राजीव मित्तल
पहले चिड़ियाघर टाइप के शहरों में किसी भी मुहाने पर एक लम्बी सी सड़क नामुदार हो जाया करती थी, जिसके इस किनारे पर अमलतास और उस किनारे पर गुलमोहर की कतार सुबह घूमने वालों के स्वागत में मुस्तैद रहती थीं। सड़क पर दो-चार स्कूटर या एकाध कार की आवाज से घूमने वालों के उत्साह में कोई फर्क नहीं पड़ता था। ऐसी सड़क मंत्रिओं के बंगले के सामने से जरूर निकलती थी, साज-सज्जा की धज भी कलफ लगे कुर्ते की तरह कड़कड़ाती थी। लेकिन अब सब बदल गया। मंत्री का बंगला एक तरह से हाईवे पर आ गया, जिन पर बसों और ट्रकों की ही सत्ता है। सात देवी और सात देवताओं को जेब में रखने वाले मंत्री जी इस सत्ता के आगे बेबस हैं तभी तो उन्होंने अपने घूमने के लिये एक शांत, प्राकृतिक और आस्था जगाने वाली जगह का अविष्कार किया है। इस मामले में वह कोलम्बस नहीं बल्कि वास्कोडिगामा साबित हुए, जो भारत के लिये निकला तो सीधे केरल के तट के किनारे पड़ी हल्दी की गांठ पर ही लंगर बांधा, न कि कोलम्बस की तरह अमेरिका में भटकता रहा और एक बड़े तबके को बेवजह इंडियाना बना दिया। तो हमारे आधुनिक वास्कोडिगामा ने, जिसकी आत्मा में एक अदद मंत्री बैठा है सुबह की ऑक्सीजन सपोड़ने और कार्बनडाईआक्साइड बेतकल्लुफ होकर बाहर करने के लिये बड़ा ही मौजूं स्थान तलाशा है, जिसे अभी तक तो चिड़ियाघर कहा जा रहा है, हो सकता है कुछ समय बाद वह मंत्री विचरणालय कहलाने लगे। मंत्री जी चिड़ियाघर को क्या दे रहे हैं या वहां से क्या हासिल कर रहे हैं, इसमें जाये बगैर इतना तो जरूर कहा जा सकता है कि उनकी सुबह की इस सैर ने अपने-अपने जंगलों या पिंजरों से झांकते शेरों, भालुओं, बंदरों, ऊदबिलावों, पानी में तैरती मुर्गाबियों, किसी शाख पर अटके लंगूरों, विभिन्न प्रकार के पक्षियों, रेंगने वालों, तैरने वालों, कुदक्कड़ी लगाने वाले भांति -भांति के इन नश्वर सांसारिक जीवों को जीने का मकसद दे दिया है। दस से पांच की ड्यूटी में जो हर उम, हर लिंग और हर किस्म के इंसान के लिये अजूबा बने रहते हैं, वे डूब रहे शुक्र के तारे के समय एक ऐसे जोरदार अजूबे से दो-चार होते हैं , जो दिन भर अपने अजूबे बने रहने का गम भुला देता है।
उन्हें रोज सुबह देखने को मिलता है कि सामने से हूं-हूं, हां-हां की आवाज निकालते पांच -छह लोग चले आ रहे हैं। जो सबसे आगे चल रहा है उसी की चाल में बाकी लोग भी चल रहे हैं। जो आगे चल रहा है वह बीच-बीच में एकाएक चिल्ला उठता है भारत माता की, बाकी उससे भी तेज आवाज निकालते हैं-जय। हमारा नेता कैसा हो? यहां पर आप और हम भले ही कन्फ्यूज हो लें पर वे लोग नहीं हैं, उन्हें मालूम हो कि उनका नेता कैसा है। लेकिन यह दोनों आवाजें कभी-कभार ही पिंजरे से झांकते जन्तुओं के कानों में पड़ती है। अक्सर तो कानों में यही सुनायी पड़ता है-बंदूक में गोली ठीक से भरी है कि नहीं, आज की फ्लाइट से दिल्ली जाना है, वह पत्रकार बहुत-उल्टा-सीधा लिख रहा है, ठीक करना है साले को। गांव में बुड्ढे-बुढ़िया की मूर्ति लगी कि नहीं। आज मुख्यमंत्री जी के यहां पंडित जी को लेकर जाना है, कोई ग्रह बहुत परेशान कर रहा है सरकार को। बातचीत का दायरा इससे ज्यादा नहीं फैलता। असली काम तो ऑक्सीजन और कार्बन को पाने और झटकने का है न! ऐसे ही नजारे वाले एक दिन एक जिराफ ने अपनी लम्बी गर्दन जेबरे के अहाते में डाली और पूछा, राष्ट्रपति शासन वाले इलाकों में चिड़ियाघर में सुबह क्या होता है जेबू? जवाब मिला- तब ये काम अफसर करते हैं जेरू।
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