राजीव मित्तल
इस बार कुल मतदाताओं में 30 फीसदी युवा हैं, जो पहली बार वोट डालेंगे। इतनी बड़ी ताकत को लेकर आज भारत पूरी दुनिया के सामने छाती चौड़ी किये है। किसी भी देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में युवाओं की इतनी बड़ी तादाद वास्तव में इतराने योग्य है। लेकिन पश्चिम उत्तरप्रदेश की एक सर्वेक्षण रिपोर्ट ने जो सच तलाशा है, वह सुखदायक तो कतई ही नहीं है। और यह सच कमोबेश पूरे देश पर लागू होता है। राष्ट्रीय चैनलों पर दिखाये जा रहे एक विज्ञापन के सौजन्य से चाहे आप युवा वर्ग को टाटा टी के जितने कप पिला लें, लेकिन अधिसंख्य को अपने देश की, अपने प्रदेश की या स्थानीय राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं है-इस सर्वेक्षण रिपोर्ट का सार यही है। और हालात बता रहे हैं कि कोई आश्चर्य नहीं कि उन अधिसंख्यों में बहुतेरे अपने वोट का इस्तेमाल भी नहीं करेंगे। सच तो यह भी है कि राजनीति में शामिल युवाओं में 99 फीसदी खानदानी पेशे की तरह विरासत में मिली नेतागीरी पर ठुमक रहे हैं। इसलिये संसद या विधानसभाओं में नये खून की बढ़ती चमक से खुश होने की जरूरत नहीं। और जो युवा राजनीति से जुड़े हैं, उनके लिये यह कारोबार से ज्यादा कुछ नहीं। राजनीति से जुड़े अधिसंख्य युवाओं की जमात बेरोजगारी के धक्के खाने से बेहतर अपनी जाति या अपने इलाके के नेताओं की जयजयकार करना ज्यादा बेहतर मानती है। और इन युवाओं की राजनीतिक समझ भी अपने उस आका तक ही सीमित है, जो अगला सूरज नहीं देख पाओगे जैसी धमकियों के अलावा कुछ नहीं जानता। 21 वीं सदी में युवाओं का राजनीति से उदासीन हो जाने का सबसे बड़ा कारण यह है कि वह भ्रष्टाचार से लबालब हो चुकी है। उनके सामने आदर्श के नाम पर कथनी और करनी में दिन ब दिन बढ़ रहा अंतर है या सड़ांध मार रही व्यवस्था, जो राजनेताओं की ही देन है, इसलिये अगर उन पांच हजार में से 69 फीसदी को अपने सांसद का नाम नहीं मालूम तो इसमें चौंकना कैसा। एनडीए और यूपीए क्या फर्क है, यह जानना वो कतई जरूरी नहीं समझता, उसकी संसदीय सीट पर प्रत्याशी कौन-कौन है, इस सिरदर्दी में वो नहीं पड़ना चाहता।
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