बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

बलवाइयों के हाथ का मोहरा न बनें

राजीव मित्तल
मेरठ में अब तक जितनी बार हिंसक वारदात हुईं, बलवाइयों की पौबारह रही है और शिकार हुए हैं शहर के बाशिदें। और इस बार तो कोई मुद्दा था ही नहीं। चंद लोगों की आपसी मारपीट अगर साम्प्रदायिक जामा पहन मेरठ को झुलसा सकती है तो इस शहर का खुदा ही मालिक है। यहां कट्टरपंथी मानसिकता जैसे कुलाचे भरने लगती है और जहां पानी है वहां भी आग की लपटें उठने लगती हैं। शहर उप्रदवियों के हवाले ऐसे हो जाता है जैसे उसका खुद का कोई वजूद ही न हो। न इतिहास न वर्तमान और न ही भविष्य। मेरठ की इसी मानसिकता ने उसे 21वीं सदी के नौंवे साल में भी कुछ करने-धरने लायक नहीं छोड़ा हुआ है। यह शहर सांस लेना भी एक आदत है वाले अंदाज में जी रहा है। कुछ दिन तक कमेले का झमेला चला, जो कुल मिला कर शांति से निपट गया। इससे लगा कि मेरठ का मानसिक अधकचरापन परिपक्व हो रहा है, लेकिन 16 जून की शाम साढ़े चार बजे की वारदात, जो कहीं भी हो सकती है और हो कर अपने आप ही शांत भी हो जाती है, मेरठ के लिये बवाले जान बन गयी। करीब 40 घंटे से हर कोई दुश्चिन्ताओं के दौर से गुजर रहा है कि अब क्या होगा। पिछला भोगा दंगों का इतिहास हर किसी की आंखों को और सूना बना रहा है, उसकी भूख-प्यास खत्म हो गयी है, उसे अपना वर्तमान और भविष्य फिर किसी काले साये से घिरा नजर आ रहा है। वो तो भला हो प्रशासन और पुलिस का, कि न तो वे उत्तेजित हुए और न ही मामले को ज्यादा बिगड़ने दिया। लेकिन जैसे किसी गम्भीर रोगी के बारे में डॉक्टर की हिदायत होती है न कि 24 घंटे अभी वॉच करना है, कुछ यही स्थिति 17 जून 2009 के मेरठ की है। सब ऊपर वाले से यही प्रार्थना करें कि ये 24 या 48 घंटे ठीकठाक निकल जाएं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें