राजीव मित्तल
आखिरकार एक प्रहसन खत्म हुआ। अब चाहे ताली पीटो या सिर धुनो। सब एक समान।खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे तो सुना था और आगे भी सुनेंगे, लेकिन जब वो खिसियाती हैं तो उन्हें 16 साल की किरण में सपनों को मटियामेट करने वाली सोनिया क्यों नजर आती हैं। किरण 60 साल से पूरे ब्राह्मांड में लोकतंत्र की अलख जगा रहे भारतवर्ष में लोकहित की बात करने लोकतांत्रिक तरीके से मुख्यमंत्री बनीं अपनी नेता से मिलने लखनऊ पहुंच गयी। लेकिन वो भूल गयी कि यह सन् 2008 का लखनऊ है सन् 1620 का आगरा नहीं। वो जमाना जहांगीर का था, जिसे बादशाह बनने के लिये किसी वोटबैंक की जरूरत नहीं पड़ी, किसी गरीब या अमीर से कोई वादा नहीं करना पड़ा। माबदौलत तेरे पास वोट मांगने कभी नहीं आएंगे, हां, तू नोट मांगने हमारे पास कभी भी आ सकता है। तेरे लिये अपने किले के बाहर एक घंटा लगवा दिया है, हमारी तरफ से जब भी कोई परेशानी हो या हमारा कोई अफसर या कर्मचारी तुझे परेशान करे, तू टनटना देना, सब ठीक हो जाएगा। बताया जाता है कि उस घंटे की जद में मलिका नूरजहां तक आ गयी थीं। अनुमान है कि किरण को इस लोकतंत्र में जहांगीरी घंटे की ही याद रही और वह पहुंच गयी लखनऊ। लखनऊ भी वह साइकिल से गयी ताकि राजदरबार में हौसलाअफजाई भी हो कि वाह क्या लड़की है। लेकिन मेरठ से साइकिल चला कर लखनऊ गयी किरण यह क्यों भूल गयी कि भारतीय लोकतंत्र पांच सौ किलोमीटर साइकिल चला कर लखनऊ गयी किरण का नहीं, वोटों का मोहताज है और तब तो किरण होने या उसके पांच सौ किलोमीटर साइकिल चलाने का वैसे भी कोई अर्थ नहीं, जब चुनाव के तीन साल बाकी हों। सत्ता की कुर्सी को दूर-दूर तक छूने वाला तो दूर, उसकी तरफ देखने का साहस रखने वाला तक कोई न हो। उत्साह से भरी किरण को राजदरबार में घुसने देना तो दूर, लखनऊ की सड़कों या गलियों तक में कदम धरने की बंदिश लगा दी गयी। और जब वह अपनी नेता से मिलने के लिये अड़ गयी तो उसे जीप में डाल कर मेरठ पहुंचा दिया गया। अपनी नेता से उसकी मात्र इतनी सी डिमांड थी कि जिस सरकारी मदद से उसने अपनी पढ़ाई पूरी की, अन्य लड़कियों को भी वह मदद मिलती रहे, उसे बंद न किया जाए, जो एक धचके में बंद कर दी गयी है। किरण भूल गयी कि अब जहांगीरी घंटा इतिहास की गर्द में धूल फांक रहा है और लोकतंत्र में बादशाहों की यह सब बकवास नहीं चला करतीं।
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