राजीव मित्तल
अगर गुजरात का राजा भीमसिंह सोमनाथ के मंदिर को बचाने के लिये सेना लेकर न पहुंचता तो भारत के अगले हजार साल का इतिहास कुछ और ही होता। महमूद गजनवी को तो सोमनाथ मंदिर के पुजारियों की आस्था ने ही निपटा दिया होता। लेकिन मंदिर की रक्षा को आयी सेना देख देवता मूर्ति से बाहर ही नहीं आए। फिर क्या था मारकाट बेचारे गजनवी को ही करनी पड़ी। लेकिन अब 2004 में ऐसा बिल्कुल नहीं होगा। तम्बू-कनात लगा उसमें देवी-देवता और दानवों के सुडौल बुत खड़े कर आस्था को उस स्थान तक पहुंचा दिया गया है, जहां गोस्वामी तुलसीदास को भी परे हो जाना पड़ता है। उस तम्बू में देवी-देवता और दानवों के चेहरे विचार-मंथन से उसी तरह निकले हैं जैसे हजारों साल पहले समुद्र मंथन से अमृत और विष के घड़े निकले थे। तम्बू में चल रहे हवन की सुरक्षा के लिये किसी विश्वामित्र को धनुष-बाण से लैस किसी राम की जरूरत नहीं थी क्योंकि उनका राम तो उनकी आत्मा में बसा है। उनके भगवान उनके पास खड़े हैं, जो इस चुनाव में उन दुश्मनों का एक बार फिर संहार करेंगे, जो रावण की तरह मरते हैं और फिर जिंदा हो ललकारने लगते हैं। इन मासूम युवकों को किसी विभीषण का भी इंतजार नहीं है, जो आकर कान में फुसफुसाये कि अमृतकुंड रावण की नाभि में है, वहां तीर चलाओ। इनकी आस्था ही कई विभीषणों पर कई गुना भारी पड़ रही है। लेकिन यह सीता को रावण की कैद से छुड़ाने, अच्छाई की बुराई पर विजय जैसा मसला नहीं है। यहां मसला खड़ा हो गया है उन दो धाराओं का, जिनकी आपस में एक-दूसरे से अभी तो बिल्कुल ही नहीं पट रही। जब पटने लगेगी तो हवनकुंड के चारों ओर मिट्टी की मूरतों के चेहरे अपने आप बदल जाएंगे। जो देवता है वह दानवों की श्रेणी में, जो देवी है वह राक्षसी रूप में। यह उस खेल का आध्यात्मिक पक्ष है जो भौतिक रूप से किसी भी सत्ता के लिये कहीं भी कैसे भी शुरू हो जाता है। इसलिये भी कि- हे धरती पे उतरे चक्रधारी, हमीं तुम्हारे उद्धव हैं। हमारा भविष्य भी सुधार दीजो। यह हवन हो रहा है पांच साला कुर्सी के लिये, जिसे दुश्मनों की नजर न लगे और लगे तो कुर्सी से ही ब्रह्मास्त्र वगैरह-वगैरह निकलने लगें और अगला त्राहिमाम -त्राहिमाम करने लगे। आस्था के इस आयोजन में देश का भविष्य पूरे जोर-शोर से शामिल है।
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