शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

शुक्रतारा-बरसों की चुप से पहले जब कवि बोला था

राजीव मित्तल

रूस के किसी बंदरगाह पर लंगर डाले जहाज की चिमनियों की सफाई करते हुए सात-आठ साल का लड़का एक दिन छेद के अंदर इस बुरी तरह फंस जाता है कि किसी भी तरह निकल नहीं पा रहा है। उसकी चीखें बाहर तक आ रही रही हैं, जिन्हें सुन कर बैचेन जहाज का फ्रांसीसी इंजीनियर अपने कप्तान से कहता है कि बच्चे को किसी भी तरह बचाओ। परेशान कप्तान रात को एक और बच्चे के बदन और चेहरे पर कालिख पोत कर इंजीनियर के सामने खड़ा कर देता है कि देखो बचा लिया। इंजीनियर बच्चे को दुलारता हुआ जहाज का लंगर उठाने का इशारा करता है। इंजन की भट्ठियां सुलगा दी जाती हैं और जहाज चल पड़ता है। गंतव्य पर पहुंच कर जहाज की भट्ठियां ठंडी पड़ जाती हैं और चिमनियों की सफाई का काम शुरू हो जाता है। वहां से गुजर रहे उस फ्रांसीसी इंजीनियर को चिमनी की राख में कोई चमकीली चीज नजर आती है। वह उठा कर देखता है तो उसके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। वह आग में बेडौल हो गया चांदी का सिक्का था, जो कुछ दिन पहले किसी बात पर खुश हो कर उसने चिमनी में फंसे लड़के को दिया था। जैसा भी था सिक्का तो था, पर लड़का बिल्कुल ही नहीं था। ऊषा-स्तवन, स्पृहणीय चन्द्रमा, झउआ के फूल, शुक्रतारा का गान करने वाले इंजीनियर की कलम असुरपुरी की राक्षसी मशीनों की धक-धक खच-खच पर कैसे खामोश रहती!
एक शाम अखबार के दफ्तर में परिचित का फोन आया कि एक कवि का निधन हो गया। मुजफ्फरपुर के ही थे, बीमारी की हालत में दिल्ली के अस्पताल में मौत हुई। यह भी कि अज्ञेय के तीसरा सप्तक में उनकी भी कविताएं थीं। उनकी मौत पर ‘कुछ’ छप जाए तो अच्छा होगा। हिंदी के कवि के मर जाने की खबर को मीडिया जिस भाव से लेता है, उससे कुछ बेहतर वह ‘कुछ’ छप भी गया, लेकिन! ‘शुक्रतारा’ को पढ़ते हुए मन को यही कचोटता रहा कि मदन वात्स्यायन को कितने बेगानेपन से जाने दिया गया! शुक्रतारा के जरिये मदन वात्स्यायन की कविताएं इतने अप्रत्याशित ढंग से सामने आयीं कि चकित रह गया। महीनों बाद भी उनकी एक-एक कविता एक नयी दुनिया में ले जा रही है। कवियत्री रश्मि रेखा ने कागजों के ढेर से - तीसरा सप्तक में छप चुकीं या यहां वहां टूटफूट में छपी रचनाओं को छोड़- तलाश कर सड़सठ कविताओं का ‘शुक्रतारा’ सामने ला कर बताया है कि मदन वात्स्यायन कौन थे।
कैमिकल इंजीनियर लक्ष्मीनिवास सिंह ने सिंदरी खाद के कारखाने में पता नहीं कौन-कौन से कैमिकल पचा कर मदन वात्स्यायन की कलम से कागज पर जो लिखवा दिया, वह अप्रतिम है। कारखाने की मशीनों से निकलती आवाजों को संवाद देने का काम तलाश करने पर भी नजर नहीं आता। मशीनों की दहशत से कभी दो-चार कराया था कुप्रिन की ‘मलोच’ ने या बोरिस लाव्रेन्योव की ‘मामूली बात’ ने, जिसका जिक्र शुरुआत में ही है। ‘असुरपुरी में दस से छह’ की धक-धक खच-खच की आवाजों की क्रूरता हाड़-मांस गला देती है। और खुद कवि को आगे के 42 बरसों की खामोशी में धकेल देती है। शुक्रतारा की सभी सड़सठ कविताएं 1962 तक लिखी जा चुकी थीं और मदन वात्स्यायन तीसरा सप्तक में उससे भी छह साल पहले आ चुके थे। उसके बाद इंग्लैंड से पास किया यह कैमिकल इंजीनियर सिंदरी के खाद कारखाने में कब मशीन का बेकार हो चुके पुर्जा बनने की प्रक्रिया में आ गया, इसका किसी को पता ही नहीं चला। अपने कवि को सिंदरी में दफनाने और वर्ष 78 में रिटायरमेंट के बाद मदन वात्स्यायन मुजफ्फरपुर या मोतिहारी में रहते हुए क्या करते रहे, दिन के चौबीस घंटे, महीने के तीस और साल के 365 चौबीस घंटों का हर दिन कैसे गुजरता था उनका, इसकी अगर खोजबीन की जाए, तो हो सकता है व्यवस्था का कोई एक और क्रूर रूप सामने आए। लेकिन हिंदी का बारम्बार सामने आना वाला तकलीफदेह सच यह है कि सन् 62 के बाद मदन वात्स्यायन अपनी कलम के साथ हमें नहीं दिखे किसी भी मोड़ पर। उन पर भी किसी ने कुछ लिखा भी नहीं। मदन वात्स्यायन के इस तरह किनाराकशी कर लेने का ही नतीजा है कि उन्हें जानने के लिये हमारे पास सिर्फ शुक्रतारा है।
शुक्रतारा में मदन वात्स्यायन ने उपमाओं का बिल्कुल नया और अनछुए शब्दों का संसार तैयार किया है। सांप और अफसरों, कारखाने और बबूल के वन को एक साथ रखने का। सात रंग में बोला भैरव, शीश उठा के भोंपा बोला। मेरे हाथ में जुए की एक और बाजी की तरह, ऊषे तुम फिर आ गयी हो। गार्ड की रौशनी सा पीछे-पीछे गुमसुम अब शुक्रतारा जा रहा है। शारदीय ग्लैमर तरसावे, माधवी परकीया तड़पावे। मेरी बेटी, तेरे दुश्मनों की कसम, सप्तर्षि जैसे तेरे सात दांतों का हंसना मधुर है, मुझे पर आज भी याद आता है, शुक्रतारे सा तेरा वह दांत। बेटी तू आदमी है या मालती की बेल है। अभी तेरी छुट्टी के पैंतीस दिन हैं, अगर दो दिन की छुट्टी ले कर लिवा लाने चला जाऊंगा तो तैंतीस, अब आज तो बीत ही चला, बत्तीस समझो, कल दिन भर व्यस्त रहूंगा तो इकतीस, गोया एक मास, तीस रोज! और किताब की आखिरी कविता ‘शतरंज’ की ये पंक्तियां-जो मुहरा तुम्हारे रंग का है, वह तुम्हारा है, जो मुहरा तुम्हारे रंग का नहीं है, वह तुम्हारा विपक्षी है, शतरंज में समझौता नहीं होता...........बिना मुहरों का बादशाह नहीं जीतता। अगर मदन वात्स्यायन डायरी लिखते तो वह शुक्रतारा से ज्यादा बेमिसाल होती। यह भी तो हो सकता है शुक्रतारा ही वो डायरी हो!

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