बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

चुनाव कवरेज में मीडिया की चुनौतियां

राजीव मित्तल
इस बार के चुनावों ने मीडिया को काफी हद तक उधेड़ कर रख दिया है चाहे वो इलेक्टॅनिक हो या फिर प्रिंट। जहां तक चुनावों में विज्ञापन के जरिये कमाई का सवाल है, वो कोई नया नहीं है, लेकिन इस बार वैश्विक मंदी के चलते यह खेल जरा खुल कर हुआ और कई चैनल और अखबार इस मुद्दे पर सुर्खियों में छाये। लेकिन सच्चाई यह भी है कि जैसे-जैसे बाजार का खेल हावी होता जा रहा है, चुनाव में पैसे का बोलबाला मीडिया के एक बड़े हिस्से की संलिप्तता को बढ़ाएगा ही कम नहीं करेगा। कई अखबार और कुछ चैनल नियम-कानून बना कर चुनाव में पैसा कमाएंगे। तो बाकी अराजक हो कर। अब हम यहां उन अखबारों की भी बात करें जिनसे जुड़े वरिष्ठ पत्रकारों ने चुनाव में मीडिया के भ्रष्ट होने के खेल का खुलासा भगवत् गीता के अंदाज में किया और हाय-हाय कर मातम मनाया। और वे यह भी जताने से नहीं चूके कि उनका दामन हमेशा कितना उजला रहा है। ये वही अखबार और सम्पादक हैं जिन्होंने 89 के चुनावों में वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बनाने के लिये कोई कसर नहीं उठा रखी थी। हरियाणा के देवीलाल और हिमाचंल के वीरभद्र सिंह उनके लिये देवता से कम नहीं हुआ करते थे। चंद्रशेखर उनके लिये सबसे बड़े समाजसुधारक थे। वीपी सिंह की एक मुद्रा को तो बाकयदा इस तरह पेश किया गया था जैसे वर्धा आश्रम में बैठे महात्मा गांधी। सवाल यह है कि सरकार गिराने और सरकार बनाने का गर्व पाल कर आज से 20 साल पहले क्या वो खेल कम घिनौना नहीं था, जो आज मीडिया को शुचिता का पाठ पढ़ाया जा रहा है। जब पूरी व्यवस्था ही भ्रष्ट है तो इससे मीडिया अछूता कैसे रह सकता है। जहां तक भारतीय चुनाव प्रणाली का सवाल है, तो उसका घटियापन तो आजादी से 10 साल पहले 1936 के चुनावों में ही सामने आ गया था। आजादी के बाद शुरू हुआ चुनावों का सिलसिला उस घटियापन को आगे ही बढ़ाता चला गया। फर्क सिर्फ मिकदार का है। पहले के पत्रकार जिस काम को मिशन का चोला पहन कर करते थे, आज के पत्रकार उस काम को पेशेवर अंदाज में कर रहे हैं। कई पत्रकार तो सत्ता की दलाली कर पूंजीपति की हैसियत पा गये हैं। जब पत्रकारिता में आने का सबब एक हनक कायम करना हो, मैं इस जाति का हूं का ठसका लगा कर काम करना हो, उस जाति से जुड़ा नेता कितना भी भ्रष्ट क्यों न हो, उसका यशोगान ही धर्म बन जाए तो चुनाव क्या, मीडिया की कैसी भी कवरेज चुनौती के दायरे में नहीं आती। 21वीं सदी के भारत में इन्हीं सब का बोलबाला है। पत्रकार देने वाले संस्थान जब तक इन मुद्दों को अपना हथियार नहीं बनाएंगे, पत्रकारिता का पेशा इन सबसे अलग नहीं हो सकता।

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