यह कलयुग का किस्सा है। 20 वीं सदी के अंतिम वर्षों का कोई दिन। कानपुर प्रवास के दौरान गंगा में छपर-छपर करने की सूझी। किनारे पहुंचे तो गंगा का हाल देख गश आ गया। काला बदबूदार पानी, यहां-वहां मरे जानवरों की सड़ती काया। कुछ देर ठहरे, पर नाक को रुमाल से ढांक कर। अब 21 वीं सदी की शुरुआत का कलयुगी प्रहसन। तब तक गंगा राष्ट्रीय नदी घोषित नहीं हुई थी। एक हॉल का दृष्य। माइक के पीछे हारमोनियम और तानपूरा सहेज कर रखे गये हैं। श्रोतागण आ चुके हैं। आयोजकों को जोगनियों का इंतजार है। तभी बाहर एक तांगा रुका और उसमें से गंगा, जमुना, गोमती, गंडक, कोसी और बागमती वगैरह उतरीं। उनमें से कुछ जलोदर की मरीज लग रहीं थीं तो कुछ अकाल पीड़ित। हॉल में प्रवेश करते ही जलोदरवालियों ने छूटते ही गंगा, जमुना और गोमती से कहा-थोड़ा दूर बैठो बदबू मार रही हो। जैसे ही गंगा माइक के पीछे जाकर बैठी, गंडक, कोसी और नर्मदा नाक पर पल्लू रख बड़बड़ाईं-लगता है सीधे कानपुर से चली आ रही है। तभी किसी आयोजक ने कैसेट लगा दिया-गंगा मइया तोरे पियरी चढ़इबो । कान में आवाज पड़ते ही गंगा चीत्कार कर उठी-नहीं, मुझे नहीं सुनना यह गाना। उसने अपनी चीथड़ा हो चुकी रेशमी साड़ी से आंखें पोंछी और बोली-अच्छी भली मैं आकाश मैं वास करती थी। सगर के साठ हजार पुत्रों को तारने के लिये राजा भागीरथ ने मुझे धरती पर बुलवा लिया और अब मेरा काम यहां मुर्दों को ढोना भर रह गया है। यह जो मेरी बहन यमुना बैठी है, चलने-फिरने से भी लाचार हो चली है। कुछ साल पहले तक हिरनी सी कूदती-फांदती फिरे थी। बजबजाते नाले सी बन कर रह गयी है। मुझे अपना भी इस जैसा हाल होता दिखायी दे रहा है। मेरे उद्गम स्थल तक को कम्बख्तों ने कचरे से लाद दिया है। कितने नाज-नखरों से मुझे पाला गया था। भगवान शिव मुझे अपनी जटाओं में लिये घुमते थे। कैसा बहका कर मुझे धरती पर छोड़ा गया था कि बड़ी पावन जगह है, यहां देवताओं का वास है। हर युग में चैन की बंसुरी बजाओगी। अब देख लो मेरा हाल। कीड़े तक पड़ने लगे हैं शरीर में। इस देश का हर इनसान सुबह-शाम मां गंगे-मां गंगे का राग अलापता फिरेगा और तन-मन की सारी गंदगी भी मुझी में बहाता फिरेगा।बहरहाल गंगा का किनारा किसी चीनी मिल का पिछवाड़ा बनता जा रहा है, जिसकी तीखी बास मीलों तक छितरायी रहती है। वाटर के नाम पर दंगा मचाने वालों के गंगाजल में चर्म रोग पैदा करने वाला कालीफार्मा नामक कीटाणु पैठ चुका है। गंगा जगह-जगह अपने किनारों से कई-कई किलोमीटर खिसक चुकी है। अब इस सच्चाई का सामना अभी से करना शुरू कर दीजिये कि गंगाजल मटकों में भर लिया जाए। गाहे-बगाहे काम आएगा। क्योंकि गंगा को अपने उद्गम स्थल पर ही आगे बढ़ने के लिये यहां-वहां पसरे कचरे को एक्सक्यूम मी कहना पड़ रहा है। और जैसे पांच साल पहले खुदाई में किसी साकेत नगरी के पता लगने का शोर मचा था वैसे ही कभी आगे चल कर देश के उत्तरी हिस्से में किसी खुदाई से एक नाला निकलेगा तो हो सकता है हमारी किसी औलाद की औलाद के मुंह से निकल पड़े कहीं यह वही गंगा तो नहीं।
कानपुर में सर्वाधिक ‘जहरीली’ हो गई गंगा
ब्रजेन्द्र प्रताप सिंह
फर्रूखाबाद-कन्नौज होते हुए बिठूर के रास्ते शहर में आने वाली गंगा यहाँ से निकलते हुए सर्वाधिक मुश्किलों का सामना करती है। इस शहर का मैला ढोते-ढोते रूठ गई गंगा ने अपने घाटों को छोड़ दिया है। गंगा बैराज बनाकर भले गंगा का पानी घाटों तक लाने की कवायद हुई मगर वो रौनक शहर के घाटों पर नहीं लौटी। यह शहर गंगा का बड़ा गुनहगार है। 50 लाख की आबादी का रोज का मैला 36 छोटे-बड़े नालों के जरिए सीधे गंगा में उड़ेला जाता है। 50 करोड़ लीटर रोजाना सीवरेज गंगा में डालने वाले इस शहर में गंगा एक्शन प्लान, इंडोडच परियोजना के तहत करोड़ों रुपए खर्च किए गए। जाजमऊ में सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाए गए मगर वह न तो क्षमता पूरी है और न ट्रीटमेंट प्लांट पूरी ताकत के साथ चलाए गए। गंगा प्रदूषण नियंत्रण इकाई और क्षेत्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के दफ्तर इस शहर में स्थापित हैं। मगर कुलजमा 15 करोड़ लीटर सीवरेज ही ट्रीट किए जाने का व्यवस्था हुई। गंगा की गोद में सैकड़ों लाशें यूँ ही फेंक दी जाती रहीं है और यह हरकत अब तक जारी है। गंगा की गोद के किनारे बसे जाजमऊ की टेनरियों से निकला जहरीला क्रोमियम गंगा के लिए काल बन गया। टेनरियों से निकलने वाले स्लज में क्रोमियम की मात्रा खतरनाक स्थितियों तक पहुँच गई तब भी यह शहर और सरकार के अफसर नहीं जागे। दो दशक पहले जब शहर में गंगा सफाई के लिए संतों ने आंदोलन छेड़ा तो कुछ दिन बाद गंगा की सफाई का अभियान ठप हो गया। गंगा किनारे स्थिति टेनरियों से निकला क्रोमियमयुक्त स्लज ट्रीटमेंट प्लांटों की बेईमानी के कारण गंगा में तो गया ही, जाजमऊ के दो दर्जन पड़ोसी गांवों शेखपुर, जाना, प्योंदी, मवैया, वाजिदपुर, तिवारीपुर, सलेमपुर समेत अन्य में ग्राउंड वाटर 120 फिट नीचे तक जहरीला हो गया तो प्रशासन के होश उड़ गए। खेत जल गए और अब इन गांवों में पशुओं का गर्भपात होने लगा है। सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट लगे होने के बावजूद गंगा में गंदगी उड़ेली जा रही है। स्वामी हरि चैतन्य महाराज ने हाईकोर्ट में याचिका करते हुए गंगा की सफाई में हो रही मनमानी की शिकायत की तो कोर्ट ने इसकी निगरानी शुरू कराई। काला-भूरा हो गया गंगा का पानी इस शहर में आचमन लायक नहीं बचा। जाजमऊ की टेनरियों के अलावा भी मुश्किलें हैं। ग्लू बनाने की अवैध फैक्ट्रियाँ गंगा किनारे स्थापित कर दी गईं। हाईकोर्ट के आदेश पर 32 टेनरियाँ सील की गईं और चार टेनरी मालिकों को जेल भेजा गया मगर गंगा में गंदगी का जाना बंद नहीं हुआ है। प्रशासनिक मिलीभगत से सील की गई कई टेनरियाँ खुल गई हैं। हाईकोर्ट के तेवर सख्त होने के बाद शहर के अफसरों ने गंगा में नाला नहीं गिराए जाने और कई नाले बंद कर दिए जाने का हलफनामा दे दिया मगर इसमें सच से ज्यादा झूठ है। टीबी अस्पताल का नाला तक सीधे गंगा में गिरता है। गंगा प्रदूषण नियंत्रण इकाई (जल निगम) ने कोर्ट के सामने एक और फरेब पेश किया है कि गंगा में सीधे गिरने वाले नालों को पाण्डु नदी की ओर बिनगवां में बनाए गए ट्रीटमेंट प्लांट की ओर मोड़ा जा रहा है। मगर, बिनगवां में ट्रीटमेंट प्लांट का निर्माण अभी तीन वर्ष तक पूरा होता नहीं दिख रहा। पर्यावरणीय लिहाज से भी इस ट्रीटमेंट प्लांट को कई स्वीकृतियाँ अभी तक हासिल नहीं हुईं। ऐसे शहर की गंदगी डाइवर्ट भी हो गई तो पाण्डु नदी के सहारे यह शहर से 20 किलोमीटर दूर फतेहपुर जिले की सीमा में फिर गंगा की गोद मैली करेगी। यानी, यह कवायद कानपुर जिले के अफसरों के गर्दन बचाओ अभियान से ज्यादा कुछ नहीं।
पहाड़ से उतरते ही दम तोड़ती गंगा
हरिद्वार पहाड़ से उतरते ही हरिद्वार में जहां से गंगा मैदान को स्पर्श करती है,वहां से कभी गंगा ने सात धाराओं में विभक्त हो सप्तऋषियों को सम्मान दिया था। आज तो यहां सहस्र आश्रम,मठ, मंदिर और धर्मशालाएं हैं। एक बहुत बड़ी बस्ती है। जनमानस का ताप-पाप हरने वाली गंगा स्वयं घोर संकट में हैं। यहां उसका वेग ही कम नहीं होता तेज भी कम हो जाता है। राजा सगर के 60 हजार पुत्रों सहित असंख्य व्यक्तियों के अस्थि अवशेषों को अपने अंक में लेकर उनको मोक्ष प्रदान करने वाली गंगा अपने ही उद्धार की बाट जो रही है। वर्तमान में गंगा मेन सीवर राइजिंग लाइन बनकर रह गई है। नगर के गंगा तटीय क्षेत्र में प्रतिवर्ष टनों पॉलीथीन-प्लास्टिक गंगा तल में समाजाता है। प्रति सप्ताह हजारों की संख्या में प्लास्टिक की बोतलें गंगा में पहुंचकर गंगा की धमनियोंं को अवरूद्ध कर रही हों।
उत्तरी हरिद्वार का बड़ा भूभाग सीवर रहित है। वर्ष 1986 से प्रारम्भ हुआ गंगा प्रदूषण नियंत्रण अभियान भी इस दिशा में कुछ विशेष नहीं कर पाया है। सप्त सरोवर से मायापुर तक लगभग दस किलोमीटर क्षेत्र में दर्जनों गंदे नाले- नालियां ही नहीं अपितु सीवरेज पंपों का ओवर फ्लो भी गंगा में मिलता है। नगरीय क्षेत्र में गंगा तट पर लगभग एक दर्जन से अधिक स्थानों पर धोबीघाट हैं तो प्रत्येक 50 मीटर की दूरी पर गंगा तट को वाहनों की धुलाई-सफाई के लिये निशुल्क सर्विस स्टेशन के रूप में प्रयोग किया जाता है। डेयरियों का गोबर, हर तरह का मलबा, भोजनालयों की झूठन, पुण्य अर्जन हेतु लिखी गई राम-नाम की कॉपियां, मृतक प्रियजन की शेष बची दवाईयां, एक्सरे, थूक-बलगम, खून से सने कपड़े, मांगलिक कार्य के बाद बची हवन कुंड की राख, कटी-फटी धार्मिक पुस्तकें, पुराने बही खाते, धार्मिक चित्र कैलेण्डर, पूजा की अवशेष सामग्री सभी कुछ तो गंगा के हिस्से में आता है। सरकारी -गैर सरकारी संगठन, सामाजिक-धार्मिक संस्थायें गंगा के नाम पर वातानुकूलित कमरों में बैठकर मिनरल वाटर सेवन के साथ टैम्स- राईन नदियों के जल की गुणवत्ता का उदाहरण देकर गंगा प्रदूषण की चिंता तक सिमट कर रह जाते हैं। लाखों श्रद्धालु प्रतिदिन प्रदूषित गंगा जल में स्नान-आचमन करते हैं। खनन ने भी गंगा के प्रवाह को बाधित- प्रदूषित ही नहीं किया है बल्कि गंगा संरक्षण में प्रभावी जलचरों को खतरे में डाला है। मातृसदन के स्वामी शिवानंद कहते हैं कि चार नवम्बर को गंगा राष्ट्रीय नदी घोषित की गई और सात नवम्बर की सुबह से ही सैकडों की संख्या में ट्रक-ट्रैक्टर गंगा की धारा को चीरते हुये खनन के लिये टूट पड़े। पर्यावरण विशेषज्ञ डा. नरेश चन्द्र त्रेहन पॉलीथीन को लेकर चिंतित हैं कहते है इसमेें डाई इथाइल हैक्साइल प्थैलेट मिलाया जाता है। जल में पड़ा रहने पर इससे निकले तत्व जिगर, कैंसर तथा यौन रोगों को जन्म दे सकते हैं।
करोड़ों खर्च पर गंगा जल आचमन लायक भी नहींवाराणसीपूर्व प्रधानमंत्री स्व.राजीव गांधी ने वर्ष 1985 में काशी से गंगा निर्मलीकरण योजना का शुभारंभ किया तो मकसद यह था कि इस देव नदी का पानी फिर से पीने योग्य बनाया जाए। लेकिन पीने को कौन कहे गंगा का पानी नहाने लायक भी नहीं बचा। 1500 करोड़ खर्च कर पांच वर्ष में ही गंगा को प्रदूषणमुक्त बनाने का ख्वाब, ख्वाब ही रह गया। अब माना जा रहा कि निर्मलीकरण योजना 22 वर्ष पीछे चली गयी है।
अपने प्रधानमंत्रित्वकाल में स्व.गांधी गंगा निर्मलीकरण योजना में खुद रुचि लेते थे। बाद की सरकारों की प्राथमिकता से शायद गंगा योजना बाहर होती गयी और हालत यह कि 100 करोड़ से ज्यादा खर्च करने के बाद भी वाराणसी में गंगा प्रदूषित ही हैं। जल निगम के गंगा प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के प्रोजेक्ट मैनेजर आरपी सिंह बताते हैं कि अब तक दो चरणों में करीब 100 करोड़ से ज्यादा खर्च किया गया। दीनापुर, भगवानपुर एवं डीरेका में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट बनाया गया जबकि गंगा किनारे सात स्थानों पर एसटीपी का निर्माण हुआ। अब अगले चरण में रमना में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट की योजना है। जमीन अधिग्रहण का काम पूरा हो चुका है। संकटमोचन फाउंडेशन को 37 एमएलडी की क्षमता का सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट तैयार करना है। 102 एमएलडी क्षमता का सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट तैयार हो चुका है। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से वाराणसी में गंगा के शुद्धीकरण के लिए 339 एमएलडी क्षमता के शोेधन संयंत्र की आवश्यकता है। अगले चरण की योजना 500 करोड़ से अधिक की बन रही है। काशी की गंगासेवी जनता उम्मीद कर रही कि यह योजना ईमानदारी से पूरी हो गई तो गंगा नहाने लायक हो जाएंगी।
प्रदूषण मुक्ति के उपाय कागजीबुलंदशहर जिले के नरौरा, राजघाट, कर्णवास और रामघाट गंगा तटों पर गंगा नदी को प्रदूषण से मुक्ति के उपाय कागजी साबित हुए हैं। कार्य योजनाएं बनी लेकिन सब टांय टांय फिस्स होकर रह गईं। इन तीर्थ स्थलों पर वर्ष भर लाखों लोग मेले और धार्मिक पर्वों पर स्नान कर पुण्य लाभ अर्जित करते हंै। जनजागरण के अभाव में निर्मल गंगा प्रदूषित होकर अपना स्वरूप खोती जा रही है ।
गंगा तटों को प्रदूषण मुक्त करने के लिए नगर और ग्राम पंचायतों ने भी पहल नहीं की है। नतीजन नगर और गांवों के नाले गंगा को प्रदूषित कर रहे हैं । तटों पर पॉलीथिन और अन्य कचरा देखा जा सकता है। नरौरा नगर में एनएपीएस टाउनशिप में सिर्फ मलशोधन संयंत्र लगा है। नालों का पानी शोधित करने की तरफ किसी का ध्यान नहीं है। नरौरा में गंगा तटों की देखभाल का जिम्मा सिंचाई विभाग के अधीन है। नरौरा हैड वक्र्स के एसडीओ प्रमोद कुमार का कहना है कि उनका कार्य गंगा के पानी के प्रबंधन तक सीमित है। वहीं राजघाट के प्रधान राजू वल्मिीकी ग्राम पंचायत की जिम्मेदारी सिर्फ घाटों और रिहायसी बस्तियों तक ही साफ सफाई को मानते हैं।
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