रविवार, 31 अक्तूबर 2010

कन्याओं को दबोचो और मार डालो का जुनून

राजीव मित्तल
हम लड़कियां खेल सकें जो खेल
इसलिये उतरती है शाम
उस खेल का नाम है गोल्लाछूट
एक बार फिर मेरा मन होता है
मैं भी खेलूं
अभी भी कभी-कभी आकुल-व्याकुल होती हैं पांवों की उंगलियां
धूल में धंस जाना चाहती हैं एड़ियां
मेरा मन होता है जाऊं
दुनिया की तमाम लड़कियां
लगा दें गोल्लाछूट दौड़
तस्लीमा नसरीन की कई साल पहले लिखीं इन पंक्तियों ने बांग्लादेश के तालिबानी चेहरों को गुस्से से लाल कर दिया था कि अरे, यह तो नारी जात को बगावत सिखा रही है, शरीयत के खिलाफ जा रही है। तब तो तस्लीमा ने कई तरह की सफाइयां दे कर अपना बचाव कर लिया था, लेकिन बाद में लेखन और कट्टरपंथ पर किये प्रहारों ने उन्हें देश से ही भाग निकलने को मजबूर कर दिया। इसी तरह कई पूजनीय देवियों वाले इस भारतवर्ष में दक्षिण फिल्मों की कलाकार खुश्बू को इसलिये प्रताड़ित किया जा रहा है कि उसने लड़की हो कर विवाह से पहले सुरक्षित यौन संबंधों की बात कही। यह कोई स्वाकारोक्ति या अवैध संबंधों की
वकालत नहीं, बल्कि एड्स से बचाव की बात थी। उसका जीना मुहाल हो गया है। यहां तक कि तमिल सरकार तक उसके पीछे हाथ धोकर पड़ गयी है। खुश्बू के समर्थन में बयान देने वाली सानिया मिर्जा को दूसरे ही दिन मुल्ला-मौलवियों का भय सताने लगा और उसने बयान बदलने में ही भलाई समझी, लेकिन हां, स्कर्ट का कम-ज्यादा लम्बाई वाला बयान उसके जी का जंजाल बनना लाजिमी है। और जो न किसी भी तरह का बयान देने काबिल हैं, न ही जिन्होंने इस दुनिया में आ कर एक भी सांस ली है, उन कन्याओं के भ्रूण कचरे के ढेर में इस तरह फेंके जा रहे हैं, जैसे उनकी माएं पेट में लड़की नहीं, किसी गंदगी को पनाह दिये हों। विश्वास न हो तो जूरन छपरा या किसी भी शहर के चौक-चौराहों पर लगे कचरे के ढेर खंगाल लीजिये, बिन हाथ-पांव का मांस का लोथड़ा पड़ा मिल जाएगा, जो शर्तिया लड़की का ही होगा। अगर भ्रूण लड़के का निकला तो अफसोस, मामला अवैध संबंधों का है। लड़कियों के भ्रूण कचरे में तो मिल ही रहे हैं, उन्हें पैदा होते ही तलवार से काट देने या गला टीप देने, अल्ट्रा साउंड के जरिये लड़की होने की पुष्टि होने पर गर्भपात करा देने की असंख्य घटनाओं से दुनिया की आधी आबादी का हाल इस देश की प्रातज् वंदनीय और सांध्य नमनीय गंगा या गाय जैसा हो गया है। नारीत्व के ये तीनों प्रकार हर दिन-हर क्षण कहीं न कहीं पूजे जा रहे होते हैं। गऊ माता या गंगा मैया का जाप करने वालों का गला नहीं दुखता, किसी देवी का पाठ पूरे भक्तिभाव से चल रहा, पर धरती पर उछलती-कूदती जवान लड़की उनकी तालिबानी आंखों को कतई नहीं भाती। लड़की को कैसे खत्म किया जाए, इसके उपाय पूरे मनोयोग से तलाशे जाते हैं। लड़की जात को कांग्रेस घास की तरह उखाड़ फेंकने का अभियान भारत जैसे ‘उदार’, ‘सहिष्णु ’ और पाकिस्तान जैसे ‘कट्टरपंथी’ देश में ही नहीं, पूरी दुनिया में जोर-शोर से चल रहा है। इस अभियान की दिल को थर्रा देने वाली सच्चाई बयान कर रही है संयुक्त राष्ट्र संघ की कई सर्वेक्षण रिपोर्ट। भ्रूण हत्या, घरेलू हिंसा , हवस के मारों की शिकार और अपनी नाक ऊंची रखने के चक्कर में विश्व भर में नारी जात की आबादी 20 करोड़ कम हो चुकी है। यह आंकड़े और भी भयावह हो जाते हैं, जब इनमें भारत के कई राज्यों में जायदाद के बंटवारे से बचने के लिये मारी जाने वाली औरतों की संख्या भी शामिल कर ली जाए। संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट यह भी बताती है कि कन्या को पेट के अंदर ही खत्म कर देने का तो यह दौर जुनूनी हो चला है क्योंकि धरती पर आने के बाद कन्या से पीछा छुड़ाने का मामला तो हत्या का बन जाता है। हो सकता है कि जेल में कुछ दिन गुजारने पड़ जाएं, पर पेट के अंदर ही खत्म कर देने से कोई खतरा नहीं रहता। उस मामले में भी कानून हैं, लेकिन वे इतने लचर हैं कि कुछ नहीं होने वाला। बस, डाक्टर या डाक्टरनी की मुट्ठी गरम कर दीजिये, कन्या से भरा पेट साफ। अगर पास में पैसा नहीं है या मामला अवैध संबंधों का है तो इस देश में कचरे की ढेरों की कोई कमी नहीं। मोटामोटी अब वही कन्याएं सुरक्षित हैं, जो पेज-थ्री की शोभा बनने वली खसूसियत रखती हों, पर जुबान से किसी मुल्ला-मौलवी या पंडे-पुजारियों के खिलाफ एक शब्द न निकालती हों, सारा ध्यान पुरुषों को भरमाने में लगाती हों, जिनमें अपने पैरों पर खड़ी होने कुव्वत हो, बाप की जायदाद में हक न मांगने की मजबूरी से समझौता कर लिया हो और जिनमें दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों में अकेले रहने की हिम्मत हो। लेकिन उन्हें भी बड़े शहरों के हब्शियों से बचाव के साधन जरूर तलाशने होंगे क्योंकि ऐसी खुदमुख्तार लड़कियों के लिये तंदूर हर जगह भभक रहे हैं। कन्या हत्याओं के चलते इस देश के कई राज्यों में हाल यह हो गया है कि वहां पुरुष सालों कुंवारा बैठा रह जाता है और वंश चलाने के लिये आखिरकार उसे उड़ीसा या बंगाल की बेसहारा औरतों का पल्ला थामना पड़ रहा है। डाक्टरों और नर्सिंगहोम की मंडी जूरन छपरा के कचरे के ढेर ऐसा ही संकेत बिहार को भी दे रहे हैं। लेकिन इस राज्य में बरसों से रुपया पीट रहे वो एक हजार एनजीओ कहां हैं, जो हर साल इस श्लोक में अपना भी सुर मिलाते हैं-या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिथानमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमोनमज्

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