अपने ही अखबार में बारह नंबर पेज पर जा रही खबर से पता चला कि अस्सी साल पहले सत्ताईस फरवरी को चन्द्रशेखर आजाद इलाहबाद के अल्फ्रेड पार्क में ब्रितानी पुलिस से लड़ते हुए मारे गए थे। और मुजफ्फरपुर में इन्हीं आँखों से कम्पनी बाग़ में वो जगह भी देखी है, जहां खुदी राम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने अंग्रेज जज को मारने की कोशिश की थी लेकिन अब वो ओपन संडास बने हुए हैं .....और देखें हैं दिल्ली में खूब सारे हरे भरे सजे हुए वन, जहां आज़ाद भारत के कई रहनुमा अपनी समाधियों में इतराए पड़े हैं कि देश को आज़ाद उन्हीं ने कराया तो वसूली तो पूरी हो.....मरने के बाद भी...
इस लेख में आजाद की शहादत पर एक शब्द नहीं है क्योंकि दोस्तों, हम बाज़ार के साथ हैं और आजाद की , या बिस्मिल की या अशफाक की या उन जैसे हज़ारों की शहादत से बाज़ार को कोई कीमत वसूल नहीं होनी......ज़रा सोचिये, आजाद या बिस्मिल को लेकर केतन मेहता या कोई उन जैसा फिल्म बनाना चाहे तो वो किस हिरोइन को लेगा नाचने-गाने के लिए। इन दोनों शहीदों ने बगैर किसी चोंचलेबाजी के केवल देश से प्यार किया था। कोई ठुमका नहीं कोई झुमका नहीं....तो स्स्सला ऐसा देशप्रेम किस भाव बिकेगा.....देश की सात सुन्दरियों को मिस वर्ल्ड और सात को ही मिस यूनिवर्स की उपाधि मिल गयी .....मार्केट पर कब्ज़ा करने के लिए बहुत है .....आइये देखें क्रांति का सेंसेक्स.............
राजीव मित्तल
इसे कहते हैं बाजार का खेल कि सन् 1857 के सैनिक विद्रोह के ठीक 50 साल बाद अंग्रेजी राज को दहशत में डालने वाली खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी की शहादत को लेकर देश भर के स्कूली बच्चों का निहायत बेगाना रवैया और 1857 की गदर शुरू होने से ठीक पहले फांसी पर लटके मंगल पांडे का देश भर में इस्तकबाल।
वैसे देखा जाए तो 1908 के मुजफ्फरपुर बम कांड का क्या असर हुआ इसकी आज देश भर में कितनों को जानकारी है! खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ बगावत का ऐलान करते हुए इसी मुजफ्फरपुर की धरती पर बम फोड़ा था और इससे भी बड़ी बात यह कि ब्रितानी बादशाहत पर 20 वीं शताब्दी के शुरू में ही यह पहला वार था। और उससे भी बड़ी बात यह कि 1757 के प्लासी युद्ध में जीत हासिल करने के बाद भारत में अपने पैर जमाने और फिर अपनी सत्ता स्थापित कर चुके अंग्रेजों पर यह पहला सुनियोजित गैर सैनिक हमला था।
लेकिन जब हम भारतीय क्रांति के अग्रदूत खुदीराम बोस की मूर्ति पर हर साल फूलमाला पहनाने से ज्यादा कुछ नहीं कर सकते तो हम इतना भी कैसे जान सकते हैं कि फांसी की सजा सुन खुदीराम बोस का वजन बढ़ गया था और जब उनके गले में जल्लाद ने रस्सी डाली तो उनकी उम्र अट्ठारह साल भी नहीं थी। और पुलिस के हाथों पड़ने से बचने के लिए 18 ही साल के प्रफुल्ल चाकी ने अपने को गोली मार ली थी। दोनों को मरते समय बस यही मलाल था कि आतातायी अंग्रेज जज किंग्सफोर्ड उनके बम से बच गया।
अब आइये बाजार की ताकत पर, तय मानिये कि अगले कुछ ही दिनों में सारे देश में मंगल पांडे का नाम घर-घर गूंज रहा होगा, इसलिए नहीं कि उन्होंने फांसी पर चढ़ कर कर कोई बहुत बड़ा तीर मारा था, बस इसलिए कि उनके नाम के साथ रानी मुखर्जी और अमीषा पटेल का नाम भी सट गया है और आमिर खान उन्हीं के गेटअप में देश भर के सैंकड़ों सिनेमाघरों में अपनी अदाकारी दिखा रहे हैं। यह बाजार का मीडियायी रूप ही है, जिसने तीन साल पहले ही इस बात को चर्चा का विषय बना दिया था कि मंगल पांडे बनने के लिए आमिर ने आठ करोड़ लिए........नब्बे साल के हिंदी फिल्मों में अभिनय के इतिहास की सबसे ऊंची कीमत.........वल्लाह .....
वास्तविकता यही है कि बाजार ही है जो तय करता है कि किस शहीद का चौखटा किस धातु से मढ़ा जाए। दो साल पहले भगतसिंह पर फिल्म बनाने की होड़ सी मच गयी थी, और जब कमाई आशानुरूप नहीं हुई तो सन्नी देओल और राजकुमार संतोषी ने पुरानी दोस्ती भुला कर एक-दूसरे की शान में ‘कसीदे’ काढ़े थे। यह आर्थिक उदारीकरण का वह दौर है जिसमें सब कुछ बिकाऊ है-क्रांति भी, क्रांतिकारी भी, भगवान भी और भगवान के भक्त भी-बस बिकने की तमीज होनी चाहिये और बेचने की कुव्वत।
देश की आजादी के लिए कुर्बान हुए क्रांतिकारियों की शहादत अलग-अलग तराजू पर तोलने की चीज नहीं है। लेकिन जब रामप्रसाद बिस्मिल की बहन अपने भाई की शहादत के बाद लोगों के घरों में बर्तन मांज कर जीवन यापन करे, या चंद्रशेखर आजाद की मां दो रोटी को तरसे, या अशफाकउल्ला, राजेन्द्र लाहिड़ी, रोशन सिंह, राजगुरु, सुखदेव, शचींद्र सान्याल, शचींद्रनाथ बख्शी या 19वीं सदी के अंत में अपने दम पर अंग्रेजों से लोहा लेने वाले बलवंत फड़के, जो जेल में तपेदिक से मरे या फांसी पर झूल गए चाफेकर बंधु या उन जैसे हजारों शहीदों का आज कोई नामलेवा नहीं तो आमिर खान का आठ करोड़ और केतन मेहता का सौ करोड़ वाला ‘मंगल पांडे’ कौन सा संदेश देशवासियों या अपने ग्राहकों को देना चाहता है!
जबकि सच यह है, भले ही कड़वा हो, कि मंगल पांडे देश को अंग्रेजों से आजाद कराने के लिए उनसे लड़ कर फांसी पर नहीं चढ़े थे। अंग्रेजों अफसरों की कमान वाली देशी जवानों की फौज में अगर यह अफवाह जोर न पकड़ती कि अब जो नये कारतूस दिये जाएंगे, उनका खोल गाय या सुअर की चर्बी से बना होगा और उन्हें दांत से काट कर बंदूक में डालना होगा, तो न तो मंगल पांडे के संस्कार को चोट पहुंचती और न वह जुनून जागता, जिसने एक अंग्रेज अफसर की जान ले ली। किसान मंगल पांडे प्रेसीडेंसी डिविजन की 34वीं नेटिव इन्फेंट्री का सिपाही बन कर रिटायर होते और तब तक...या तो परेड-परेड या अपने ही देशवासियों के खिलाफ किसी मोर्चाबंदी में हिस्सेदारी।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें