शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

1857 की बगावत में बंगाल आर्मी

अंग्रेजों ने रूस की लाल क्रांति से एक सौ साठ साल पहले ही भारत में लाल पलटन बना कर अपनी जड़ खोदने की तैयारी कर ली थी, लेकिन भारत की मिट्टी में जन्मे लाल पलटन के जवानों ने अंग्रेजों के दिए हथियारों को माथे से छुआ उन्हें माई-बाप बना लिया। और उनके लिए अनवरतलड़ते रहे-खून पसीना बहाते रहे। दुनिया के किसी भी खुद्दार देश में अगर स्वदेशियों की इतनी बड़ी फ़ौज होती....होती नहीं बल्कि किसी भी कारण से तैयार की जाती तो वो पांच साल के अन्दर विदेशियों को भगा कर अपना देश आज़ाद करा लेती......लेकिन इस देश में ऐसा नहीं हुआ....अंग्रेजों ने उस लाल पलटन को बंगाल आर्मी का नाम देकर सौ साल के अन्दर पूरे भारत को अपने कब्ज़े में कर लिया। और बंगाल आर्मी ने भी वफादारी दिखाने में कोई कोताही नहीं की....वो हर उस इंसान और उसकी सोच से लड़ी, जो आज़ाद पसंद था।

बंगाल आर्मी ने अंग्रेजों के ज़ुल्म-ओ-सितम के खिलाफ हुई हर बग़ावत को बुरी तरह कुचला....देश के अन्दर भी और देश के बाहर भी.......मंगल पांडे इसी बंगाल आर्मी की चौंतीसवीं नेटिव इन्फैंट्री के जवान थे, जिन्होंने उनतीस मार्च को गुलामी से पीछा छुडाने के लिए नहीं .......कारतूस में गाये या सूअर की चर्बी को मुद्दा बना कर जुनून में अपनी जान गँवा दी.......लेकिन उनके इस जुनून ने इस देश को कितना बड़ा नुक्सान पहुंचाया, इसको समझने के लिए खाली-पीली का राष्ट्रवादी होने और रोज़ दिन में है पचास बार जय हिंद------भारत माता की जय -----या वन्दे मातरम् कहने से काम नहीं चलेगा........या मंगल पण्डे की शहादत के गौरव से लिथड़े दिमाग को केवल पोंछ देने से काम चलेगा.......शायद आगे कभी अपनी बात समझा पाऊँ....अभी बंगाल आर्मी की केमेस्ट्री पर बात करें..........




राजीव मित्तल

चर्बी वाले कारतूसों के चलते मंगल पांडे की बगावत और फिर शहादत की वजह से 1857 के विद्रोह में बेहद चर्चित बंगाल आर्मी ईस्ट इंडिया कम्पनी की सबसे महत्वपूर्ण सैन्य वाहिनी थी, जिसने सौ साल के अरसे में अंग्रेज कम्पनी के करीब 16 बड़े आक्रामक अभियानों में महत्वपूर्ण हिस्सेदारी निभायी थी।

1757 की गर्मियों में प्लासी के आम के बाग में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के खिलाफ निर्णायक युद्ध में उतरे रॉबर्ट क्लाइव ने मद्रास से सैन्य मदद मिलने में हो रही देरी से आज़िज आकर तुरत-फुरत भारतीय जवानों को इकट्ठा कर जो टुकड़ी तैयार की, उसका नाम रखा गया लाल पलटन, क्योंकि सभी धोतीधारी सैनिकों के शरीर पर चढ़ाये गये थे फ्राकनुमा लाल कोट। एक चलताऊ कमांडर, उसका एक सहयोगी, 10 सूबेदार, 30 जमादार और 820 सैनिकों वाली इस प्रथम देसी टुकड़ी में मुसलिम, पठान, रोहिल्ला और राजपूतों की ही अधिक संख्या थी।


कुछ मिनट या कुछ घंटे चले इस युद्ध में ( जो हारा तो पहले ही जा चुका था.....लेकिन खेल भी तो खेलना था) पचास हजार पैदल और 20 हजार घुड़सवार की लम्ब-तड़ंग फौज के बावजूद सिराजुद्दौला के रिश्ते में चचा मीर जाफर ने गद्दारी कर इस आम के बगीचे में अपने नवाब और भारत दोनों की किस्मत बंगाल की गद्दी मिलने के लालच में बेच खायी। यह लड़ाई जीतने के बाद क्लाइव ने इस लाल पलटन को भारी-भरकम सैन्य वाहिनी का रूप देने की शुरुआत की।

बंगाल आर्मी नामधारी इस सैन्य वाहिनी की खासियत यह थी कि इसमें बंगाली इक्का-दुक्का ही थे। मुख्यतया पठानों और रोहिल्ला सैनिकों वाली बंगाल आर्मी में भर्ती होने की लालसा कुछ समय बाद सबसे ज्यादा बिहार के भोजपुर और पूर्वी उत्तरप्रदेश के आजमगढ़, बलिया और गाजीपुर वगैरह के युवकों ने दिखायी।


कुछ और समय बीतने पर हिन्दु जाटों का भी रुझान बढ़ा। ईस्ट इंडिया कम्पनी की मद्रास कोर के कैप्टेन रिचर्ड नॉक्स बने इस देसी पलटन के प्रथम कमांडिंग ऑफिसर। कम्पनी की इस पहली देसी पलटन को ब्रिटिश रॉयल आर्मी की तर्ज पर बटालियन का जामा पहनाया गया। प्लासी की लड़ाई के बाद बेहद दूरदर्शी और शातिर दिमाग वाले रॉबर्ट क्लाइव ने कई और बटालियन बना डालीं। 1759 में मद्रास में ही छह और इतनी ही बम्बई प्रेसीडेंसी में। इन बटालियनों में उसने मुसलिम अरब, अफ्रीकी अबसीनियाई और मराठाओं को भरा।

अगले सौ साल में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने देसी राजाओं, पश्चिमी सीमा प्रांत या दूसरे देशों में जितनी लड़ाइयां लड़ी, उन सभी में क्लाइव की बनायी इन बटालियनों ने खुल कर हिस्सा लिया। और करीब-करीब सभी में जीत हासिल की। लेकिन कम्पनी के कर्ता-धर्ताओं ने काफी सोच-विचार कर कई दशकों तक अपनी देसी बटालियनों में भारत की उस सबसे लड़ाकू जाति को झांकने भी नहीं दिया, जिसे चेनाब (पंजाब) का जाट कहा जाता था।


इस तरह कुछ ही बरसों में प्लासी का युद्ध जिताने वाली बंगाल आर्मी ईस्ट इंडिया कम्पनी का सबसे बड़ा हथियार बन गयी। 1764 में बक्सर का युद्ध बंगाल आर्मी के बल पर ही कम्पनी ने जीता। इस युद्ध में एक तरफ थे बंगाल का नवाब मीर कासिम, अवध का नवाब शुजाउद्दौला और मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय। इन तीनों की मिलीजुली सेना में करीब एक लाख सैनिक थे। जबकि कम्पनी की फौज में एक हजार गोरे और आठ हजार देसी सैनिक और करीब एक हजार की संख्या उन सैनिकों की, जो मुगल फौज छोड़ कर आए थे।

इस युद्ध को जीतने वाला कम्पनी की फौज का कमांडर वही हैक्टर मुनरो था, जिसे 1780 के मैसूर युद्ध में हैदर अली ने बुरी तरह हराया था।

1764 में ही बंगाल आर्मी की एक यूनिट में पहली बार विद्रोह की ज्वाला फूटी थी। आठ सितम्बर को मांजी में सैनिकों ने अपने अफसरों को पकड़ कर बांध दिया था।
छठी बंगाल नेटिव इन्फैन्ट्री के बल पर बगावत कुचल दी गयी और मुनरो ने कोट मार्शल कर करीब 20 फौजियों को तोप से उड़ा दिया। अंग्रेजों ने बागियों को दंड देने का यह तरीका मुगलों से हस्तगत किया था।

इस दौरान गोरों की बटालियनों में भी यदाकदा बगावती स्वर उभरते रहते। ऐसा करने वाले वे जवान होते थे, जिन्हें इंग्लैंड से जबरदस्ती यहां भेजा जाता था। उन्हीं में एक सैनिक फ्लेचर नाम का था, जिसे 1766 की एक वारदात के बाद रॉबर्ट क्लाइव ने जान से मरवाना चाहा था। वही फ्लेचर आगे चल कर ब्रिटिश पार्लियामेंट का सदस्य बना और फिर मद्रास आर्मी का सुप्रीम कमांडर बन कर दोबारा भारत आया।

1764 तक बंगाल आर्मी एक कोर की हैसियत ले चुकी थी, जिसमें सात हजार यूरोपियन और 57 हजार भारतीय थे। बक्सर युद्ध के बाद रॉबर्ट क्लाइव ने अवध, राजपूताना और पंजाब के मुसलिमों से लदी-फंदी बंगाल आर्मी का स्वरूप बदलना शुरू किया। अब उसने भर्ती में अवध के ब्राहमणों और हिन्दु राजपूतों पर खासा ध्यान दिया। इसके चलते मुसलिमों की भर्ती का ग्राफ गिर कर 20 फीसदी पर आ गया। भर्ती में हिन्दुओं की तादाद बढ़ने का प्रमुख कारण था बंगाल प्रेसीडेंसी के इलाकों की आबादी हिन्दु बहुल होना।

फिर कम्पनी ने भारत भेजा प्रथम गवर्नर जनरल के रूप में वारेन हेंस्टिंग्ज को। भारत आने के थोड़े ही अरसे बाद उसने सन 1774-75 में सबसे पहले अवध सल्तनत के बनारस इलाके को हड़पा। बनारस के कम्पनी का अंग बनते ही उसके आस-पास के इलाकों के सैंकड़ों ब्राह्मण और राजपूत बंगाल आर्मी की ओर खिंचने शुरू हो गये। 1801 में कम्पनी ने देशी राजाओं के इलाकों को हड़पने का अभियान तेज कर दिया और गंगा-जमुना दोआब, रुहेलखंड और गोरखपुर के काफी हिस्से पर कब्जा कर लिया।


सघन आबादी वाले इस क्षेत्र से उसे सैनिकों की कोई कमी ही नहीं रह गयी। जैसे-जैसे कम्पनी के पैर भारत में फैलते गये बंगाली आर्मी का विस्तार होता गया। अपनी अन्य फौजों के मुकाबले बंगाल आर्मी को मजबूत बनाने के पीछे कम्पनी का मकसद था उस खतरे से निपटना, जिसके संकेत 1803 के बाद उसे पंजाब के सिखों और अफगानों को लेकर मिलने लगे थे। इसी के चलते 1805 के बाद बंगाल आर्मी की काया मद्रास और बम्बई आर्मी के मुकाबले विशाल होती गयी और अंग्रेज अगले कई सैन्य अभियानों में पूरी तरह बंगाल आर्मी पर ही निर्भर होते गये।

1764 में बक्सर युद्ध के नतीजे ने बंगाल आर्मी का कायाकल्प ही कर डाला और उसने मराठाओं के खिलाफ 1778-82 और 1803-1805 के दो युद्धों, 1774 में रोहिल्ला युद्ध, 1782 से शुरू हुईं हैदर अली और उसके बेटे टीपू सुलतान के खिलाफ तीन लड़ाइयों, 1814-1816 एंग्लो-नेपाल युद्ध, 1824-1826 के दौगान लड़ी गयी बर्मा से पहली लड़ाई, 1839-1842 के बीच अफगान युद्ध, 1843 में सिन्ध पर कब्जा, 1845-1846 का सिखों से पहला युद्ध, सिखों से ही 1848-1849 के दौरान दूसरी लड़ाई, 1852 में बर्मा के खिलाफ दूसरा युद्ध और 1849 से लेकर 1857 तक पश्चिमी सीमा प्रांत में कबायलियों के खिलाफ हर मोर्चे पर अंग्रेजों के मुकाबले ज्यादा हौसले और वीरता का प्रदर्शन किया।


बंगाल आर्मी ने अपना जहूरा देश या पास-पड़ौस में ही नहीं बल्कि विदेशी धरती पर भी बखूबी दिखाया। 1791 में मलेशिया, 1801 में मिस, 1808 में मकाओ, 1811-13 में जावा के अभियानों में बंगाल आर्मी ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया।

अब मुख्य बात पर आया जाए कि 1857 की बगावत में अंग्रेज कम्पनी की इस प्रमुख सैन्य वाहिनी की भमिका क्या रही। इतना तो तय है कि करीब पौन लाख जवानों वाली इस आर्मी, जिसमें भर्ती अवध के जवानों ने काबुल, नेपाल, पंजाब और कोहाट के युद्धों में अपने ही लोगों के खिलाफ जबरदस्त वीरता का प्रदर्शन किया था , जिसके एक जवान ने 1857 के मार्च के महीने में कम्पनी की नीतियों के खिलाफ झंडा बुलंद कर अपने गोरे अंग्रेज अफसरों पर तलवार चलायी, उन पर गोलियां दागीं और फिर फांसी पर चढ़ गया, उसी वाहिनी की एक यूनिट मेरठ में अंग्रेजों का कत्ल कर बहादुर शाह जफर को नेतृत्व प्रदान करने के लिये ललकारने को दिल्ली पहुंचने में सबसे आगे थी, जगह जगह इसके जवान तोपों से बांध कर उड़ा दिये गये.....लेकिन बंगाल आर्मी ने अपने पूरे स्वरूप में आजादी के प्रथम संग्राम में उस गुर्दे के साथ एकजुट हो कर हिस्सा नहीं लिया कि जिस से अंग्रेज देश छोड़ कर भाग जाते।

इसका प्रमुख कारण रहा भारतीयों के मन में राष्ट्र की अवधारणा का सिरे से अभाव। इससे बंगाल आर्मी भी अछूती नहीं थी। इसके अलावा 1757 से 1857 की सौ साल की अवधि में अंग्रेज इस देश में जातिगत काट-फांट काफी कर चुके थे। उनके दिल यह भावना अंदर ही अंदर खदबदाती जरूर थी, लेकिन उबल कर बाहर नहीं आती थी। बग़ावत के दौरान अंग्रेजों की छावनी से निकलते ही जाति का जोम सिर पर चढ़ कर बोलने लगा। और बीसियों युद्धों का अनुभव रखने वाले जवान भले ही व्यक्तिगत शूरता दिखलाते रहे हों, लेकिन देश की आजादी के लिये सामूहिक वीरता दिखाने में नाकाम रहे। उलटे 1857 की बगावत को कुचलने के बाद अंग्रेजों ने अवध और भोजपुर पर भरोसा त्याग सेना की भर्ती में पंजाब और नेपाल की ओर रुख किया।

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