गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

पिछले कई दिन से  अखबार की एक खबर स्थायी कॉलम का रूप ले चुकी है.……  वो खबर है किसानों के मरने की …बस …… संख्या घटती बढ़ती रहती है.… इस बार के मौसम की  ने हज़ारों साल से  चली आ रही किसानों की बदहाली को चरम पर पहुंचा दिया …… और उतना ही चरम पर पहुँच गया किसानों के साथ चल रहा आज़ाद भारत की आज़ाद सरकारों का मज़ाक …… जो बड़ी निर्ममता और क्रूरता के साथ चल रहा है ……साथ साथ घड़ियाली आंसू भी कम  नहीं बहाये जा रहे हैं  
इस बार तो प्राकृतिaक विपदा के नाम पर सरकार अपना दामन बचा ले जाएगी …… लोेकिन आगे क्या होने जा रहा है........  इस बारे में सामाजिक संगठन … शासन-प्रशासन … और मीडिया कुछ सोच रहे हैं क्या .......... पिछले पंद्रह वर्षों में करीब डेढ़ करोड़ किसान खेती और घर-बार छोड़ शहरों में रिक्शा चला रहे हैं  मज़दूरी कर रहे हैं.…
इन हालात में अब जैसी सरकारें शासन कर रही हैं तो आप  समझ लीजिये कि आपकी थाली में परोसे गए भोजन का हर अंश बाहर से मंगाना पडेगा जो हर किसी की जेब पर बेहद भारी पडेगा …खेत और कृषि अब किसान  नहीं रह गए
ऐसा होने देने के लिए बाकायदा सदियों से साज़िश चल रही है क्योंकि किसान को इंसान समझना हमने हज़ारों साल से भुला दिया है तभी तो आज  उसके  पास आज न तो न तो गाय है न बछड़ा न बैल है न हल …… हाँ सरकार ने उसकी भलाई के लिए मनरेगा नाम का एक उद्योग ज़रूर खड़ा कर  दिया है जिसने उसको अपनी ही बस्ती में मज़दूर बना  दिया है

4/16/15 
ज्ञान जी से अपनापा बहुत रहा  लेकिन जान-पहचान शून्य …… अड़तालीस साल पहले खुर्जा में चाचा प्रभात मित्तल की शादी में ज्ञान जी सुभाष परिहार के साथ आये थे … तो जनवासे में खुसुर-पुसुर होने लगी....कौन आये हैं ये देखने हम भी उस छोटी सी भीड़ में शामिल हो गए … काली दाढ़ी और बड़े बाल वाले ज्ञान जी काफी हंसमुख लगे …… बस, अगले   कई साल इस परिचित नाम के गुजर  गए … पहल ने ज्ञान जी को कभी भूलने ही नहीं दिया … जबकि पढ़े या देखे दो-चार अंक ही होंगे....

फिर 1995 में ज्ञान जी  और परिहार जी से मेरठ में मुलाकात …दोनों अपने स्वर्गीय मित्र  की शादी में आये थे … अगली सुबह दिल्ली तक का साथ और  समय एक छोटी सी नमस्ते.... अगली दो मुलाकातें जैसे आपस में टकराना जाना …

फिर तो दस साल गुजर गए....अब अपना मक़ाम था मुजफ्फरपुर .... अखबार जम कर लेखन हो रहा था … तभी रश्मि रेखा ने राग छेड़ा कि आप पहल  नहीं लिखते …… उसी दिन छपा कुछ भी ज्ञान जी को भेज दिया …साथ में उन मुलाकातों का जिक्र भी … कुछ ही दिन में ज्ञान का जवाब … पिछला कुछ याद नहीं....प्रभात की याद है....तुम्हारा लेखन काफी अलग हट कर है....  पहल के लिए शहरनामा लिख कर भेजो … भेज दिया और पहल में छप  भी गया....फिर क्या …  मैं  विषय बताता और वो पहल में  छापने का ऐलान …सुयोग से जबलपुर ने अपने पास  बुला लिया …वहां पहुँचते ही ज्ञान जी  खोजा … पता चला अपनी बेटी के पास यूएस गए हुए हैं … मायूस हो गया … एक दिन किन्ही पंकज स्वामी का फ़ोन आया की ज्ञान जी आपको तलाश रहे हैं आप उन्हें फ़ोन कर लीजिये …फ़ोन पर उन्होंने बेहद खुशी जताई और घर आने को कहा … तुरंत किसी को पकड़ उनके घर गया....खूब सारी बातें हुईं .... अगली बार घर गया तो अपना एक लेख भी ले गया ....देख कर बोले कि पिछली बार लेकर क्यों नहीं आये इस अंक में छाप जाता....कुछ दिन बाद उनका फ़ोन आया ये लेख तो  भयंकर है दंगा हो जाएगा....…  ज्ञान जी से मुलाक़ात होती रही  .... अचानक जबलपुर छूट गया … तीन  साल बाद  जबलपुर जाने और ज्ञान जी  का सिलसिला शुरू हो गया … पर  यही कहूँगा कि  अपनापा तो बहुत है पर जान-पहचान बहुत कम  

6/24/15
इश्किया गठबंधन में ससुरा धर्म ......लानत है

एक अखबार में खबर दिखी कि कई सालों से इश्क कर रहे मुसलिम युवक और हिन्दू युवती ने घरवालों को राजी कर शादी कर ली ...... बजरंगदलियों से पूछो तो उनकी छाती पे सांप लोट गया होगा ... मामला कर्नाटक के मांड्या जिले का है ...... दोनों निचली कक्षा से साथ साथ पढ़ते हुए एम बी ए भी साथ साथ किये ..... रोजगार से लग गए तो शादी करने का फैसला किया ....... यहां तक तो सब कुछ सहज और सुंदर है .... 

बात दोनों के मां-बाप तक पहुँची ...  काफी समझाया लेकिन दोनों अड़े रहे ... अंत में दोनों पक्ष तैयार .... पर, लड़के के पिता ने रिश्तेदारों और समाज का हवाला देते हुए अपनी बात कह दी कि विवाह से पहले लड़की अपना धर्म बदले .... अपनी जान देने जा रही लड़की के माता-पिता इसके लिए भी  तैयार हो गए और दोनों का निकाह हो गया .... कितना अच्छा होता अगर दोनों अपने आप को बदले बिना अपनी  गृहस्थी बसाते .... 

दोस्तों सही बात तो ये है कि  ऐसे किसी भी मामले में धर्म को बीच में लाना इंसानियत का अपमान है..........        


4/29/16
सरकारी नौकरी के जायके

तांगे  से आयी कि रिक्शा  से या उड़ कर ...  घर में घुसी और  बोली .....  नाकारा इंसान कुछ करेगा भी या यूं ही ज़िंदगी भर बाप की रोटी तोड़ेगा ..... ये थी सरकारी नौकरी  .... बराए मेहरबानी ठाकुरप्रसाद सिंह .......

सम्भावना प्रकाशन के काम से या यूं ही मिलने को अशोक जी जब भी लखनऊ आते किसी ना किसी साहित्यिक हस्ती से ज़रूर मिलवाते ..... निरालानगर वाले घर  में रवींद्र वर्मा, उनकी लेखिका पत्नी, बटलर पैलेस में श्रीलाल शुक्ल और सूचना विभाग में उप निदेशक और "वंशी और मादल" के रचयिता ठाकुर प्रसाद सिंह, उत्तरप्रदेश  मासिक के राजेश शर्मा आदि आदि ...... ... 

कुछ साल बाद साथ  निभाने आ गए महान कवि  अनिल जनविजय .... बहुत मौज के दिन कट रहे...एक  शाम ठाकुर साहब किताबें देखने (उन दिनों सम्भावना प्रकाशन की किताबें लखनऊ में बिकवाने का काम अपन को सौंपा गया था.... तो हम भी कुछ हैं ये दिखाने को अपनी मित्र से मिलने पायनियर के सामने वाले बैंक ऑफ़ पटियाला में किताबों वाला बोझा ले कर अक्सर जा धमकता)..... घर आये......  किताबें देखते देखते अचानक पूछ बैठे ... तुमने क्या किया है ..... एम ए ! तो इतने दिन से क्या कर रहे हो ...  इतनी सारी जगह निकली हैं तुमने देखा भी नहीं ....कल ऑफिस आ कर पिछली डेट की एप्लिकेशन दो ....  और कल से ही दिहाड़ी पे लग जाओ दस रुपये मिलेंगे .... दो महीने बाद टेस्ट और फिर नौकरी पक्की .....


रोज दस रुपये यानी रोज एक पिक्चर विथ कॉफी ......  रंजना में.....  दो महीने बाद सूचना विभाग ने हरकारा भेज दिया कि हो जा शुरू..... हैय्या रे हैय्या ...  हैय्या हो 

आगे पढ़ने की इच्छा हो तो बता देना .......जारी .......     

4/30/16
सरकारी इमारत में छपाक छई छई

31 दिसंबर की रात फुफेरे भाई की क्लिनिक में ओल्डमौंक और  कैपिटल के सामने ठेले पर बिरयानी भकोस मेफेयर में सिनेमा देख अगली सुबह कुड़कुड़ाते हुए आठवीं क्लास के बच्चे की मानिंद सूचनाविभाग में घुस ठाकुर साहब के हीटर से गर्माए कमरे में एक कुर्सी पे पसर पूछ डाला  .. अब क्या करूँ..... वही करो जो मैं कर रहा हूँ .... मेरा चपरासी और सूचना निदेशक कर रहे हैं ...... सरकारी नौकरी ...  
पढ़ते  तो खूब हो .....  कुछ लिखते विखते हो या नहीं ? जी, लिखने को तो ख़त भी लिखना नहीं आता.... हाँ, अनिल जनविजय ने कविता लिखना सिखा दिया है..... भन्ना कर बोले ... लानत है ...  कवि  तो यहां बहुत सारे हैं .... जाओ हज़रतगंज का चक्कर लगा आओ  तब तक कुछ सोचता हूँ .......            


बाहर निकल एक अफसर के कमरे के बाहर खड़े चपरासी से बीड़ी माँगी ... वो पता नहीं किस तुफैल में बाहर ले  गया चाय पिलाने .... उस से पूछा कि मेरे बैच के  कितने लोग आ गए ... अजी लगते तो नई बहार के आप ही पहले हो .... गंज सामने ही था यहां वहां टूल, न्यू ईयर के कार्ड खरीद वापस हो लिया.... ठाकुर साहब बोले .... कल देखते हैं.... तभी बगल वाले कमरे से कुछ आवाज सुनी तो हिम्मत कर धंस लिया .... नानी की नाव के कई सामान वहां मौजूद थे..... कुछ चीं चीं चूँ चूँ के बाद सात-आठ भेड़ों का रेवड़ फिर गंज की ओर चल पड़ा .... 

लौटते में चार बज गए .... तब तक मन कई फैसले कर चुका था .... ससुरी इस सरकारी नौकरी को अपने माफिक बनाना है और चार बजे के बाद ऑफिस में नहीं रुकना है.... और जो रुकता है वो धंधेबाज होता है या बीवी  का मारा होता है ....(ये बाद के अनुभवों  से पता चला)   ..... 

तो ये था सरकारी दमादी का पहला दिन .....            

5/1/16
बाल बाल बचना बाबूगीरी से 


दूसरे दिन उस इमारत में अपने बैच का एक और लखेरा दिनेश दीनू मिल गया .... गंजिंग का माकूल साथी... दोनों को उत्तरप्रदेश मासिक के सम्पादक राजेश शर्मा के साथ लगा दिया गया .... उनको पहले से जानता था ... एक समय फोटोग्राफी का शौक चर्राया तो निकल पड़ता  भरी लू में साइकिल पर दूर दराज जहां तहां .... उस समय के खींचे फोटो राजेश जी को पसंद भी खूब आये .... अब उनसे खूब गपशप होती .... हालांकि ठाकुर साहब जैसे अड्डेबाज नहीं थे.... अपने साथ ज़्यादा रहते .... सबसे बड़ी बात कि उनका साथ "सरकारी" होने से बचाता .....   

अगले दिन पैरों के नीचे से ज़मीन सरक गयी ..... किसी चपरासी ने दीनू और मुझे कॉरिडोर में रोका और कहा साहब बुला रहे हैं .... कमरे के दरवाजे के ऊपर सहायक निदेशक  फलाने मिश्रा के नीम की तख्ती.... अंदर घुसे....  उनको देखते ही बायीं आँख फडफडाई .... लगा कि अब कलर्क बनने से ब्र्ह्मा भी नहीं रोक सकते क्योंकि वो सहायक निदेशक अंग अंग से सरकारी महकमे के बाबू लग रहे थे              
 


5/13/16
सरकारी नौकरी के दूसरे दिन ही हंगामा  


दूसरे दिन उस इमारत में अपने बैच का एक और लखेरा दिनेश दीनू मिल गया .... गंजिंग का माकूल साथी... दोनों को उत्तरप्रदेश मासिक के सम्पादक राजेश शर्मा के साथ लगा दिया गया .... उनको पहले से जानता था ... एक समय फोटोग्राफी का शौक चर्राया तो निकल पड़ता  भरी लू में साइकिल पर दूर दराज जहां तहां .... उस समय के खींचे फोटो राजेश जी को पसंद भी खूब आये .... अब उनसे खूब गपशप होती .... हालांकि ठाकुर साहब जैसे अड्डेबाज नहीं थे.... खुद के  साथ ज़्यादा रहते .... लेकिन  उनका साथ "सरकारी" होने से बचाता .....   

अगले दिन पैरों के नीचे से ज़मीन सरक गयी ..... किसी चपरासी ने दीनू और मुझे कॉरिडोर में रोका और कहा साहब बुला रहे हैं .... कमरे के दरवाजे के ऊपर सहायक निदेशक  फलाने मिश्रा के नीम की तख्ती.... अंदर घुसे....  उनको देखते ही बायीं आँख फडफडाई .... लगा कि अब कलर्क बनने से ब्र्ह्मा भी नहीं रोक सकता  क्योंकि वो सहायक निदेशक अंग अंग से सरकारी महकमे के बाबू लग रहे थे........ देर तक चली चिक चिक बूम बूम के बाद मामला ठाकुर साहब के पास ले जाया गया ......


लेकिन ठाकुर साहब ही क्या उखाड़ लेते मिश्रा ए सरकार का ...... हम दोनों से बोले कर लो भाई इनके साथ कुछ दिन  काम .....हम दोनों  ने दो दिन उसको सूरत ही नहीं दिखाई ...... आखिर कार राजेश शर्मा का सहारा लिया..... उन्होंने तिकड़म भिड़ाई और हम दोनों उत्तर परदेश मासिक में .....        




5/20/16
"टीपू सुल्तान बर्बर हत्यारा था" उसके कार्यक्रम में मुझे न बुलाये - अनंत कुमार हेगड़े, केंद्रीय मंत्री !
..........................
अँग्रेजी सत्ता के खिलाफ क्रांति की लड़ाई लड़ने वाले मेरे सबसे प्रिय शासक टीपू सुल्तान हि है, और दंगाई गैंग ने टीपू का विरोध करके साबित कर दिया की वो वाकई अच्छे थे और मेरा चुनाव गलत नहीँ है !
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टीपू सुलतान के बारे में इतना जानना काफी है की -
वो अकबर के बाद हिंदुस्तान में साम्प्रदायिक सदभाव के सबसे बड़े चेहरे थे !
वो मुसलिम होते हुऐ भी राम नाम की अँगूठी पहनते थे, ये अंगूठी उनके मृत शरीर से तब निकाली गई, जब वे 1799 में श्रीरंगापट्टनम की लड़ाई में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना के हाथों मारे गए थे !
लंदन स्तिथ क्रिस्टीज़ नीलामीघर ने सोने की इस अंगूठी को मई 2014 में 1 लाख 45 हजार पाउंड में बेचा !
(इस दंगाई गैंग को साम्प्रदायिक सौहार्द से हि नफरत है, तो स्वभाविक है, टीपू से भी नफरत होगी )
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भारत के मिसाइल कार्यक्रम के जनक एपीजे अब्दुल कलाम ने अपनी किताब 'विंग्स ऑफ़ फ़ायर' में लिखा है कि उन्होंने नासा के एक सेंटर में टीपू की सेना की रॉकेट वाली पेंटिग देखी थी उसीसे मिसाइल बनाने की प्रेरणा मिली !
(इस गैंग के वैज्ञानिक गोबर से कोहिनूर और गौमूत्र से सोना तलाशते है, फिर रॉकेट साईंस की जानकारी रखने वाले को गाली देना तो संघ धर्म हुआ )
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टीपू ने 18 वर्ष की उम्र में अंग्रेजों के विरुद्ध पहला युद्ध जीता था ! और 1799 में अंग्रेजों के खिलाफ चौथे युद्ध में मैसूर की रक्षा करते हुए टीपू सुल्तान की मौत हुई थी !
(अंग्रेजों के तलवे चाटने वाले संघी कैसे बर्दाश्त कर लेंगे की मैसूर का ये शेर छाती ठोककर उनके मालिकों के खिलाफ लड़ता रहा )
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और सबसे बढ़कर -
टीपू सुल्तान ने एक दिन में 5 करोड़ पौधे लगाये !
जोगी ने 2 लाख दीपक जलाएं !
(ये फर्क होता है एक शिक्षित में और एक गँवार में ! और शिक्षितो से इनकी नफरत जग जाहिर है, पानेसर, डाभोलकर, कलिबुर्गी , गौरी लंकेश को नहीँ छोड़ा फिर टीपू को कैसे छोड़ देंगे )

Girraj Ved
10/22/17
सेक्टर 7 में काबुलीवाला

बहुत मायूसी में दिन गुज़र रहे थे इस बियाबान सेक्टर में..सब कुछ अनजान..रास्ते भी, लोग भी, मकान भी, मोड़ भी, चेहरे भी..और कल की घटना तो अब तक टोहके मार रही थी..

तीन बजे 26 सेक्टर के लिए उस उदास सड़क पर उससे भी ज़्यादा उदासी से कदम बढ़ा रहा था कि एक कार धड़ाक से बगल में रुकी..ओये चील कित्थे है..आवाज़ मारू, तो कार में फंसे सरदार जी का अंदाज़ जानमारू..दिल में बगोले उठ रहे..बरसात की गर्मी में भी बहुत कम पसीने वाला शरीर जैसे नहा उठा..
ओ भाई बोलता क्यों नहीं.. कित्थे है चील..अब मैं क्या बताऊँ कि चील कित्थे है..नीले आकाश पे कुछ उड़ता नज़र आया तो जान में जान आई..ओ जी वो रही..ओ खोत्ते वो नहीं..चील भई चील..

अचानक मंटो का आगा हश्र कश्मीरी के बारे में लिखा याद आ गया..कि उनके नाटक की रिहर्सल में हीरोइन को एक शब्द बोलना नहीं आ रहा था तो गालियों की बौछार करते हुए आगा ने उसी शब्द के आकार का दूसरा शब्द जैसे ही मुहँ से निकाला, मोहतरमा तोते की तरह बोलने लगीं..अपन ने भी चील से मिलता जुलता शब्द याद करने की कोशिश की तो याद आया ..अबे चुगद सेक्टर 7 सुखना लेक से लगा हुआ है..और लेक की हिंदी होती है झील..सरदार जी आप झील का रास्ता पूछ रहे हो क्या..हां भई हां..चील चील चील..तो जी आप ऐसे जा के वैसे निकल जाओ..

कहां 20 सेक्टर की रौनक वाली जगह कहाँ ये खौफनाक इलाका..आफिस तक बस भी सीधे नहीं जाती..26 की मंडी तक पैदल.. वहां से इंडस्ट्रियल एरिया से बस पकड़ना..रात दो बजे तो आफिस का वाहन होता, लेकिन सारी तकलीफ जाने की...उस छह किलोमीटर के रास्ते पर कई बार पैदली भी हुआ..

अगस्त आते आते स्कूटर का विचार दौड़ने लगा..और वैसे भी चंडीगढ़ पसंद ही लड़कियों को बाइक चलाते देख कर आया था..तो साब, यहाँ वहां स्कूटर की चर्चा शुरू..एक ऑफ डे वाली शाम गेट के पास खड़ा आकाश को निहार रहा था तो देखा श्रीमती पूर्णिमा देवी किसी के साथ चली आ रही हैं...पंजाबन !..नहीं .. बोली तो हरियाणवीं.. ये ये हैं और ये वो हैं वाला सवा मिनट का परिचय..

हमारी कंपनी इंडियन एक्सप्रेस ने ईश्वर की सुनी और हमें किस्तों पर LML वेस्पा दिलवा दिया..अब चंडीगढ़ की सड़क पर सौ से कम की स्पीड में स्कूटर चलाया तो डूब मरना चाहिये न सुखना लेक में..तो कई बार आफिस की गाड़ी से रात दो बजे लौट कर स्कूटर उठाता और 50 किलोमीटर धुँआधार दौड़ाता..

कुछ दिन बाद पता चला कि उस रात मिली महिला हरियाणा की ही है और सेंट्रल स्कूल में पढ़ाती है..पति सरकारी हेल्थ इंस्ट्रक्टर.. चार साल का बेटा.. एक और के जन्म की तैयारी...
खास बात कि अब मिसेज मित्तल की सहेली..

तीन महीने की जच्चा छुट्टियों में एक बच्ची को जन्म.. छुट्टियां खत्म हुईं तो बच्ची के पालन के लिए बच्चाघर की तलाश.. साथ में होती पूर्णिमा...एक बच्चाघर के पालने में उसे डाल जैसे ही दोनों सहेलियां भरे मन से बाहर निकल रहीं कि दो महीने की बच्ची ने चिंघाड़ना शुरू कर दिया..मां पर तो जो भी बीत रही हो, पूर्णिमा ने दौड़ लगाई और लपक कर बच्ची को छाती से चिपटा लिया और वहीं का वहीं ऐतिहासिक फैसला सुना दिया.. इंदु..इस बच्ची को मैं पालूंगी.. 

11/15/17
सेक्टर-7 में मिनी भी...

जिस मां के दो शावक हों, उसने दूधमुहीं को पालने का निर्णय खुद ब खुद कर लिया...उसके ऐसे न जाने कितने फैसलों पर आज तलक ताना दिया जाता है कि असली नारीवादी तो तुम हो, जो कभी विरोध नहीं किया अपनी बीवी का...

अब क्या कहूँ..ये अपन का इकतरफा फैसला था कि वो मेरी ईश्वरहीन सोच में दखल नहीं देगी और न साथ में मंदिर मंदिर घुमाएगी...और न मैं उसकी जय जय गणेश की आरती या साल के 110 व्रतों में चूँ करूंगा..बाकी दोनों का कुछ भी किया धरा हम दोनों का..तो जी हमने भी मिनी के चक्कर में सुबह की बेहद थकान वाली नींद पर माटी डाल दी..यानी मिनी को पालने में अपन को कोई गुरेज नहीं...खैर..ये थोड़ी देर में..

सितंबर में पूर्णिमा के पिता गोलोकवासी हुए तो पूर्णिमा के रुदन में मैडम भी शामिल..फिर काफी समय अपने को अकेले रहना पड़ा...उस परिवार से अपना देखा देखी का भी संबंध नहीं था.. पड़ोस वाली सामाजिकता से अपना कोई लगाव कभी रहा ही नहीं..कई अच्छे बुरे मौकों पर ही पड़ोसियों को पता चल पाता कि यह इंसान भी इसी दुनिया में है...

दहिया परिवार में बेटी ने जनम ले लिया है ..पूर्णिमा से ही पता चला..उस दौरान विश्व भर में जितनी पैदाइश हुई होंगी, उसी खाते में पड़ोस का मामला डाल भूल गया..

अकेले रहने पर अपने को सब मंज़ूर था लेकिन रसोई में घुसना बिल्कुल मंजूर नहीं था.. दिन में जैसे तैसे ..रात के लिए आफिस में कैंटीन...या एक्सप्रेस-जनसत्ता वालों का टिफिनबॉक्स...
एक दिन दरवाज़ा खड़का.. मेरे साथ दरवाज़ा भी चौंक गया.. देखा तो दहिया साहब भोजन की थाली लिए खड़े हैं..पूर्णिमा की सामाजिकता को नमन कर हरियाणवी भोजन ग्रहण किया...

लेकिन रोज रोज की बंदिश या डिस्टरबेंस अपने को रास नहीं आता था, तो जनाब को कई बार खटखटा कर लौट जाना पड़ा...उस दिन ऑफ था तो टीचर जी ने बुलावा भेजा कि यहां आ कर खाना खा लीजिये..संदेसिया जो भी रहा हो, आग्रह जोरदार था...सकुचाते हुए वहां कदम धरा..पड़ोसियों वाले अंदाज़ में बातचीत..बच्ची पालने में..टीचर जी रसोई में, बीच बीच में ..खाना ठीक बना है न..जैसा कुछ भी..पूर्णिमा कह रही थी आप बहुत कम बोलते हो..अब आप यहीं आ कर खा जाया करो..उन दो चार दिन में ही पता चल गया कि दहिया साहब बहुत भले इंसान ही नहीं, बाकायदा गऊ हैं...तो मैडम तड़क...भड़क...कड़क..

कुछ दिन बाद हम फिर परिवारी हो गए..उधर मैडम के स्कूल शुरू..बच्ची का हमारे यहां रहने का हो ही चुका था..टीचर जी सुबह सात बजे स्कूल के लिए निकल जातीं क्योंकि स्कूल पहुंचने के लिए कई बसों की सवारी करनी होती...

राजीव मित्तल को रात दो बजे घर पहुंच कर पढ़ना ज़रूर होता..तो नींद आती चार बजे.. तीन घंटे बाद ही नींद तोड़ दी जाती..मिनी की मां पूर्णिमा का इशारा पा कर अपने कलेजे के टुकड़े को मेरे बगल में डाल जाती, तो चेहरे पर ज़रूर मुस्कान होती होगी..हम्म बड़े पत्रकार बने फिरते हैं..और फिर बच्ची की अठखेलियाँ शुरू..और मैं उसको सिर्फ निहारता रहता दोबारा नींद में जाने तक..(जो पता नहीं अब कब नसीब होनी थी)...हां..मुझे  मिनी जो मिल गई थी...

11/16/17
गुजरात चुनाव के मौके पर ...

बंदरों की सभा में नेताजी का भाषण चालू था-मैं आपकी आवाज को राष्ट्र की आवाज बनाऊंगा। बाग-बगीचे उजाड़ने को कानूनी जामा पहनाऊंगा। आप हमारे हनुमान हैं। आप को किसी घर में घुसने की कोई रोक-टोक नहीं होगी। 

हनुमान का नाम सुनते ही कैमरा थामे असुर सहोदरों इल्वल और पावति को चक्कर आने लगा। इधर, बंदरों में भी हलचल मच गयी। एक ने तो चुनाव सभा कवर करने आई केबल बाला का हाथ ही पकड़ लिया। किसी तरह वे तीनों वहां से भागे और पुष्पक को दौड़ा कर स्टार्ट किया और उड़ लिये। अब उन्हें मतदाताओं की तलाश थी। 

करीब एक घंटे की उड़ान के बाद उन्हें ढोल-ताशों की आवाज सुनायी दी। इल्वल ने पुष्पक उधर ही मोड़ लिया। नीचे देखा तो कई लोग बरगद के पेड़ के चारों तरफ नाच रहे थे। एक तालाब के किनारे पुष्पक उतारा गया। जैसे ही नीचे उतरे, उन्हें सबने घेर लिया। 

तुरंत केबल बाला ने कहा-हम आपसे यह जानने आए हैं कि आप अपना कीमती वोट पार्टी के आधार पर देते हैं या काम देख कर। 

एक बुजुर्ग ने हाथ से इशारा किया कि पीछे आओ। वह उन तीनों को बरगद के पेड़ के पास ले गया और किसी उल्लू की प्रतिमा दिखा कर कहा कि यह हमारे कुलदेवता हैं। हम इन्हीं के सामने अपनी बस्ती के वोट रख देते हैं और रात भर नाचते गाते हैं। सुबह वोटों पर वो ठप्पा मार देते हैं। हमारे कुल देवता के नाखूनों का ताबीज पहनने वाले गनपत राय का चुनाव निशान भी ताबीज ही है। 

गनपत राय अब तक तीन बार पार्षद, पांच बार विधायक और दो बार सांसद रह चुके हैं। दो बार से हम उसके बेटे को वोट डाल रहे हैं। गनपत राय ने आपकी भलाई के लिये क्या किया है? भीड़ में सब एक-दूसरे का चेहरा देखने लगे। एक ने पूछ ही लिया-वोट का भलाई से क्या संबंध? उन पर हमारे कुलदेवता की कृपा है। 

केबल बाला का अगला सवाल..बिजली-पानी का क्या हाल है? देखो बिटिया, हमें बिजली की जरूरत ही नहीं। हम पेड़ों के नीचे रहते हैं, जुगनुओं से काम चल जाता है। सांसद जी के महल के बाहर गेट पर लगे बल्ब की रोशनी तो फ्री में मिलती ही है। 

और पानी ? बिटिया..उनके घोड़े, गाय-बैल और हम ढाई योजन दूर के तालाब पर जाते हैं। वहीं हम दिशा मैदान से निपट कर नहा धो लेते हैं और पीने का पानी भर लाते हैं..

आप लोगों की बेहतरी के लिये कोई योजना वगैरह? हां, कभी-कभी मशीन वाली फिल्म दिखा देते हैं, जिसमें अंसल के बनाये मकानों की कतार, बंसल की मिठाई, अरोड़ा की कुल्फी, उपाध्याय के चकाचक कमरों वाले स्कूल और चमचमाती सड़कों के दर्शन हो जाते हैं। उस दिन सांसद जी के नौकर हमसे चिरौंजी जरूर लेते हैं दो-चार टोकरे।

11/21/17
हां, कभी हुआ करता था देवानंद..


कई व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनके न होने की हम कल्पना भी नहीं कर सकते। पंडित जवाहर लाल नेहरू के बाद ये मुकाम देवानन्द ने ही पाया ...इसे हम बटवृक्ष वाली खसूसियत भी कह सकते हैं, कि हम उस पेड़ की जगह पर खड़ी की जा रही कोई आलीशान बिल्डिंग बर्दाश्त न कर पाएं.. 

सदाबहार यही दो शख्स निकले, जिन्होंने अपना जमाना क्रिएट किया। भले ही 86 या 87 साल के हो गए देवानन्द पिछले तीन दशक से दर्शक रहित फिल्में बना रहे थे...या वो गले में लिपटे अपने स्कार्फ से...ब्राउन जैकेट से...रंग-बिरंगी कैप से....तिरछी चाल से....या अपनी साठ-सत्तर के दशक वाली इमेज से पीछा छुड़ाने के मूड में कतई नहीं थे......लेकिन उनकी सबसे बड़ी खासियत यह थी कि वह अपनी पुरानी सफलताओं की याद में खोए जाम छलकाते हुए आहें नहीं भर रहे थे...न ही भगवान दादा और सी रामचन्द्र की तरह बेचारे कहला रहे थे.....न ही देवानन्द अपने समय की मशहूर तिकड़ी से जुड़े राजकपूर की तरह समय से पहले चले गए और न ही दिलीप कुमार की तरह बरसों की गुमनामी में जाने को मजबूर हुए.. 

देवानन्द कल तक हर उस जगह मौजूद थे...जहां नयी पीढ़ी का दबदबा कायम हो चुका था....उन्होंने रिटायर्ड हर्ट के रूप में क्रीज नहीं छोड़ी..

जनसत्ता, चंडीगढ़ में काम करते हुए, कई साल पहले लोकसभा चुनाव की रिपोर्टिंग के सिलसिले में होशियारपुर जाना हुआ...वहां से निकले तो और जगह होते हुए वापस चंड़ीगढ़....रास्ते में हम गुरदासपुर से भी गुजरे थे....देवानंद को जन्म देने वाला स्थान...तब भी उनकी फिल्में एक के बाद एक पिटती जा रही थीं...लेकिन देवानन्द बहुत याद आ रहे थे...यादों में चेतन आनन्द और विजयआनन्द भी छाए थे। अपने इन्हीं दोनों भाइयों की बदौलत देवानन्द ने समय को झकझोर देने वाला दर्जा हासिल किया था...

चेतन आनन्द ने उनके लिये जगह बनाई तो विजय आनन्द ने फिल्म गाइड में देवानन्द को उनकी इमेज से बाहर निकाल कर अभिनय के चरम पर पहुंचा दिया..देवानन्द को शुरुआत में ही गुरुदत्त का साथ मिल गया, जो देव के अभिनय की हर नस और उसकी रेंज से वाकिफ थे.....उनकी निर्देशित दो फिल्मों -बाजी और जाल ने ही देवानन्द को उनकी पहचान दी..

देवानन्द की फिल्मों को जब तक अपने इन दोनों भाइयों का निर्देशन मिला, वह हिन्दी फिल्मों की धुरी बने रहे....याद कीजिये... जब राजकपूर की राजपथ से हो कर आयी भारी भरकम फिल्म मेरा नाम जोकर हताशा को पहुंच चुकी थी, न जाने किस रास्ते से आयी जॉनी मेरा नाम की धमक चारों तरफ सुनायी दे रही थी...यह विजय आनन्द का कमाल था। 

अपनी फिल्मों का निर्देशन खुद करने के फैसले ने देवानन्द को न केवल समय से पहले दर्शकों के मन से उतार दिया, बल्कि देव को पर्दे पर देखने की उत्सुक्ता ही खत्म कर दी....उसके बाद से देव 14 रील बरबाद करने वाले से ज्यादा कुछ नहीं रह गये थे...लेकिन फ़िल्में बनाने का जुनून जारी था.. देवानन्द अपनी जिद में निर्देशक बन तो गए, पर निर्देशक के रूप में वह अपनी सीमाएं तय नहीं कर पाए....न पटकथा को लेकर....न अभिनय को लेकर...न डायलॉग डिलिवरी को लेकर.... तभी तो वह देस परदेस के बाद डिब्बा बंद फिल्मकार बन कर रह गये।

लेकिन सच यह भी है कि 1955 से लेकर 1970 के समय का एक बड़ा हिस्सा देवानन्द के खाते में जाएगा। उसमें ढेर सारा समय था नेहरु जी का, उनके समाजवादी आदर्शवाद का, जिस पर सबसे ज्यादा फिदा थे राजकपूर.. उनकी उस समय की कई फिल्में समाजवाद की चाशनी में डूबी हुई हैं..उस तिकड़ी की ही एक और धुरी दिलीप कुमार तब अपने अभिनय से हर ऐरे-गैरे को देवदास बनाने पर तुले हुए थे...तब रोमांस का बेहद दिलकश रूप पेश कर रहे थे देवानन्द.....

अपने इस अंदाज के जरिये देवानन्द का अपने चाहने वालों को यही संदेश था कि जीवन में कुछ भी जीवन में घट रहा हो.. प्रेम को मत भूलना क्योंकि प्रेम बहुत बड़ी राहत है...वह कैसी भी जीवन शैली का केन्द्र बिन्दु है..इनसान को संवेदनशील बनाने का एकमात्र जरिया...

उनकी फिल्में दर्शक को कितना सुकून देती थीं...कितनी उमंग भरती थीं...इसको समझा पाना बेहद मुश्किल है.. 



बहुत मामूली हैसियत वाला आवारा युवक कैसे एसडी बर्मन के संगीत से, अपनी अलमस्त अदाओं से, हर हाल में बेफिक्र बने रहने के अंदाज से, लापरवाह दिखने वाली लेकिन बेहद रोमांटिक शख्सियत से...वहीदा रहमान..साधना...कल्पना कार्तिक या नूतन की शोखियों और जॉनीवाकर की हल्की-फुल्की कॉमेडी से दर्शकों को पागल बनाता था, इसको जानने के लिये उनकी उस समय की कई सारी फिल्में देखना लाजिमी है। तभी तो हाईस्कूल के इम्तिहान में आखिरी पर्चा भी खराब जाने के बाद सीधे उस पिक्चर हॉल में घुसा, जिसमें मुनीम जी चल रही थी.... और जीवन का सफर कुछ समय के लिये आसान हो गया.......

12/5/17
प्राइम टाइम में बाबरी, आडवाणी और पत्रकारिता

आज सुबह फेसबुक की एक पोस्ट में पढ़ा कि बाबरी मस्जिद पर प्राइम टाइम में रवीश कुमार कह रहे हैं कि लालकृष्ण आडवाणी को मस्ज़िद ढहाए जाने का बहुत अफसोस हुआ था, और 19 साल बाद 2011 में उन्होंने इस मुताल्लिक़ अपने उद्गार प्रकट भी किये..आंसू बहाते हुए..इसी प्रोग्राम में बाबरी के सिलसिले में रवीश ने दो पत्रकारों का नाम भी लिया प्रशंसा के लहजे में..इत्तफ़ाक से दोनों के साथ अपना सहकर्म रहा है..

अब थोड़ चिग्गी लेने का मन कर रहा है..छह दिसंबर 1992 को कानपुर से चल कर अल्ल सुबह ही खचड़ा जीप से स्वतंत्र भारत के हम चार फैज़ाबाद पहुंच गए..शहर के एक बेहतरीन होटल में देश दुनिया के पत्रकार कई दिन से पसरे हुए थे..हमारे भी दो-चार बॉसेज टाइप लंगूरे वहीं कयाम किये हुए थे..

यहां एक सच उगल दूँ कि अपन अपने रिस्क पे सिर पे कफ़न बांधे उस दिन अयोध्या जा रहे थे, कुछ हो-हवा जाता तो थापर का पियोनियर संस्थान मूतने भी न आता..क्योंकि अपन बाकायदा प्रधान संपादक घनश्याम पंकज की हुक्मउदूली किये रहे..जिनका आदेश था कि हम कतई न हिलें कानपुर से..

होटल में घुसे थे कि कोई हम को चाय पिला देगा पर वहाँ मामला गर्म था एक महिला रिपोर्टर को लेकर हुई तक़रार का..आखिर में देर रात जो ज़्यादा मजबूत निकला, वही उन मोहतरमा को ले उड़ा.. नर मादा दोनों हमरे संस्थान के ही थे..अपन की आमद अवैध थी, इसलिए आंखें मिलाए बिना अयोध्या निकल लिए..

अयोध्या में एक सुनसान सड़क पर जीप खड़ी कर टीले खाई फांदते हुए कारसेवा स्थल पर पहुंच गए..सैंकड़ो पत्रकार-फोटोकार 
सांप-नेवले की लड़ाई का बेसब्री से इंतेज़ार कर रहे थे..मंच पर आडवाणी, जोशी, कटियार, सिंघल, उमा और ऋतम्भरा को एक हज़ार साल की गुलामी की जंज़ीरें टूटने की बेकरारी..

मरहूम सुरेंद्र प्रताप सिंह से दो चार बतियां कर यहां वहां टूलने लगा..बाकी जनों को उनका काम समझा दिया..दस बजते ही माहौल गर्माने लगा..विभिन्न उपकरणों से लैस कारसेवकों के एक जत्थे ने कारसेवा स्थल पर पहुंच तोड़फोड़ शुरू कर दी..वो जगह हल्दीघाटी में तब्दील हो चुकी थी..

वहां से सबसे पहले पत्रकार बिरादरी ने दौड़ लगाई और सब पास के एक भवन की छत पर चढ़ कर पतंग उड़ाने लगे नीचे मुख्य द्वार पर ताला मार कर..

राजीव मित्तल जैसे छोटे मोटे पत्रकार की पैंट एक बार तो गीली होने को हुई लेकिन फिर जुनून को सिर पर फिटफाट कर जंग ए मैदान में कूद पड़ा..मंच पर जयकारा मचा हुआ था..खुशी के मारे कोई न कोई किसी की गोद में कूद रहा..आडवाणी जी ने गुलामी की जंज़ीरें टूटने के उपलक्ष्य में प्रसाद खा कर जाने की मीठी सी अपील की..

इस बीच अपनी जान दो घंटे तक हलक में अटकी रही..मस्ज़िद परिसर के इंच इंच पर तोडताड़ी.. धूल गुबार का आलम, वहशी चीखें, शोरगुल..सिर पर भगवा पट्टा बांध और जय श्री राम के नारे लगा कर पूड़ी सब्जी का पैकेट हथियाया और उनमें शामिल हो घूम घूम कर, कंगूरों पर चढ़ कर पत्रकार का धर्म निभाया..मन में यह ठसक तो थी ही कि अपनी बिरादरी जैसा कायर नहीं निकला..

बाद में दो चार जगह पिटते पिटते बचा..फिर कानपुर कैसे पहुंचे.. मेस्टन रोड पर बने मिश्रा लॉज में 'पाकिस्तानी इलाके'  से आ रही गोलियों से कैसे बच पाए.. वो छोड़िए..आफिस में अपनी रिपोर्ट पंकज ने यह कह कर छापने से मना कर दी कि उनके मना करने के बावजूद अयोध्या क्यों गया था..

रिपोर्ट उन की छपी जिन्होंने महिला रिपोर्टर को अंकशायनी बनाने को लेकर उस होटल में सबके सामने एक दूसरे की मां बहन को विभिन्न तरीकों से उच्चारित किया था..और यह पूरा वाकया पंकज जी के संज्ञान में था..



12/7/17
सात जन्मों वाली सकीम


पिछले दिनों चित्रगुप्त ने ब्रह्माजी से
अनुरोध किया – प्रभो..'एक पति सात जनम' वाली स्कीम गंधाने लगी है अब इसपे ख़ाक डालिये...

ब्रह्माजी – “क्यों ?

चित्रगुप्त – “प्रभु, मैनेज करना कठिन
होता जा रहा है … इस स्कीम के प्रति औरतों का मोह कम हो रहा है ... मर्दों का रुझान तो बहुत ही कम रह गया है..

ब्रह्माजी – आदिकाल से चली आ रही स्कीम को पलीता कैसे दिखा दूं चित्तू.. 
और फिर आर्यावर्त में स्कीम बंद हो गयी तो संघ वाले बवाल कर देंगे..और औरतों के उन दो निर्जला व्रतों का क्या होगा चित्ते, जिनमें चांद-तारों को देख पानी पिया जाता है..

तभी नारद मुनि आ गए..उन्होंने सुझाव
दिया कि पृथ्वी ग्रह पर जा कर उनसे सलाह लो, जो कुंवारे  शादीशुदा हैं...

चित्रगुप्त सीधे मोदी जी के पास गए...
 उन्होंने पल भर में समस्या का समाधान कर दिया – जो भी औरत सातों जनम के लिये एक ही पति की डिमांड करे तो शर्त लगा दो कि यदि पति वही चाहिये तो सास ननद भी वही मिलेंगी...स्कीम दो साल के अंदर दम तोड़ देगी...स्कीम बंद न हो जाए तो नाम बदल दूँगा..

12/10/17
अंधेर नगरी में चौपट राज के मजे


इस देश के सबल लोकतंत्र को गंदगी में लिथड़ी राजनीति, बेशर्म मीडिया, बेपेंदी की अफसरशाही और जनताऊ वोट बैंक ने इतने सारे प्रहसनों में बदल दिया है कि सालों तक रोज नौटंकी खेली जा सकती है.....और खिल भी रही है इत्तेफाक से.......

शुरुआत एक काल्पनिक प्रहसन से......

आजाद भारत के बिड़ला मंदिर में अनूप जलोटा ..... वैष्णव जन को तेरे कहिये जे.. सुना रहे हैं बापू को.. जलोटा जी ने जब पीर शब्द के पी अक्षर को पीपीपीपीपीपीपीईईईईई करते हुए ताना.... तभी अंग्रेजों के ज़माने के किसी आरोप में गिरफ्तार कर लिये गये बापू..

जंतरमंतर पर इन्क्लाब-जिन्दाबाद के नारे लगाते भगतसिंह को पुलिस की जीप में ठूंस दिया...और अमरमणि त्रिपाठी टाइप नेता को किसी लड़की का दैहिक शोषण और फिर उसकी हत्या कर लाश को ठिकाने लगाते पकड़ा गया..

 तीनों गिफ्तारियां एक साथ एक समय पर हुईं..बापू और भगत सिंह को तुरंत तिहाड़ पहुंचा दिया गया....लेकिन त्रिपाठी जी को तीन घंटे लगे......रास्ते भर समर्थकों और मीडिया का जमावड़ा....तिहाड़ तक पचास गाड़ियों में सवार समर्थक यही नारा लगा रहे थे-अमरमणि तुम आगे बढ़ो हम तुम्हारे साथ हैं..

बापू और भगत सिंह और मजिस्ट्रेट को उतनी देर इंतजार करना पड़ा.. फूलों से लदे त्रिपाठी के पहुँचते ही तीनों को एक ही सेल में बंद कर दिया गया.. 

त्रिपाठी जी का गला भारत माता की जय बोलते बोलते बैठ गया है....और अब किसी चैनल की किसी बाला को याद कर बेवजह हिलडुल रहे हैं..

बापू..... हे राम....वाली उस मुद्रा में पड़े हैं, जो 30 जनवरी 1948 को छाती पर गोडसे की गोली लगने के बाद विश्वविख्यात हुई थी..

भगत सिंह के मुंह से निकल रहा है गॉड सेव द किंग.... जिसने उन्हें ब्रिटिश ताज की गुलामी में फांसी पर चढ़ा कर उन पर कितना एहसान किया..

अब आइये कल्पना से निकल ठोस जमीं पर कदम धर चुके एक और प्रहसन पर निगाह डालें.....राष्ट्रपिता बनते बनते अन्ना हजारे अब अपने गांव में अपनी प्रतिमा बनवाने की हालत में पहुंच गए हैं.....

बाबा रामदेव ने जो तलवार कई साल पहले म्यान से निकाल कर विदेशी बैंकों में जमा देश का 400 लाख करोड़ वापस लाने नारा बुलंद किया था.....वो तलवार अब "विधर्मियों" को जिबह करने के काम आ रही है..

सुना है बाबा ने 400 करोड़ ले कर विदेशी बैंकों में जमा 400 लाख लाने की जिद छोड़ दी है..और वो अब काला धन रखने की बैंकिंग सुविधा देश में ही देने की पैरवी कर रहे हैं..

लेकिन उनका यह भी कहना है कि यह सुविधा केवल उन्हीं "राष्ट्रभक्तों" को मिले जो अपना मुहँ उनकी कंपनी के साबुन से धोते हैं..और उन्हीं की कंपनी में बनी वो राष्ट्रीय पोशाक पहनते हैं, जो पल में पायजामा और पल में सलवार बन जाती है..

बाबा ने यह पोशाक उस घटना की याद में बनवाई है, जिसमें वो लेडीज़ सलवार और कुर्ते में रामलीला मैदान से भागे थे..पकड़े जाने पर बाबा ने उसी सलवार कुर्ते में वो हिस्टोरिकल समझौता किया था और कहा था--अब मैं अनशन तो नहीं करूंगा....लेकिन नेताओं को लोम-लोम आसान जरूर सिखाऊँगा...ताकि उनकी रीढ़ की हड्डी पूरी तरह गायब हो जाये..

उसके बाद क्या हुआ यह हर खास-ओ-आम को मालूम है..बाबा को हरिद्वार उनके आश्रम पहुंचाया गया.....वो बाकायदा लाद कर ले जाए गए थे...इस चेतावनी के साथ कि चुप नहीं बैठे तो उनके च्यवनप्राश में मट्ठा मिला दिया जाएगा..



 बहरहाल, बाबा ..2014 में बनी नई सरकार में भगवा वालों को कुक्कुटासन सिखाने में व्यस्त हैं..

12/13/17