बुधवार, 1 अप्रैल 2020

मार्क्स का मोल यही है कि उसने दुनिया को नए ढंग से दुनिया देखना सिखाया।...प्रियदर्शन 

अगर‌ आज कार्ल मार्क्स तो क्या आज की दुनिया में मार्क्सवाद का हाल देखकर संतुष्ट होते? इसकी संभावना नहीं के बराबर है। दुनिया में मार्क्सवादी शासन-व्यवस्थाएं जिस नाटकीय ढंग से परवान चढ़ीं, उससे कहीं ज़्यादा नाटकीयता के साथ ध्वस्त हो चुकी हैं। बीसवीं सदी की वैश्विक राजनीति का एक ध्रुव बनाने वाला सोवियत संघ कई टुकड़ों में बंट चुका है और उसका कोई भी टुकड़ा मार्क्सवादी नहीं बचा है। इसी तरह पूर्वी यूरोप के सारे मार्क्सवादी क़िले ढह चुके हैं। चीन में मार्क्सवाद है, लेकिन निजी पूंजी और बाज़ारवाद से उसकी मैत्री उसकी बुनियादी अवधारणा को संदिग्ध बना रही है। यही बात क्यूबा और कोरिया जैसे देशों के बारे में कही जा सकती है। 
भारत में भी यह वामपंथ पर हंसने का मौसम है। केरल को छोड़कर वामपंथ के सारे दुर्ग ढह चुके हैं। केरल कब तक बचा रहेगा, कहना मुश्किल है। वामपंथी राजनीतिक दल लगभग अप्रासंगिक दिखाई पड़ते हैं। उनके छात्र संगठनों और मज़दूर संगठनों का भी यही हाल है। जेएनयू को छोड़कर कहीं और उनकी बात कोई सुनने वाला नहीं है। राजनीतिक मुद्दों में उनका हस्तक्षेप एनजीओ सेक्टर की याद दिलाता है। इसके अलावा जो बचा-खुचा वामपंथ है, वह माओवादी गलियारों की हिंसक छापामार लड़ाइयों में लगा दिखाई पड़ता है। भारत के लगातार अपरिहार्य होते जा रहे संसदीय लोकतंत्र में यह माओवादी वामपंथ अव्यावहारिकता और अराजकता का मेल लगता है।
तो क्या यह मान लें कि मार्क्सवाद ख़त्म हो चुका है? सतह पर शायद यही दिखाई पड़ता है। लेकिन इस सतह को खुरचने से एक और सच्चाई सामने आती है।
दरअसल उन्नीसवीं सदी में कम से कम तीन ऐसे विचारक हुए जिन्होंने दुनिया के सोचने का ढंग हमेशा-हमेशा के लिए बदल डाला। कार्ल मार्क्स से सिर्फ़ 9 साल पहले पैदा हुए चार्ल्स डार्विन ने 'ओरिजिन ऑव स्पीशीज' जैसी किताब लिखकर बताया कि न आदम किसी बहिश्त से उतरा है और न हव्वा उसकी पसली से पैदा हुई है- इंसान निरंतर विकास का नतीजा है और इस विकासवाद के हिसाब से वह बंदर की औलाद है। जबकि मार्क्स के 38 साल बाद पैदा हुए सिगमंड फ्रायड ने समझाया कि एक दुनिया हमारे अवचेतन के भीतर भी बसी होती है और इस दुनिया में हम जो कुछ करते हैं, वह हमारे अवचेतन में बसे खयालों का भी नतीजा होती है।

इन दोनों के बीच मार्क्स ने पूरे इतिहास को नए सिरे से समझने के नए औज़ार सुलभ कराए। बताया कि सभ्यता का इतिहास दरअसल संघर्ष का इतिहास है- यह संघर्ष मालिक और ग़ुलाम के बीच है, सर्वहारा और साधनवान के बीच है, शोषक और शोषित के बीच है। उन्होंने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धांत दिया और कहा कि उत्पादन पर उत्पादक का अधिकार होना चाहिए। मजदूरों-किसानों की एकता और बराबरी का सिद्धांत पहली बार इस प्रबलता से किसी विचारधारा की कोख से निकला। 
कहने की ज़रूरत नहीं कि जो लोग साम्यवादी शासन-व्यवस्थाओं के ख़ात्मे को मार्क्सवाद के ख़ात्मे की तरह देख रहे हैं, वह एक बड़ी भूल कर रहे हैं। सच तो यह है मार्क्स के बाद का कोई भी दर्शन मार्क्स की उपेक्षा करके नहीं चल सकता, कोई भी राजनीतिक कार्रवाई उन मुद्दों की अनदेखी नहीं कर सकती जो मार्क्स की वैचारिकी से निकलते हैं। 

जब आप रोटी-रोज़गार, घर और मज़दूरी की बात करते हैं तो दरअसल मार्क्सवाद के दिए मानवीय एजेंडे पर ही काम कर रह होते हैं। यह सच जितना राजनीति का है, उतना ही साहित्य, कला और संस्कृति की दुनिया का। साहित्य और संस्कृति की दुनिया में मार्क्सवादी वैचारिकी का हस्तक्षेप कई बुनियादी अवधारणाओं का जनक साबित हुआ है। मार्क्सवाद के विचार की छाया में दुनिया की महान कविता लिखी गई है, महान साहित्य रचा गया है। 

इसमें शक नहीं कि मार्क्सवाद की अपनी विफलताएं रही हैं। इस विचारधारा के आधार पर बनी व्यवस्था ने स्टालिन की आपराधिक ज़्यादतियां भी देखी हैं और चाउशेस्कू जैसे तानाशाह भी देखे हैं। सबको बराबरी का सपना दिखाने वाली व्यवस्था कई बार दमनकारी साबित हुई है। लेकिन मार्क्सवाद के भीतर से ही उसकी आलोचनाएं ही नहीं, उसका अंत भी पैदा हुआ। स्टालिन का कच्चा चिट्ठा किसी बाहरी ताक़त ने नहीं, ख्रुश्चोव ने खोला था और सोवियत सत्ता का अवसान उसके आख़िरी राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचोव के 'पेरेस्त्रोइका' और 'ग्लास्तनोस्त' के बाद हुआ था। बल्कि अपनी किताब पेरेस्त्रोइका में गोर्बाचोव ने लिखा भी कि दुनिया की कोई क्रांति एक दौर में पूरी नहीं हुई है- उन्होंने अमेरिकी क्रांति, फ्रांसिसी क्रांति और ब्रिटिश संसदीय सुधारों का हवाला भी दिया था। तो जो विचारधारा बिल्कुल 2000 साल की व्यवस्था और मनोरचना को पलटने में निकली हो, उसकी क्रांति बस एक दौर में पूरी हो जाएगी- यह सोचना और इसी आधार पर उसे ख़ारिज करना एक तरह का अन्याय है। 

इस मार्क्सवाद की प्रासंगिकता का एक पहलू और है। मार्क्सवाद के दबाव में एक दौर में पूंजीवाद ने मानवीय रूप अख़्तियार किया। मजदूरों के काम के घंटे तय हुए, उनकी सामाजिक सुरक्षा के रास्ते बने, उनके खुशहाल जीवन का रास्ता खोजा गया। लेकिन जैसे-जैसे मार्क्सवादी व्यवस्थाएं ढहती गई हैं, पूंजीवाद निरंकुश-निर्द्वंद्व होता चला गया है। मज़दूर आंदोलन ने 150 साल में जो हासिल किया, वह भूमंडलीकरण के 20 वर्षों में नष्ट हो चुका है। मजदूर पहले से ज्यादा अरक्षित है, पूंजी पहले से ज़्यादा अनुदार और समाज पहले से ज़्यादा असमान। जो नई दुनिया बन रही है, उसका एक बहुत छोटा सा हिस्सा बहुत चमकीला है, जबकि एक बड़ा हिस्सा उसकी कुलीन क्रूरता का वीभत्स शिकार। दिल्ली में फ़्लाई ओवरों के ऊपर से गुज़रती चमचमाती गाड़ियां और उन्हीं फ्लाई ओवरों के नीचे सोई बेबस ज़िंदगियां दरअसल इसी नई व्यवस्था के वे कुरूप उदाहरण हैं जिन्हें देखना भी हम गवारा नहीं करते। 

इसके अलावा किसी तर्कवादी, विज्ञानसम्मत विचारधारा के अभाव में दुनिया अचानक पहले से कहीं ज़्यादा अंधविश्वासी, सांप्रदायिक और उथली नजर आ रही है। ऐसे में मार्क्स और मार्क्सवाद की याद आना सहज-स्वाभाविक है। इसमें कोई संदेह नहीं कि मार्क्सवाद आज जितना असंभव जान पड़ता है उतना ही ज़रूरी भी मालूम होता है। आज भी प्रतिरोध की सारी भाषा और शब्दावली मार्क्सवादी मुहावरे की मोहताज दिखाई पड़ती है। मार्क्स का मोल यही है कि उसने दुनिया को नए ढंग से दुनिया देखना सिखाया। हमारे पास गांधी, लोहिया और अंबेडकर जैसे विचारक और चिंतक हैं जिन्होंने नितांत भारतीय संदर्भों में भारतीय विडंबनाओं के हल खोजने की कोशिश की, लोहिया ने पूंजीवाद और मार्क्सवाद दोनों को एशिया के ख़िलाफ़ यूरोप का आख़िरी हथियार भी बताया, लेकिन यह बड़ी सच्चाई है कि इन सबके भीतर थोड़े-थोड़े मार्क्स मिलते हैं और मार्क्सवादी कुछ उदार होकर सोचते हैं तो उनको मार्क्स में भी कुछ गांधी, अंबेडकर और लोहिया मिल सकते हैं।

कार्ल मार्क्स के २००वें जन्मदिन‌ पर लिखा था यह लेख।

6/28/18