शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

ना रही दश्त में खाली कोई जा मेरे बाद

राजीव मित्तल
सआदत हसन मंटो ने विभाजन के तुरंत बाद पाकिस्तान जाने से पहले करीब 12 साल एक लेखक के रूप में आज के बॉलीवुड में गुजारे थे। उस दौरान उन्होंने उस समय के माहौल और सिनेमा से जुड़ीं कई हस्तियों पर बड़े रोचक अंदाज में कलम चलायी, जिसे पढ़ कर आज भी लुत्फ आता है। मंटो का लेखन आज की तरह का साक्षात्कार वाला या महानायक के साथ एक दिन टाइप का नहीं था, बल्कि दूधिये से पानी मिला दूध देने की शिकायत करती नसीम बानो, अपने समय के प्रतापी निर्माता अर्देशिर ईरानी के खस्ता दिनों में मंटो का उनसे अपनी तन्ख्वाह के लिये गिड़गिड़ाना, प्राण और श्याम की कुलदीप कौर से तकरार भरी उन्सियत, अशोक कुमार का दंगों के दिनों में बेधड़क मुसलिम बस्ती में घुस जाना- इन शब्द चिμाों में बेहद गरमाहट थी। धुनों की याμाा भी करीब-करीब उसी दौर से शुरू होती है, पर यहां इतिहास है फिर भी जो कतई बोझिल नहीं है। पिछली शताब्दी के 40 के दशक से लेकर 2005 तक की संगीत की दुनिया में पाठक को ले जाने वाले पंकज राग को मंटो वाला संस्मरण सुनाने का लाभ था भी नहीं। उस समय के संगीतकारों को सामने लाने का जुनून था, जो 15 साल तक उन्हें यहां से वहां दौड़ाता रहा। तब कहीं जा कर वे धुनों की याμाा हमारे सामने रख पाए हैं।
अर्देशिर ईरानी की 14 मार्च 1931 को प्रदर्शित पहली बोलती फिल्म आलमआरा के तबले की एक जोड़ी और हारमोनियम से शुरू हुए इस सफर को वर्तमान में कई वाद्ययंμाों की धुनें निकाल देने वाले सिंक्रोजियन तक नाप डाला है पंकज राग ने। अपने इस सफर में पंकज ने हर उस शख्स को हमारे सामने लाने की पुरजोर कोशिश की है, जिसने अपनी पहचान संगीत निर्देशक के रूप में बनायी-सफल या असफल चाहे जिस रूप में। उन्होंने हमारा परिचय ऐसे अनेक नामों से कराया, जो शायद हमें कभी सुनने को नहीं मिलते। ‘यह फलाने वह ढिमाके’ वाले टालू अंदाज में नहीं कराया गया है यह परिचय, बल्कि जहां तक हो सका पंकज ने इतिहास की गर्त में खो चुकीं ऐसी कई शख्सियत को बाकायदा महफिल में बिठा कर उनका तवारुफ हमसे कराया है और जो महफिल में नहीं आ सके, उन्हें ‘पान की दुकान’ पर मिलवा दिया। उन शख्सियत की रवायतों, उनके कला पक्ष, उनकी सामाजिक पैठ, किस-किस ने उनकी मदद की और किस-किस ने उन्हें कहीं का न छोड़ा, उनके जुनून, उनकी सफलता, उनकी विफलता और भारतीय संगीत को कम या ज्यादा जैसा भी उनका योगदान, इन सारी बातों का खुलासा है इसमें। कुल मिला कर पंकज ने हमें शुष्क एनसाइक्लोपीडिया न दे कर एक धड़कते संसार से मिलवाया है। जिनके बारे में वह बहुत छानबीन कर भी कुछ हासिल न कर सके, उनके बारे में उन्होंने अपनी भूमिका में ही लिख दिया है-कई गुमनाम संगीतकारों के जीवन के बारे में तो जानकारी का सर्वथा अभाव ही रहा- ऐसे संगीतकारों का वह केवल नाम भर ही दे पाए। धुनों की याμाा की एक विशेषता यह भी है कि इसमें हर पाये के संगीतकार अपने पूरे आर्केस्ट्रा के साथ हमारे सामने आते हैं। उनकी धुनों में पिरोये गये गानों को कैसे गाया गया, किसने गाया, किस मूड में गाया, गाना किस राग में था और उस गाने में किस-किस वाद्य का इस्तेमाल हुआ-इसकी जानकारी भी पंकज हमें देते हैं। पंकज ने इस सफर में कई पड़ाव रखे हैं, हर पड़ाव में एक बगिया है, जिसमें संगीत फूलों की तरह बिखरा हुआ है। हर पड़ाव की अपनी एक अलग ही फुलवारी है और हर फुलवारी में हर फूल की अपनी छटा। एक समय विशेष में फिल्मी संगीत की क्या मनोदशा थी, या उस समय देश किस मनोदशा से गुजर रहा था, एकाएक कौन सा ऐसा शख्स आ गया, जिसने पिछले सारे प्रतिमान ध्वस्त कर अपना एक अलग ही संसार रचाया, इन सबसे दो-चार होना एक जबरदस्त अनुभव है।
आलमआरा के बाद मीनाकुमारी के पिता मास्टर अली बख्श से लेकर नरगिस की मां जद्दनबाई, प्राणसुख नायक, बृजलाल वर्मा, गोविंद राव तेम्बे और पियानो, हवाइयन गिटार तथा वॉयलिन जैसे वाद्ययंμाों का खजाना लेकर केशवराव जैसे कई नाम हैं।
1931 में ही सेठ चंदूलाल शाह (प्रख्यात संगीतकार स्व. मदनमोहन के पिता) की फिल्म कम्पनी रणजीत मूवीटोन से जुड़े उस्ताद झंडे खां। इनकी मशहूर फिल्मों में है चिμालेखा (1941)। इनकी सरपरस्ती में काम करने वालों में नौशाद, गुलाम मोहम्मद, हेमंत कुमार और श्याम सुंदर जैसे बड़े नाम तो हैं ही, बेगम अख्तर और मास्टर निसार ने भी संगीत की शिक्षा इन्हीं से ली थी।
सोहराब मोटी के मिनर्वा मूवीटोन से अपने समय के दिग्गज संगीतकार मीर साहब जुड़े। जेलर और पुकार और सिंकदर जैसी फिल्मों में मीर साहब ने ही संगीत दिया था। इस दौर में करीब 25-30 और संगीतकार फिल्मी दुनिया में आए। सब अपने-अपने फन के उस्ताद थे। लेकिन कमी थी वैविध्यता की। इसे दूर किया बंगाल के आरसी बोराल ने। उनके पास शास्μाीय संगीत के अलावा रवींद्र संगीत और लोकगीतों का भरपूर खजाना था। पाश्र्व गायन के जनक भी बोराल ही थे। वाद्य यंμाों से साउंड इफैक्ट देने की शुरुआत भी बोराल ने ही की थी। मोहब्बत के आंसू (1932) में बोराल के संगीत निर्देशन में कुंदन लाल सहगल की आवाज पहली बार सामने आयी।
चालीस के दशक के सबसे ज्यादा लोकप्रिय संगीतकार पंकज मल्लिक को तो लोग आज भी नहीं भूले हैं। बोराल के सहायक रहे मल्लिक के संगीत निर्देशन में पहली फिल्म 1933 में आयी यहूदी की बेटी। पाश्चात्य संगीत के माहिर पंकज मल्लिक ने सहगल से ऐसे कई गाने गवाए, जो आज भी दिल को भाते हैं। मल्लिक खुद बहुत अच्छे गायक थे। उनका गाया ये रातें ये मौसम तो सार्वकालिक लोकप्रियता लिये है।चालीस के ही दशक में कई अच्छे संगीतकार हुए, इनमें तीन प्रमुख हैं तिमिर बरन, केसी डे और अनिल विश्वास। इन सब में अनिल विश्वास आज भी बेहद परिचित नाम है। अपने वक्त की बेहद-बेहद लोकप्रिय फिल्म किस्मत का धीरे आ रे बादल धीरे-धीरे जा की एंद्रीयता आज भी लुभाती है। तलत महमूद और मुकेश जैसे बेमिसाल गायकों को सामने लाने वाले अनिल विश्वास अंत तक कर्णप्रिय बने रहे। पचासवां दशक फिल्म संगीत के हिसाब से बेहद समृद्ध रहा। गुलाम हैदर, खेमचन्द प्रकाश, नौशाद, सी. रामचंद्र, सज्जाद हुसैन, हुस्नलाल भगतराम और राम गांगुली जैसे कई आला दर्जे के संगीतकार हमारे सामने आते हैं। इस दौर के कम से कम 40 संगीतकार और हैं, जिन पर धुनों की याμाा में काफी सामग्री है।
गुलाम हैदर ने ही पहले-पहले लता मंगेशकर की आवाज का इस्तेमाल हिंदी फिल्मों में किया था। लता से अपनी फिल्म में न गवाने पर एस. मुखर्जी से गुलाम हैदर ने स्पष्ट कह दिया था कि आगे चल कर आप सब इस आवाज के पीछे दौड़ते नजर आएंगे। उनकी खंजाची, चल-चल रे नौजवान, मजबूर और दिलीप कुमार वाली शहीद चर्चित फिल्म हंै। कई अच्छी धुनें देने के बाद वह पाकिस्तान चले गये।महल की ऐतिहासिक सफलता में खेमचन्द प्रकाश का बहुत बड़ा हाथ है। किशोर कुमार को ब्रेक देने वाले खेमचन्द्र प्रकाश ही थे।
इस दशक के संगीतकारों में जो सफलता आगे चल कर नौशाद को मिली, वह किसी को नसीब नहीं हुई। लखनऊ के नौशाद को काफी भटकने के बाद मौका मिला 1942 की फिल्म शारदा में। उसके बाद की रतन, अनमोल घड़ी और शाहजहां नौशाद की अविस्मरणीय फिल्में हैं। सहगल से आखिरी गाना नौशाद ने ही गवाया था। मोहम्मद रफी और मुकेश उनके प्रिय गायक थे। तलत जैसे गायक से लेकिन उनकी नहीं पटी और बाबुल के बाद उनके साथ तलत कभी नजर नहीं आए। पंकज राग के साथ बातचीत में जब यह बात उठी कि क्या नौशाद जैसा संगीतकार जल्दी नहीं चुक गया, तो पंकज राग ने बेहद मार्के की बात कही कि नौशाद का केवल रफी पर ही निर्भर रहना ठीक नहीं रहा। फिर, उनके सुर और ताल कानों के इस कदर परिचित हो चुके थे कि कुछ नया सुनने की तमन्ना जोर मारने लगी थी। नौशाद उस दौहराव से नहीं बच सके, जो ज्यादातर संगीतकारों की अवनति का कारण बना।
सी. रामचंद्र को अप्रतिम लोकप्रियता दी अनारकली के गानों ने। उन्हें कॉमेडी गीतों में तो महारथ हासिल थी। कॉमेडियन भगवान की फिल्म अलबेला का उनका संगीत आज भी मील का पत्थर है। परछाईं में उन्होंने तलत से यादगीर गीत मोहब्बत ही न जो समझे...गवाया। ऐ मेरे वतन के लोगों...के संगीतकार सी. रामचंद्र ही थे, जिसे लता ने उनसे चल रहे तीखे मतभेद भुला कर गाया था।इस दौर में एक नाम है बुलो.सी.रानी। ये पांचवे और छठे दशक के चर्चित संगीतकारों थे। जोगन इनकी सबसे महत्वपूर्ण फिल्मों गिनी जाती है।इसी दौर में हमारे कानों को सज्जद हुसैन का संगीत सुनाई पड़ता है। फिल्मी संगीत के खासे जानकार अंग्रेजी लेखक-पμाकार राजू भारतन ने सज्जाद को बेहद ऊंचे पायदान पर रखा है। संगदिल का ये हवा ये रात ये चांदनी....आज भी बेजोड़ है। अपने आगे नौशाद और अनिल विश्वास को कुछ न मामने वाले बेहद दम्भी सज्जाद मुश्किल से मुश्किल धुनों को बेहद सुरीला बनाने के उस्ताद थे। अपने आखिरी चरण में फिल्म रुस्तम-सोहराब की अरबी शैली की रिद्म को कौन भूल सकता है। सुरैया ने इस फिल्म में आखिरी बार गाया था। उन्होंने केवल एक संगीतकार की रचना को अपने लायक माना तो वह थी सचिनदेव बर्मन का संगीतबद्ध गीत मेघा छाये आधी रात...।
लता को निखारने में हुस्नलाल-भगतराम का बहुत बड़ा योगदान रहा। 1949 की बड़ी बहन का चुप-चुप खड़े हो---लीजेंडरी गीतों में एक है। लेकिन विविधता की कमी ने इस संगीतकार जोड़ी को बहुत जमने नहीं दिया। फिल्मकार राजकपूर की पहली फिल्म आग के इस गाने- जिंदा हूं इस तरह कि गमे...को कौन भूल सकता है। लेकिन पृथ्वी थियेटर्स के संगीतकार राम गांगुली के निदेशन में वाद्य बजाने वाले शंकर-जयकिशन ही अगली फिल्म बरसात में राजकपूर की पंसद बने। छठा दशक हिंदी फिल्मों का स्वर्णिम काल रहा है। देश के आजाद होने के कुछ ही साल बाद शुरू हुआ यह दशक ताजगी के झोंके लेकर आता है। चाहे फिल्म निर्माण का सवाल हो, या निर्देशन का, अभिनय का या फिर संगीत का, गीतों की रचनाओं का हो या गायन का। इस दशक में फिल्मी संगीत के कारवां में कई बेहतरीन नाम जुड़े। सचिन देव बर्मन, शंकर जयकिशन, मदन मोहन, वसंत देसाई, चिμागुप्त, रवि, हेमन्त कुमार, रोशन और ओपी नैयर जैसे नामी-गिरामी संगीतकारों से लेकर दूसरी कतार के दत्ताराम और राम लाल जैसे न जाने कितने नाम।
सातवें दशक ने भी नये-नये संगीतकार देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। संगीत की दुनिया में एक तरह का ‘कारपोरेट’ युद्ध इसी दशक की देन है, जो शुरू होता है फलक पर लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के उभरने के बाद से। यह जोड़ी एक तरह से आंधी की तरह आयी और तूफान की तरह छा गयी। इस जोड़ी ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया शंकर-जयकिशन को। अपना वजूद बचाये रखने के लिये ही शंकर-जयकिशन ने जंगली फिल्म से अपना ट्रेंड बदला और मदद ली रफी के बेहद ऊंचे सुरों की। कल्याण जी-आनंद जी, उषा खन्ना, जयदेव, किशोर कुमार और सोनिक ओमी आदि इस दशक की देन हैं।
इस दशक के मध्य में एक नया सितारा चमका राहुल देव बर्मन के रूप में। इस रचनाकार ने अपनी पहली फिल्म छोटे नवाब से अपनी मैलोडी के झंडे गाड़ दिये। एसडी बर्मन के बेटे राहुल को गुलजार की संगत ने जीनियस बना दिया। इस जोड़ी ने अपना कमाल दिखाया 1970 के बाद।आठवें दशक में फिल्म संगीत में छा जाने वाला कोई नाम हमारे सामने नहीं आता है, इसका एक कारण आज के महानायक अमिताभ बच्चन की एंटी हीरो वाली छवि को भी मानना चाहिये। जंजीर फिल्म की देन इस छवि ने अमिताभ के कदम तो बखूबी जमा दिये, पर संगीत और रोमांस पृष्ठभूमि में चला गया। इस बदलाव का सबसे ज्यादा नुकसान राहुल देव बर्मन को हुआ।
नवें दशक में बप्पी लाहिड़ी, शिव हरि जैसे कुछ नाम हैं। लेकिन संगीत के प्रति उदास होती जा रही मुम्बईया फिल्मकारों की प्रवृति को तोड़ा 90 के बाद नौजवान संगीतकारों की एक बड़ी खेप ने। उनमें सबसे आगे रहे हैं एआर रहमान। रहमान के अलावा नदीम-श्रवण, आनंद-मिलिंद, जतिन-ललित, अनु मलिक आदि ने भी कई फिल्मों में अच्छा संगीत दिया है। सन् दो हजार के बाद का समय काफी आशा भरा है। आज के संगीतकारों में पंकज राग सबसे ज्यादा उम्मीद परिणीता फेम शांतनु मोइμाा और सुर फेम एमएम क्रीम से रखते हैं।धुनों के इस 75 साला सफर में दो ऐसे बेहद सफल नाम सामने आते हैं, जो अंत तक मैलोडी, नयापन और ताजगी के कायल रहे-वे हैं सचिन देव बर्मन और मदन मोहन। वैसे तो इस पूरे दौर में सैंकड़ों संगीतकार अपनी छाप छोड़े बिना ही धूमिल हो गये लेकिन कुछ नाम ऐसे हैं, जिनकी दो-चार रचनाएं ही उनकी यादों को सहेजने के लिये काफी हैं। उनमें एक हैं भूषण। इक शब के मुसाफिर हैं....जैसी स्तब्ध कर देने वाली गजल के संगीतकार, जिसे महेश चंदर उतनी ही तरन्नुम में गाया भी। दूसरे हैं दान सिंह, जिन्होंने माई लव में मुकेश से अप्रतिम गाने गवाए।

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