राजीव मित्तल
बिहार में सन् 2001 में हुआ पंचायत चुनाव बरसों के टूटते-बनते सपनों का घालमेल था, 2006 आते-आते जो ‘दीमकों’ की भेंट चढ़ गया। इसलिये इस 11 जून को खत्म हुए चुनाव के बाद की नयी पंचायतों, उनके नये पंचों, नये सरपंचों या नये मुखिया से शायद ही किसी ने कोई उम्मीद लगा रखी हो, सपने पालना तो दूर की बात है। इस बार के चुनाव पुलिसिया वर्दी और डंडे ने काफी शांति से करा दिये। इतनी शांति से कि बिहार में जिसकी आशा नहीं की जाती। काम खत्म हो जाने के बाद पुलिस अपने रोजमर्रा के कर्तव्य निपटाने में लग गयी और मतदान बाद हिंसा का नया दौर शुरू हो गया। रोजाना गांव-गांव में लाठी-बल्लम इस बात को ले कर चल रहे हैं कि अच्छा, तूने हमारे उम्मीदवार को वोट नहीं दिया या तूने दूसरे के लिये वोट मांगा-अब जा मर या पड़ा रह अस्पताल में। जबकि पिछले चुनाव से 23 साल पहले सन् 1978 तक हुए पंचायत चुनावों में गोली चलाने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी, खाली बंदूक या खाली कारतूस की ही अपनी जबरदस्त हनक थी।
अब चुने गयों को शपथ दिलाने का दौर है, जब यह पूरा हो जाएगा तो बारी आएगी उन पद वाली खाली कुर्सियों की, जिन पर ये शपथिये किसी को चुन कर बैठाएंगे। उसके बाद पदनाम धारी शपथ लेंगे। यह सब होने के बाद ‘गऊशाला’ में जाने की परम्परा है, जहां कुछ कामधेनु बंधी होती हैं। कभी भी दुही जाने वाली। बिहार में भू स्वामित्व और पंचायत एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, जिसकी नाल महात्मा बुद्ध के समय में ही गड़ गयी थी। ढाई हजार साल पहले बिहार भर में जगह-जगह मठ बन गए थे, जो सांसारिक जीवन छोड़ बैठे बौद्ध भिक्षुओं का निवास ही नहीं, उनकी जीवन शैली निर्धारित करने वाला स्थान हुआ करता था। इन मठों को उस समय के राजा बड़ी-बड़ी जमीनें दान में दे दिया करते थे ताकि उनका कामकाज बेरोकटोक चलता रहे, रोजाना के खर्चे निकलते रहें। सम्राट अशोक तो काफी मेहरबान रहे इन मठों पर। 12 वीं शताब्दी आते-आते बौद्ध धर्म अवसान की स्थिति में आ गया, तो मठों की जमीन-जायदाद बौद्ध धर्म से किनारा करने वाले अगड़ी जाति के एक खास समुदाय के हाथ बैठे-ठाले लग गयी। सो, बिहार में जमींदारी प्रथा की नींव तभी पड़ गयी थी, जिस पर 18वीं शताब्दी के अंत में लॉर्ड कार्नावालिस ने केवल मोहर लगायी। आजादी के बाद बिहार में पहला पंचायत चुनाव खाली-पीली की औपचारिकता थी, क्योंकि बड़ी-बड़ी जमीनों के मालिक ही गांवों के पहरुआ बन बैठे। उनके लिये कमाई का अतिरिक्त जरिया बन गयीं पंचायतें। सभी अगड़ी जाति के थे। वे गांव में अपनी ही जमीन पर दो-तीन कमरे डलवा कर स्कूल खोल लिया करते थे, जो उनके बाप-दादा के नाम पर होता था। फिर किसी एक कमरे में ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्र, एक कमरे के आधे हिस्से में डाक घर, आधे में सहकारी समिति का कार्यालय, पंचायत भवन और छज्जे पर महिला उत्थान केन्द्र वगैरह-वगैरह। कमाई की कमाई, घर-भर को रोजगार और भवनों का किराया अलग से। इन सबको चलाने के लिये पैसा सरकार की जेब से आता था। इस तरह सरपंच या मुखिया बनना एक आला किस्म की दुकानदारी थी। कमोबेश यह खेल सन् 78 तक बखूबी चला। 1978 के बाद पंचायत चुनाव कराने की औपचारिकता भी बंद हो गयी। जबकि तब और राज्यों में पंचायतों ने अपनी राह बखूबी पकड़ ली थी। 1989 में कांग्रेस केन्द्र की सत्ता से बाहर हुई और अगले साल बिहार में भी उसका सफाया हो गया। लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री बने। लालू प्रसाद पंचायत चुनाव कराने को सक्रिय हुए पर पिछड़ा कार्ड सामने रख कर। लेकिन पंचायत चुनाव में आरक्षण अगड़ों को मंजूर नहीं था, टलते-टलते सन् 2001 आ गया और लालू प्रसाद ने पिछड़ा कार्ड जेब में रख पंचायत चुनाव करा दिया। 2006 के चुनाव में वही कार्ड मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बखूबी खेल दिया। महिलाओं के लिये 50 फीसदी सीटें भी आरक्षित कर दीं। अब पिछड़ों और अति पिछड़ों का नया वर्ग अगले पांच साल में पंचायत को कौन सी शक्ल देगा, यह तो समय पर छोड़ा जाए। लेकिन स्वरोजगार योजना, जन वितरण प्रणाली, इंदिरा विकास, विधायक योजना, सांसद योजना, वृद्धावस्था पेंशन, जाति प्रमाणपत्र , आवासीय योजना और अति गरीबों को सस्ती दरों पर अनाज दिलाने वाले लाल-पीले कार्ड जैसी कामधेनुएं विश्वामित्रों को ललचाने को कमर कसे बैठी हैं। 2001 के पंचायत चुनाव के बाद यह तो सभी को पता चल गया था कि पैसा कैसे बनाया जाता है। तब तो जिला परिषद अध्यक्ष की कुर्सी 30-40 लाख रुपये में मिल जाती थी, आज इस कुर्सी की मलाई का रेट करोड़ों में पहुंच जाए तो आश्चर्य नहीं क्योंकि 30 लाख से तीस करोड़ बन जाएं तो क्या कहने!
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