राजीव मित्तल
सालों से अपने में सिमटे महमूद का चले जाना आज की नौजवान पीढ़ी के लिये एक सूचना से ज्यादा नहीं हो सकता है। लेकिन जिन्होंने 60 के दशक में बनी फिल्म ‘मंजिल’ में पान के खोखे के अंदर बैठे महमूद को नृत्य की शास्त्रिय मुद्राओं के साथ ‘तेरी सुबह कह रही है तेरी रात का फसाना’ गाते देखा हो, उन्हें जरूर पता चल गया था कि क्या पानी है इस आदमी में। गुरुदत्त ने पहले ‘सीआईडी’ में विलेन और फिर ‘प्यासा’ में लालची बड़े भाई के रूप में पेश कर महमूद को हास्य से बिल्कुल अलग रखा था क्योंकि उनके लिये जोनीवाकर ही काफी थे हंसने-हंसाने को। लेकिन ‘छोटी बहन’ से शुरू हुआ महमूद का कामेडी का सफर एक ऐसे मुकाम पर जा पहुंचा, जहां फिल्म का नायक अपने रोल में ही सिमट कर रह जाता था और महमूद की कॉमेडी फिल्म की जान बन जाती थी। यह सिलसिला 70 के दशक के अंत तक चला।
याद कीजिये फिल्म गुमनाम को , जिसमें हो रहे एक के बाद एक कत्ल से आक्रान्त हो चले दर्शकों को ‘हम काले हैं तो क्या हुआ दिल वाले हैं’ पर धमाल मचा कर महमूद कितनी राहत पुहंचाते हैं। इस बीच उन्होंने अपने को बेहतरीन फिल्मकार के रूप में भी स्थापित किया। भूतबंगला, पड़ोसन , कुंवारा बाप और बाम्बे टु गोवा जैसी फिल्में बताती हैं कि उनके अंदर के कलाकार की कोई सीमा रेखा नहीं थी। एक समय तो ऐसा आया कि जब उन्हें केंद्र में रख कर फिल्में बनायी जाने लगीं। उनके बगैर क्या ‘जौहर-महमूद इन गोवा ’बनाने की सोच भी सकते थे आईएस जौहर! फिल्म साधु और शैतान जैसी फिल्में बताती हैं कि महमूद दक्षिण भारतीय निमार्ताओं के लिये भी अपरिहार्य हो चले थे। राहुल देव बर्मन जैसे जीनियस को दुनिया के सामने महमूद ही लाये। एक संगीतकार के रूप छोटे नवाब आरडी की पहली फिल्म थी, जिसके पीर-बावर्ची महमूद ही थे।
महमूद की ही दूसरी फिल्म भूत बंगला ने आरडी को पूरी तरह स्थापित कर दिया। इस फिल्म में महमूद ने उनसे अभिनय भी कराया था। 80 के दशक की शुरुआत में सामने आता है महमूद का एक और अहम योगदान। आज के मिलेनियम कलाकार अमिताभ बच्चन फिल्म सात हिंदुस्तानी के बाद एक और फिल्म पाने के लिये तरस रहे थे। कुछ फिल्मों में तो वह एक्स्ट्रा तक का रोल कर रहे थे, मुम्बई में उनके पास रहने-खाने तक का ठिकाना नहीं था, उस समय अपने छोटे भाई अनवर अली के इस दोस्त को महमूद ने सहारा दिया ताकि वह अपने पैर बोलीवुड में टिका सकें। फिल्म बॉम्बे टु गोवा में उन्हें नायक बनाया। महमूद ने अमिताभ को एक तरह से अपने परिवार में शामिल कर लिया था। कुछ सफलता पाने के बाद अमिताभ अपने घर में आ गये तब भी महमूद की छोटी बहन ही उनका घर संभालती थीं। और यह संबंध कहीं न कहीं दिल से भी जुड़े थे। इसका जिक्र डा. हरिवंश राय बच्चन ने अपनी जीवनी में किया है। उन्होंने तो यहां तक लिखा है कि महमूद की बहन अमिताभ पर जिस तरह अधिकार जताती थीं, वह अमिताभ की मां को बिल्कुल पसंद नहीं था। फिर जंजीर ने अमिताभ की किस्मत पलटी और उनके जीवन में जया भादुड़ी की भूमिका अहम हो गयी। महमूद का वो बेटा पहले ही मर गया था , जिसके पोलियो ग्रस्त पैर को लेकर उन्होंने एक रुला देने वाली फिल्म कुंवारा बाप बनायी थी। इसी फिल्म का एक गाना अब भी आंखें नम कर जाता है- आरी आजा ले चल मुझे- जिसका संगीत उस समय के संघर्षशाल संगीतकार राजेश रोशन ने दिया था।
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