राजीव मित्तल
जून के लगातार तीन सप्ताहों में अमिताभ। पहले देव, फिर लक्ष्य और फिर दीवार। गोविंद निहलानी की देव साम्प्रादायिक दंगों पर एक ऐसी फिल्म है, जो मणिरत्नम की बॉम्बे को बौना बना कर रख देती है और उससे भी ज्यादा नायाब खुद अमिताभ। अपनी एंग्री यंगमैन की इमेज को उन्होंने जिस छटपटाते आक्रोश में बदला है वह उनके अभिनय का वो विस्तार है, जो 80-90 के दशकों में मनमोहन देसाई, प्रकाश मेहरा, यश चौपड़ा के संग्राहलय में किसी जीवाश्म सा शीशे के जार में पड़ा हुआ था। बिल्कुल शुरुआत में अपनी तीन फिल्मों - सात हिंदुस्तानी, रेशमा और शेरा व आनंद - में अभिनय और कानों में घुस दिमाग के परदे छू लेने वाली अपनी आवाज से राजकपूर, देवानंद और दिलीप कुमार युग को इतिहास में समेटने को मजबूर करने वाले अमिताभ लगता है 62 साठ की उम्र में अभिनय की एक नयी इबारत लिख रहे हैं।सफलता के चरम में 12 साल मेहरा-देसाई-चौपड़ा के बंधुआ मजदूर बने रहे अमिताभ जा फंसे केसी बोकाड़िया, टीनू आनंद और मुकुल आनंद के घेरे में और एक से एक रद्दी फिल्में कीं। रही सही कसर पूरी कर दी इंसानियत जैसी निहायत गावदी किस्म की फिल्म ने। इस फिल्म को देख किसी ने झल्ला के लिखा भी था कि अब बस करो अमिताभ। और अमिताभ पांच साल की गुमनामी में चले गये। और फिर लौटे 20 वीं सदी के बिल्कुल अंत में । लौटने के बाद वो काफी थके से लग रहे थे। फिर आर्थिक तौर पर बुरी तरह टूट चुके अमिताभ को यश चौपड़ा के घर जा कर गुजारिश करनी पड़ी कि काम दे दो, तब मिली मौहब्बतें। उसके बाद कभी खुशी कभी गम। दोनों खूब चलीं और उनके पैर फिर जमने लगे। लेकिन आखें, अक्स, कांटे और अरमान में वह महानायक नहीं बल्कि एक नये अंदाज में थे। और अब देव, जिसमें उनकी रेंज का ओर-छोर नजर नहीं आता। ओमपुरी जैसा खांटी अभिनेता तक उनके सामने अभिनय की सारी परिभाषायें याद करता सा लगता है। आवाज का वो जादू, जो उम्र की भेंट चढ़ चुका है, उसे अमिताभ ने दिल तक धंसने वाली वाली फुसफुसाहट में बदल दिया। एक जीनियस के हाथों में पड़ कर अमिताभ जो कर सकते थे, कर गुजरे।लक्ष्य को लेकर जो उत्साह जगा था, उस पर अमिताभ ने कम फरहान अख्तर ने ज्यादा पानी फेरा। फिल्म भले ही एलओसी से ज्यादा तार्किक हो, लेकिन बस, इससे ज्यादा कुछ नहीं। अमिताभ को तो जाया किया ही फरहान ने, ओमपुरी के साथ तो क्रूर मजाक किया। जैसे 80 के दशक में टेस्ट मैचों के दौरान मैदान पर प्रसन्ना कप्तान वाडेकर से एक-एक ओवर के लिये गिड़गिड़ाते थे, कुछ वही भाव ओमपुरी के चेहरे पर दिखे। फरहान का लक्ष्य थे ऋतिक और प्रीति जिंटा को नये अंदाज में पेश करना, उस चक्कर में अमिताभ अपनी भूमिका और अभिनय दोनों में बेरंग तो ओमपुरी कोमेडियन जगदीप की सी भूमिका में कराहते दिखे। वैसे असलियत तो यह है कि आज की सारी तकनीकी बेहतरी के बावजूद चालीस साल पहले चेतन आनंद की बनायी हकीकत को बॅालीवुड की अब तक बनी कोई युद्ध फिल्म छू तक नहीं सकी है-भाव पक्ष, संगीत और माहौल किसी को भी।तीसरी फिल्म दीवार भी एक नये निर्देशक मिलन लथूरिया का कमाल है। यह फिल्म युद्ध नहीं युद्ध बंदियों पर है। सनी देओल की गदर के ज्यादा करीब। इसमें भी अमिताभ करीब-करीब जाया हो गये। पर उनसे कम फुटेज पाये संजय दत्त ने अपने अंदाज को फिर जोरदार ढंग से पेश किया। और उससे भी ज्यादा कमाल कर गये पाकिस्तानी युद्धबंदी कैम्प के चीफ के रूप में केके। सोचिये अगर उसी कदकाठी के किरन कुमार केके की जगह होते तो अपनी क्रूरता दिखाने को उन्हें कितने सारे शब्दों, वाक्यों का सहारा लेना पड़ता, लकड़बग्घे सी हंसी हंसनी पड़ती, पर केके ने केवल अपनी सर्द निगाहों से ही खून जमा दिया। कुल मिला कर भारतीय दर्शकों से अनछुआ यह पक्ष रंग नहीं जमा सका। अमिताभ तो बिल्कुल ही नहीं।
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