राजीव मित्तल
दुनिया के सबसे पुराने साम्राज्यों में एक, सबसे पुराना गणतंत्र, बुद्ध और महावीर की आध्यात्मिक स्थली, गुलाम भारत में बापू की पहली कर्म स्थली, सीता की एक नहीं दो-दो जन्म स्थलियां, युवा हो रहे श्री राम की राक्षस संहार स्थली, जो आगे बढ़ते-बढ़ते कहीं उनकी सुसराल बनी -इन बातों को रटने के साथ-साथ और भी बहुत कुछ है सुतली से सिर की चोटी बांध या आंखों में कड़ुआ तेल डाल ‘राम-रामौ, राम रामौ हाय प्यारी संस्कृतम् तुम न आयीं मैं मरा रच्छ-गच्छ कचूरणम्’ करने के लिये। रामायणकालीन विदेह साम्राज्य, बुद्ध और महावीर कालीन वैशाली साम्राज्य, ईसा से छह सौ साल पहले सम्राट बिम्बसार की लिच्छवी ससुराल-अगर उत्तर बिहार के इतिहास को खंगाला जाए तो रस टपकाने वाली एक-एक बूंद ऐसी होगी कि क्या तिरहुत क्या मैथिल और क्या वृज्जि, सब एक अनंत सुख में डुबकी लगाते नजर आएंगे। और शायद लगा भी रहे हैं अपने इस वर्तमान को भूल कर, जो उस प्रेतशाला का आभास करा रहा है, जिसमें शिव के गण धतूरे और गांजे के नशे में चूर प्रेमचंद की कफन कहानी का चरित्र बने हुए हैं। कुल मिला कर उत्तर बिहार की स्थिति उस युवक सी है, जो कुएं में गिरने से बचने के लिए उस बरगद की जड़ को पकड़े लटका है, जिसकी किसी शाख पर बने मधुमक्खियों के छत्ते से उसके मुंह में शहद टपक रहा है और उसी जड़ पर लटका एक सांप फुंफकार मारता धीरे-धीरे उस तक बढ़ रहा है, नीचे कुएं में लबालब पानी तो ही है। तो अब या तो मीठे गौरवमय इतिहास का शहद चाट लीजिये, या वर्तमान के सांप से निपट लीजिये, इन दोनों का मजा न ले पा रहे हों तो नीचे पानी है ही। इतिहास और वर्तमान के ये दोनों स्वाद मई की लीची और जुलाई की लीची के फर्क को साफ-साफ दर्शा रहे हैं। खैर, इतिहास तो याद करने और भूल जाने का अध्याय है ऐसे में वर्तमान से ही रूबरू होना एक ऐसी जीजीविशा से दो-चार कराता कि हैरत से आंखें फटी की फटी रह जाती हैं। इतनी विपरीत परिस्थितियों में जीने की ऐसी लालसा!
इतिहास की तरह यह भी बिहार की अपनी खास पहचान है, जिस पर बिना मतलब नाज भी किया जा सकता है। प्रो. पोद्दार ने आज के उत्तर बिहार की कितनी सटीक पहचान दी है कि हाथ में सोने का कटोरा लेकर भीख मांगना। यह कुछ उसी तरह है जैसे लखनऊ के नवाबों के वंशज तांगा चलाते थे या टीपू सुल्तान के वंशज कलकत्ता में भीख मांगते थे। गुप्त साम्राज्य के नष्ट हो जाने के बाद बिहार की जो श्री डूबी तो फिर वह कभी उबर नहीं पायी। उत्तर बिहार की तबाही शुरू हुई तेरहवीं शताब्दी से, जब तिरहुत की जमीं पर पहली बार बर्बर तुर्क बंगाल के शासक गयासुद्दीन एवाज ने कदम रखा। फिर तो बरबादी का वह सिलसिला शुरू हुआ, जो अट्ठावन साल के आजाद भारत में भी नहीं थमा है। 1762 में अंग्रेजों को बंगाल और उड़ीसा के साथ-साथ बिहार की दीवानी भी क्या मिली कि पूरे राज्य के खाते-पीते समाज का चरित्र सामंतवादी हो गया। लेकिन रियाया का हाल बद से बदतर होता गया। किसी जमींदार के घर भोज पर चुड़ा-दही और हाथी के कान जितनी बड़ी पूड़ियां खाने के लिये गरीब-गुरबा अपने बच्चों को कंधे पर उठाए पचास-पचास कोस चल कर आते थे, क्योंकि उनके नसीब में कहां था यह ‘छप्पन भोग’।आजाद भारत के शुरुआती दिनों में बिहार इस बुरे हाल में नहीं था। लेकिन पहले से मौजूद सामंतवादी और घोर जातिवादी व्यवस्था ने उन सारी बुराइयों को फिर उचका दिया, जो आजादी की लड़ाई के जोम में दब गयी थीं। उसके बाद शुरू हुआ अपने ही लोगों के हाथों लुटने का दौर, जिसने विकास तो विकास, उसकी तलछट भी नहीं छोड़ी। पूरा उत्तर बिहार पानी से लबालब है, लेकिन उसका कोई उपयोग नहीं। यहां तक कि पीने का पानी भी दूषित हो चला है। बाकी बाढ़ और सुखाड़ के हवाले। जितने किस्म का जिंस और फल यह इलाका पैदा कर रहा है, उतने में ही इसके वारे-न्यारे हो गए होते। लेकिन माल ले जाने के लिये एक भी सड़क साबुत न हो, फूड प्रोसससिंग की फैक्टरियां पेड़ पर लदी लीची को मुंह चिढ़ा रही हों तो किसान दलालों के ही हाथ तो बिकेगा। उद्योग के नाम पर शून्य है यह इलाका। जो थे उस कबाड़ में कबाड़ी तराजू लेकर बैठे हुए हैं। पिछले 25 सालों में इस कदर गैरजिम्मेदाराना खेल खेला गया है उत्तर बिहार के साथ कि मिलान के लिये हमें किसी विदेशी आक्रमणकारी का मुंह जोहना पड़ेगा। पूरा इलाका एक बेतरतीब रिहायशों का जमावड़ा बन लुट-पिट कर सांस लिये जा रहा है क्योंकि उसकी आदत सी जो पड़ गयी है।
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