस में सजे जूतों की तरह माल बन कर रह गए हों, तो पैसे का प्रदर्शन अश्लील ही नहीं, फूहड़ता की हदें पार करता हुआ गलीजता को छूने लगा है। वह चाहे किसी धनपशु के नाती या पोते का जसूठन हो या बिटिया की शादी या बेटे की घुड़चढ़ी। या बॉलीवुड की फिल्में हों-जिनमें शरतचंद के देवदास को लंदन में पढ़ाया जाता है, कलकत्ता में नहीं। उसके गांव का घर एक जमींदार की हवेली नहीं, फ्रांस के लुई चौदहवें का पैलेस और चंद्रमुखी का कोठा साम्राज्ञी नूरजहां का महल लगता है। तो सामाजिक-धार्मिक उत्सवों का हाल यह है कि दुर्गापूजा के अवसर पर घरों में लगाए गए पंडाल पूरे आस-पड़ौस की रातों की नींद हराम करते हैं क्योंकि उनमें घटिया फिल्मों के घटिया गानों की धुनों पर और ज्यादा घटिया किस्म के भक्ति के गाने बजते नहीं बल्कि चिंघाड़ते हैं। इसी तरह दीवाली अब जगमगाती नहीं, कोई रौनक नहीं लाती, कोई पवित्र भाव मन में नहीं लाती बल्कि कान के परदे फाड़ती है। सड़क पर दगने को बिछी दो सौ सौ-चार सौ मीटर या जेब में धरी रुपयों की गड्डियां कम करने की कुव्वत दिखाने और लिम्का रिकार्ड बुक में नाम दर्ज कराने को चाहे जितने किलोमीटर लम्बी पटाखों की लड़ी हर धड़कते दिल को आतंकित करती है, त्योहार या उत्सव का आनंद नहीं देती। देवदास फंस गया है बॉलीवुड के ग्लैमर में तो 14 वर्ष का वनवास काट कर अयोध्या लौटे श्री राम के आने की खुशी में घर-घर मनती दीपावली शोर-शराबे, प्रदूषण और पैसे के घनघोर प्रदर्शन की कीचड़ में धंस चुकी है। अब कहां है वो चरखी, जो आंगन में नाचती हुई रोशनी बिखेरती थी, कहां है वो सीटी, जो आवाज करती हुई ऊपर जाती थी और कहां है वो फूलझड़ी, जिसे हाथ में लेकर जलाया जाता था, जिसके प्रकाश में खिलखिलाते चेहरे और दमकते थे। कहां है वो मिट्टी के खिलौने, जो बच्चों के मन को भाते थे, कहां है वो शक्कर के खिलौने और खील-लाई, जो दसियों दिन मुंह को मीठा किये रहते थे और कहां है घर-घर की चारदीवारी की मुंडेरों पर जलते दीयों की वो कतार, जो किसी के आने का भीना-भीना संकेत देती हुई पुकारती थी-तमसो मा ज्योतिर्गमय। हर घर में शाम के बुझते ही दीये जल उठते थे, और तमसो मा ज्योतिर्गमय का आह्वान शुरू हो जाता था। अब तो हर किसी का मोबाइल टुनटुनाने लगता है, जिसमें से आवाज निकलती है-हैप्पी दीवाली। यार, अबकी किसके यहां फड़ लगेगी? दारू और मुर्गा तो होगा न! मैडम टिम्सी को जरूर बुलवाना यार-अच्छा, अगेन हैप्पी दीवाली-सी यू।यह हैप्पी दीवाली का वो जमाना है, जिसमें पाकिस्तान की मुख्तारन माई को बलात्कारी रौंदते हैं और उसे यह पुरुष प्रधान समाज बहिष्कृत तो करता ही है, उस देश के सर्वेसर्वा मियां मुशर्रफ अमेरिका पत्रकारों के सवालों से झल्ला कर फरमाते हैं-पश्चिमी देशों में बसने के लिये पाकिस्तान की औरतें अक्सर इस तरह के हथकंडे अपनाती हैं। तो यह सुन किसी का गला नहीं रुंधता, किसी का दिल नहीं कांपता बल्कि उस बलात्कार पीड़िता को ‘ग्लैमर वूमन ऑफ द ईयर’ के सम्मान और पुरस्कार से नवाजा जाता है। कोई बता सकता है कि मुख्तारन माई से हुए बलात्कार में कौन सा ग्लैमर उस अमेरिकी पत्रिका को नजर आया? अगर मरदों के समाज से भिड़ने की हिम्मत ग्लैमर है तो फिर श्री राम का रावण को मार उसकी कैद से सीता को निकालना और फिर सीता का अपनी शुद्धता साबित करने के लिए अग्निपरीक्षा देना तो अपने आप ही बॉलीवुडी-हॉलीवुडी ग्लैमर का सबब बन जाता है। तो श्री राम जी! हैप्पी दीवाली। चॉकलेट खाएंगे? सीता जी को लेकर आइये न! अब ऐसी ही एक हैप्पी दीवाली का दहशत भरा अनुभव! कुछ साल पहले देश की राजधानी की उस रात की याद कर अब भी रूह फना हो जाती है। कोई हादसे वाली रात नहीं थी वो, दीवाली की रात थी। एक टीवी चैनल में सुबह का बुलेटिन निकालने की ड्यूटी थी। आधी रात बीत चुकी थी। कुछ सहयोगियों ने कहीं चल कर चाय पीने का प्रस्ताव रखा। सब ऑफिस की गाड़ी से लद चाय वाले को ढूंढने दक्षिण दिल्ली की तरफ चले। एकाध किलोमीटर चलने के बाद ही दम घुटने की नौबत आ गयी। आसमान से लेकर जमीन तक धुएं का काला परदा टंगा था, किसी एक जगह नहीं, जहां तक निगाह जा सकती है वहां तक और हवा में भरी थी बारूद की गंध। रास्ते के किनारों और सड़क के बीचोबीच कुत्तों के मुर्दा शरीर यहां-वहां बिखरे हुए थे। हो सकता है उनमें कोई भिखारी भी रहा हो। पूरा दिल्ली शहर गैस चैम्बर बना हुआ था। सड़कों पर या तो फुल वोल्यूम में म्यूजिकबजाते नशे में धुत अमीरजादों की आलीशान कारें दौड़ रही थीं या खांसते-कूंखते रिक्शा चालक, जो दिन में उस इलाके में पैर भी नहीं रख सकते। तो, अब दीपावली भी पैसे वाले शोहदों की जेब में फंस कर रह गयी है, जहां तमसो मा ज्योतिर्गमय के लिए कोई जगह नहीं है। हैप्पी-वेरी हैप्पी दीवाली।

चित्रकूट धाम के नजरिये से देखना गर्लफ्रेंड को

राजीव मित्तल
शिवसैनिकों को मीरा नायर या उनकी फिल्मों से कोई लेना-देना नहीं था यह तो फायर और वाटर जैसे विध्वंसक नामों ने उनकी मति साढे¸ पांच साल और तीन साल पहले वैसे ही हर ली थी। फायर की लपटें तो कुछ लपलपायीं भी, पर वाटर केवल शबाना आजमी और नंदिता दास के सिर मुंडाने तक सिमट कर रह गयी। अब फायर जैसा शोर गर्लफ्रेंड को लेकर है। और हो भी क्यों न, आखिर भारतीय संस्कृति से खिलवाड़ हंसी खेल समझ रखा है इन बोलीवूद -हॉलीवुडियों ने! बताइये, क्या सोचकर गंगाजल को वाटर नाम दे दिया गया था। हाथी मरे तब भी सवा लाख का। उसी तरह गंगा गंदा नाला भी बना दी जाये तो भी गंगाजल और कचरा खाने को मजबूर गाय की ठठरियां भी निकल आयें तो भी गऊमाता। भारतीय संस्कृति में यह कहां बताया गया है कि गंगा को नदी जैसा रहने दिया जाये और भूख से बेहाल पॉलीथीन को कचरे समेत निगल सिसक-सिसक कर मरने को मजबूर गाय को उबारा जाये। साल का एक दिन कुछ पशु-पक्षियों, जीवों, देवियों, देवताओं, बरगद-पीपल के नाम तय है उसी दिन उनका पूजापाठ होगा। ऐसे ही किसी दिन खुशकिस्मत गांधी और संत रैदास भी याद किये जायेंगे। और बाकी दिन भारतीय संस्कृति को प्रदूषित करने वाले किसी भी माध्यम की ऐसी की तैसी करने में लगाने हैं। सो गर्लफ्रेंड ने वो दिन ला दिया। लगता है करण राजदान फायर का अंजाम भूल गये जो उसी नारी जात को बिस्तर में आपस में ही गुड़मुड़ी होते दिखा दिया, जो घर के मंदिर में सजाने लायक है, हफ्ते में दो-तीन बार लात-घूंसे मारने लायक है और मायके से हीरो होंडा न मंगा कर दे तो जला देने लायक है।करण राजदान अगर अपनी फिल्म का नाम गर्लफ्रेंड न रख हाथी मेरे साथी की तर्ज पर सखि मेरी साथी रख देते तो तालाब के ठहरे पानी का ठहराव कायम रहता, पर अब तो गली-कूचों से लहरें उठ रही हैं। राजकपूर ने 25 साल पहले, जी हां 25 साल पहले सत्यम शिवम सुंदरम जैसा दैवीय नाम दे कर जीनत अमान को परोसा था कि नहीं, 21 साल पहले राम तेरी गंगा मैली में गंगा की जगह मंदाकिनी को उघाडा¸ था कि नहीं। जिस्म, ख्वाहिश, पाप, मर्डर जैसी फिल्मों में धीरे से जाना बगियन में गाया जा रहा था क्या! जी नहीं, मामला ठेठ स्त्री -पुरुष का था, और वो जो चाहे करें सब माफ है। फिल्म का नाम गर्लफ्रेंड देख कुछ और ही लालसा से हाल में प्रवेश कर लिया, निकली फायर से भी बदजात। केवल यही न कि दो सहेलियां एक दूसरे का अकेलापन बांटते हुए शारीरिक सम्बंध बना लेती हैं। उनमें से एक को अपनी सखि का पुरुष का संगसाथ सहन नहीं, जिसका गुस्सा वह बंबइया स्टाइल में उतारती है और मारी जाती है। बाकी फिल्म में उतना ही दिखाया गया है जितनी अनुपम खेर ने इजाजत दी होगी। अपनी बात कहने का तरीका भले ही शास्त्रिय किस्म का न हो पर, फिल्म ठीक सी ही बनायी है करन राजदान ने। बाकी हल्ला मचाने वालों को एक मेडिकल बोर्ड गठित कर उसके सदस्यों से स्त्रियों के आपसी संबंधों पर उनकी राय जाननी चाहिये, जिसका सम्बंध सिर्फ मनोविज्ञान से है, किसी सभ्यता या संस्कृति से तिनका भर भी नहीं।

कन्याओं को दबोचो और मार डालो का जुनून

राजीव मित्तल
हम लड़कियां खेल सकें जो खेल
इसलिये उतरती है शाम
उस खेल का नाम है गोल्लाछूट
एक बार फिर मेरा मन होता है
मैं भी खेलूं
अभी भी कभी-कभी आकुल-व्याकुल होती हैं पांवों की उंगलियां
धूल में धंस जाना चाहती हैं एड़ियां
मेरा मन होता है जाऊं
दुनिया की तमाम लड़कियां
लगा दें गोल्लाछूट दौड़
तस्लीमा नसरीन की कई साल पहले लिखीं इन पंक्तियों ने बांग्लादेश के तालिबानी चेहरों को गुस्से से लाल कर दिया था कि अरे, यह तो नारी जात को बगावत सिखा रही है, शरीयत के खिलाफ जा रही है। तब तो तस्लीमा ने कई तरह की सफाइयां दे कर अपना बचाव कर लिया था, लेकिन बाद में लेखन और कट्टरपंथ पर किये प्रहारों ने उन्हें देश से ही भाग निकलने को मजबूर कर दिया। इसी तरह कई पूजनीय देवियों वाले इस भारतवर्ष में दक्षिण फिल्मों की कलाकार खुश्बू को इसलिये प्रताड़ित किया जा रहा है कि उसने लड़की हो कर विवाह से पहले सुरक्षित यौन संबंधों की बात कही। यह कोई स्वाकारोक्ति या अवैध संबंधों की
वकालत नहीं, बल्कि एड्स से बचाव की बात थी। उसका जीना मुहाल हो गया है। यहां तक कि तमिल सरकार तक उसके पीछे हाथ धोकर पड़ गयी है। खुश्बू के समर्थन में बयान देने वाली सानिया मिर्जा को दूसरे ही दिन मुल्ला-मौलवियों का भय सताने लगा और उसने बयान बदलने में ही भलाई समझी, लेकिन हां, स्कर्ट का कम-ज्यादा लम्बाई वाला बयान उसके जी का जंजाल बनना लाजिमी है। और जो न किसी भी तरह का बयान देने काबिल हैं, न ही जिन्होंने इस दुनिया में आ कर एक भी सांस ली है, उन कन्याओं के भ्रूण कचरे के ढेर में इस तरह फेंके जा रहे हैं, जैसे उनकी माएं पेट में लड़की नहीं, किसी गंदगी को पनाह दिये हों। विश्वास न हो तो जूरन छपरा या किसी भी शहर के चौक-चौराहों पर लगे कचरे के ढेर खंगाल लीजिये, बिन हाथ-पांव का मांस का लोथड़ा पड़ा मिल जाएगा, जो शर्तिया लड़की का ही होगा। अगर भ्रूण लड़के का निकला तो अफसोस, मामला अवैध संबंधों का है। लड़कियों के भ्रूण कचरे में तो मिल ही रहे हैं, उन्हें पैदा होते ही तलवार से काट देने या गला टीप देने, अल्ट्रा साउंड के जरिये लड़की होने की पुष्टि होने पर गर्भपात करा देने की असंख्य घटनाओं से दुनिया की आधी आबादी का हाल इस देश की प्रातज् वंदनीय और सांध्य नमनीय गंगा या गाय जैसा हो गया है। नारीत्व के ये तीनों प्रकार हर दिन-हर क्षण कहीं न कहीं पूजे जा रहे होते हैं। गऊ माता या गंगा मैया का जाप करने वालों का गला नहीं दुखता, किसी देवी का पाठ पूरे भक्तिभाव से चल रहा, पर धरती पर उछलती-कूदती जवान लड़की उनकी तालिबानी आंखों को कतई नहीं भाती। लड़की को कैसे खत्म किया जाए, इसके उपाय पूरे मनोयोग से तलाशे जाते हैं। लड़की जात को कांग्रेस घास की तरह उखाड़ फेंकने का अभियान भारत जैसे ‘उदार’, ‘सहिष्णु ’ और पाकिस्तान जैसे ‘कट्टरपंथी’ देश में ही नहीं, पूरी दुनिया में जोर-शोर से चल रहा है। इस अभियान की दिल को थर्रा देने वाली सच्चाई बयान कर रही है संयुक्त राष्ट्र संघ की कई सर्वेक्षण रिपोर्ट। भ्रूण हत्या, घरेलू हिंसा , हवस के मारों की शिकार और अपनी नाक ऊंची रखने के चक्कर में विश्व भर में नारी जात की आबादी 20 करोड़ कम हो चुकी है। यह आंकड़े और भी भयावह हो जाते हैं, जब इनमें भारत के कई राज्यों में जायदाद के बंटवारे से बचने के लिये मारी जाने वाली औरतों की संख्या भी शामिल कर ली जाए। संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट यह भी बताती है कि कन्या को पेट के अंदर ही खत्म कर देने का तो यह दौर जुनूनी हो चला है क्योंकि धरती पर आने के बाद कन्या से पीछा छुड़ाने का मामला तो हत्या का बन जाता है। हो सकता है कि जेल में कुछ दिन गुजारने पड़ जाएं, पर पेट के अंदर ही खत्म कर देने से कोई खतरा नहीं रहता। उस मामले में भी कानून हैं, लेकिन वे इतने लचर हैं कि कुछ नहीं होने वाला। बस, डाक्टर या डाक्टरनी की मुट्ठी गरम कर दीजिये, कन्या से भरा पेट साफ। अगर पास में पैसा नहीं है या मामला अवैध संबंधों का है तो इस देश में कचरे की ढेरों की कोई कमी नहीं। मोटामोटी अब वही कन्याएं सुरक्षित हैं, जो पेज-थ्री की शोभा बनने वली खसूसियत रखती हों, पर जुबान से किसी मुल्ला-मौलवी या पंडे-पुजारियों के खिलाफ एक शब्द न निकालती हों, सारा ध्यान पुरुषों को भरमाने में लगाती हों, जिनमें अपने पैरों पर खड़ी होने कुव्वत हो, बाप की जायदाद में हक न मांगने की मजबूरी से समझौता कर लिया हो और जिनमें दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों में अकेले रहने की हिम्मत हो। लेकिन उन्हें भी बड़े शहरों के हब्शियों से बचाव के साधन जरूर तलाशने होंगे क्योंकि ऐसी खुदमुख्तार लड़कियों के लिये तंदूर हर जगह भभक रहे हैं। कन्या हत्याओं के चलते इस देश के कई राज्यों में हाल यह हो गया है कि वहां पुरुष सालों कुंवारा बैठा रह जाता है और वंश चलाने के लिये आखिरकार उसे उड़ीसा या बंगाल की बेसहारा औरतों का पल्ला थामना पड़ रहा है। डाक्टरों और नर्सिंगहोम की मंडी जूरन छपरा के कचरे के ढेर ऐसा ही संकेत बिहार को भी दे रहे हैं। लेकिन इस राज्य में बरसों से रुपया पीट रहे वो एक हजार एनजीओ कहां हैं, जो हर साल इस श्लोक में अपना भी सुर मिलाते हैं-या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिथानमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमोनमज्

फर्क अमिताभ-अमिताभ का

राजीव मित्तल
जून के लगातार तीन सप्ताहों में अमिताभ। पहले देव, फिर लक्ष्य और फिर दीवार। गोविंद निहलानी की देव साम्प्रादायिक दंगों पर एक ऐसी फिल्म है, जो मणिरत्नम की बॉम्बे को बौना बना कर रख देती है और उससे भी ज्यादा नायाब खुद अमिताभ। अपनी एंग्री यंगमैन की इमेज को उन्होंने जिस छटपटाते आक्रोश में बदला है वह उनके अभिनय का वो विस्तार है, जो 80-90 के दशकों में मनमोहन देसाई, प्रकाश मेहरा, यश चौपड़ा के संग्राहलय में किसी जीवाश्म सा शीशे के जार में पड़ा हुआ था। बिल्कुल शुरुआत में अपनी तीन फिल्मों - सात हिंदुस्तानी, रेशमा और शेरा व आनंद - में अभिनय और कानों में घुस दिमाग के परदे छू लेने वाली अपनी आवाज से राजकपूर, देवानंद और दिलीप कुमार युग को इतिहास में समेटने को मजबूर करने वाले अमिताभ लगता है 62 साठ की उम्र में अभिनय की एक नयी इबारत लिख रहे हैं।सफलता के चरम में 12 साल मेहरा-देसाई-चौपड़ा के बंधुआ मजदूर बने रहे अमिताभ जा फंसे केसी बोकाड़िया, टीनू आनंद और मुकुल आनंद के घेरे में और एक से एक रद्दी फिल्में कीं। रही सही कसर पूरी कर दी इंसानियत जैसी निहायत गावदी किस्म की फिल्म ने। इस फिल्म को देख किसी ने झल्ला के लिखा भी था कि अब बस करो अमिताभ। और अमिताभ पांच साल की गुमनामी में चले गये। और फिर लौटे 20 वीं सदी के बिल्कुल अंत में । लौटने के बाद वो काफी थके से लग रहे थे। फिर आर्थिक तौर पर बुरी तरह टूट चुके अमिताभ को यश चौपड़ा के घर जा कर गुजारिश करनी पड़ी कि काम दे दो, तब मिली मौहब्बतें। उसके बाद कभी खुशी कभी गम। दोनों खूब चलीं और उनके पैर फिर जमने लगे। लेकिन आखें, अक्स, कांटे और अरमान में वह महानायक नहीं बल्कि एक नये अंदाज में थे। और अब देव, जिसमें उनकी रेंज का ओर-छोर नजर नहीं आता। ओमपुरी जैसा खांटी अभिनेता तक उनके सामने अभिनय की सारी परिभाषायें याद करता सा लगता है। आवाज का वो जादू, जो उम्र की भेंट चढ़ चुका है, उसे अमिताभ ने दिल तक धंसने वाली वाली फुसफुसाहट में बदल दिया। एक जीनियस के हाथों में पड़ कर अमिताभ जो कर सकते थे, कर गुजरे।लक्ष्य को लेकर जो उत्साह जगा था, उस पर अमिताभ ने कम फरहान अख्तर ने ज्यादा पानी फेरा। फिल्म भले ही एलओसी से ज्यादा तार्किक हो, लेकिन बस, इससे ज्यादा कुछ नहीं। अमिताभ को तो जाया किया ही फरहान ने, ओमपुरी के साथ तो क्रूर मजाक किया। जैसे 80 के दशक में टेस्ट मैचों के दौरान मैदान पर प्रसन्ना कप्तान वाडेकर से एक-एक ओवर के लिये गिड़गिड़ाते थे, कुछ वही भाव ओमपुरी के चेहरे पर दिखे। फरहान का लक्ष्य थे ऋतिक और प्रीति जिंटा को नये अंदाज में पेश करना, उस चक्कर में अमिताभ अपनी भूमिका और अभिनय दोनों में बेरंग तो ओमपुरी कोमेडियन जगदीप की सी भूमिका में कराहते दिखे। वैसे असलियत तो यह है कि आज की सारी तकनीकी बेहतरी के बावजूद चालीस साल पहले चेतन आनंद की बनायी हकीकत को बॅालीवुड की अब तक बनी कोई युद्ध फिल्म छू तक नहीं सकी है-भाव पक्ष, संगीत और माहौल किसी को भी।तीसरी फिल्म दीवार भी एक नये निर्देशक मिलन लथूरिया का कमाल है। यह फिल्म युद्ध नहीं युद्ध बंदियों पर है। सनी देओल की गदर के ज्यादा करीब। इसमें भी अमिताभ करीब-करीब जाया हो गये। पर उनसे कम फुटेज पाये संजय दत्त ने अपने अंदाज को फिर जोरदार ढंग से पेश किया। और उससे भी ज्यादा कमाल कर गये पाकिस्तानी युद्धबंदी कैम्प के चीफ के रूप में केके। सोचिये अगर उसी कदकाठी के किरन कुमार केके की जगह होते तो अपनी क्रूरता दिखाने को उन्हें कितने सारे शब्दों, वाक्यों का सहारा लेना पड़ता, लकड़बग्घे सी हंसी हंसनी पड़ती, पर केके ने केवल अपनी सर्द निगाहों से ही खून जमा दिया। कुल मिला कर भारतीय दर्शकों से अनछुआ यह पक्ष रंग नहीं जमा सका। अमिताभ तो बिल्कुल ही नहीं।

लुटियन की लुटिया डुबोने की तैयारी

राजीव मित्तल
पांडवों ने एक जंगल पे इन्द्रप्रस्थ क्या बसा दिया, न जाने कितने सूरमाओं को खेलने का मौका दे दिया। पिछले हजार साल में कई ने उजाड़ा, कई ने बसाया। पिछली शताब्दी में लुटियन ने पता नहीं किन कुदाल-फावड़ों से 2800 एकड़ ज़मीन को ऐसा रूप दे दिया कि जिसे देखो अपनी खटिया मुगलों से पहले के सुल्तानों की कब्रों पर बिछाए जा रहा है। 'हमारा आशियां भी उसी जन्नत में हो' की गुहार मचा रहे 30 करोड़ बेघरों के राष्ट्रीय जनप्रतिनिधि चाहते हैं कि अब उन्हें 'रहे कुनबा जिसमें सारा' वाला बंगला मिले, वह भी लुटियन की दिल्ली में या उसके आसपास। बंगला हो कम से कम 10 कमरों वाला। दो पेड़ों की मचान पर फूस की झोपड़ी बनी हो, ताकि आह ग्राम्य जीवन वाला मजा लिया जा सके। दो कमरे अपने सोने के, दो ड्राइंगरूम, एक खाने का कमरा और बाकी अगली-पिछली जेनरेशन के हिसाब से। कॉल ऑफ नेचर अटेंड करने के लिये टाइल्स लगे तीन शौचालय, गरम-ठंडा पानी के शॉवर वाले तीन बाथरूम, घरवाली के लिये एक किचन और दो स्टोर-एक अपने खेत से उगाए अनाज के लिए और एक टीन के बक्से और रजाई-गद्दों को ठूंसने के लिये। बंगले के पीछे तुलसा, मूली, आलू और चारों ओर बाल लाल-काले करने को मेंहदी की झाड़, दायीं तरफ कमल खिलाने को तलैया, जिसके बगल में एक चापाकल, ताकि गांव से आने वाले विजिटर अपने गांव को न भूलें, थोड़ा अलग हट कर वो दो पेड़, जिन पर जनप्रतिनिधि के लिये मचानी झोपड़ियां बनी हों। बायीं तरफ चने का खेत, गन्ने का खेत और प्याज का खेत, जिसकी कुछ क्यारियों में सोया-मेथी, धनिया-पुदीना, हरी मिर्च और टमाटर की फसल लहराए। और इतना तो उगे ही कि मंडी में बेची भी जा सके। पूर्व की ओर कोने में गऊशाला। इसमें दूध देने वाले दो-चार पशु जरूर हों। कई को घुड़सवारी का भी शौक है तो दो वो भी। बंगले के चारों तरफ कचनार के पेड़, जिनकी डालें सड़क तक निकली हों। बंगले में पश्चिम की ओर पूजा स्थल जरूरी है, जहां हर दूसरे दिन कोई धार्मिक क्रिया होती रहे। एक उससे बड़ा पूजा स्थल हर चार बंगलों के बीच में। हर आठ बंगलों के बीच एक थियेटर, जहां बिना कटी-फटी फिल्मों के दो शो हर हफ्ते हों। एक मार्केट, जहां एके-47 भी मिलती हो। ऐसा हो जाए तो लुटियन की दिल्ली कहलाएगी छुट्टों की दिल्ली।

विसाल है न हिज्रां, सुरूर है न गम है

राजीव मित्तल
वो कारवां लौट आया है। गए थे तो चेहरे पे तनाव था, तनाव की लाली थी, उम्मीदों की खुमारी थी, आशंकाओं का पीलापन था, लेकिन अब वो केवल जर्द हैं। धनराज रोये, हमारी भी आंखें नम हुईं। पहली ही छलांग में अंजू का सिर चकरा गया, हम अब तक सिर थामे बैठे हैं, कर्णम महेश्वरी के कमर का दर्द हमारी कमर को दोहरा कर गया, बीनू को मिल्खा सिंह से एक लाख लाख रुपये मिल जाएंगे, पर हमारी खिलंदड़ी दरिद्रता में सुर्इं की नोक जितना भी फर्क नहीं आएगा। कुछ और भी हुआ, जिसके लिये हमारे सिर धृतराष्ट्र के दरबार में पांडवों की तरह झुके हुए हैं। बहरहाल, भारतीय खेलों को कुछ इस तरह क्यों न आंका जाए-मसलन होंकी को ही ले लीजिये-कभी हमारे पास होंकी का देवता होता था, अब तो न मकीं है न मकां है,न ज़मीं है न ज़मां है, दिल-ए-बे-नवा ने मेरे वहां छावनी है छाई । ओलम्पिक के बाकी खेलों में हजार साल बी.सी. से लेकर 2004 ए.डी. तक हमारा हाल न मकाम-ए-गुफ्तगू है न महल्ले जुस्तजू है, न वहां हवास पहुंचे रग रग को है रसाई ।बस, एक कड़वी गोली निगलने का वक्त आ ही गया है अब। कि हम तीन ओलम्पिकों और तीन ही विभिन्न खेलों के विश्व कपों में हाजिरी लगा कर मजाक बनना बंद करें। अपने यहां ग्रामीण ओलम्पिक, तहसील ओलम्पिक, नगर ओलम्पिक, महानगर ओलम्पिक और जन्म भूमियों के चक्कर में थोड़े दिन न पड़ कोई भी सात देवी-देवता लीला कप की मासिक शृंखला शुरू करें। इस तरह हम अगले तीन ओलम्पिकों को लेकर आंख पर पट्टी बांध लें, कानों में रुईं ठूस लें और देश व्यापी मुनादी एसएमएस के जरिये अभी से शुरू करा दें- 2020 में हम होंगे कामयाब हमारा लक्ष्य होगा बहामास।लेकिन एक सच्चाई मुंह फाड़े सामने आ खड़ी हुई है। हमारी और अचूक सफलता के बीच सबसे बड़ी दीवार है बहामास की जनसंख्या, जिसके चलते हम उस तक अगले एक हजार साल भी नहीं पहुंच सकते। हमें उसतक पहुंचने के लिये दरकार होगी 135 स्वर्ण पदकों की। तो या तो इतने कप या युवा आबादी में सीधे-सीधे करोड़ों की कटौती। इसलिये बहामास का तो ख्याल हम दिल से निकाल ही दें और लौट-फिर कर फिर चीन पर ही ध्यान दें क्योंकि इस पूरी दुनिया में इकलौता वही है, जो अगले 45 साल आबादी में हमसे आगे रहेगा, रही बात कपों की तो हमें 16 साल एंटी ओलम्पिक सिद्धांत पर चलना ही होगा, जैसे कभी चीन चला था। उसे उसी के हथियार से काटने का एकमात्र तरीका यही बचा है।

फीलगुड का मर्म तो पाकिस्तानियों ने समझा

राजीव मित्तल
कलाबाजियां खाते हुए चैनली चिल्लायी-जीत गया भई जीत गया अपना भारत जीत गया। बोंब , राम आसरे की मिठाई खिलाओ, कोई सोच सकता था कि सौरभ की टीम शेर की मांद में जाकर उसके दांत ही नहीं तोड़ेगी, दुम भी काट लाएगी? दो-दो बार पारी की जीत! हाय अल्लाह, मेरा तो दिमाग ही काम नहीं कर रहा। बर्बरीक ने हुंकार भरी-पर, पाकिस्तानी दर्शकों का दिमाग काम कर रहा है, तभी तो तीनों टेस्ट मैचों में लोगों को उनके घरों से बुला-बुला कर स्टेडियम में लाया गया लेकिन तब भी बमुश्किल डेढ़ हजार ही निकले। हां बोंब, यह बात समझ में नहीं आती कि मैदान में हों भारत-पाकिस्तान की टीमें और उन्हें खेलता देखें मात्र तीन हजार जोड़ी आंखें। देखो चैनली, जो खेल मैदान में हो रहा था, वो तो दुनिया ने देखा और जो मैदान के पीछे हो रहा था, उसे पाकिस्तानियों ने समझा। भारतीयों की भी समझ में आ गया होगा, पर जीत की खुशी में कोई समझना नहीं चाहेगा। इस जीत को राष्ट्रीय पर्व की तरह लिया जा रहा है। सारे अखबारों में बैनर और सभी चैनलों में 10 मिनट इसी पर। तुम तो कृष्ण की तरह गीता का ज्ञान दे रहे हो बोंब , वैसे कुछ-कुछ मेरी भी समझ में भी आ रहा है। महाभारत में ऐसे खेल काफी खेले गये थे चैनली। मेरे पिता घटोत्कच पहले से तयशुदा खेल का शिकार हुए। कर्ण के पास जो अमोघ अस्त्र था, उसका इस्तेमाल होना था अर्जुन पर, लेकिन कृष्ण ने इसे भांप युद्धक्षेत्र में उतार दिया पिताश्री को, जिनकी मार से कौरव सेना त्राहि -त्राहि कर उठी। मजबूरन कर्ण को उस अमोघ अस्त्र का इस्तेमाल उन पर करना पड़ा। भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, जयद्रथ, अभिमन्यु, कर्ण, दुर्योधन क्या आमने-सामने के युद्ध में मारे गये थे? अब पाकिस्तान में देखना किस-किस को सूली पर चढ़ाया जाता है। तुम्हारे सामने बिसात बिछा कर समझाता हूं कि इसमें कौन कहां फिट बैठा। पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड का पैसे-पैसे को मोहताज होना, कारण 15 साल से भारतीय टीम का वाघा सीमा पार न करना, तीन साल से दोनों देशों के बीच किसी प्रतियोगिता का न होना, अमेरिका पर कहर ढाने वाला वो काला 11 सितम्बर, फिर पहले अफगानिस्तान में तालिबान और फिर इराक में सद्दाम का कचूमर, बुश के मुशर्रफ की पीठ पर फेरते हाथों का कई बार उसकी गर्दन तक पहुंच जाना। दो साल तक भारत - पाक सीमा पर दोनों देशों की सेनाओं के बीच पलक झपकाऊ प्रतियोगिता होती रही, बुश के इस आदेश के साथ कि अपनी जगह से हिलना नहीं। चुनाव से थोड़ा पहले ही मुशर्रफ और अटल के बीच इश्कियाबाजी की शुरूआत, अटल जी का पाकिस्तान जाना और वहां से लौट कर फीलगुड का आम के मंजर की तरह आगमन, जायें कि न जायें की हफ्तों की लपझप के बाद फीलगुड की मिठास और बढ़ाने को वाजपेयी का सौरभ को विजयी भव का आशीर्वाद दे पाकिस्तान रवाना करना। और वहां चालीस दिनों में जो कुछ हुआ, वो सबके सामने है। दुनिया को थर्राने वाले शोएब अख्तर जैसे पिच पर नहीं सीतामढ़ी से जनकपुरी धाम को जा रही सड़क पर बॉलिंग कर रहे थे। योहाना-इंजमाम गीली लकड़ी साबित हुए। सुलगे और फुस्स । कई पाक खिलाड़ी आपस में इसी बात को लेकर पिले पड़े थे कि सौरभ की टीम से भिड़ने को बलूच तरीका अपनाया जाये या सिन्धी या पख्तून। अंत में यह तय हुआ कि उन्हें मलाई कोफ्ता खिलाया जाये, जिसके लिये उनमें से दो-चार अपने घर तंदूर सुलगाने चले गये। भारत आयी 1979 की आसिफ इकबाल की टीम से, 1999 में इंगलैंड में वसीम अकरम और इस बार तो बैठकखाना ही मुशर्रफ का था। वो लतीफ चिल्लाता रहा कि सब फिक्स है, कई किक पड़ गयीं उसे। अब फीलगुड का स्वाद क्रैकजैक जैसा हो चला है । मीठा भी नमकीन भी। पर बोंब , जीत तो जीत ही है, इसलिये हमें मिल कर सौरभ और उसकी टीम को बधाई देनी चाहिये-चैनली ने मंदिरा बेदी के अंदाज में चौका जड़ा।

फिनिशिंग टच क्यों नहीं दे पाते सचिन

राजीव मित्तल
सचिन का शतक, लेकिन भारत हारा, किसी भी अखबार में यह हैडलाइन इतनी बार लग चुकी है कि अब एकदिनी मैच में उनकी सेंचुरी बेमानी हो चली है। कैफ हों या युवराज, कितने साल का खेल है इनका, पर दोनों एक दिनी के मैच जिताऊ बल्लेबाज साबित हो चुके हैं। धीमा खेलने के लिये कुख्यात राहुल द्रविड़ न जाने कितनी बार भारत को जिताने वाली पारी खेल चुके हैं। लक्षमण तो भारत और आस्ट्रलिया दोनों जगह टैस्ट मैचों में कंगारू टीम के अश्वमेघ घोड़े की रास थाम अमरत्व हासिल कर चुके हैं। सौरव गांगुली और कुछ नहीं तो शानदार कप्तानी का परचम तो लहराये चल ही रहे हैं। लेकिन हमें सचिन तेंदुलकर से क्या हासिल हो रहा है, अगर इसे खंगालें तो एकदिनी में 37 और टैस्ट मैचों में 32 शतकों का शानदार झूमर हमें लहराता दिखायी देता है। पर यह है किसके खाते में। इन शानदार रिकार्ड तोड़ शतकों की पासबुक किसके नाम है- सिर्फ सचिन के न। इससे देश के खाते में क्या गया? सिर्फ यही ना कि विश्व क्रिकेट के चकाचौंध बाजार में एक बड़ा सा साइनबोर्ड एक भारतीय का भी चमक रहा है। पाकिस्तान में 17 मार्च के मैच में सचिन ने ऐसी पारी खेली कि तेरह हजार की संख्या पार कर गये। वह पाकिस्तान की सरजमीं पर एकदिनी शतक मारने वाले पहले बल्लेबाज बने । लेकिन कई बल्लेबाजों के लिये सपना 141 रनों की वह पारी देश को एक हार के सिवा और तो कुछ नहीं दे पायी। भारत यह मैच केवल 12 रन से हार गया। सचिन इस मैच में तब आउट हुए जब भारत को 10 ओवर और खेलने थे, 245 रन बन चुके थे यानी पांच खिलाड़ियों के रहते 60 से ज्यादा गेंदों पर 85 रन बनाने थे। सचिन ने 141 रन तो बनाये, किसी और ने क्या किया-यह सवाल उनका कोई भी दीवाना कर सकता है, पर दुनिया के जाने-माने नये-पुराने क्रिकेटरों से पूछें तो उनका जवाब यही होगा कि एकदिनी में अगर आप क्रीज पर जमे हैं तो जमे रहिये, आने वाले पर कुछ न छोड़ें, चाहे बल्लेबाजों की कतार बैट और पैड के साथ पवेलियन में बैठी हो। चाहे टैस्ट मैच हो या एक दिनी-ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। यहीं आकर सचिन के भारी भरकम रिकार्ड में एक नामालूम सी कमी झलकती देती है। टैस्ट मैचों का भी हाल जान लें-इसे क्रिकेट की बाइबिल विजडन ने सबकी आंखों में सुरमा डाल के अपने पन्नों पर दिखा दिया कि अब तक की सर्वश्रेष्ठ टैस्ट पारियों में सचिन की एक भी पारी नहीं। अलबत्ता उनके शतक पे शतक लगते रहे होंगे और लग रहे हैं। फिर एकदिनी मैच की कैमिस्ट्री शतक मांगती भी नहीं, जरूरत के समय आपने क्या किया, सारा गुणा-भाग इस पर निर्भर करता है। यहां महाभारत का उदाहरण बहुत सटीक बैठेगा। कुरुक्षेत्र के मैदान पर पहुंचने तक क्या हालत थी पांडवों की। निरीह, जीर्ण-शीर्ण, न रहने को न खाने को, द्रोपदी के चीरहरण की शर्म अलग। बस थे केवल कृष्ण। और कौरवों के पास क्या नहीं था। हस्तिनापुर का राज, महल, रथ-घोड़ों की भरमार, भीष्म, द्रोण, अश्वत्थामा, जयद्रथ जैसे कालजयी वीर और इनके अलावा सौ कौरव भाई। लेकिन युद्ध में क्या हुआ। इनमें सब अपने-अपने लिये लड़े। फिनिशिंग टच देने की किसी को फिक्र नहीं। सब अपनी-अपनी जिम्मेदारी की औपचारिकता पूरी कर दुर्योधन को अकेला छोड़ चले गये स्वर्गलोक के मजे लूटने। बट्टेखाते में गयी पांडवों से चार अक्षरोहिणी ज्यादा सेना और बट्टे खाते में गये भीष्ण- द्रोण जैसे प्रतापी वीर। तो सचिन पुत्तर अपने शतक इस तरह बेकार न जाने दो। ये बाजार में तुम्हारी कीमत भले ही लाख से करोड़ में और करोड़ से अरबों में कर दें, पर देश के बहीखाते का भी तो कुछ ध्यान रखो न।

मुक्के-लातों के बीच से रोमांस को निकाला शाहरुख ने ही

राजीव मित्तल
अमिताभ बच्चन ने बॉलीवुड में कदम धरने के कुछ ही समय बाद जिस बेदर्दी से राजेश खन्ना के बनाये रोमांटिक संसार को मुक्का-लातों की बौछार कर बरबाद कर दिया था, तीन दशक बाद -मैं हूं ना, वीर-जारा और स्वदेस ने वही जमाना सामने ला दिया है। रोमांस के इस जायके का स्वाद बेशक कहीं ज्यादा हाजमी, स्वादिष्ट और तर्क पूर्ण और दिल को छूने वाला है। इसके लिये हमें शाहरुख खान को पूरा श्रेय देना ही होगा। इसे क्या कहा जाये कि अभिनय का ओर-छोर नापने वाले अमिताभ रास्ता भटके तो बीच राह में। पैसा और लोकप्रियता हासिल करते रहने के बावजूद हद दर्जे की बेवकूफाना फिल्मों में अपना बेहतरीन समय जाया करते रहे और जब संभले तो साठ के हो चुके थे। वहीं शाहरुख लगातार संभलते चले गये, बावजूद इसके कि उन्हें ओवरएक्टिंग से कोई गिला नहीं और उन पर कहीं न कहीं दिलीप कुमार का अक्स हावी रहता है। रहा रोमांस का सवाल तो अमिताभ की जंजीर, जिससे वह हिंदी सिनेमा पर छाये, उसमें उनकी नायिका थीं अभिनय की जीगती-जागती मिसाल जया भदुड़ी। पर कितनी बेचारी बन कर रह गयीं थीं वह। शायद एकाध सीन ही ऐसा रहा होगा, जिसमें अमिताभ थोड़ा नॉर्मल हुए हों। फिर उसके बाद दीवार, त्रिशूल , कभी-कभी और यह सिलसिला डेढ़ दशक से ज्यादा चला। शोले और अभिमान में उनका दिल को छू देने वाला टच उभरा, पर हिरोइन को कितना सताने के बाद। इत्तेफाक से इन दोनों में भी जया ही थीं। गिनती की ही फिल्में होंगी जिसमें अमिताभ के रोमांटिकपन ने सांस भी खींची हो। प्रकाश मेहरा, मनमोहन देसाई, केसी बोकाड़िया जैसों ने उन्हें एक ऐसी दुनिया का नायक बना कर रख दिया था जो केवल बदले की भावना से खदबदा रही थी। उसमें हर डायलॉग के साथ केवल घूंसे थे और खून से लहुलुहान कई थोबड़े। और रोमांस था भी तो थपड़िया देने के अंदाज में। दो-चार गाने संगीत निर्देशक के जीवनयापन के लिये। शुरू से लेकर आखिर तक अमिताभ धुनाई करते दिखते थे। बीच-बीच में हिनहिनाने के लिये किसी भी हिरोइन की आमद। लेकिन यह अमिताभ की कारीगरी का कमाल था कि वे सालों खेंचते रहे निर्माताओं की गाड़ी। हालांकि आज अपनी उन फिल्मों पर वे खुद भी शर्माते हैं। नब्बे के शतक की शुरुआत में शाहरुख की एंट्री होती है। टीवी के बाल कलाकार से थोड़ा ज्यादा उम्र वाले शाहरुख के पास न तो करिश्माई व्यक्त्तिव था, न आवाज, लेकिन अपनी बात कहने का अनोखा अंदाज, जो डर फिल्म में भले ही उकता देने वाला रहा हो, पर जब अपने पर काबू पाया तो दिल को छूता सा। इसी अंदाज के साथ शाहरुख ने मोहब्बतें और कभी खुशी कभी गम में अमिताभ की दारुण गम्भीरता का सामना बड़े सलीके से किया और कहीं कमजोर नहीं पड़े। शाहरुख का वीर-जारा का जुनूनी रोमांस इसलिये नहीं खटकता कि उसमें वह बहुत कम बोल कर अपनी आंखों और शरीर के हाव-भाव से बहुत कुछ कह जाते हैं, जबकि वही शाहरुख डर में उसी जुनून को डायलॉग के जरिये दर्शकों पर उछाल-उछाल कर फेंक रहे थे। इसी तरह स्वदेस में जब नायिका शादी के लिये आये लड़के और उसके मां-बाप को नकार देती है तो शाहरुख का खुशी से झूम उठना बेमिसाल दृष्य बन जाता है। रोमांस का उनका अनोखा अंदाज उनकी पहली या दूसरी फिल्म कभी हां कभी ना में ही नजर आ गया था और फिर वो सीन कि चर्च में नायिका की शादी अपने प्रेमी से हो रही है, दोनों एक दूसरे को अंगूठी पहनाने जा रहे हैं कि नायिका के हाथ से अंगूठी गिर जाती है, जो लुढ़कते हुए शाहरुख के पास आकर रुकती है। सब ढूंढ़ने में लगे हैं, पर शाहरुख बिल्कुल खामोश खड़े हैं मन में एक क्षीण सी आशा लिये। खुद ही ढहाई दीवार का सहारा लेने का बेमिसाल दृष्य है यह। या वीर-जारा में प्रीति जिंटा से सौगात में केवल एक दिन मांगना। अमिताभ और शाहरुख के बीच कई अच्छे अभिनेताओं की कतार है कई फिल्में हैं लेकिन होता है न एक क्लासिक टच- उसे उनमें तलाशना पड़ता है।

शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

शुक्रतारा-बरसों की चुप से पहले जब कवि बोला था

राजीव मित्तल

रूस के किसी बंदरगाह पर लंगर डाले जहाज की चिमनियों की सफाई करते हुए सात-आठ साल का लड़का एक दिन छेद के अंदर इस बुरी तरह फंस जाता है कि किसी भी तरह निकल नहीं पा रहा है। उसकी चीखें बाहर तक आ रही रही हैं, जिन्हें सुन कर बैचेन जहाज का फ्रांसीसी इंजीनियर अपने कप्तान से कहता है कि बच्चे को किसी भी तरह बचाओ। परेशान कप्तान रात को एक और बच्चे के बदन और चेहरे पर कालिख पोत कर इंजीनियर के सामने खड़ा कर देता है कि देखो बचा लिया। इंजीनियर बच्चे को दुलारता हुआ जहाज का लंगर उठाने का इशारा करता है। इंजन की भट्ठियां सुलगा दी जाती हैं और जहाज चल पड़ता है। गंतव्य पर पहुंच कर जहाज की भट्ठियां ठंडी पड़ जाती हैं और चिमनियों की सफाई का काम शुरू हो जाता है। वहां से गुजर रहे उस फ्रांसीसी इंजीनियर को चिमनी की राख में कोई चमकीली चीज नजर आती है। वह उठा कर देखता है तो उसके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। वह आग में बेडौल हो गया चांदी का सिक्का था, जो कुछ दिन पहले किसी बात पर खुश हो कर उसने चिमनी में फंसे लड़के को दिया था। जैसा भी था सिक्का तो था, पर लड़का बिल्कुल ही नहीं था। ऊषा-स्तवन, स्पृहणीय चन्द्रमा, झउआ के फूल, शुक्रतारा का गान करने वाले इंजीनियर की कलम असुरपुरी की राक्षसी मशीनों की धक-धक खच-खच पर कैसे खामोश रहती!
एक शाम अखबार के दफ्तर में परिचित का फोन आया कि एक कवि का निधन हो गया। मुजफ्फरपुर के ही थे, बीमारी की हालत में दिल्ली के अस्पताल में मौत हुई। यह भी कि अज्ञेय के तीसरा सप्तक में उनकी भी कविताएं थीं। उनकी मौत पर ‘कुछ’ छप जाए तो अच्छा होगा। हिंदी के कवि के मर जाने की खबर को मीडिया जिस भाव से लेता है, उससे कुछ बेहतर वह ‘कुछ’ छप भी गया, लेकिन! ‘शुक्रतारा’ को पढ़ते हुए मन को यही कचोटता रहा कि मदन वात्स्यायन को कितने बेगानेपन से जाने दिया गया! शुक्रतारा के जरिये मदन वात्स्यायन की कविताएं इतने अप्रत्याशित ढंग से सामने आयीं कि चकित रह गया। महीनों बाद भी उनकी एक-एक कविता एक नयी दुनिया में ले जा रही है। कवियत्री रश्मि रेखा ने कागजों के ढेर से - तीसरा सप्तक में छप चुकीं या यहां वहां टूटफूट में छपी रचनाओं को छोड़- तलाश कर सड़सठ कविताओं का ‘शुक्रतारा’ सामने ला कर बताया है कि मदन वात्स्यायन कौन थे।
कैमिकल इंजीनियर लक्ष्मीनिवास सिंह ने सिंदरी खाद के कारखाने में पता नहीं कौन-कौन से कैमिकल पचा कर मदन वात्स्यायन की कलम से कागज पर जो लिखवा दिया, वह अप्रतिम है। कारखाने की मशीनों से निकलती आवाजों को संवाद देने का काम तलाश करने पर भी नजर नहीं आता। मशीनों की दहशत से कभी दो-चार कराया था कुप्रिन की ‘मलोच’ ने या बोरिस लाव्रेन्योव की ‘मामूली बात’ ने, जिसका जिक्र शुरुआत में ही है। ‘असुरपुरी में दस से छह’ की धक-धक खच-खच की आवाजों की क्रूरता हाड़-मांस गला देती है। और खुद कवि को आगे के 42 बरसों की खामोशी में धकेल देती है। शुक्रतारा की सभी सड़सठ कविताएं 1962 तक लिखी जा चुकी थीं और मदन वात्स्यायन तीसरा सप्तक में उससे भी छह साल पहले आ चुके थे। उसके बाद इंग्लैंड से पास किया यह कैमिकल इंजीनियर सिंदरी के खाद कारखाने में कब मशीन का बेकार हो चुके पुर्जा बनने की प्रक्रिया में आ गया, इसका किसी को पता ही नहीं चला। अपने कवि को सिंदरी में दफनाने और वर्ष 78 में रिटायरमेंट के बाद मदन वात्स्यायन मुजफ्फरपुर या मोतिहारी में रहते हुए क्या करते रहे, दिन के चौबीस घंटे, महीने के तीस और साल के 365 चौबीस घंटों का हर दिन कैसे गुजरता था उनका, इसकी अगर खोजबीन की जाए, तो हो सकता है व्यवस्था का कोई एक और क्रूर रूप सामने आए। लेकिन हिंदी का बारम्बार सामने आना वाला तकलीफदेह सच यह है कि सन् 62 के बाद मदन वात्स्यायन अपनी कलम के साथ हमें नहीं दिखे किसी भी मोड़ पर। उन पर भी किसी ने कुछ लिखा भी नहीं। मदन वात्स्यायन के इस तरह किनाराकशी कर लेने का ही नतीजा है कि उन्हें जानने के लिये हमारे पास सिर्फ शुक्रतारा है।
शुक्रतारा में मदन वात्स्यायन ने उपमाओं का बिल्कुल नया और अनछुए शब्दों का संसार तैयार किया है। सांप और अफसरों, कारखाने और बबूल के वन को एक साथ रखने का। सात रंग में बोला भैरव, शीश उठा के भोंपा बोला। मेरे हाथ में जुए की एक और बाजी की तरह, ऊषे तुम फिर आ गयी हो। गार्ड की रौशनी सा पीछे-पीछे गुमसुम अब शुक्रतारा जा रहा है। शारदीय ग्लैमर तरसावे, माधवी परकीया तड़पावे। मेरी बेटी, तेरे दुश्मनों की कसम, सप्तर्षि जैसे तेरे सात दांतों का हंसना मधुर है, मुझे पर आज भी याद आता है, शुक्रतारे सा तेरा वह दांत। बेटी तू आदमी है या मालती की बेल है। अभी तेरी छुट्टी के पैंतीस दिन हैं, अगर दो दिन की छुट्टी ले कर लिवा लाने चला जाऊंगा तो तैंतीस, अब आज तो बीत ही चला, बत्तीस समझो, कल दिन भर व्यस्त रहूंगा तो इकतीस, गोया एक मास, तीस रोज! और किताब की आखिरी कविता ‘शतरंज’ की ये पंक्तियां-जो मुहरा तुम्हारे रंग का है, वह तुम्हारा है, जो मुहरा तुम्हारे रंग का नहीं है, वह तुम्हारा विपक्षी है, शतरंज में समझौता नहीं होता...........बिना मुहरों का बादशाह नहीं जीतता। अगर मदन वात्स्यायन डायरी लिखते तो वह शुक्रतारा से ज्यादा बेमिसाल होती। यह भी तो हो सकता है शुक्रतारा ही वो डायरी हो!

फिर पंच परमेश्वर बना गया पंचायत चुनाव

राजीव मित्तल
बिहार में सन् 2001 में हुआ पंचायत चुनाव बरसों के टूटते-बनते सपनों का घालमेल था, 2006 आते-आते जो ‘दीमकों’ की भेंट चढ़ गया। इसलिये इस 11 जून को खत्म हुए चुनाव के बाद की नयी पंचायतों, उनके नये पंचों, नये सरपंचों या नये मुखिया से शायद ही किसी ने कोई उम्मीद लगा रखी हो, सपने पालना तो दूर की बात है। इस बार के चुनाव पुलिसिया वर्दी और डंडे ने काफी शांति से करा दिये। इतनी शांति से कि बिहार में जिसकी आशा नहीं की जाती। काम खत्म हो जाने के बाद पुलिस अपने रोजमर्रा के कर्तव्य निपटाने में लग गयी और मतदान बाद हिंसा का नया दौर शुरू हो गया। रोजाना गांव-गांव में लाठी-बल्लम इस बात को ले कर चल रहे हैं कि अच्छा, तूने हमारे उम्मीदवार को वोट नहीं दिया या तूने दूसरे के लिये वोट मांगा-अब जा मर या पड़ा रह अस्पताल में। जबकि पिछले चुनाव से 23 साल पहले सन् 1978 तक हुए पंचायत चुनावों में गोली चलाने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी, खाली बंदूक या खाली कारतूस की ही अपनी जबरदस्त हनक थी।
अब चुने गयों को शपथ दिलाने का दौर है, जब यह पूरा हो जाएगा तो बारी आएगी उन पद वाली खाली कुर्सियों की, जिन पर ये शपथिये किसी को चुन कर बैठाएंगे। उसके बाद पदनाम धारी शपथ लेंगे। यह सब होने के बाद ‘गऊशाला’ में जाने की परम्परा है, जहां कुछ कामधेनु बंधी होती हैं। कभी भी दुही जाने वाली। बिहार में भू स्वामित्व और पंचायत एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, जिसकी नाल महात्मा बुद्ध के समय में ही गड़ गयी थी। ढाई हजार साल पहले बिहार भर में जगह-जगह मठ बन गए थे, जो सांसारिक जीवन छोड़ बैठे बौद्ध भिक्षुओं का निवास ही नहीं, उनकी जीवन शैली निर्धारित करने वाला स्थान हुआ करता था। इन मठों को उस समय के राजा बड़ी-बड़ी जमीनें दान में दे दिया करते थे ताकि उनका कामकाज बेरोकटोक चलता रहे, रोजाना के खर्चे निकलते रहें। सम्राट अशोक तो काफी मेहरबान रहे इन मठों पर। 12 वीं शताब्दी आते-आते बौद्ध धर्म अवसान की स्थिति में आ गया, तो मठों की जमीन-जायदाद बौद्ध धर्म से किनारा करने वाले अगड़ी जाति के एक खास समुदाय के हाथ बैठे-ठाले लग गयी। सो, बिहार में जमींदारी प्रथा की नींव तभी पड़ गयी थी, जिस पर 18वीं शताब्दी के अंत में लॉर्ड कार्नावालिस ने केवल मोहर लगायी। आजादी के बाद बिहार में पहला पंचायत चुनाव खाली-पीली की औपचारिकता थी, क्योंकि बड़ी-बड़ी जमीनों के मालिक ही गांवों के पहरुआ बन बैठे। उनके लिये कमाई का अतिरिक्त जरिया बन गयीं पंचायतें। सभी अगड़ी जाति के थे। वे गांव में अपनी ही जमीन पर दो-तीन कमरे डलवा कर स्कूल खोल लिया करते थे, जो उनके बाप-दादा के नाम पर होता था। फिर किसी एक कमरे में ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्र, एक कमरे के आधे हिस्से में डाक घर, आधे में सहकारी समिति का कार्यालय, पंचायत भवन और छज्जे पर महिला उत्थान केन्द्र वगैरह-वगैरह। कमाई की कमाई, घर-भर को रोजगार और भवनों का किराया अलग से। इन सबको चलाने के लिये पैसा सरकार की जेब से आता था। इस तरह सरपंच या मुखिया बनना एक आला किस्म की दुकानदारी थी। कमोबेश यह खेल सन् 78 तक बखूबी चला। 1978 के बाद पंचायत चुनाव कराने की औपचारिकता भी बंद हो गयी। जबकि तब और राज्यों में पंचायतों ने अपनी राह बखूबी पकड़ ली थी। 1989 में कांग्रेस केन्द्र की सत्ता से बाहर हुई और अगले साल बिहार में भी उसका सफाया हो गया। लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री बने। लालू प्रसाद पंचायत चुनाव कराने को सक्रिय हुए पर पिछड़ा कार्ड सामने रख कर। लेकिन पंचायत चुनाव में आरक्षण अगड़ों को मंजूर नहीं था, टलते-टलते सन् 2001 आ गया और लालू प्रसाद ने पिछड़ा कार्ड जेब में रख पंचायत चुनाव करा दिया। 2006 के चुनाव में वही कार्ड मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बखूबी खेल दिया। महिलाओं के लिये 50 फीसदी सीटें भी आरक्षित कर दीं। अब पिछड़ों और अति पिछड़ों का नया वर्ग अगले पांच साल में पंचायत को कौन सी शक्ल देगा, यह तो समय पर छोड़ा जाए। लेकिन स्वरोजगार योजना, जन वितरण प्रणाली, इंदिरा विकास, विधायक योजना, सांसद योजना, वृद्धावस्था पेंशन, जाति प्रमाणपत्र , आवासीय योजना और अति गरीबों को सस्ती दरों पर अनाज दिलाने वाले लाल-पीले कार्ड जैसी कामधेनुएं विश्वामित्रों को ललचाने को कमर कसे बैठी हैं। 2001 के पंचायत चुनाव के बाद यह तो सभी को पता चल गया था कि पैसा कैसे बनाया जाता है। तब तो जिला परिषद अध्यक्ष की कुर्सी 30-40 लाख रुपये में मिल जाती थी, आज इस कुर्सी की मलाई का रेट करोड़ों में पहुंच जाए तो आश्चर्य नहीं क्योंकि 30 लाख से तीस करोड़ बन जाएं तो क्या कहने!

बड़े-बड़े कारनामों वाला एक छोटा सा शहर

पहल 83 में प्रकाशित शहरनामा

मुजफ्फरपुर


राजीव मित्तल

कई सारे शहरों में रोजगारी कदमताल करने के बाद ( और कुछ माह की बेरोजगारी भी ) जब दो अक्टूबर 2002 को करीब ढाई हजार साल पुरानी बसावट वाले अकबर के समय के कलक्टर मुजफ्फर खान के नाम पर बने मुजफ्फरपुर के लिए पटना से चला तो टैक्सी ड्राईवर की बगल में बैठ भकुआ बन खिड़की के बाहर ताकने के सिवा और कोई चारा न था। सामने से भागती धरती को जैसे निगल रहा था। दिल्ली में जब मैडम मृणाल पण्डे का आदेश मिला कि मुजफ्फरपुर आपका कार्य क्षेत्र रहेगा, तो तुरंत एक बिहार विशेषज्ञ को फोन घुमाया और बताया कि बंधु, मुजफ्फरपुर भेजा जा रहा हूं। भई, संभल के ! पता है कहां जा रहे हो? बहुत टेढ़ा इलाका है। जान का तो पता नहीं, पर आबरू जरूर खतरे में है। अगर जातिगत समीकरणों पर ध्यान नहीं दिया तो वहां के लोग आपके खिलाफ शहर भर में ऐसी हवा बहा देंगे कि मुंह दिखाना मुश्किल हो जाएगा। दिल थाम कर बैठ गया। फिर एक और अड्डे पर चल दिया। वहां जो सुनने को मिला तो हालत खराब करने के लिए काफी था। क्यों भई, उलटे पैदा हुए हो क्या? बिहारी भाग रहे हैं बिहार से और तुम दिल्ली से जा रहे हो बिहार, जहां कोई कानून नहीं, कैसे भी अपराध के होने का कोई समय नहीं। खामोशी से सुन लिया लेकिन जेहन को लगातार जो कुरेद रहा था वो भी एक हादसा था, जो अपने 35 साल पुराने शहर लखनऊ में कुछ ही दिन पहले घटा था, कि घर में दिन-दहाड़े घुस 77 साल पुराने पिता को बुरी तरह डरा-धमका कर चंदा मांगने आए शिवसैनिक उनके कागजात और रुपये-पैसे उठा कर ले गए थे। तो कैसा अपना लखनऊ और कैसा पराया मुजफ्फरपुर! बहरहाल दो अक्तूबर 2002, दिन में 11 बजे मुजफ्फरपुर में था पूरे जोशो-खरोश के साथ एकदम नया-नकोर। जगह-जगह सुनाई पड़ रहा था-दे दी हमें आजादी बिना खड़ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल। और साथ में शुरू हो गयी थी दुर्गा पूजा की रौनक और सड़कों-मोहल्ले पर गूंजती शेफाली जरीवाला के वीभत्स रीमिक्स कांटा लगा की तर्ज पर- माता लगा बेड़ा पार की चिंघाड़। अब तक हो चुके तीन साल में एक प्रवासी की तरह दिन नहीं काटे, यही सबसे बड़ी उपलब्धि है। और अब रोजमर्रा नये-नये जायके देती इस नगरी के बारे में कुछ टुकड़े---
हस्ती के इस सराब में रात कि रात बस रहे
सुबह अदम हुआ नुमु पांव उठा जो हो सो हो
सूफी शायर हजरत नियाज शाह की ये पंक्तियां इस इलाके के लिए हर काल में मौजू हैं-तब भी, जब यहां ढाई हजार साल पहले बुद्ध और महावीर अहिंसा का प्रसार कर रहे थे, जब बौखलाया ब्राहमण समाज बौद्ध धर्म पर कुठाराघात कर रहा था, जब गयासुद्दीन एवाज इस क्षेत्र को रौंद रहा था, जब जहां-तहां पसरी पड़ीं जरासंध की गदाओं की तरफ इशारा कर जनरल कनिंघम बता रहा था - बेवकूफों, ये अशोक के शिलालेख हैं। जब मुजफ्फरपुर क्लब के पास अंग्रेज मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड की बग्घी पर बंगाल से आए दो नौजवान बम फेंकने के बाद बदहवास हो इस निराशा के साथ भागे कि मरने वाला मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड नहीं था। प्रफुल्ल चंद्र चाकी ने समस्तीपुर स्टेशन पर पुलिस के हाथ लगने से पहले ही अपने को गोली मार ली। और मुजफ्फपुर जिले की सरहद पर एक दुकानदार ने पुलिस को इत्तिला कर खुदीराम बोस को पकड़वा दिया, जिन्हें यहीं की जेल में फांसी पर लटका दिया गया। जब गांधी जी ने स्वदेश लौटने के बाद अपने ऊपर से ऊहापोह और असमंजस के जाले उतारने के लिए मुजफ्फरपुर होते हुए चम्पारण का रास्ता पकड़ा। और आजादी के कई साल बाद तक बिहार की सांस्कृतिक राजधानी और मुम्बई-सूरत के बाद कपड़ों की सबसे बड़ी थोक मंडी कहलाया जाता रहा यह शहर कांग्रेस के किसी दबंग नेता का बंधक बन कर रह गया, और अब पूरी तरह माफियाओं, रंगदारों, कालाजार, एड्स और माओवादियों के चंगुल में फंस चुका है। जहां अपराधी का अपराध नहीं, नेता का काम नहीं- दोनों की जात बोलती है। बाकी, बुद्ध को अपने तर्कों से परास्त कर बौद्ध संघ में शामिल होने वाली पहली नारी अम्बपाली का सौंदर्य आज भी यहां-वहां झिलमिलाता है, पेड़ पर लदी लीची आस्तिक बनाती है तो सड़कों पर यहां-वहां सड़ रहे उसके छिलकों के ढेर नरक के द्वार के दर्शन कराते हैं। तिरहुत कमिश्नरी के इस जिले को उत्तर बिहार के अन्य जिलों बेतिया, मोतिहारी, वैशाली, बेगूसराय, समस्तीपुर, सीतामढ़ी, मधुबनी और दारभंगा से काट कर नहीं देखा जा सकता। एक तरह से उत्तर बिहार का दिल है मोहभंग की तासीर वाला मुजफ्फरपुर।

-महात्मा बुद्ध निर्वाण की तरफ बढ़ रहे हैं, अंतिम मुकाम है कुशीनगर। लिच्छवी गणतंत्र या वृज्जिका संघ, संघ के आठों कुल, उनके मुखिया, जन सैलाब उमड़ पड़ रहा है तथागत की अंतिम विदाई को। एक जगह पहुंच कर बुद्ध रुके। अपने और लिच्छवियों के बीच एक नदी को प्रवाहित कर सबको इस किनारे रुक जाने को मजबूर कर दिया। उस किनारे खड़े हो जी भर कर निहारा लिच्छवी गणतंत्र की राजधानी वैशाली को। वह नगरी, जहां कपिलवस्तु छोड़ कर सबसे पहले आए, और फिर बार-बार आते रहे। विश्व के इस पहले गणतंत्र की लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था, समृद्धि, संस्कृति, लिच्छवियों का देशप्रेम, उदार मन, उनकी सुंदरता, उनकी स्वच्छता, समूह से जुड़ी उनकी सोच, उनकी धर्मनिष्ठा पर मुग्ध होते रहे बुद्ध। उन्होंने लिच्छवियों की तुलना देवताओं से की थी। बुद्ध के दिलो-दिमाग पर छाई रहने वाली इसी वैशाली का बेहद अहम हिस्सा था मोद्फलपुर (मीठा फल यानी लीची) या आज का मुजफ्फरपुर। ढाई हजार से भी हजारों वर्ष पहले राजा जनक के विदेह साम्राज्य, छठी शताब्दी में कन्नौज के प्रतापी सम्राट हर्षवर्धन, फिर बंगाल के पाल राजाओं, उसके बाद चेदि, फिर तुर्कों, उसके बाद जौनपुर के हुक्मरानों, फिर मुगलों, 1764 में भारत का भाग्य तय करने वाले बक्सर युद्ध में मुगल बादशाह के साथ-साथ बंगाल और अवध के नवाबों की हार के बाद अंग्रेजों का शासन और 1875 में भारत के सबसे ज्यादा क्षेत्रफल वाले जिलों में एक सरकार तिरहुत का हिस्सा रहा मुजफ्फरपुर खुद जिला बना। तबके तिरहुत में आज के दोनों चम्पारण और दरभंगा और सीतामढ़ी भी शामिल थे। बताइये, हजार साल से खलीफाई झाड़ रहे दिल्ली के पास है इतना शानदार ज्ञात या अज्ञात इतिहास! याद आया, 24 वें जैन तीर्थंकर और बुद्ध के
समकालीन महावीर की कर्मभूमि भी यही क्षेत्र था और मुजफ्फरपुर जिले का बासोकुंड था उनकी जन्मस्थली। और बुद्ध की वैशाली, बौद्ध धर्म की प्रथम भिक्षुणी अम्बपाली की वैशाली बसाढ़ नाम के एक गांव में सिमट मुजफ्फरपुर से 35 किलोमीटर दूर खंडहर में पसरी अतीत को निहार रही है।--नेपाल, दरभंगा, छपरा, चम्पारण और सीतामढ़ी जिलों, गंगा, गंडक (नारायणी), बूढ़ी गंडक और बागमती नदियों से घिरे मुजफ्फरपुर को आबाद करने में इस तक पहुचने की सुलभता बेहद महत्वपूर्ण है। हालांकि डेढ़ सौ साल पहले तक गंडक नदी के किनारे बसा वैशाली जिले का प्रखंड लालगंज पूरे उत्तर बिहार का सबसे बड़ा व्यापारिक केन्द्र था और तब मुजफ्फरपुर की हैसियत एक गांव से ज्यादा की नहीं थी। इसे महत्व दिया अंग्रेजों ने क्योंकि यहीं से वे पूरे उत्तर बिहार और नेपाल पर नजर रख सकते थे। जिला बनने के बाद इसका खासा विकास हुआ और धीरे-धारे मुजफ्फरपुर शिक्षा, साहित्य और सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया। 1917 में चम्पारण में नील की खेती करा रहे अंग्रेज जमींदारों के खिलाफ आंदोलन शुरू करने से पहले जब गांधी जी यहां आए तो शहर उनके प्रति बिल्कुल उदासीन था। निराश हो कर गांधी जी ने यहां के ग्रेअर भूमिहार-ब्राहमण कोंलेज के एक लेक्चरर की मदद ली। उस अध्यापक ने अपने शिष्यों को पकड़ा, तब जाकर गांधी जी का ढंग से स्वागत हो पाया। वह लेक्चरर थे जे बी कृपलानी। आचार्य कृपलानी यहीं से प्रोफेसर हो कर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय गए। बहरहाल, आजादी से पहले यह शहर कांग्रेस, खास कर कांग्रेस से जुड़े समाजवादी नेताओं का गढ़ बन गया था। आजादी के बाद की राजनीति में भी यहां समाजवादी नेता छाए रहे।

--पिता मोतीलाल की डांट और प्रेमिका नीरदा के विछोह से पगलाए मातृविहीन शरत् भागलपुर से यहां-वहां धक्के खाते 1901 की बरसात में मुजफ्फरपुर पहुंचे। पास में थी चरित्रहीन की आधी-अधूरी पांडुलिपि और जहन में कहीं था श्रीकांत। कुछ दिन अपने को छुपाए रखा, पर शहर के बंगाली समाज को जल्द ही उनके गुणों की भनक मिल गयी। फिर तो बंगाली युवकों ने उन्हें सिर-माथे लिया। उन्हें शहर में एक अमीरजादा महादेव साहु मिल गया, जिसके साथ रातें रंगीन होने लगीं। और एक दिन जिसके प्यार में पागल हो शरत् मुजफ्फरपुर आ धमके थे, उस नीरदा ने अपनी पहचान वाले से उन्हें पिटवा तक दिया। पूरी तरह टूट चुके शरत् को रात की किसी मजलिस में मिली राजबाला, जो उनके 15 साल बाद लिखे गए उपन्यास श्रीकांत की नायिका राजलक्ष्मी बनी। शरत् जब-तब मुजफ्फरपुर की अपनी आवारा जिंदगी से घबरा जाते और बूढ़ी गंडक के किनारे बैठ कागजों पर कलम चलाते। प्रमथनाथ भट्ट, निशानाथ बंदोपाध्याय, उनके भाई शिखरनाथ, महादेव साहु, राजबाला, वेश्याओं, साधुओं, जमींदारों, कारकुनों, संगीत प्रेमियों के इस जमावड़े का संग-साथ कोई बड़ा गुल खिलाता कि पिता की मौत ने फिर घसीट लिया शरत् को भागलपुर की ओर। वहां से कलकत्ता भागे और जल्द ही बर्मा की ओर।

--पनास और मिठास, ऊपर से साहित्यिक गतिविधियों की रेलम-पेल, ऐसे ही नहीं कहा गया मुजफ्फरपुर को सांस्कृतिक राजधानी। साहित्य के हर पक्ष पर कलम चली है यहां-यह कर्म पूरे उत्साह के साथ आज भी जारी है। उन्नीसवीं शताब्दी का श्रेष्ठतम उपन्यास ‘बलवंत भूमिहार’ के लेखक पं. भुवनेश्वर मिश्र मुजफ्फरपुर में अध्यापक थे। इस शहर को साहित्यिक पहचान देने वालों में अयोध्याप्रसाद खत्री , बाहर से आए देवकी नंदन खत्री , रामवृक्ष बेनीपुरी, मदन वात्स्यायन, ललित प्रसाद सिंह नटवर, रामधारी सिंह दिनकर, आचार्य रामदीनपांडेय, डा. श्याम नंदन किशोर, आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री , राजेन्द्र प्रसाद सिंह और इस कद के न जाने कितने नाम। आज भी जानकी बल्लभ शास्त्री का निराला निकेतन अपनी उस पहचान को बनाए रखने की मशक्कत कर रहा है, जो पृथ्वीराज कपूर, हरिवंशराय बच्चन, शैलेन्द्र जैसी हस्तियों के आगमन से बनी। जब लेखिका रश्मिरेखा कहती हैं कि उन्हें अपनी साहित्यिक पहचान बनाने के लिए दिल्ली के गलियारों की जरूरत नहीं पड़ी तो मुजफ्फरपुर का अर्थ समझ में आ जाता है। उनकी इस बात में लिच्छवी अहम दिखायी देता है, जिसने ढाई हजार साल पहले मगध सम्राट अजातशत्रु को हीन भावना से ग्रसित कर दिया था। और आज संजय पंकज, पूनम सिंह, मधु रचना, डा. रवीन्द्र उपाध्याय, डा. शेखर शंकर, नन्द किशोर नन्दन, रेवतीरमण, चन्द्र मोहनप्रधान, शांति सुमन, जीतेन्द्र जीवनऔर विजयकान्त जैसे न कितने रचनाकार मुजफ्फरपुर की साहत्यिक पहचान बनाए रखने के लिये जूझ रहे हैं।पिछले साल की बरसात में मुजफ्फरपुर आए थे बनारसी काशीनाथ सिंह। अपने पुराने मित्रों राजेन्द्र प्रसाद सिंह और आनन्द भैरव शाही से मिलने और इस शहर एवं उसके आसपास की यादें ताजा करने। काशीनाथ सिंह के लिये सारा कार्यक्रम तय किया था युवा रचनाकारों की मंडली ने। शाही जी का निवास है मुजफ्फरपुर के एक प्रखंड सरैया में। काशीनाथ सिंह के पहुंचने पर वहां पता नहीं किस की बाहों ने किसको पहले समेटा, लेकिन दृष्य अविस्मरणीय था। और जब चार आंखों से आंसू बह निकले, तो और आंखों को भी भीगते देर नहीं लगी। जब चलने का समय हुआ तो काशानाथ सिंह का एक कदम दरवाजे की ओर बढ़ता तो दो कदम शाही जी की ओर लौटते। चलने में अशक्त शाही जी भी लड़खड़ाते हुए मित्र की ओर बढ़ते। दो दिन मुजफ्फरपुर को गुंजायमान कर काशीनाथ सिंह स्टेशन पर किसी के गले मिले, किसी को छाती से भींचा और किसी से हाथ मिलाया और अंत में यही बोले-अद्भुत समानता है काशी और मुजफ्फरपुर में। --मैथिल, भोजपुरी और वृज्जि के साथ-साथ बांग्ला को भी जोड़ लें तो एक साथ इतनी संस्कृतियों वाली जगह है मुजफ्फरपुर।

साहित्य के साथ-साथ संगीत का भी खासा दखल रहा है मुजफ्फरपुर में। एक समय था जब पंडित ओंकार नाथ ठाकुर, पंडित डीवी पलुस्कर, विनायक राव पटवर्धन और नारायण राव व्यास सरीखे गायक और उस्ताद विलायत खां व उस्ताद रईस खां जैसे अव्वल दर्जे के सितारवादकों की मेजबानी यह शहर साल में दो-चार बार जरूर किया करता था। शहर के रईस उमाशंकर मेहरोत्रा उर्फ बच्चा बाबू और पीएन मेहता के निवास पर इन दिग्गज संगीतकारों का खुले दिल से स्वागत होता था। तो उस समय सुलेमान खां जैसे प्रशासक भी हुआ करते थे, जो शहर में हर साल संगीत समारोह करवाने का ज़ज्बा रखते थे। और यह केवल 25 साल पहले की कहानी है। सन् 75 तक यहां ऐसे समारोह पूरी शान ओ शौकत के साथ हुआ करते थे। और अब यह शहर मॉडलों को रैम्प पर मटकता देखने को बेताब रहता है।

--जो लुधियाना, जालंधर, होशियारपुर, गुरदासपुर आतंकवाद के अंतिम दिनों तक कस्बाई जिंदगी जी रहे थे, आज लंदन-पेरिस के नक्शेकदम पर चल रहे हैं, क्योंकि उन पर प्रवासी पंजाबी बेपनाह पैसा लुटा रहे हैं। कई प्रवासी तो विदेशी मोह छोड़ अपने गांवों में आ बसे हैं और अपने साथ लाए हैं मेहनत से कमाई अकूत सम्पदा। अमेरिका में बसे कुछ पंजाबी डाक्टरों ने तो अमृतसर के मेडिकल कालेज को अत्याधुनिक बनाने का बाकायदा प्रोजेक्ट तैयार किया है। इसे वे अपनी गुरुदक्षिणा मानते हैं। केरल में भी यही हो रहा है और गुजरात में भी। लेकिन क्या यही बात हम बिहार में पाते हैं? या मुजफ्फरपुर में? अफसोस, कतई नहीं। मुजफ्फपुर की एक मोहतरमा इस समय ब्रिटेन भर को समोसे खिला कर अकूत कमाई कर रही हैं। क्या उन्होंने एक बार भी पलट कर अपने शहर को देखा? एक भी पैसा शहर की बेहतरी के लिए खर्च किया? ऐसे न जाने कितने नाम और चेहरे हैं, जो भारत के और शहरों या विदेशों में इंजीनियर-डाक्टर बन पैसा कूट रहे हैं, पर जिनके जेहन में अपने शहर या अपना गांव दूर-दूर तक नहीं है। केवल छठ पूजने या दहीचूड़ा खा लेने से सारे वो सारे कर्जे उतर जाते हैं, जो किसी बही में नहीं चढ़े हुए? किसी ने आज तक घूम कर भी अपने शहर या अपने गांव की दुर्दशा पर निगाह नहीं डाली। यह एक कड़वी सच्चाई है कि बिहार का नौजवान तबका विदेश तो क्या, अगर अपने देश में ही जब भविष्य सुधारने को अपना शहर छोड़ता है तो फिर अपनी धरती पर ईंद के चांद की तरह ही दिखता है।

--नेपाल के पानी से भरी बड़ी-छोटी दर्जनों नदियों से घिरे और दसियों पोखरों वाले मुजफ्फपुर के लिए अभिशाप बन गया है पानी। क्योंकि या तो वह सड़कों के किनारे सालों से पड़ा सड़ रहा है या पीने वाले के गले में उडे¸ल रहा आर्सेनिक या लोहा। हर बारिश में बांध और नदी की नूरां कुश्ती एक उबाऊ खेल बन गया है, जिसकी कमेन्ट्री उससे भी ज्यादा उबाऊ है। इस इलाके की नदियां अपने किनारों पर मिट्टी के लौंदे के तरह पड़े बांधों को देख कर बेकाबू हो जाती हैं। किसी भी बरसात में नदियों को फलता-फूलता देख बांध की तख्ती लगाये कोई भी टीला विश्वामित्र बन डोलने लगता है। पर मेनका बनीं नदियां पूरी निष्ठा के साथ अपना काम करती हैं और हजारों एकड़ खेत, हजारों मकान-झोंपड़े अपने दामन में लपेट कर नाला बन जाती हैं। इन बांधों पर हुई बसावट एक ऐसी दुनिया बन जाती है, जिसका काम केवल सांस लेना और सांस छोड़ना है। मरने पर कोई संताप नहीं और जन्मने पर किसी ढोलक पे थाप नहीं।
--करीब पांच लाख की आबादी वाले इस जिले में एक हजार एमबीबीएस या इससे ऊपर की डिग्री वाले डाक्टरों की क्लीनिक, और यहां-वहां डोलने वाले अनगिनत झोलाछाप नीम हकीम, सौ से ज्यादा नर्सिंग होम और कई सेंकड़ा कैमिस्ट की दुकानें हैं। हर डाक्टर के क्लीनिक के अंदर, बाहर बरामदे में , उसके बाहर के लॉन के जर्रे-जर्रे में सुबह-शाम मरीज ठुंसा रहता है और हर डाक्टर एक नहीं तीन-तीन जगह बैठता है। शहर में एक जगह है जूरन छपरा, जिसे अनाज मंडी, खोआ मंडी या पान मंडी की तर्ज पर चिकित्सा मंडी कहने में कोई गुरेज नहीं। करीब 200 वर्ग मीटर की इस मंडी में मरीजों का सौदा गाय-भैंस की तरह होता है। दिल को दहला देने वाली दरिद्रता के बीच डाक्टर, कैमिस्ट और नर्सिंग होम की ऐसी भरमार आतंकित करती है। करीब एक करोड़ रुपये रोज का व्यवसाय है यहां दवा का। जबकि सरकारी अस्पतालों में या तो नाले का पानी बह रहा है या मरीज के शरीर से निकलता खून और मवाद। और वहां का अमला विश्व स्वास्थ्य संगठन को चूना लगाने की जोड़-तोड़ में लगा है। और सुनिये, मारुति कार वालों का दावा है कि उनके चौपाए खरीदने में उत्तर बिहार सबसे माकूल जगह है, जहां सड़क है ही नहीं। रास्ते हैं जिन पर साइकिल भी नहीं सिर्फ बैलगाड़ी चल सकती है। यहां विदेश जानों वालों की संख्या इस कदर बढ़ गयी है कि कई ट्रैवेलिंग एजेंसियां चांदी काट रही हैं। और बचत इस कदर है कि बैंकों के पेट में अफारा हो गया है।

--एनएच यानी नेशनल हाईवे-बड़ा भारी भरकम नाम लगता है सुनकर। लेकिन मुजफ्फरपुर उत्तर बिहार के किसी शहर से जोड़ता कोई भी हाईवे पगडंडी से ज्यादा की औकात नहीं रखता। पगडंडी की भी अपनी एक मर्यादा होती है, उसके कच्चेपन पर चलने का भी अपना ही लुत्फ होता है, लेकिन जब उधड़ी हुई डामर की सड़क और उस पर अंग्रेजों के समय के लोहे के बने पुल-पुलिया बाहें फैलाये उछलते हुए मिलें तो ऐसा महसूस होता है जैसे पूरा इलाका शापग्रस्त हो। यहां किसी त्रासदी को निराशा कतई हाथ नहीं लगती, क्योंकि भूकम्प आये बिना ही इन हाईवे पर हर वाहन गिरता-पड़ता नजर आता है। एक पुलिया पार कर ली तो चिंता लौटती बार की होने लगती है।

उत्तर बिहार का एक बड़ा हिस्सा भूकम्प के जबरदस्त लपेटे में है और जिसके साथ उसका बहुत अपनापा नहीं है, वह नक्सली मार की जद में है। लेकिन भेदभाव कोई नहीं-हर तरफ भूकम्प और नक्सलियों को ललचाने वाली वही सड़कें और वही पुल-पुलिया। मुजफ्फरपुर सड़क का मुंह चाहे सीतामढ़ी की तरफ हो या मधुबनी, मोतिहारी हो या बेतिया, या बेगूसराय की तरफ, सारे रास्ते धसके हुए हंै। वहां भूकम्प और कितना बिगाड़ लेगा, जो सामने है उसी से तो जी बहलायेगा न!

--मजफ्फरपुर का एक प्रखंड है मुशहरी। 70 के दशक में नक्सलवाद से थर्रा रहे इस प्रखंड में भूदान के जरिये विकास की बयार बहाने को बिहार आंदोलन शुरू करने से पहले जय प्रकाश नारायण कई दिन रुके थे। वह मकान या आश्रम अब खर-पतवार से आच्छादित टीला भर रह गया है-समय की मार की वजह से नहीं, क्योंकि महज 35 साल पुरानी ही तो बात है, इसलिए कि अब कोई जेपी को याद नहीं रखना चाहता। मुशहरी प्रखंड पर याद आया कि इस क्षेत्र में कई जगह मुसहर टोले बसे हुए हैं, जिनके निवासी दरिद्रता की निम्नतम सीमा से भी नीचे जा धंसे हैं। इन्हें भोजन में शायद ही कभी अनाज का दाना नसीब होता हो। ये घोंघे, सीपियां या चूहे खा कर जीवित रहते हैं। इन पर कभी लालू प्रसाद यादव को लाड़ आया था तो इनके बाल कटवाए गए थे और शरीर का मैल उतारने के लिए टैंकरों के पाइप से पानी की मोटी धारा इन पर छोड़ी गयी थी। पता नहीं इन्हें तब से नहाने का मौका मिला या नहीं लेकिन कई सारे रामदीनवाओं, उनकी पत्नियों और उनके बच्चों के काले शरीर और काले पड़ चुके हैं और वे अब अंतिम सांसे गिन रहे हैं। इनको मौत के मुंह में धकेल रहा ढाई फुट से ऊपर न उड़ सकने वाला कालाजार का मच्छर जिंदा ही इनका खून पीकर रहता है। दवाई की एक खुराक सौ रुपये से कम की नहीं बैठती, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के अकूत पैसा बहाने के बावजूद अगले सौ साल तक इनके नसीब में नहीं होगी। इन्हें मरने ही दिया जाए तो इन पर उपकार होगा।

--ट्रक से कोई कुचल मरा तो फलाना एनएच जाम, ट्रक ने बस को टक्कर मारी तो सड़क जाम के साथ-साथ बगल से निकल रही बरौनी एक्सप्रेस का टेंटुआ भी दबा दिया, टीटी ने बिना टिकट यात्री को पकड़ा तो उसके साथियों ने सप्तक्रांति रोक दी, किसी की हत्या हो गयी तो ढिमाका एनएच जाम, कोयला चोरों को पकड़ा तो उनके गांव वालों ने जिस ट्रेन को चाहा उसे खड़ा कर दिया, छात्रों या किसी दैनिक यात्री के लिए एसी कोच नहीं खोला गया तो ट्रेन पर पथराव। यह विध्वंसकारी गुस्सा वैसे तो पूरे बिहार की पहचान बन चुका है लेकिन उत्तर बिहार का यह इलाका तो पता नहीं किस क्रोध में अपने को खाक कर रहा है, जो घूमते पहिये के खांचों में हर क्षण लोहे की छड़ अड़ा रहा है। लगता है कि जैसे गतिशीलता से कोई पूर्वजों का बैर है, जो अब निकल रहा है। जबकि सबसे गतिशील समाज रहा है यहां का। महाभारत के बाद ईसा के छह सौ साल पहले से लेकर ईसा के छह सौ साल बाद तक कश्मीर से कन्याकुमारी और कटक से अटक यानी तब के आज से दो गुने भारत का केंद्र बिंदु रहा है यह इलाका। लेकिन आज विश्व स्वास्थ्य संगठन ने उत्तर बिहार, विशेषकर मुजफ्फरपुर को एड्स, कालाजार, मलेरिया और न जाने कौन-कौन सी घातक बीमारियों का केन्द्र करार दिया है। सड़क, पानी और बिजली, स्वास्थ्य, शिक्षा और कानून व्यव्स्था-सब दुश्वारियों का शिकार हैं और ऐसे बेहाल मुजफ्फरपुर में क्या प्रशासन, क्या अपराधी, क्या पुलिस, क्या जनता और क्या नेता-सब कोढ़ में नाखून लगा रहे हैं। लगता है कि आजाद देश के आजाद बिहार का आजाद मुजफ्फरपुर अपने भाग्यविधाताओं के कारनामों से इस कदर आजिज आ चुका है कि उसके सामने अराजक होने के सिवा और कोई रास्ता ही नहीं बचा है। अब तो हाल यह है कि अगर किसी सड़क पर किसी भलेमानस की मुर्गी किसी वाहन के नीचे आ कर प्राण त्याग दे तो कसम से एक शानदार जाम लगते देर नहीं लगेगी। सारा इलाका जातिवाद को आस्था बना- वो सुबह कभी तो आएगी के भाव में जी रहा है। उसका हर चैन छीन लिया गया है पर उसके अंदर छठ को लेकर सदियों से चला आ रहा उत्साह बरकरार है। हर सावन में सुल्तानगंज से गंगाजल लेकर देवघर में शिव को नहलाना उसके जीवन का एकमात्र मकसद है। कभी-कभी लगता है कि मुजफ्फपुर का हाल कन्नड़ सिनेमा के प्रख्यात अभिनेता राजकुमार जैसा हो गया है, जिन्हें वीरप्पन ने अगवा कर कई दिन अपने साथ घने जंगलों में रखा था। उसमें अनोखापन यही था कि अपह्त होने के कुछ दिन बाद ही राजकुमार को वीरप्पन का साथ भला लगने लगा था। इस असामान्य स्थिति को कहते हैं स्टॉकहोम सिन्ड्रोम, और यही है मुजफ्फरपुर का सबसे बड़ा मर्ज।
हजरत शाह नियाज एक बार फिर याद आ रहे हैं----
मकीं है ने मकां है जमीं है ने जमां है
दिल बे नवा ने मेरे वहां छावनी है छाई