बुधवार, 1 अप्रैल 2020

नर्मदा और वेगड़ जी..

बारह साल पहले की मई की दुपहरिया..मुज़फ्फरपुर की संजय गली के उस अति शानदार टैरेस वाले कमरे में पंखे की गरम हवा फांकते हुए जबलपुर से आई 'पहल'पत्रिका को खोलते ही जैसे ठंडी बयार बहने लगी..उसमें छपा अपना ..1857..भूल नर्मदा के किनारे ऐसा पसरा कि अमृतलाल वेगड़ नाम के व्यक्ति से मिलने को मन जैसे दौड़ मचाने लगा..

और यकीन मानिए कि अगले साल चार जुलाई को मैं जबलपुर का बाशिंदा बन चुका था..

जुलाई ख़त्म होते होते नईदुनिया में माकूल भर्तियां करने के बाद अपने सबसे करीबी जबलपुरिये संदीप चंसोरिया की मोटरसाइकल पर बैठ वेगड़ जी के निवास पर पहुंच गया..आदत के अनुसार बहुत ही छोटा सा परिचय दिया, जिसे वेगड़ जी जैसे गले से लगा लिया..फिर तो जम कर मिठाई खिलाई...और चलते समय हाथ में थीं उनकी नर्मदा यात्रा पर लिखी तीन किताबें..

उस दिन से मैं यही मान कर चल रहा हूँ कि वेगड़ जी सौ साल तो पार करेंगे ही....मुझ में और चे ग्वेरा में..मुझ में और नब्बे साल के वेगड़ जी में खास साम्य यह है कि उन दोनों को और मुझे दमा रोग है..चे तो 51 साल पहले चले गए..अब हम दो बचे हैं..चे ने नर्मदा को नहीं देखा, लेकिन वेगड़ जी ने मुझे एकाध दिन नहीं, बल्कि पूरे दस दिन सुबह से ले कर शाम तक नर्मदा के किनारे चलवाया..20-25 किलोमीटर रोज..

तीस जनों के कारवाँ में कई बार वेगड़ जी मुझसे संगीत पे चर्चा करते और चलते चलते गाना सुनाने को कहते तो सारी थकावट भूल मैं सुर लगाने में जुट जाता..नौ साल पहले की उस यात्रा में कई बार नर्मदा किनारे धूनी रमाने को दिल ने उछाल मारी, लेकिन वेगड़ जी हर बार मुझे संसार में ले आते..

और अब जबलपुर जाने की चाहत नर्मदा और ज्ञान जी के अलावा मेरे कई मित्र, खासकर विनय अम्बर, सुप्रिया और उनका बेटा बिगुल हैं..तो एक मक़सद वेगड़ जी का घर भी है..वहां मां भी हैं, नीरज भी हैं और नर्मदा की सी ताज़गी भी है..

7/9/18