राजीव मित्तल
उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत के एक ही खैबर दर्रे ने इस देश को सदियों तक झिलाए रखा तो अब क्या कीजिएगा जहां खैबर दर्रों की फसल-ए-बहार है। उत्तर बिहार का का नेपाल से लगा सैकड़ों मील लम्बा इलाका किसी भी तरह की घुसपैठ और तस्करी के लिए आदर्शतम जगह है। इस साल जून के अंतिम सप्ताह में नेपाल के माओवादियों ने जिस तरह इस इलाके को झकझोर डाला, वह आने वाले दिनों में कश्मीर के से हालात के संकेत दे रहा है। 23 जून को मोतिहारी के मधुबन इलाके में घुस कर सीधे एक सांसद की हवेली पर हमला और उसके बाद सीतामढ़ी तक फैल कर पुलिस की नींद हराम कर देना और अब सीमाई इलाके में जगह-जगह प्रशिक्षण केंद्र खोलने की खबरें। उस पर तुर्रा यह कि नेपाल के माओवादियों की श्रीलंका के लिट्टे और पाकिस्तान के आईएसआई से भी मिलीभगत है-इस पर भी हमारी बिहार सरकार के पास माओवादियों से लड़ने के लिए हथियार के नाम पर सिर्फ घोषणाएं या राज्यपाल बूटासिंह के केंद्र सरकार के नाम दनादन एसएमएस कि कुछ तो मदद करो। माओवादी हमले के चार-पांच दिन बाद ही मुजफ्फरपुर शहर के एक नर्सिंगहोम में इलाज करा रहे कुछ उग्रवादी पकड़े जाते हैं तो पता चलता है कि यह तो आम बात है। यह धंधा तो शहर के कई नर्सिंगहोम में चल रहा है। कुछ डाक्टरों की अंधी कमाई का नायाब तरीका है यह। कभी-कभार काठमांडू के जुओं के अड्डों पर अय्याशी अलग से। जैसे कश्मीर में आधिकारिक तौर पर मान लिया गया है कि वहां के उग्रवाद को पनपाने में पाकिस्तान का हाथ है तो उत्तर बिहार के लिये यह सच मानने में क्या बुराई है कि माओवादियों की आड़ में चीन के खतरनाक इरादे हैं, जिसने कुछ साल पहले अपनी एक डिवीजन सेना के जवानों की वर्दी उतार कर उन्हें नेपाल में सड़क बनाने वाली अपने ही देश की एक कम्पनी में भर्ती करा दिया। यह तो तय है कि सड़क निर्माण कम्पनी के कर्मचारी बने उन चीनी फौजियों के इरादे नेक नहीं होंगे।
उत्तर बिहार के एक बड़े इलाके का नेपाल से बहुत गहरा संबंध रहा है और है। दोनों तरफ के आमजनों में रोटी-बेटी तक का रिश्ता है। अगर 1815 में अंग्रेजों ने नेपाल सरकार से सुगौली (पूर्वी चम्पारण ) संधि न की होती तो नेपाल और उत्तर बिहार में सीमाई फर्क भी न रह जाता, क्योंकि उस समय तक नेपाल का असर हाजीपुर तक था। उस संधि में महत्वपूर्ण शर्त यह थी अंग्रेजों की फौज गंगा के उस पार दानापुर (पटना के नजदीक) तक ही रहेगी, इधर वैशाली की तरफ मुंह भी नहीं करेगी।
लगता है दो सौ साल पुरानी वह संधि भारत आज तक निभाता आ रहा है। तभी तो दानापुर में जो सैनिक तामझाम है वह ट्रेनिंग कोर तक ही सीमित है। मुजफ्फरपुर छावनी में अब तक आधी-अधूरी 151 इन्फेंट्री जाट रेजीमेंट है, क्योंकि इसके कई जवान और अफसर कारगिल युद्ध में उतारे गए थे, उसके बाद उनकी तैनाती कश्मीर में हो गयी। नेपाल में 2001 में राजा वीरेंद्र और उनके पूरे परिवार के खात्मे के बाद जिस तरह माओवादियों ने वहां और भारत की तराई में अपने पैर फैलाए और उनके खतरनाक रुख के मुतल्लिक कई इंटेलिजेंस रिपोट सामने आयीं, उसके आधार पर करीब तीन साल पहले तत्कालीन सेना उपाध्यक्ष ले. जनरल यादव की पहल पर अत्याधुनिक हथियारों से लैस एक पूरी ब्रिगेड मुजफ्फरपुर छावनी में तैनात करने की बात करीब-करीब तय हो गयी थी। खुद जनरल यादव अपने स्टाफ के साथ कई दिन मुजफ्फरपुर में रहे और उनकी देखरेख में ब्रिगेड के कार्यालय भवन और उसके आवास बनाने को छावनी में जगह-जगह मिट्टी का सर्वेक्षण जैसी औपचारिकताएं तक हुईं। लेकिन राजनीति के गंदे खेल ने उस ब्रिगेड का मुंह कटिहार की तरफ मोड़ दिया, जो किसी भी हालत में चम्पारण जितना संवेदनशील नहीं है। कुछ सैन्य अधिकारी दबी जुबान से बताते हैं कि मुजफ्फरपुर छावनी इलाके में कुछ नेताओं के जमीन हड़पो अभियान के चलते ऐसा हुआ, जिन्होंने ठीक सैनिक मुख्यालय के सामने एकड़ों जमीन पर आवास बना रखे हैं और जिनका तालमेल रक्षामंत्री रहे स्थानीय सांसद के राजनीतिक गठबंधन से है।
अगर सेना की वह ब्रिगेड मुजफ्फरपुर में तैनात हो जाती तो चम्पारण से लेकर मिथिलांचल तक के इलाके को कैसे भी उग्रवाद से काफी हद तक निजात मिलती और रंगदारी जैसे अपराधों में कमी आती। इलाके की सड़कों वगैरह का उद्धार अलग से होता। और ऐसा हो गया होता तो राज्यपाल महोदय को सीआरपीएफ तक के लिये रिरियाना न पड़ता, जिसकी कम्पनियां कई बार इस इलाके में तैनात की गयीं, पर जिनके रहने को दो गज जमीन भी स्थानीय प्रशासन नहीं जुटा सका।
रोना उग्रवाद को लेकर ही नहीं है। हर बारिश में नेपाल से छोड़ा जाने वाला पानी भी पूरे उत्तर बिहार को तबाह कर रहा है। इस समस्या का हल भी हर स्तर पर केवल घोषणाओं और कई तरह के ऐलान से ही किया जाता रहा है। नेपाल से लगा उत्तर बिहार का यह इलाका खेती के लिहाज से बेहद समृद्ध है। नेपाल का यही पानी 20 साल पहले वरदान साबित होता था क्योंकि इस पानी में हर तरह का खनिज भरपूर मात्रा में होता था और वह चारों तरफ फैल कर सारी धरती को उपजाऊ बनाता था, आज अधकचरे और योजनाहीन तटबंधों के चलते यही पानी कहर बन गया है। अपने गांव से बेदखल हो हजारों लोग उन दियारों में बस गए हैं, जहां से हर साल नेपाल का पानी उन्हें उखाड़ता है। यही दियारे कभी सोना उगलते थे।
असलियत यह है कि नेपाल से लगी इस धरती की उर्वरता ने अंग्रेजों के शासन की शुरुआत में एक ऐसा सामाजिक ढांचा तैयार कर दिया, जिसमें शोषक और शोषित का खुला खेल शुरू हुआ, जो आज तलक जारी है। आजादी के बाद हुए भूमि सुधार बिहार की हद से ही वापस हो लिए। आज भी सारी सुख-सुविधाओं से लैस सैंकड़ों एकड़ की खेती वाले किसान यहां बसे हुए हैं, जो कभी भी मुम्बई-दिल्ली की सैर करा आते हैं, जिनके बच्चे बड़े-बड़े शहरों के स्कूल-कॉलेजों में पढ़ रहे हैं बाकी जनता के लिये नेपाल से लगे उत्तर बिहार के मोतिहारी से लेकर सीतामढ़ी तक के सारे इलाके में एक सड़क, एक पुल या पुलिया ऐसी नहीं बची है, जिस पर किसी तरह का सफर किया जा सके। इस पूरे इलाके में कहीं बिजली नहीं है, किसी तरह की स्वास्थ्य सेवा नहीं है, नीचे से लेकर ऊपर के स्तर तक कैसी भी शिक्षा व्यवस्था नहीं है। जो कुछ है वह अंग्रेजों के समय का है, इसलिये अब तक खिंच भी रहा है। वजह वही है कि सामंतवादी मानसिकता ने विकास के किसी भी काम को हाथ तक लगाने नहीं दिया। सरकार से लेकर नौकरशाही में ऐसी मानसिकता वाले व्यक्तियों की भरमार है क्योंकि अगर विकास यहां पहुंच जाएगा तो फिर रियाया किसके आगे हाथ फैलाएगी। सड़क, बिजली, पुल तो जाने दीजिये, मुजफ्फरपुर के पंताही हवाई अड्डे पर 20 साल पहले तक कुछ उडानें थीं, पटना तक के लिये तो नियमित उड़ान थी, एक फ्लाइंग क्लब भी था, आज यहां चुनावों के दिनों में या बाढ़ के समय किसी नेता या मंत्री को लिये हेलिकॉप्टर ही उतरते हैं। इस क्षेत्र के ये हालात और सरकारी उदासीनता माओवादियों की फसल के लिये खाद का काम ही करेगी।
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