रविवार, 31 अक्तूबर 2010

ठोस जमीन पर पांव रख रखने की कवायद

राजीव मित्तल
दादी-नानी की कहानियों में एक खंडहरनुमा महल का जिक्र अक्सर आता है, जिसमें भूतों का वास है। उसमें एक राजकुमारी कैद है। लोग-बाग उस तरफ जाने से भी घबराते हैं। एक दिन रास्ता भटक कर घोड़े पर सवार एक राजकुमार वहां आता है और अपने आलौकिक करतबों से राजकुमारी को छुड़ाता है। फिर दोनों का विवाह होता है और महल की खुशियां लौट आती हैं। अब कहानी छोड़ एक सच से मुकाबिल हों। एक साल पहले बिहार में विधानसभा चुनाव होने तक बिहार न तो भुतहा महल था, न लालू प्रसाद का व्यक्तित्व ही ऐसा था, कि जो सपने में दिख जाए तो हालत खराब कर दे और न ही नीतीश कुमार घोड़े पर सवार हो कर सत्ता में आए। और न ही बिहार का एक साल में कोई कायापलट हुआ है। लेकिन इस एक साल में ऐसा कुछ जरूर हुआ है, जो कई सालों से नहीं नहीं दिखा था। इस बात को एक उदाहारण से समझा जा सकता है। पिछले महीने उत्तरप्रदेश में पंचायत चुनाव हुए थे। वहां के अखबार चुनावी आरोप-प्रत्यारोपों से लदे हुए थे। विपक्ष का रोना यही था कि वहां की सरकार अपनी सारी मशीनरी इन चुनावों को अपने पक्ष में करने में लगी हुई है, तो मुख्यमंत्री-मंत्री विपक्ष के आरोपों का उपहास उड़ाने में लगे हुए थे। वोट पड़ने वाले दिन इस अफवाह ने खासा जोर पकड़ा कि मतपेटियों में तो रात को वोट पड़ गए। अगले दिन सारे अखबार चुनावी हिंसा से भरे हुए थे। उसके बाद कई शहरों में कुछ खास पदों पर जीते उम्मीदवारों को शपथ दिलाने का काम संगीनों के साये में हुआ क्योंकि उस मौके पर जबरदस्त हिंसा की आशंका थी। वहां का यह हाल देख केन्द्र सरकार में शामिल कई दलों को को अब यह चिंता सता रही है कि विधानसभा चुनाव में क्या कुछ नहीं होगा। इसलिये यह सोच का विषय बना हुआ है कि उत्तरप्रदेश विधानसभा के चुनाव राष्ट्रपति शासन में कराए जाएं।
अब बिहार पर लौटें-नीतीश कुमार द्वारा मुख्यमंत्री पद संभालने के छह महीने बाद राज्य में बरसों बाद पंचायत चुनाव हुए। चुनाव आयोग को पिछले कई चुनावों का अनुभव देख कई आशंकाएं और चिंताएं सता रही थीं। इसलिये हर जगह सुरक्षा बलों की मौजूदगी सुनिश्चित करने को पंचायत चुनावों का फैलाव आठ चरणों में करना पड़ा। एक के बाद एक आठ चरणों में चुनाव हो गये, पर किसी अखबार में हिंसा लीड नहीं थी। जबकि इस बार के पंचायत चुनावों की सबसे बड़ी खासियत थी आरक्षण, जिसके तहत पिछड़ा वर्ग को कहीं ज्यादा सीटें दी गयीं थीं और महिलाओं के लिये पचास फीसदी सीटें आरक्षित की गयीं। वोट पड़ गए, जिनको जीतना था जीत गए, हारे लोग अपना भाग्य कोसने में लग गए, लेकिन कहीं खून नहीं बहा। त्रि-स्तरीय पंचायत चुनावों को शांतिपूर्ण ढंग से निपटाने के लिये नीतीश सरकार ने केन्द्र से अर्द्ध
सैन्य बलों की मांग न कर अपने बलबूते कुछ करने की ठानी और राज्य के अवकाश प्राप्त सैनिकों को साथ लेकर सैप का गठन कर डाला। सैप ने अपने काम को इतने बेहतर ढंग से अंजाम दिया कि जनता को पिछले साल के विधानसभा चुनावों की याद आ गयी, जब राज्य में केन्द्रीय चुनाव आयोग के सलाहकार केजे राव की धमक गूंज रही थी। उसी दौरान नीतीश सरकार ने राज्य के पढ़े-लिखे रोजगारों को हिल्ले से लगाने और बरसों से चल रही दो सौ छात्रों पर दो अध्यापकों वाली सरकारी स्कूलों की मसखरी दूर करने की सोची और दो लाख से ऊपर शिक्षिकों की भर्ती का ऐलान किया। आवेदन से लेकर जांच-पड़ताल तक एक इतना बड़ा अभियान कई तरह के हिचकोले खा कर अब पटरी पर आ गया है। इसी तरह नीतीश सरकार ने सत्ता संभालते ही राज्य की बेहाल सड़कों को दुरुस्त करने की ठानी। हालांकि इस मामले में सरकारी घोषणाओं का अम्बार लगा पड़ा है और काम के नाम पर जो कुछ हुआ है वह नाकाफी है।लेकिन इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है मुख्यमंत्री की यह सोच कि कोई भी सड़क ऐसी न बने, जो साल पूरा होते-होते मुंह फाड़ दे। जबकि राज्य के ठेकेदारों को लत लगी हुई है हर साल सड़क बनाने की और लागत का मोटा हिस्सा जेब में रखने की। अपनी इस सोच के चलते नीतीश कुमार का राज्य से बाहर की कम्पिनयों को सड़क बनाने का काम सौंपने पर खासा जोर है। ये कम्पनियां बिहार आने को राजी हो गयीं, यही अपने आप में कम बड़ी बात नहीं, क्योंकि इससे पहले इन सबने बिहार आने के नाम पर तौबा कर रखी थी। मामला अटका पड़ा है काम करने की एवज में दी जाने वाली राशि को ले कर, जिसको सुलटाने में मुख्यमंतरी लगे हुए हैं।
डेढ़ दशक से रंगदारी, अपहरण और अन्य अपराध बिहार के लिये अभिशाप बने हुए हैं। इस मामले में पिछले 365 दिनों पर नजर डाली जाए तो कम से कम एक बात साफ नजर आती है कि अब मामला खुला खेल फर्रुखाबादी वाला नहीं है। अपहरण हो रहे हैं, हत्याएं भी बंद नहीं हुई, रंगदारी जारी है। पर कहीं ऐसा नहीं लगता कि यह सब सत्ता के संरक्षण में हो रहा है, या इसलिये हो रहा है क्योंकि पुलिस ने आंखें मूंद रखी हैं। कुल मिला कर संगठित तौर पर चले अपराधों का सैलाब थमा है। इन पर अंकुश लगाया स्पीडी ट्रायल ने, जिसके चलते अब पुलिस की जवाबदेही पहले से कई गुना ज्यादा है। पहले थानों में एफआईआर लिखने के लिये कलम ही नहीं उठती थी, अब वह मुस्तैदी से इस काम को कर रहे हैं।नीतीश सरकार का का सबसे बड़ा कारनामा सोये पड़े निगरानी विभाग को झटके से उठा कर खड़ा करने का है। इस समय बिहार ही शायद ऐसा राज्य है, जहां जिलाधिकारी, सिविल सर्जन, सडीओ, बीडीओ और ऐसे न जाने कितने अफसरों को रिश्वत लेते निगरानी विभाग ने दबोचा है। ये सब किस हाल को प्राप्त होंगे, यह तो पता नहीं, पर इनकी सबकी नौकरी पर दाग तो लग ही गया है।
विकास की सोच (जी हां, यह वही सोच है, जो इस राज्य में सिरे से गायब थी) और संगठित अपराधों में कमी के चलते अब बिहार में देश के नामी-गिरामी उद्योगपति पधारने लगे हैं। इनमें रतन टाटा जैसी शख्सियत भी शामिल हैं। यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि बिहार को ये लोग क्या दे पाते हैं,
लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि अब कुहासा छंटने लगा है। बिहार के बाहर बिहारी लगना या बिहारी होना दोनों ही एक बहुत बड़ा मजाक समझे जाते रहे हैं। मजाक भी हंसने-हंसाने वाला नहीं, बल्कि इस कदर तीखा कि दिलो-दिमाग तिलमिला जाए। और अब कहा जाने लगा है कि लालू प्रसाद ने केन्द्र में रेलवे संभाल कर और नीतीश कुमार ने बिहार की बागडौर संभाल कर बिहारीपन की कायापलट कर दी है। राजनीति में एक दूसरे के जबरदस्त प्रतिद्वनद्वी इन दोनों नेताओं के कामकाज का तरीका अच्छे-अच्छों को चौंका रहा है और दोनों ही प्रबंधन गुरू की हैसियत पा गए हैं। बिहार के लिये इससे बड़ा गौरव क्या हो सकता है कि विश्व पटल पर खास हैसियत रखने वाले अहमदाबाद के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट के प्रांगड़ में वहां के छात्रों को पहले लालू प्रसाद उच्च प्रबंधन का पाठ पढ़ाने को आमंत्रित किये गये और अब नीतीश कुमार को आमंत्रण भेजा गया है।
कुल मिला कर अगर नीतीश कुमार सरकार के साल भर के कामकाज पर कहा जाए कि बोलो क्या बदलाव नजर आ रहा है, तो केवल एक ही बात कही जा सकती है कि जब किसी को रहने के लिये कोई मकान टूटी-फूटी हालत में मिले तो सजाने-धजाने से तो उसकी शुरुआत कतई नहीं की जा सकती, पहले तो उसको दुरुस्त ही करना पड़ेगा। फिलहाल तो बिहार को दुरुस्त करने का काम चल रहा है। लेकिन बरसों से अपने राज्य की दुनिया भर में हो रहीं किस्म-किस्म की बदनामियों और अपनी बदहाली को लेकर कसमसा रही जनता को जो नतीजे अब दिखने को मिलने चाहिये थें, उनका अहसास तो है, पर वे नतीजे जमीन पर अब तक नजर नहीं आए हैं। इसके लिये कहीं न कहीं उस जमावड़े कई लोग कम जिम्मेदार नहीं, जिनके बलबूते नीतीश कुमार सत्ता में बने हुए हैं। देखना है कि उन पर कब लगाम कस पाते हैं नीतीश कुमार।

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