राजीव मित्तल
सामने है तीन साल पहले की एक रिपोर्ट मय तस्वीर के। तस्वीर में एक मां और उसका बेटा। दोनों को कालाजार। पति और बच्चों, नाते-रिश्तेदारों को इसी रोग ने मुर्दा बना कर किसी नदी या तालाब में फिंकवा दिया है या जमीन में दफन करा दिया है । तस्वीर में मां-बेटा दोनों की आंखोें के खोखल बता रहे हैं दुनिया से विदा लेने की तैयारी है। यह तस्वीर तब की है जब मधुबनी के बाबूबरही विधानसभा क्षेμा के उप चुनाव में राष्ट्रीय और राज्य के नेताओं की रेलमपेल मची हुई थी। उनकी खबर लाने गये गये रिपोर्टर को पता नहीं क्या सूझी कि दो किलोमीटर दूर एक मुसहर टोले में पहुंच गया और भेज दी उस मुसहर टोले में कालाजार की तबाही की खबर। एक तरह से यही है कालाजार से अपना पहला साक्षात्कार।
मुसहर यानी जिसका आहार मूस हो। बिहार में जब गेहूं-चावल की कटाई का सीजन आता है तो खेतों में चूहों की बाढ़ आ जाती है। ये चूहे सौ-सौ ग्राम वाले नहीं, बल्कि किलो-किलो से ज्यादा भारी होते हैं। फसल काटने को जो मजूर बुलाये जाते हैं, वे और उनके बाल-बच्चे काम के साथ-साथ अपने भोजन के लिये यही चूहे पकड़ते हैं। बिहार के किसी भी गांव में सबसे किनारे होता है मुसहरों का टोला। इन्हें दलित भी अपने आसपास देखना पसंद नहीं करते, छूने और खाने-पीने की बात ही छोड़िये। तो, नेताओं की पहुंच से माμा दो हजार मीटर दूर बसी मुसहरों की चार सौ परिवारों की सतघरा नाम की इस बस्ती में ढाई साल की अवधि में ढाई सौ से अधिक बच्चे, युवा, बूढे, मर्द और औरतें उस मच्छर का शिकार हो चुके हैं, जिसकी उड़ान ढाई से छह फुट की ऊंचाई तक ही होती है। बदबू मारते नाले या तालाब, कूड़े के ढेरों के आसपास बनी झोंपड़ी में जमीन पर सोया हुआ भूखा इनसान इन मच्छरों का सबसे सुलभ शिकार होता है। ऐसी किसी भी बस्ती में रिश्ते-नाते कतई बेमानी हैं। पैदा हुए बच्चे को मां का दूध नसीब होता भी होगा, इसका तो पता नहीं, पर यह तय है कि उसके मुंह में डाले गये भोजन का पहला कौर किसी सड़े-गले पशु या नदी-तालाब के किनारे के घोंघे या किसी चूहे के मांस का ही होता है और पहले ही दिन से यमदूत उसे निहारना शुरू कर देते हैं। इस तरह के हजारों टोले हैं उत्तर बिहार के करीब बीस जिलों में।
तो, बाबूबरही विधानसभा के उस उपचुनाव के मौके पर इस मुसहर टोले की तरफ न झांकने वाले एक से एक नामी-गिरामी नेता कस्बे में आए अपने पार्टी उम्मीदवार को जिताने के लिये। उन सज्जन ने भी चक्कर लगाया, जिन्हें कालाजार उन्मूलन के नाम पर इस देश का राष्ट्रपति पद्मश्री का तमगा थमा चुका है। अस्सी के दशक में जय प्रकाश नारायण के निजी चिकित्सक रहे डॉ. सीपी ठाकुर को कालाजार पर अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विशेषज्ञता का रुतबा हासिल है। कालाजार रोगियों के लिये भगवान से कम हैसियत नहीं रही है। फिर वह सांसद बने, देश के स्वास्थ्य मंμाी भी बन गये। लेकिन तब तक उन्हें कालाजार से विरक्ति हो चुकी थी। हां, विश्व स्वास्थ्य संगठन से उन्हें कालाजार उन्मूलन के नाम पर डॉलरों की सौगात नियमित दी जाती रही। और अब किसी कमाऊ दवा कम्पनी के मालिक (तय है कि कम्पनी उनके नाम पर नहीं होगी) होने के साथ-साथ एक सरकारी आयोग की गैर सरकारी रिपोर्ट के अनुसार कई नरसंहारों की जनक रणवीर सेना के पदाधिकारी भी हैं डॉ. सीपी ठाकुर। 1996-98 के दौरान हुए जहानाबाद के हैबसपुर और लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहारों में सीबीआई ने उनके खिलाफ चार्जशीट तैयार की थी। कई दिन तक भूमिगत रहे, फिर सुन्दर सिंह भन्डारी के कार्यकाल में राज्यपाल भवन में काफी समय छुपे रहे। उस समय राज्यपाल का ओएसडी डॉक्टर साहब का ही कोई रिश्तेदार था, उसी की बदौलत मामला सुलटा। केन्द्र में सत्ता बदली तो स्वास्थ्य मंμाी बने, रिश्वत के एक मामले में हटाये गये, फिर दूसरा मंμाालय थमा दिया गया आदि,आदि।
दुनिया में नब्बे फीसदी भारत में, भारत में नब्बे फीसदी बिहार में, बिहार में नब्बे फीसदी उत्तरी इलाके में और उत्तरी इलाके में नब्बे फीसदी मुसहर टोलों में कालाजार का प्रकोप है लेकिन खास बात यह कि चाहे चम्पारण हो, चाहे मिथिलांचल या फिर तिरहुत का इलाका, इनके गांव के किसी भी मुसहर टोले में कालाजार से मरने वालों की संख्या नब्बे फीसदी से ज्यादा ही होती है।
कालाजार नाम की बीमारी इस देश को आजादी के साथ साथ ही हासिल हुई। उससे करीब 45 साल पहले अंग्रेज सत्ता इसके दर्शन कर चुकी थी। 1904 में बरास्ता अफ्रीका या दक्षिण अमेरिका से भारत आयी इस महामारी ने असम के ब्रह्मपुμा, बंगाल के हुगली और उत्तर बिहार में मुजफ्फरपुर के बूढ़ी गंडक से सटे इलाकों में कदम धरा था। विदेशों में अब लोमड़ियों-भेड़ियों में बची और भारत में असम-बंगाल में पूरी तरह खत्म हो चुकी इस महामारी को उत्तर बिहार में गरीबी, जहालत और सरकारी तंμा का जोकराना रवैया इस कदर भाया कि2006 का साल भी उसके लिये सौ साल पहले जितना ही महफूज है।
बताया जाता है कि पिछली शताब्दी के शुरू में दो अंग्रेज जाड़ा लग कर आये बुखार की चपेट में आ गये और उनके शरीर पर काले-काले चकत्ते पड़ गये। तभी से नाम पड़ गया काला जार। 1937 तक यह महामारी पचास हजार इन्सानों की जान ले चुकी थी। उस समय बंगाल इस रोग का सबसे बड़ा गढ़ था। 1939 में डॉ. ब्रह्मचारी नाम के एक नामी चिकित्सक ने यूरिया इस्थुरिबिन का ईजाद कर कालाजार से लड़ने की ठानी। इस दवा की छह सुईं देने से ही मरीज ठीक होने लगे। दवा ने 1950 तक संजीवनी का काम किया। आजादी के बाद मलेरिया उन्मूलन के लिये सरकार की ओर से बड़े पैमाने पर डीडीटी छिड़काव अभियान शुरू हुआ। अभियान में कालाजार का खात्मा भी शामिल था। 1960 तक डीडीटी छिड़काव ने देश भर में मलेरिया और असम, बिहार और बंगाल में कालाजार को काफी हद तक काबू में कर लिया। लेकिन जब अंतिम चोट करने का वक्त आया तो बिहार का शासनतंμा गाफिल हो गया। जबकि इस दौरान बंगाल और असम अपने-अपने क्षेμाों को सील कर डीडीटी का छिड़काव करवाते रहे। बिहार में उस समय बरती गयी लापरवाही का खामियाजा आज पूरा उत्तरी इलाका भुगत रहा है। पहले कम से कम कर्तव्यनिष्ठा का नाटक तो खेल लिया जाता था, आज उसकी जगह शुद्ध रूप से कफन चोरी ने ले ली है। 70 के दशक की शुरुआत में डीडीटी के ड्रम कालाबाजार में पहुंचाये जान लगे और छिड़काव कागजों पर टंकने लगा। और 1974 आते-आते उत्तरी बिहार 1937 वाले हालात में पहुंच गया। इस बार कालाजार का हमला सर्वाधिक विनाशकारी था। शुरुआत हुई वैशाली और मुजफ्फरपुर जिलों से। फिर इस महामारी ने किनारा पकड़ा गंडक, बागमती, कोसी और कमला नदियों का और तेजी से पूरे क्षेμा में फैलती चली गयी। और तब तक बिहार की राजनीति भी कुत्सित हो चली थी, जिससे आज तक निजात नहीं मिल पायी है। किसी भी दल की सरकार में कालाजार से लड़ने की मंशा ही नहीं रह गयी, इच्छाशक्ति को तो भाड़ में झोंकिये । रहा प्रशासन, तो उसे खुद की जेब भी भरनी थी और मंμाी-नेता को भी हिस्सा देना था। इसलिये आजाद भारत के तीसवें साल में बिहार में हुआ कालाजार का प्रादुर्भाव डॉक्टरों की अंधी कमाई का, अफसरों की मक्कारी का और नेतागिरी में तरावट लाने का अहम जरिया बन गया। तब से सरकारी योजनाओं के अंधकूप में इस महामारी के उन्मूलन के नाम पर अरबों रुपया उडे¸ला जा चुका है। विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनेस्को डॉलरों की बरसात कर रहे हैं, लेकिन मुसहरों के शरीर पर पड़ने वाले काले चकत्ते और गहराते जा रहे हैं।
कालाजार के इतिहास की झलकी के कुछ हिस्से मुजफ्फरपुर के कालाजार विशेषज्ञ डॉ. टीके झा के एक लेख से मारे गये हैं। कालाजार के पटना विशेषज्ञ डॉ. सीपी ठाकुर अगर अन्तरराष्ट्रीय ख्याति पा गये तो डॉ. झा भी जेनेवा में कालाजार पर परचा पढ़ने पहुंच गये। हालांकि वह शोध प्रबंध दरभंगा के डॉ. मोहन मिश्र का बताया जाता है। डॉ. मोहन मिश्र ने इस दिशा में काफी काम किया, पर दुर्भाग्य से उनके काम का नतीजा दरभंगा से बाहर निकलने ही नहीं दिया गया। डॉ. झा एक क्लीनिक और एक नर्सिंगहोम के कर्ताधर्ता हैं। कालाजार उन्मूलन के नाम पर डॉलरों से इन्हें भी गुरेज नहीं, जो मिलते तो हैं मरीज की दवा, उसके खान-पान, उसके समुचित इलाज और रिहायश के लिये, लेकिन मरीज के नसीब में ये सब आता तभी है जब विश्व स्वास्थ्य संगठन की टीम यह परखने आयी हो कि कहीं उसका पैसा बट्टेखाते में तो नहीं जा रहा है।
यहां कालाजार के अलावा अन्य बातों का जिक्र करना इसलिये जरूरी लगा ताकि पता चलता रहे कि हम कितनी निर्मम व्यवस्था के साक्षी हैं। यह वो व्यवस्था है, जिसके चलते पिछले छह साल से राज्य सरकार की ओर से कालाजार से बचाव के लिये एक पैसा खर्च नहीं किया गया, जबकि इस बीमारी को नियंμाण में रखने के लिये केन्द्र और राज्य दोनों को इस बारे में नियत राशि में आधा-आधा हिस्सा देना जरूरी है। इस दौरान उत्तर बिहार के किसी गांव में एक छंटाक डीडीटी का छिड़काव नहीं हुआ। जबकि पिछले तीन साल में पचास लाख की डीडीटी गोदामों में पड़ी रह गयी या उसे बेच कर पैसा बनाया गया, या जिसके ट्रकों पर लदे ड्रम के ड्रम लुटते रहे। डीडीटी छिड़काव की एक बानगी और-पिछले साल बाढ़ के बाद की महामारियों से बचाव के लिये मुजफ्फरपुर जिले के 16 प्रखंडों के एक-एक स्वास्थ्य केन्द्र को छिड़काव के लिये दी गयी डीडीटी की माμाा थी सौ ग्राम। दुनिया भर में कालाजार से सर्वाधिक प्रभावित मुजफ्फरपुर जिले में इस सौ ग्राम डीडीटी का स्प्रे पांच हजार घरों में करना था। जबकि यह माμाा पांच घरों के लिये भी नाकाफी है।
अब आएं कालाजार रोगियों को मरने न देने वाली उन दवाओं पर, जिनको धकियाते हुए इंसान की चमड़ी को कोयले सा काला कर देने वाले फ्लेबोटोमस या सी-सी फ्लाई नाम का मच्छर नदी-तालाब के किनारे की बालू के ढूहों से उछाल मार कर ढाई से छह फुट की ऊंचाई तक उड़ रहा है। जिसके डेनों पर मिसाइल की तरह लदे हैं लेइशमनिया और डोनोवनाई नाम के विषाणु। चालीस-पचास के दशक में हजारों मरीजों की जान बचाने वाली डॉ. ब्रह्मचारी द्वारा ईजाद की हुई दवाई यूरिया इस्थुरिबिन आगे चल कर अपना असर खो बैठी क्योंकि कालाजार के मच्छर ने उससे लड़ने की ताकत हासिल कर ली थी। डीडीटी के साथ भी लगभग ऐसा ही कुछ हुआ। लेकिन यह अधूरा सच है। अगर पचास के दशक में इन दोनों का इस्तेमाल पूरी गम्भीरता से हुआ होता तो फ्लेबोटोमस का सफाया हो गया होता। बल्कि उस समय तो डीडीटी का छिड़काव ही कामयाब रहता। सबसे बड़ी बात यह थी कि यूरिया इस्थुरिबिन की सुईं ने कालाजार का इलाज करते हुए अपनी तरफ से और कोई रोग पैदा नहीं किया। सुलभ तो थी ही, जेबकतरी भी नहीं थी। जबकि आगे आने वाली दवाओं ने कालाजार रोगियों को एक से एक घातक बीमारियों की सौगात दे डाली, निर्माता कम्पनियों को करोड़पति बना दिया और डॉक्टरों के नर्सिंगहोम खुलवा दिये। बाद के दशकों में इस महामारी के हमलों ने एक-एक बार में हजारों की जान ली। मरीजों की संख्या 20 लाख से ऊपर पहुंच गयी और मरने वाले कम से कम तीस फीसदी। तब कोई माकूल दवा सामने थी भी नहीं।
80 के दशक में केन्द्र सरकार ने कालाजार पर हरिचरण कमेटी बनायी, जिसने इस महामारी की विकराल होती जा रही स्थिति के लिये केन्द्र और राज्य सरकार दोनों ही को कटघरे में ला खड़ा किया। इधर, विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रयासों से एक दवाई सामने आयी पेन्टामीडीन, जिसकी सुईं लगवाये मरीजों में हर दूसरा व्यक्ति मधुमेह का शिकार हो गया। यह हाल देख सरकार ने अपनी तरफ से इसकी खरीद रोक दी। लेकिन तब तक इस दवा ने उत्तरी बिहार की निजी या सरकारी चिकित्सा व्यवस्था को भष्ट बनाने में अपना योगदान दे दिया था। जैसे शराब बंदी में जहरीली दारू का मार्केट बढ़ जाता है और पीने वाले बेभाव मरते हैं उसी तरह बंदिश लग जाने के बाद बरास्ते नेपाल पेन्टामीडीन की तस्करी बढ़ गयी। दाम-एक वायल पांच सौ रुपये में। इसकी तस्करी में तेजी आने का एक कारण और रहा कि उत्तरी बिहार एड्स का भी भरपूर उपजाऊ इलाका है, जिसके मरीज को आमतौर पर सबसे पहले न्यूमोसिस्टिस कैरिनी न्यूमोनिया होता है, जो फेफड़ों के इन्फेक्शन से संबंधित है। इसमें भी पेन्टामीडीन ही काम करती है। इस तरह पेन्टामीडीन और फिजिशयन-दोनों के दो-दो हाथों में लड्डू। इस दवा की असुलभता ने इसका एक जबरदस्त कारोबारी गुण पेश किया है। पांच सौ रुपये वाली इस दवा की खाली शीशी पचास रुपये में आसानी से बिक जाती है, बस उस पर रैपर अपनी जगह मौजूद रहे। उस खाली शीशी में पानी भर कर भी बेचा जाये तो 200 रुपये तो कहीं नहीं गये। 10 से 40 दिन तक इस दवा की सुईं लगवानी जरूरी है। इस तरह न जाने कितने फटेहाल रोगियों को डॉक्टरों के दलाल कम पैसे के नाम पर पेन्टामीडीन की जगह डिस्ट्रिल्ड वाटर की सुईं लगवा रहे हैं।यह तो हुआ मरे को मारे वाली दवा का बायोडाटा, अब आइये दूसरी दवा की चारिμिाक विशेषताएं परखें। सोडियम एन्टीमनी कलकत्ता की एक कम्पनी बनाती है। कुछ साल से मुजफ्फरपुर के एक बाहुबली ने भी इसकी फैक्टरी लगा ली। इस दवा का एक वायल सौ रुपये का बैठता है। एक वायल में 30 मिलीलीटर दवा होती है। कोर्स है 300 मिलीलीटर अर्थात 10 वायल का। पूरा कोर्स 20 से 40 दिन में हो जाना जरूरी है। खेल यहीं से शुरू होता है। पहले सरकारी अस्पताल चलें। वहां कालाजार के मरीजों की भारी-भरकम संख्या को देखते हुए रोगियों की छोटी-छोटी यूनिट बना दी जाती हैं। मसलन सौ रोगी हुए तो बीस-बीस की पांच यूनिट बना कर उन्हें पांच डॉक्टर के हाथों में सौंप दिया कि तुम जानो तुम्हारा काम जाने। अस्पताल में सोडियम एन्टीमनी की मारामारी मची ही रहती है। दवा आयी तो सबसे बड़ा हाथ मारता है, लाठी और भैंस के सिद्धांत पर चलते हुए वो डॉक्टर, जिसका साला या बहनोई मंμाी है या बड़ा नेता है और जो सवर्ण जाति का है। भूमिहार या ब्राह्मण हुआ तो क्या कहने। कोटे से ज्यादा मिली दवा का इस्तेमाल वह अपने निजी क्लीनिक में आये रोगियों पर करता है। सरकारी डॉक्टर की कमाई ऐसे होती है। सरकारी अस्पताल का खेल और ज्यादा भयानक है। वहां का कम्पाउंडर मरीज को कभी भी पूरी खुराक की दवा भरकर सुईं नहीं लगाता। अगर एक बार में छह मि.लीटर दवा मरीज के शरीर जानी है तो वह पचास फीसदी भी हो सकती है और 25 भी। बाकी का काम पानी से चलता है।
दूसरे, इस दवाई की वायल 30 मिलीली. की ही बनायी जा रही है, इसके चलते रोगी या उसके परिजनों को यह दवाई खरीदने के लिये हर थोड़े दिनों में पैसों का जुगाड़ करना पड़ता है, जब हुआ तो सुईं लगवाली, नहीं हुआ तो कोर्स टूट गया, यानी कालाजार का वजूद उतने ही परिमाण में कायम। इसीलिये कुछ संवेदनशील डाक्टरों ने सोटियम एन्टीमनी के डेढ़-डेढ़ सौ के वायल बनाने का अनुरोध किया था, ताकि दवा का आधा कोर्स तो रोगी के शरीर में पहुंच जाए। लेकिन दवा निर्माता कम्पनी यह कब चाहती है कि कालाजार का सफाया हो जाए।
फिलहाल तो इस समय सोडियम एन्टीमनी बिहार में कालाजार से निपटने की सबसे सुलभ और सस्ती दवा है। पेन्टामीडीन की तरह कम घातक दवा नहीं है सोडियम एन्टीमनी। इसका इस्तेमाल करने वाले के ह्दय में सूजन आ जाती है और शरीर में शुगर की माμाा कम हो जाती है। सरकारी अस्पतालों में इसकी सप्लाई अक्सर एक्सपायरी डेट करीब आने पर की जाती है, जहां पहुंचते-पहुंचते वो डेट भी निकल जाती है। ऊपर से आदेश आता है कि इसे नष्ट कर दिया जाये, पर ऐसा होता नहीं। सरकारी अस्पताल वालों के जरिये दवा बनाने वाली स्थानीय कम्पनी ही कौड़ियों के भाव खरीद कर, वायल की शीशियों पर नया रैपर लगा कर फिर बाजार में उतार देती है।
कालाजार की तीसरी दवा फंगीजोन गुर्दों के लिए बेहद घातक है। महंगी भी बहुत है। इसका 7-10 दिन का कोर्स 5 से 15 हजार रुपये तक का बैठता है। एड्स रोग के फंगल इन्फैक्शन में भी इसी की सुर्इं लगती है, जिसके चलते इसकी मांग ज्यादा है। इस रोग में एकमाμा खाने की गोली है इम्पेविडो, जो एक विदेशी कम्पनी बनाती है। इसे बाजार में काफी जोर-शोर से उतारा गया, लेकिन यह इस कदर नामुराद साबित हई कि साढ़े आठ हजार रुपये फूंकने और 28 दिन तक नियमित खाने के बाद भी परिणाम शून्य ही रहा। कम्पनी ने इस क्षेμा के डाक्टरों को भरपूर चढ़ावा चढ़ाया ताकि दवा क्लिक कर जाये, लेकिन स्वास्थ्य सेवा ने हाथ खड़े कर दिये।
कालाजार उन्मूलन के नाम पर अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत कुछ इसलिये नहीं हो रहा है क्योंकि इस बीमारी के लपेटे में केवल भारत का बिहार राज्य है। और जो दवाइयां विदेशी कम्पनियां बना रही हैं वे और कई सारे घातक रोग देने वाली साबित हुई हैं। इस समय इस बीमारी के उन्मूलन को लेकर चार शोध केन्द्र चल रहे हैं। मुजफ्फरपुर, दरभंगा, पटना और वाराणसी। शोेध कर रही कुछ शख्सियत के बारे में ऊपर इशारा किया जा चुका है। मुजफ्फरपुर इस बीमारी का मुख्य केन्द्र है। यहां के मेडिकल कॉलेज में अभी तक पीजी की पढ़ाई नहीं है, न ही वहां किसी तरह के शोध का कोई साधन है। शहर में वाराणसी मेडिकल कॉलेज के सहयोग से कालाजार ट्रीटमेंट सेंटर जरूर चल रहा है। दरभंगा में कुछ ठोस काम हुआ, पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। यह एक छोटी सी झलक है हमारी स्वास्थ्य सेवा और घातक रोगों की तासीर के एक ही होने की। फर्क बस इतना है कि रोग का फलसफा है-मारो और डॉक्टर जेब पर हाथ फेरते हुए बुदबुदाता है- मरने दो। सरकारी स्तर पर राहत व बचाव के बजाये जा रहे नगाड़े कैसे भी रोग के लिये शहनाई से ज्यादा कुछ नहीं।
बिहार का सामाजिक तानाबाना कालाजार के मच्छर फ्लेबोटोमस की सवर्णवादी सोच के बेहद अनुकूल है। इसी के चलते वह समाज के सबसे धकियाये मुसहर समुदाय का जानी दुश्मन बना हुआ है। दवा बनाने वाली कम्पनियां भी सवर्णों के हाथों में, तो स्वास्थ्य सेवा में सवर्णों का बोलबाला। कुल मिला कर कालाजार सवर्णवादी व्यवस्था की उस राक्षसी प्रवृति का द्योतक बन गया है, जो आजादी के साठ साल बाद भी बिहार के जर्रे-जर्रे में लहलहा रही है।
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