बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

85 हत्याएं 121 लूट

राजीव मित्तल
हत्या और लूट के ये आंकड़े मार्च-अप्रैल के हैं और पश्चिमी उत्तरप्रदेश के हैं। हत्या और लूट की यह रफ्तार तब है जबकि सारा देश लोकसभा चुनाव के माहौल में उठ-बैठ रहा है, चल-फिर रहा है। हत्या और लूट का यह जमावड़ा स्वस्फूर्त है। चुनावी रंजिशों से इसका कोई लेना-देना नहीं। वैसे भी इस चुनावी महापर्व में पश्चिम उत्तरप्रदेश की आम जनता ही नजर नहीं आ रही है। उसे तो यही नहीं सूझ रहा कि वह वोट किसे दे और क्यों दे। घोषणापत्र प्लास्टिक कचरा सरीखा बन कर रह गये हैं। हर शनिवार को सरसों के तेल के डिब्बे में शनिदेवता को टिका कर पैसा मांगने वालों जैसा हाल है यहां के नेताओं का। किसी के पास जनता को देने के लिये कुछ नहीं है। पूरे क्षेत्र के उद्योग-धंधों को अपराध की काली छाया ने ढंक लिया है। व्यापारियों से रंगदारी वसूलना आम बात हो गई है। न दें तो हत्या। और अब वे आंदोलन पर आमादा हैं। बेवक्त की बारिश ने किसान पर समस्याओं का पहाड़ खड़ा कर दिया है। गेहूं की पकी-पकायी फसल खेतों में दम तोड़ रही है। भरपूर होती दिख रही आम की फसल को कीड़े और रोग चर रहे हैं। इस इलाके को समृद्धि देने वाला गन्ना किसानों के लिये दुखदायी हो चला है। भूगर्भ जलस्तर और प्रदूषण खतरनाक स्तर पर जा पहुंचा है। पश्चिम उत्तरप्रदेश का अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त एजुकेशन हब (मेरठ) अभिभावकों के शोषण का जरिया बन कर रह गया है। छात्र परेशान घूम रहे हैं। पूरे वेस्ट में बिजली की सप्लाई और डिमांड में अंतर इतना बढ़ गया है कि मई-जून की सोच कर कंपकंपी छूट रही है। पश्चिमांचल विद्युत वितरण निगम ने सभी किसानों के नलकूपों की हार्स पावर बढ़ा दी है लेकिन उसके हिसाब से ट्रांसफार्मरों की क्षमता नहीं बढ़ाई। इस वजह से ट्रांसफार्मर फुंक रहे हैं और विभाग के कारिंदों की जेबें फूल रही हैं। मेरठ,मुजफ्फरनगर,सहारनपुर,गाजियाबाद जैसे शहरों में ट्रैफिक सिस्टम पूरी तरह चौपट हो चुका है। वाहनों की बढ़ती तादाद के मुकाबले सड़कों की चौड़ाई कम पड़ रही है। जनता की इन परेशानियों से पूरी तरह बेखबर राजनीतिक पार्टियों का चुनावी शोर एक तरह से मतदाता को चिढ़ा रहा है। मतदाता कोऊ नृप होए हमें का हानि वाले सिद्धान्त पर चल रहा है, तो नेताओं को भी मतदाताओं की खास परवाह नहीं। राजनीतिक पार्टियों ने पहले ही टिकट वितरण में पूरी तरह धनबलियों को तरजीह दे दी है। कोई भी करोड़पति से नीचे नहीं है। कई तो अरबपति हैं। जातीय एवं धार्मिक गणित के हिसाब से गोटियां बिठा ही ली गई हैं। चमचों की जमात और बेरोजगार युवाओं को जुटाकर काम चलाया जा रहा है। अब तो साइलेंट बूथ कैप्चरिंग का जुगाड़ करना है। अपने ही कार्यकर्ताओं और समर्थकों को दूसरी पार्टियों का एजेंट कैसे बनवाया जाए इसके तरीके तलाशने हैं। वैसे भी वेस्ट की अधिकतर सीटों पर लोकसभा चुनाव में मतदान कभी 55 प्रतिशत के पार नहीं गया। यानी 45 प्रतिशत मतदाताओं ने तो हमेशा चुनावी व्यवस्था को नकारा ही है।

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