राजीव मित्तल
शिवसैनिकों को मीरा नायर या उनकी फिल्मों से कोई लेना-देना नहीं था यह तो फायर और वाटर जैसे विध्वंसक नामों ने उनकी मति साढे¸ पांच साल और तीन साल पहले वैसे ही हर ली थी। फायर की लपटें तो कुछ लपलपायीं भी, पर वाटर केवल शबाना आजमी और नंदिता दास के सिर मुंडाने तक सिमट कर रह गयी। अब फायर जैसा शोर गर्लफ्रेंड को लेकर है। और हो भी क्यों न, आखिर भारतीय संस्कृति से खिलवाड़ हंसी खेल समझ रखा है इन बोलीवूद -हॉलीवुडियों ने! बताइये, क्या सोचकर गंगाजल को वाटर नाम दे दिया गया था। हाथी मरे तब भी सवा लाख का। उसी तरह गंगा गंदा नाला भी बना दी जाये तो भी गंगाजल और कचरा खाने को मजबूर गाय की ठठरियां भी निकल आयें तो भी गऊमाता। भारतीय संस्कृति में यह कहां बताया गया है कि गंगा को नदी जैसा रहने दिया जाये और भूख से बेहाल पॉलीथीन को कचरे समेत निगल सिसक-सिसक कर मरने को मजबूर गाय को उबारा जाये। साल का एक दिन कुछ पशु-पक्षियों, जीवों, देवियों, देवताओं, बरगद-पीपल के नाम तय है उसी दिन उनका पूजापाठ होगा। ऐसे ही किसी दिन खुशकिस्मत गांधी और संत रैदास भी याद किये जायेंगे। और बाकी दिन भारतीय संस्कृति को प्रदूषित करने वाले किसी भी माध्यम की ऐसी की तैसी करने में लगाने हैं। सो गर्लफ्रेंड ने वो दिन ला दिया। लगता है करण राजदान फायर का अंजाम भूल गये जो उसी नारी जात को बिस्तर में आपस में ही गुड़मुड़ी होते दिखा दिया, जो घर के मंदिर में सजाने लायक है, हफ्ते में दो-तीन बार लात-घूंसे मारने लायक है और मायके से हीरो होंडा न मंगा कर दे तो जला देने लायक है।करण राजदान अगर अपनी फिल्म का नाम गर्लफ्रेंड न रख हाथी मेरे साथी की तर्ज पर सखि मेरी साथी रख देते तो तालाब के ठहरे पानी का ठहराव कायम रहता, पर अब तो गली-कूचों से लहरें उठ रही हैं। राजकपूर ने 25 साल पहले, जी हां 25 साल पहले सत्यम शिवम सुंदरम जैसा दैवीय नाम दे कर जीनत अमान को परोसा था कि नहीं, 21 साल पहले राम तेरी गंगा मैली में गंगा की जगह मंदाकिनी को उघाडा¸ था कि नहीं। जिस्म, ख्वाहिश, पाप, मर्डर जैसी फिल्मों में धीरे से जाना बगियन में गाया जा रहा था क्या! जी नहीं, मामला ठेठ स्त्री -पुरुष का था, और वो जो चाहे करें सब माफ है। फिल्म का नाम गर्लफ्रेंड देख कुछ और ही लालसा से हाल में प्रवेश कर लिया, निकली फायर से भी बदजात। केवल यही न कि दो सहेलियां एक दूसरे का अकेलापन बांटते हुए शारीरिक सम्बंध बना लेती हैं। उनमें से एक को अपनी सखि का पुरुष का संगसाथ सहन नहीं, जिसका गुस्सा वह बंबइया स्टाइल में उतारती है और मारी जाती है। बाकी फिल्म में उतना ही दिखाया गया है जितनी अनुपम खेर ने इजाजत दी होगी। अपनी बात कहने का तरीका भले ही शास्त्रिय किस्म का न हो पर, फिल्म ठीक सी ही बनायी है करन राजदान ने। बाकी हल्ला मचाने वालों को एक मेडिकल बोर्ड गठित कर उसके सदस्यों से स्त्रियों के आपसी संबंधों पर उनकी राय जाननी चाहिये, जिसका सम्बंध सिर्फ मनोविज्ञान से है, किसी सभ्यता या संस्कृति से तिनका भर भी नहीं।
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