राजीव मित्तल
दो अक्तूबर को लालबहादुर शास्त्री भी जन्मे थे। लेकिन दिल से या बेदिल से याद महात्मा गांधी ही किये जाते हैं। जेल से लेकर किसी चौराहे पर या स्कूलों में गांधी जी का सालाना जापकर्म जैसे-तैसे निपटा ही लिया जाता है। शास्त्री जी को याद करते हैं तो हिन्दी के कुछ अखबार, जिनमें गांधी जी के साथ उनकी फोटो भी छाप दी जाती है। खैर, शास्त्री जी का महत्व इसलिये नहीं कि वे देश के प्रधानमंत्री थे। वो तो कई सारे हो लिये। लेकिन 52-53 की उम्र और उनसे ऊपर वाले जरा सन् चौंसठ की 27 मई को नेहरू जी के न रहने के बाद के क्षण याद करें। क्या उस दिन ऐसा नहीं लग रहा था कि हम अनाथ हो गये! नेहरू के बाद वाले भारत की कल्पना किसी ने की थी क्या! हर उम्र का तबका उस दिन अपने को अभागा मान बिलख रहा था और यही सोच रहा था कि अब क्या होगा। हर तरफ 1948 की 30 जनवरी की शाम जैसा मंजर था। लेकिन तब नेहरू जी हमारे बीच थे। गांधी के बाद नेहरू, बस। उसके बाद शून्य। इसी शून्य को भरने वाले व्यक्ति का नाम था लालबहादुर शास्त्री। प्रधानमंत्री बनने के बाद शुरू के महीने कैसे रहे होंगे यह तो याद नहीं, लेकिन बहुत जल्द यह लग गया था कि नेहरू विहीन भारत समुद्र की लहरों को चीरते पोत की तरह डगमगाये बिना चल रहा है। 1965 का आधा हिस्सा पार होते ही पाकिस्तान से युद्ध। फिर याद करें वो दिन और उन दिनों का मिलान करें 1962 के सर्द दिनों से, जब चीन से जूझ रहा था भारत। तब नेहरू जी हमारे नेता थे, हमारे अगुआ थे। लेकिन चहुं ओर छाया हुआ था अवसाद। उसकी पीड़ा फूट रही थी कैफी आजमी और कवि प्रदीप और न जाने कितने ही कवियों और लेखकों की कलम से, ऐ मेरे वतन के लोगों गाकर देश भर को लता की आवाज रुला रही थी। नेहरू जी आंखें पोंछ रहे थे। उस पीड़ा को सेल्यूलाइड पर उतार रहे थे चेतन आनन्द। उस जैसी पीड़ा का अहसास एक पल को भी हुआ 1965 के युद्ध में? आजादी के बाद पहली बार सन् 65 के अगस्त और उसके बाद के पांच महीने एक साथ कई धाराओं में भारत को जोश के जवार से भर रहे थे। कुल मिला कर डेढ़ साल का शास्त्री जी का प्रधानमंत्री वाला समय मीठी याद बन कई सारी तहों के नीचे दबा पड़ा है। दर्द यही है कि युवा पीढ़ी नहीं जानती और न कभी जान पाएगी उन डेढ़ साल के बारे में। किसी परीक्षा में इस सवाल का जवाब शायद दे दे कि जय जवान जय किसान का नारा किसने बुलंद किया था।
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