शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

गाय की अतड़ियों से एवरेस्ट की चोटी तक

राजीव मित्तल
कुछ साल पहले देश के एक छोटे मगर सड़ंाध से बजबजाते शहर में पर्यावरण दिवस पर कई सारी चिंताएं प्रकट की गयीं थीं। हरियाली की याद में पौधे भी रोपे गए, आगे भी कुछ ऐसा ही करने की कसमें खायी गयीं और आने वाली पीढ़ी के लिये विनाश के आगमन की आशंका जता कर थोड़ी चिल्ल-पों भी हुई। हर 365 दिन बाद आने वाले इसी पावन दिवस पर उस पॉलिथीन को भस्मासुर करार दिया गया, जो साल के हर दिन, हर घंटे, हर पल हाथों की, घर-घर की अलमारियों की, कूड़े से अटी नालियों की और गाय की अतड़ियों की शोभा बढ़ा रहा है। अब इसमें बहैसियत रेलवे मंμाी लालू प्रसाद यादव क्या कर लेंगे, जो अपने ऐलानिया कुल्हड़ में याμिायों को चाय नहीं पिलवा पा रहे, क्योंकि बादशाहो, प्लास्टिक दे कपों दा जवाब नहीं।
इस देश में कभी दूध की (भैंस के नहीं गाय के) नदियां बहा करती थीं या गंगा तेरा पानी अमृत-ये पौराणिक आख्यान कई दशकों से मुम्बइया फिल्मों का स्थायी भाव बने हुए हैं। जबकि दसियों साल से हरिद्वार तक आते-आते गंगाजल जहरीले रसायन में बदल चुका है, तो कानपुर तक आते-आते खुद गंगा आपके किसी भी शहर के गंदे नाले का μाासद रूप धारण कर चुकी है और गऊ माता कूड़े के ढेर में मुंह मार रही है। कुछ बरस पहले तक जिसमें से उसे खाने को दोने या पत्तल जैसे पदार्थ तो मिल जाते थे उन ढेरों से अब उसके पेट में जहर जा रहा है। गंगा को पावन बनाए रखने की भड़ैंती जारी है, जिससे उसका रूप और विद्रूप हो चला है। हमारी ये दोनों आस्थाएं ढाई हजार साल पहले किसी ग्रीक और रोमन वृक्ष के तने से निकले चिपचिपे पदार्थ के चंगुल में बुरी तरह जकड़ चुकी हैं।
इस चिपचिपे पदार्थ के वर्तमान रूप ने करीब डेढ़ सौ साल पहले आकार लिया था। पहले बिलियर्ड की गेंद, फिर सेल्यूलाइड और 1930 आते आते शुरू हो गया प्लास्टिक युग। लोहे सा मजबूत, कपास सा मुलायम, बांस की कच्ची टहनी सा लचकीला, किसी भी रंग-रूप और आकार में ढलने की करिश्माई काबिलियत, कूड़े के ढेर से उठा कर फिर से इस्तेमाल होने का अनमोल गुण। न जंग लगती है न कीड़ा, किसी भी तरह के मौसम का कोई असर नहीं। गाय के पेट में जाए तो जस का तस बाहर आ जाए। इसका वजन किसी भी हद तक कम किया जा सकता है। यानी इसके गुण हमारे देवताओं की नींद हराम कर देने वाले किसी भी असुर को अपने गरेबां में झांकने को मजबूर कर दें। इसे केवल जला कर खत्म किया सकता है लेकिन तब यह और विनाशकारी हो उठता है। प्लास्टिक का घरेलू इस्तेमाल किसी न किसी जहरीले रसायन का आवक है। खाद्य पदार्थ लाने-ले जाने में इसका इस्तेमाल शरीर के अंदर कैसा भी जहर पहुंचाता ही पहुंचाता है तो, इस्तेमाल के बाद फेंक दिया जाना नदी-नालों को सड़ा रहा है।
भारत का अलीगढ़ हो या महादेश अमेरिका का शिकागो, हम इनसान इस जहर का इस्तेमाल अपने जिगर के टुकड़े पर भी धड़ल्ले से करते आ रहे हैं-चाहे दूध की बोतल का निप्पल हो या चुसनी, या खिलौने-हम उसके मुंह में डाल देते हैं पॉलि विनयाल क्लोराइड, जिसका उसके गुर्दे, जिगर पर सबसे घातक असर पड़ता है। यह जहर बेहद मुलायम और नरम प्लास्टिक में सबसे अधिक पाया जाता है। बच्चों के मकसद से बनाये गये प्लास्टिक के सामान की मुलायमियत फलालैट्स के तैलीय कारक से आती है, जो खुद भी एक जहर है, जिसका दुष्प्रभाव बच्चे के विकास पर पड़ता है। मिठाइयों, तले-भुने मसालेदार स्वादिष्ट नमकीन खाद्य पदार्थों की वाहक पॉलिथीन की थैलियों के जरिये हम अपने शरीर में विनायल, क्लोराइड, स्टाइरीन, एकिलोेनाइट्राइल, एकिलामाइड, एस्टर्स, सीसा, प्लास्टिसाइजर और बेरियम जैसे रसायनों को पहुंचा रहे हैं, जो किसी भी योगविद्या से बाहर नहीं निकाले जा सकते। भारत में पॉलिथीन की अरबों थैलियों का रोजाना इस्तेमाल होता है, जिनमें करोड़ों कम से कम पांच बार पहले ही काम में लायी जा चुकी होती हैं। फिर-फिर इस्तेमाल के लिए इन थैलियों को ब्लीच कर इनमें तरह-तरह के रंगों का इस्तेमाल किया जाता है, जो इन्हें जहर का पिटारा बना देते हंै। इन रंगों में मौजूद सीसा, जस्ता, तांबा, लोहा आदि धातुएं सीधे शरीर के अंदर जा कर अंग-अंग में समा जाती हैं और गुर्दे, कैंसर और सांस को बीमारियों को जन्म देती हैं। रंगीन थैलियों में रखे खाने के सामान में उन रंगों का असर आ जाता है और चूल्हे पर चढ़ते ही वह रंग अपना कैमिकल उसमें छोड़ देता है, जो शरीर की स्वस्थ कोशिकाओं को नष्ट करने का काम करता है। पीला रंग हड्डियों को नुकसान पहुंचा कर शरीर को विकृत बनाता है, गुलाबी रंग किडनी पर असर डालता है, काले और नीले रंगों की थैलियों से क्रोमियम और लीड शरीर में जाता है। इसीलिये अमेरिका-यूरोप में पॉलिथीन में रंगों का इस्तेमाल नहीं होता। और फिर सारे मानक तोड़ कर मुनाफे के पीछे भागने वाले हमारे देश में पॉलिथीन के थैले 20 की जगह पांच माइक्रोन के वजन के बनाए जाते हैं। नेपाल से तस्करी होकर आने वाले थैले तो पांच माइक्रोन से भी कम के होते हैं। इस आधुनिक आसुरी पदार्थ का दुनिया भर में दस खरब डॉलर का धंधा चल रहा है, जिसमें भारत की हिस्सेदारी चार अरब बिलियन डॉलर की है यानी माμा 0.4 फीसदी लेकिन जल्द ही वह इस भूरी क्रांति में अमेरिका से होड़ लेने वाला है।

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