रविवार, 31 अक्तूबर 2010

बिहार में जवानों की भर्ती

राजीव मित्तल
फलां जगह आयुध भंडार में आग लगी, असलहागार से हथियार चोरी, जवान ने अपने अफसर को गोली मारी, कर्नल की हत्या, रेलगाड़ी की बोगी में फलानी रेजीमेंट के जवानों और यात्रिओं में झड़प, जवानों ने लड़की को छेड़ा या जवानों ने चलती ट्रेन से यात्री को बाहर फेंका- सैक्रेड काऊ यानी सेना से संबंधित ये खबरें अखबारों में जहां-तहां नजर आती हैं। बिहार के अखबारों में इन खबरों के अलावा कुछ और भी बहुतायत से छपता है, उस पर भी नजर डाल ली जाए। जवानों की भर्ती में भगदड़-इतने मरे, इतने घायल, दरभंगा में रैली के दौरान दो दर्जन युवकों की नदी में डूबने से मौत, पूर्णियां में रैली के दैरान कई युवक बेहोश-तीन की मौत, मुजफ्फरपुर में पुलिस अफसर के घर पर बम फेंका, दरभंगा में सेना के बड़े अफसर ने दलालों से सावधान रहने को कहा, दलाल की हत्या आदि-आदि। एक महीना पहले मुजफ्फरपुर के एक दैनिक की लीड खबर जवानों की भर्ती में दलाली और उससे जुड़े अफसरों से सम्बंधित थी। मामला नौ साल पहले 1998 का है, जिसके तार भर्ती बोर्ड से जुड़े हैं। उस साल राज्य में हुई भर्ती में व्यापक धांधली हुई बताते हैं। सेना के ही कुछ अफसरों ने कई युवकों को फर्जी नियुक्तिपत्रों
के साथ रंगेहाथ पकड़ा था। और पकड़ में आने के बाद मामला अदालती बना। जिस पर आरोप लगा, उसी ने कुछ और नाम भी उगले, जो नाम उगले वे दलाल थे। वे दलाल जब तक अपना मुंह खोलते, सेना के कुछ अफसरों का यहां से तबादला हो गया। उन्हें मुजफ्फरपुर की अदालत में पेश होने को सम्मन पर सम्मन भेजे गये। पर कोई नहीं आया और मामला ठंडा पड़ता गया। अदालत ने जब कड़ा रुख अपनाया और उन अफसरों को सम्मन भेजने के साथ ही वरिष्ठ अधिकारियों को डीओ लिखा, तब जाकर कर्नल और मेजर रैंक के उन अफसरों ने मुजफ्फरपुर आकर मामले में गवाही दी। इस केस की अगली सुनवायी दो अप्रैल तय हुई है।
इससे पहले कुछ और वारदात हो चुकी थीं। मसलन मुजफ्फरपुर में ही सेना के अफसर के निवास पर बम फेंका गया और दरभंगा में कुछ सैन्य अफसरों की बाकायदा पिटायी हुई। एक ऐसे राज्य में जहां लाखों युवक बेरोजगार हैं, तो सेना में फौजी, ड्राइवर, चपरासी, धोबी, रसोइया और पुजारी के रूप में भर्ती उन्हें बारोजगार तो बनाती ही है, समाज में सिर उठाने का हौसला भी देती है। लेकिन यही भर्ती जब दलालों के चंगुल में फंस कर नौटंकी बन जाए तो अराजकता और नैराश्य पैदा करती है। यही हो रहा है आज बिहार में ही नहीं बल्कि देश भर में। सेना में जवानों की भर्ती के लिये आमतौर पर मेजर या कैप्टन रेंक का डॉक्टर और कर्नल या लेफ्टिनेंट कर्नल रैंक का अफसर जिम्मेदार होते हैं। नियम तो यह है कि जवानों की भर्ती के लिये सेना के ये अफसरान स्कूल, कॉलेजों के नवयुवाओं को सेना में भर्ती के लिये प्रोत्साहित करें। अखबारों और टीवी पर भर्ती को खूब प्रचारित कराएं। लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है। भर्ती का काम देख रहे हैं सेना के कुछ अफसरों द्वारा पोषित दलाल। ये दलाल आम तौर पर गांव-गांव, शहर-शहर में अपने सम्पर्कों के जरिये उन युवकों को भर्ती के लिये प्रेरित करते हैं, जो किसी भी तरह चालीस-पचास हजार रुपयों का इंतजाम कर सकें। आज के समय में यह कोई बहुत बड़ी रकम नहीं है इसलिये एक बार में पांच-सात सौ युवाओं से वसूली आराम से हो जाती है। वसूली का मोटा हिस्सा उन अफसरों तक पहुंच जाता है, जो भर्ती को अंजाम देते हैं। लेकिन दिक्कत यह होती है कि जगह केवल दो सौ होती हैं, पैसा पांच सौ से ले लिया जाता है। उन दो सौ में 25-30 नाम उनके छांट दीजिये, जिनमें कुछ के लिये बड़ी सिफारिशें, कुछ के लिये यार-दोस्तों के फोन, तो कुछ के लिये ऊपर वालों का आदेश आना लाजिमी है। भर्ती के दो तरीके हैं, जिसमें खुली भर्ती कुल मिला कर एक प्रहसन बन जाती है क्योंकि इसमें कमाई नहीं है। इसमें आवेदन प्रक्रिया से लेकर सामान्य ज्ञान की परीक्षा, दौड़ और फिर मेडिकल फिटनेस तक एक से एक अड़ंगे लगा कर सैंकड़ों युवकों को हतोत्साहित कर बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। सैंकड़ों को रैली में दौड़ा-दौड़ा कर इस कदर तोड़ दिया जाता है कि वे पनाह मांग जाते हैं। इसी रैली में भगदड़ मचती है सैंकड़ों जख्मी होते हैं और दसियों मरते हैं और भर्ती आगे के लिये टल जाती है। परदे के पीछे की भर्ती में होते हैं वे युवक, जिनसे राशि वसूल की जा चुकी है, सिफारिशी तो अपनी जगह हैं ही। लेकिन दलालों ने पैसा थमा दिया होता है पांच सौ नामों का, उन सब को एडस्ट कर पाना नामुमकिन है। दो सौ-ढाई सौ को किसी तरह ले लिया जाता है, जो रह जाते हैं उन्हें आगे देख लेने का आश्वासन मिलता है। जब उसमें देरी होती है तो खड़ी होने लगती है मुसीबत। दलाल अपनी खाल बचाने को कई युवकों को फर्जी नियुक्तिपत्र थमा देते हैं, जब राजफाश होता है, तो उन्हें निकाल बाहर किया जाता है और वे युवक दलाल को तलाशते हैं और दलाल नियुक्ति अफसरों को, जिनका तबादला दो-तीन साल के भीतर कभी भी तय है। इस तरह न जाने कितने मां-बाप अपने नौनिहालों को हिल्ले से लगाने के लिये जमीन-जायदाद बेच कर पैसे का इंतजाम करते हैं, जो पानी में जाता है। और सेना को मिलते हैं वे जवान, जो आंख के अंधे भी हो सकते हैं और गांठ के पूरे भी।

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