पहल 83 में प्रकाशित शहरनामा
मुजफ्फरपुर
राजीव मित्तल
कई सारे शहरों में रोजगारी कदमताल करने के बाद ( और कुछ माह की बेरोजगारी भी ) जब दो अक्टूबर 2002 को करीब ढाई हजार साल पुरानी बसावट वाले अकबर के समय के कलक्टर मुजफ्फर खान के नाम पर बने मुजफ्फरपुर के लिए पटना से चला तो टैक्सी ड्राईवर की बगल में बैठ भकुआ बन खिड़की के बाहर ताकने के सिवा और कोई चारा न था। सामने से भागती धरती को जैसे निगल रहा था। दिल्ली में जब मैडम मृणाल पण्डे का आदेश मिला कि मुजफ्फरपुर आपका कार्य क्षेत्र रहेगा, तो तुरंत एक बिहार विशेषज्ञ को फोन घुमाया और बताया कि बंधु, मुजफ्फरपुर भेजा जा रहा हूं। भई, संभल के ! पता है कहां जा रहे हो? बहुत टेढ़ा इलाका है। जान का तो पता नहीं, पर आबरू जरूर खतरे में है। अगर जातिगत समीकरणों पर ध्यान नहीं दिया तो वहां के लोग आपके खिलाफ शहर भर में ऐसी हवा बहा देंगे कि मुंह दिखाना मुश्किल हो जाएगा। दिल थाम कर बैठ गया। फिर एक और अड्डे पर चल दिया। वहां जो सुनने को मिला तो हालत खराब करने के लिए काफी था। क्यों भई, उलटे पैदा हुए हो क्या? बिहारी भाग रहे हैं बिहार से और तुम दिल्ली से जा रहे हो बिहार, जहां कोई कानून नहीं, कैसे भी अपराध के होने का कोई समय नहीं। खामोशी से सुन लिया लेकिन जेहन को लगातार जो कुरेद रहा था वो भी एक हादसा था, जो अपने 35 साल पुराने शहर लखनऊ में कुछ ही दिन पहले घटा था, कि घर में दिन-दहाड़े घुस 77 साल पुराने पिता को बुरी तरह डरा-धमका कर चंदा मांगने आए शिवसैनिक उनके कागजात और रुपये-पैसे उठा कर ले गए थे। तो कैसा अपना लखनऊ और कैसा पराया मुजफ्फरपुर! बहरहाल दो अक्तूबर 2002, दिन में 11 बजे मुजफ्फरपुर में था पूरे जोशो-खरोश के साथ एकदम नया-नकोर। जगह-जगह सुनाई पड़ रहा था-दे दी हमें आजादी बिना खड़ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल। और साथ में शुरू हो गयी थी दुर्गा पूजा की रौनक और सड़कों-मोहल्ले पर गूंजती शेफाली जरीवाला के वीभत्स रीमिक्स कांटा लगा की तर्ज पर- माता लगा बेड़ा पार की चिंघाड़। अब तक हो चुके तीन साल में एक प्रवासी की तरह दिन नहीं काटे, यही सबसे बड़ी उपलब्धि है। और अब रोजमर्रा नये-नये जायके देती इस नगरी के बारे में कुछ टुकड़े---
हस्ती के इस सराब में रात कि रात बस रहे
सुबह अदम हुआ नुमु पांव उठा जो हो सो हो
सूफी शायर हजरत नियाज शाह की ये पंक्तियां इस इलाके के लिए हर काल में मौजू हैं-तब भी, जब यहां ढाई हजार साल पहले बुद्ध और महावीर अहिंसा का प्रसार कर रहे थे, जब बौखलाया ब्राहमण समाज बौद्ध धर्म पर कुठाराघात कर रहा था, जब गयासुद्दीन एवाज इस क्षेत्र को रौंद रहा था, जब जहां-तहां पसरी पड़ीं जरासंध की गदाओं की तरफ इशारा कर जनरल कनिंघम बता रहा था - बेवकूफों, ये अशोक के शिलालेख हैं। जब मुजफ्फरपुर क्लब के पास अंग्रेज मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड की बग्घी पर बंगाल से आए दो नौजवान बम फेंकने के बाद बदहवास हो इस निराशा के साथ भागे कि मरने वाला मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड नहीं था। प्रफुल्ल चंद्र चाकी ने समस्तीपुर स्टेशन पर पुलिस के हाथ लगने से पहले ही अपने को गोली मार ली। और मुजफ्फपुर जिले की सरहद पर एक दुकानदार ने पुलिस को इत्तिला कर खुदीराम बोस को पकड़वा दिया, जिन्हें यहीं की जेल में फांसी पर लटका दिया गया। जब गांधी जी ने स्वदेश लौटने के बाद अपने ऊपर से ऊहापोह और असमंजस के जाले उतारने के लिए मुजफ्फरपुर होते हुए चम्पारण का रास्ता पकड़ा। और आजादी के कई साल बाद तक बिहार की सांस्कृतिक राजधानी और मुम्बई-सूरत के बाद कपड़ों की सबसे बड़ी थोक मंडी कहलाया जाता रहा यह शहर कांग्रेस के किसी दबंग नेता का बंधक बन कर रह गया, और अब पूरी तरह माफियाओं, रंगदारों, कालाजार, एड्स और माओवादियों के चंगुल में फंस चुका है। जहां अपराधी का अपराध नहीं, नेता का काम नहीं- दोनों की जात बोलती है। बाकी, बुद्ध को अपने तर्कों से परास्त कर बौद्ध संघ में शामिल होने वाली पहली नारी अम्बपाली का सौंदर्य आज भी यहां-वहां झिलमिलाता है, पेड़ पर लदी लीची आस्तिक बनाती है तो सड़कों पर यहां-वहां सड़ रहे उसके छिलकों के ढेर नरक के द्वार के दर्शन कराते हैं। तिरहुत कमिश्नरी के इस जिले को उत्तर बिहार के अन्य जिलों बेतिया, मोतिहारी, वैशाली, बेगूसराय, समस्तीपुर, सीतामढ़ी, मधुबनी और दारभंगा से काट कर नहीं देखा जा सकता। एक तरह से उत्तर बिहार का दिल है मोहभंग की तासीर वाला मुजफ्फरपुर।
-महात्मा बुद्ध निर्वाण की तरफ बढ़ रहे हैं, अंतिम मुकाम है कुशीनगर। लिच्छवी गणतंत्र या वृज्जिका संघ, संघ के आठों कुल, उनके मुखिया, जन सैलाब उमड़ पड़ रहा है तथागत की अंतिम विदाई को। एक जगह पहुंच कर बुद्ध रुके। अपने और लिच्छवियों के बीच एक नदी को प्रवाहित कर सबको इस किनारे रुक जाने को मजबूर कर दिया। उस किनारे खड़े हो जी भर कर निहारा लिच्छवी गणतंत्र की राजधानी वैशाली को। वह नगरी, जहां कपिलवस्तु छोड़ कर सबसे पहले आए, और फिर बार-बार आते रहे। विश्व के इस पहले गणतंत्र की लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था, समृद्धि, संस्कृति, लिच्छवियों का देशप्रेम, उदार मन, उनकी सुंदरता, उनकी स्वच्छता, समूह से जुड़ी उनकी सोच, उनकी धर्मनिष्ठा पर मुग्ध होते रहे बुद्ध। उन्होंने लिच्छवियों की तुलना देवताओं से की थी। बुद्ध के दिलो-दिमाग पर छाई रहने वाली इसी वैशाली का बेहद अहम हिस्सा था मोद्फलपुर (मीठा फल यानी लीची) या आज का मुजफ्फरपुर। ढाई हजार से भी हजारों वर्ष पहले राजा जनक के विदेह साम्राज्य, छठी शताब्दी में कन्नौज के प्रतापी सम्राट हर्षवर्धन, फिर बंगाल के पाल राजाओं, उसके बाद चेदि, फिर तुर्कों, उसके बाद जौनपुर के हुक्मरानों, फिर मुगलों, 1764 में भारत का भाग्य तय करने वाले बक्सर युद्ध में मुगल बादशाह के साथ-साथ बंगाल और अवध के नवाबों की हार के बाद अंग्रेजों का शासन और 1875 में भारत के सबसे ज्यादा क्षेत्रफल वाले जिलों में एक सरकार तिरहुत का हिस्सा रहा मुजफ्फरपुर खुद जिला बना। तबके तिरहुत में आज के दोनों चम्पारण और दरभंगा और सीतामढ़ी भी शामिल थे। बताइये, हजार साल से खलीफाई झाड़ रहे दिल्ली के पास है इतना शानदार ज्ञात या अज्ञात इतिहास! याद आया, 24 वें जैन तीर्थंकर और बुद्ध के
समकालीन महावीर की कर्मभूमि भी यही क्षेत्र था और मुजफ्फरपुर जिले का बासोकुंड था उनकी जन्मस्थली। और बुद्ध की वैशाली, बौद्ध धर्म की प्रथम भिक्षुणी अम्बपाली की वैशाली बसाढ़ नाम के एक गांव में सिमट मुजफ्फरपुर से 35 किलोमीटर दूर खंडहर में पसरी अतीत को निहार रही है।--नेपाल, दरभंगा, छपरा, चम्पारण और सीतामढ़ी जिलों, गंगा, गंडक (नारायणी), बूढ़ी गंडक और बागमती नदियों से घिरे मुजफ्फरपुर को आबाद करने में इस तक पहुचने की सुलभता बेहद महत्वपूर्ण है। हालांकि डेढ़ सौ साल पहले तक गंडक नदी के किनारे बसा वैशाली जिले का प्रखंड लालगंज पूरे उत्तर बिहार का सबसे बड़ा व्यापारिक केन्द्र था और तब मुजफ्फरपुर की हैसियत एक गांव से ज्यादा की नहीं थी। इसे महत्व दिया अंग्रेजों ने क्योंकि यहीं से वे पूरे उत्तर बिहार और नेपाल पर नजर रख सकते थे। जिला बनने के बाद इसका खासा विकास हुआ और धीरे-धारे मुजफ्फरपुर शिक्षा, साहित्य और सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया। 1917 में चम्पारण में नील की खेती करा रहे अंग्रेज जमींदारों के खिलाफ आंदोलन शुरू करने से पहले जब गांधी जी यहां आए तो शहर उनके प्रति बिल्कुल उदासीन था। निराश हो कर गांधी जी ने यहां के ग्रेअर भूमिहार-ब्राहमण कोंलेज के एक लेक्चरर की मदद ली। उस अध्यापक ने अपने शिष्यों को पकड़ा, तब जाकर गांधी जी का ढंग से स्वागत हो पाया। वह लेक्चरर थे जे बी कृपलानी। आचार्य कृपलानी यहीं से प्रोफेसर हो कर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय गए। बहरहाल, आजादी से पहले यह शहर कांग्रेस, खास कर कांग्रेस से जुड़े समाजवादी नेताओं का गढ़ बन गया था। आजादी के बाद की राजनीति में भी यहां समाजवादी नेता छाए रहे।
--पिता मोतीलाल की डांट और प्रेमिका नीरदा के विछोह से पगलाए मातृविहीन शरत् भागलपुर से यहां-वहां धक्के खाते 1901 की बरसात में मुजफ्फरपुर पहुंचे। पास में थी चरित्रहीन की आधी-अधूरी पांडुलिपि और जहन में कहीं था श्रीकांत। कुछ दिन अपने को छुपाए रखा, पर शहर के बंगाली समाज को जल्द ही उनके गुणों की भनक मिल गयी। फिर तो बंगाली युवकों ने उन्हें सिर-माथे लिया। उन्हें शहर में एक अमीरजादा महादेव साहु मिल गया, जिसके साथ रातें रंगीन होने लगीं। और एक दिन जिसके प्यार में पागल हो शरत् मुजफ्फरपुर आ धमके थे, उस नीरदा ने अपनी पहचान वाले से उन्हें पिटवा तक दिया। पूरी तरह टूट चुके शरत् को रात की किसी मजलिस में मिली राजबाला, जो उनके 15 साल बाद लिखे गए उपन्यास श्रीकांत की नायिका राजलक्ष्मी बनी। शरत् जब-तब मुजफ्फरपुर की अपनी आवारा जिंदगी से घबरा जाते और बूढ़ी गंडक के किनारे बैठ कागजों पर कलम चलाते। प्रमथनाथ भट्ट, निशानाथ बंदोपाध्याय, उनके भाई शिखरनाथ, महादेव साहु, राजबाला, वेश्याओं, साधुओं, जमींदारों, कारकुनों, संगीत प्रेमियों के इस जमावड़े का संग-साथ कोई बड़ा गुल खिलाता कि पिता की मौत ने फिर घसीट लिया शरत् को भागलपुर की ओर। वहां से कलकत्ता भागे और जल्द ही बर्मा की ओर।
--पनास और मिठास, ऊपर से साहित्यिक गतिविधियों की रेलम-पेल, ऐसे ही नहीं कहा गया मुजफ्फरपुर को सांस्कृतिक राजधानी। साहित्य के हर पक्ष पर कलम चली है यहां-यह कर्म पूरे उत्साह के साथ आज भी जारी है। उन्नीसवीं शताब्दी का श्रेष्ठतम उपन्यास ‘बलवंत भूमिहार’ के लेखक पं. भुवनेश्वर मिश्र मुजफ्फरपुर में अध्यापक थे। इस शहर को साहित्यिक पहचान देने वालों में अयोध्याप्रसाद खत्री , बाहर से आए देवकी नंदन खत्री , रामवृक्ष बेनीपुरी, मदन वात्स्यायन, ललित प्रसाद सिंह नटवर, रामधारी सिंह दिनकर, आचार्य रामदीनपांडेय, डा. श्याम नंदन किशोर, आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री , राजेन्द्र प्रसाद सिंह और इस कद के न जाने कितने नाम। आज भी जानकी बल्लभ शास्त्री का निराला निकेतन अपनी उस पहचान को बनाए रखने की मशक्कत कर रहा है, जो पृथ्वीराज कपूर, हरिवंशराय बच्चन, शैलेन्द्र जैसी हस्तियों के आगमन से बनी। जब लेखिका रश्मिरेखा कहती हैं कि उन्हें अपनी साहित्यिक पहचान बनाने के लिए दिल्ली के गलियारों की जरूरत नहीं पड़ी तो मुजफ्फरपुर का अर्थ समझ में आ जाता है। उनकी इस बात में लिच्छवी अहम दिखायी देता है, जिसने ढाई हजार साल पहले मगध सम्राट अजातशत्रु को हीन भावना से ग्रसित कर दिया था। और आज संजय पंकज, पूनम सिंह, मधु रचना, डा. रवीन्द्र उपाध्याय, डा. शेखर शंकर, नन्द किशोर नन्दन, रेवतीरमण, चन्द्र मोहनप्रधान, शांति सुमन, जीतेन्द्र जीवनऔर विजयकान्त जैसे न कितने रचनाकार मुजफ्फरपुर की साहत्यिक पहचान बनाए रखने के लिये जूझ रहे हैं।पिछले साल की बरसात में मुजफ्फरपुर आए थे बनारसी काशीनाथ सिंह। अपने पुराने मित्रों राजेन्द्र प्रसाद सिंह और आनन्द भैरव शाही से मिलने और इस शहर एवं उसके आसपास की यादें ताजा करने। काशीनाथ सिंह के लिये सारा कार्यक्रम तय किया था युवा रचनाकारों की मंडली ने। शाही जी का निवास है मुजफ्फरपुर के एक प्रखंड सरैया में। काशीनाथ सिंह के पहुंचने पर वहां पता नहीं किस की बाहों ने किसको पहले समेटा, लेकिन दृष्य अविस्मरणीय था। और जब चार आंखों से आंसू बह निकले, तो और आंखों को भी भीगते देर नहीं लगी। जब चलने का समय हुआ तो काशानाथ सिंह का एक कदम दरवाजे की ओर बढ़ता तो दो कदम शाही जी की ओर लौटते। चलने में अशक्त शाही जी भी लड़खड़ाते हुए मित्र की ओर बढ़ते। दो दिन मुजफ्फरपुर को गुंजायमान कर काशीनाथ सिंह स्टेशन पर किसी के गले मिले, किसी को छाती से भींचा और किसी से हाथ मिलाया और अंत में यही बोले-अद्भुत समानता है काशी और मुजफ्फरपुर में। --मैथिल, भोजपुरी और वृज्जि के साथ-साथ बांग्ला को भी जोड़ लें तो एक साथ इतनी संस्कृतियों वाली जगह है मुजफ्फरपुर।
साहित्य के साथ-साथ संगीत का भी खासा दखल रहा है मुजफ्फरपुर में। एक समय था जब पंडित ओंकार नाथ ठाकुर, पंडित डीवी पलुस्कर, विनायक राव पटवर्धन और नारायण राव व्यास सरीखे गायक और उस्ताद विलायत खां व उस्ताद रईस खां जैसे अव्वल दर्जे के सितारवादकों की मेजबानी यह शहर साल में दो-चार बार जरूर किया करता था। शहर के रईस उमाशंकर मेहरोत्रा उर्फ बच्चा बाबू और पीएन मेहता के निवास पर इन दिग्गज संगीतकारों का खुले दिल से स्वागत होता था। तो उस समय सुलेमान खां जैसे प्रशासक भी हुआ करते थे, जो शहर में हर साल संगीत समारोह करवाने का ज़ज्बा रखते थे। और यह केवल 25 साल पहले की कहानी है। सन् 75 तक यहां ऐसे समारोह पूरी शान ओ शौकत के साथ हुआ करते थे। और अब यह शहर मॉडलों को रैम्प पर मटकता देखने को बेताब रहता है।
--जो लुधियाना, जालंधर, होशियारपुर, गुरदासपुर आतंकवाद के अंतिम दिनों तक कस्बाई जिंदगी जी रहे थे, आज लंदन-पेरिस के नक्शेकदम पर चल रहे हैं, क्योंकि उन पर प्रवासी पंजाबी बेपनाह पैसा लुटा रहे हैं। कई प्रवासी तो विदेशी मोह छोड़ अपने गांवों में आ बसे हैं और अपने साथ लाए हैं मेहनत से कमाई अकूत सम्पदा। अमेरिका में बसे कुछ पंजाबी डाक्टरों ने तो अमृतसर के मेडिकल कालेज को अत्याधुनिक बनाने का बाकायदा प्रोजेक्ट तैयार किया है। इसे वे अपनी गुरुदक्षिणा मानते हैं। केरल में भी यही हो रहा है और गुजरात में भी। लेकिन क्या यही बात हम बिहार में पाते हैं? या मुजफ्फरपुर में? अफसोस, कतई नहीं। मुजफ्फपुर की एक मोहतरमा इस समय ब्रिटेन भर को समोसे खिला कर अकूत कमाई कर रही हैं। क्या उन्होंने एक बार भी पलट कर अपने शहर को देखा? एक भी पैसा शहर की बेहतरी के लिए खर्च किया? ऐसे न जाने कितने नाम और चेहरे हैं, जो भारत के और शहरों या विदेशों में इंजीनियर-डाक्टर बन पैसा कूट रहे हैं, पर जिनके जेहन में अपने शहर या अपना गांव दूर-दूर तक नहीं है। केवल छठ पूजने या दहीचूड़ा खा लेने से सारे वो सारे कर्जे उतर जाते हैं, जो किसी बही में नहीं चढ़े हुए? किसी ने आज तक घूम कर भी अपने शहर या अपने गांव की दुर्दशा पर निगाह नहीं डाली। यह एक कड़वी सच्चाई है कि बिहार का नौजवान तबका विदेश तो क्या, अगर अपने देश में ही जब भविष्य सुधारने को अपना शहर छोड़ता है तो फिर अपनी धरती पर ईंद के चांद की तरह ही दिखता है।
--नेपाल के पानी से भरी बड़ी-छोटी दर्जनों नदियों से घिरे और दसियों पोखरों वाले मुजफ्फपुर के लिए अभिशाप बन गया है पानी। क्योंकि या तो वह सड़कों के किनारे सालों से पड़ा सड़ रहा है या पीने वाले के गले में उडे¸ल रहा आर्सेनिक या लोहा। हर बारिश में बांध और नदी की नूरां कुश्ती एक उबाऊ खेल बन गया है, जिसकी कमेन्ट्री उससे भी ज्यादा उबाऊ है। इस इलाके की नदियां अपने किनारों पर मिट्टी के लौंदे के तरह पड़े बांधों को देख कर बेकाबू हो जाती हैं। किसी भी बरसात में नदियों को फलता-फूलता देख बांध की तख्ती लगाये कोई भी टीला विश्वामित्र बन डोलने लगता है। पर मेनका बनीं नदियां पूरी निष्ठा के साथ अपना काम करती हैं और हजारों एकड़ खेत, हजारों मकान-झोंपड़े अपने दामन में लपेट कर नाला बन जाती हैं। इन बांधों पर हुई बसावट एक ऐसी दुनिया बन जाती है, जिसका काम केवल सांस लेना और सांस छोड़ना है। मरने पर कोई संताप नहीं और जन्मने पर किसी ढोलक पे थाप नहीं।
--करीब पांच लाख की आबादी वाले इस जिले में एक हजार एमबीबीएस या इससे ऊपर की डिग्री वाले डाक्टरों की क्लीनिक, और यहां-वहां डोलने वाले अनगिनत झोलाछाप नीम हकीम, सौ से ज्यादा नर्सिंग होम और कई सेंकड़ा कैमिस्ट की दुकानें हैं। हर डाक्टर के क्लीनिक के अंदर, बाहर बरामदे में , उसके बाहर के लॉन के जर्रे-जर्रे में सुबह-शाम मरीज ठुंसा रहता है और हर डाक्टर एक नहीं तीन-तीन जगह बैठता है। शहर में एक जगह है जूरन छपरा, जिसे अनाज मंडी, खोआ मंडी या पान मंडी की तर्ज पर चिकित्सा मंडी कहने में कोई गुरेज नहीं। करीब 200 वर्ग मीटर की इस मंडी में मरीजों का सौदा गाय-भैंस की तरह होता है। दिल को दहला देने वाली दरिद्रता के बीच डाक्टर, कैमिस्ट और नर्सिंग होम की ऐसी भरमार आतंकित करती है। करीब एक करोड़ रुपये रोज का व्यवसाय है यहां दवा का। जबकि सरकारी अस्पतालों में या तो नाले का पानी बह रहा है या मरीज के शरीर से निकलता खून और मवाद। और वहां का अमला विश्व स्वास्थ्य संगठन को चूना लगाने की जोड़-तोड़ में लगा है। और सुनिये, मारुति कार वालों का दावा है कि उनके चौपाए खरीदने में उत्तर बिहार सबसे माकूल जगह है, जहां सड़क है ही नहीं। रास्ते हैं जिन पर साइकिल भी नहीं सिर्फ बैलगाड़ी चल सकती है। यहां विदेश जानों वालों की संख्या इस कदर बढ़ गयी है कि कई ट्रैवेलिंग एजेंसियां चांदी काट रही हैं। और बचत इस कदर है कि बैंकों के पेट में अफारा हो गया है।
--एनएच यानी नेशनल हाईवे-बड़ा भारी भरकम नाम लगता है सुनकर। लेकिन मुजफ्फरपुर उत्तर बिहार के किसी शहर से जोड़ता कोई भी हाईवे पगडंडी से ज्यादा की औकात नहीं रखता। पगडंडी की भी अपनी एक मर्यादा होती है, उसके कच्चेपन पर चलने का भी अपना ही लुत्फ होता है, लेकिन जब उधड़ी हुई डामर की सड़क और उस पर अंग्रेजों के समय के लोहे के बने पुल-पुलिया बाहें फैलाये उछलते हुए मिलें तो ऐसा महसूस होता है जैसे पूरा इलाका शापग्रस्त हो। यहां किसी त्रासदी को निराशा कतई हाथ नहीं लगती, क्योंकि भूकम्प आये बिना ही इन हाईवे पर हर वाहन गिरता-पड़ता नजर आता है। एक पुलिया पार कर ली तो चिंता लौटती बार की होने लगती है।
उत्तर बिहार का एक बड़ा हिस्सा भूकम्प के जबरदस्त लपेटे में है और जिसके साथ उसका बहुत अपनापा नहीं है, वह नक्सली मार की जद में है। लेकिन भेदभाव कोई नहीं-हर तरफ भूकम्प और नक्सलियों को ललचाने वाली वही सड़कें और वही पुल-पुलिया। मुजफ्फरपुर सड़क का मुंह चाहे सीतामढ़ी की तरफ हो या मधुबनी, मोतिहारी हो या बेतिया, या बेगूसराय की तरफ, सारे रास्ते धसके हुए हंै। वहां भूकम्प और कितना बिगाड़ लेगा, जो सामने है उसी से तो जी बहलायेगा न!
--मजफ्फरपुर का एक प्रखंड है मुशहरी। 70 के दशक में नक्सलवाद से थर्रा रहे इस प्रखंड में भूदान के जरिये विकास की बयार बहाने को बिहार आंदोलन शुरू करने से पहले जय प्रकाश नारायण कई दिन रुके थे। वह मकान या आश्रम अब खर-पतवार से आच्छादित टीला भर रह गया है-समय की मार की वजह से नहीं, क्योंकि महज 35 साल पुरानी ही तो बात है, इसलिए कि अब कोई जेपी को याद नहीं रखना चाहता। मुशहरी प्रखंड पर याद आया कि इस क्षेत्र में कई जगह मुसहर टोले बसे हुए हैं, जिनके निवासी दरिद्रता की निम्नतम सीमा से भी नीचे जा धंसे हैं। इन्हें भोजन में शायद ही कभी अनाज का दाना नसीब होता हो। ये घोंघे, सीपियां या चूहे खा कर जीवित रहते हैं। इन पर कभी लालू प्रसाद यादव को लाड़ आया था तो इनके बाल कटवाए गए थे और शरीर का मैल उतारने के लिए टैंकरों के पाइप से पानी की मोटी धारा इन पर छोड़ी गयी थी। पता नहीं इन्हें तब से नहाने का मौका मिला या नहीं लेकिन कई सारे रामदीनवाओं, उनकी पत्नियों और उनके बच्चों के काले शरीर और काले पड़ चुके हैं और वे अब अंतिम सांसे गिन रहे हैं। इनको मौत के मुंह में धकेल रहा ढाई फुट से ऊपर न उड़ सकने वाला कालाजार का मच्छर जिंदा ही इनका खून पीकर रहता है। दवाई की एक खुराक सौ रुपये से कम की नहीं बैठती, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के अकूत पैसा बहाने के बावजूद अगले सौ साल तक इनके नसीब में नहीं होगी। इन्हें मरने ही दिया जाए तो इन पर उपकार होगा।
--ट्रक से कोई कुचल मरा तो फलाना एनएच जाम, ट्रक ने बस को टक्कर मारी तो सड़क जाम के साथ-साथ बगल से निकल रही बरौनी एक्सप्रेस का टेंटुआ भी दबा दिया, टीटी ने बिना टिकट यात्री को पकड़ा तो उसके साथियों ने सप्तक्रांति रोक दी, किसी की हत्या हो गयी तो ढिमाका एनएच जाम, कोयला चोरों को पकड़ा तो उनके गांव वालों ने जिस ट्रेन को चाहा उसे खड़ा कर दिया, छात्रों या किसी दैनिक यात्री के लिए एसी कोच नहीं खोला गया तो ट्रेन पर पथराव। यह विध्वंसकारी गुस्सा वैसे तो पूरे बिहार की पहचान बन चुका है लेकिन उत्तर बिहार का यह इलाका तो पता नहीं किस क्रोध में अपने को खाक कर रहा है, जो घूमते पहिये के खांचों में हर क्षण लोहे की छड़ अड़ा रहा है। लगता है कि जैसे गतिशीलता से कोई पूर्वजों का बैर है, जो अब निकल रहा है। जबकि सबसे गतिशील समाज रहा है यहां का। महाभारत के बाद ईसा के छह सौ साल पहले से लेकर ईसा के छह सौ साल बाद तक कश्मीर से कन्याकुमारी और कटक से अटक यानी तब के आज से दो गुने भारत का केंद्र बिंदु रहा है यह इलाका। लेकिन आज विश्व स्वास्थ्य संगठन ने उत्तर बिहार, विशेषकर मुजफ्फरपुर को एड्स, कालाजार, मलेरिया और न जाने कौन-कौन सी घातक बीमारियों का केन्द्र करार दिया है। सड़क, पानी और बिजली, स्वास्थ्य, शिक्षा और कानून व्यव्स्था-सब दुश्वारियों का शिकार हैं और ऐसे बेहाल मुजफ्फरपुर में क्या प्रशासन, क्या अपराधी, क्या पुलिस, क्या जनता और क्या नेता-सब कोढ़ में नाखून लगा रहे हैं। लगता है कि आजाद देश के आजाद बिहार का आजाद मुजफ्फरपुर अपने भाग्यविधाताओं के कारनामों से इस कदर आजिज आ चुका है कि उसके सामने अराजक होने के सिवा और कोई रास्ता ही नहीं बचा है। अब तो हाल यह है कि अगर किसी सड़क पर किसी भलेमानस की मुर्गी किसी वाहन के नीचे आ कर प्राण त्याग दे तो कसम से एक शानदार जाम लगते देर नहीं लगेगी। सारा इलाका जातिवाद को आस्था बना- वो सुबह कभी तो आएगी के भाव में जी रहा है। उसका हर चैन छीन लिया गया है पर उसके अंदर छठ को लेकर सदियों से चला आ रहा उत्साह बरकरार है। हर सावन में सुल्तानगंज से गंगाजल लेकर देवघर में शिव को नहलाना उसके जीवन का एकमात्र मकसद है। कभी-कभी लगता है कि मुजफ्फपुर का हाल कन्नड़ सिनेमा के प्रख्यात अभिनेता राजकुमार जैसा हो गया है, जिन्हें वीरप्पन ने अगवा कर कई दिन अपने साथ घने जंगलों में रखा था। उसमें अनोखापन यही था कि अपह्त होने के कुछ दिन बाद ही राजकुमार को वीरप्पन का साथ भला लगने लगा था। इस असामान्य स्थिति को कहते हैं स्टॉकहोम सिन्ड्रोम, और यही है मुजफ्फरपुर का सबसे बड़ा मर्ज।
हजरत शाह नियाज एक बार फिर याद आ रहे हैं----
न मकीं है ने मकां है न जमीं है ने जमां है
दिल ए बे नवा ने मेरे वहां छावनी है छाई
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