गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

जो इतिहास मराठाओं की हार को मौसम बता रहा है वो मूर्ख बना रहा है..

पानीपत का तीसरा युद्ध अफगानों और मराठाओं के बीच लड़ा गया। अफगान आक्रमणकारी अहमदशाह अब्दाली इस युद्ध से पहले एक बार मुगल सल्तनत की धज्जियां उड़ाते हुए दिल्ली को बुरी तरह लूट कर हजारों औरतों, बच्चों और पुरुषों को ऊंटों पर लाद कर काबुल के बाजारों में बेच चुका था। उसने फिर भारत पर चढ़ाई की, पर इस बार उसका रास्ता रोके खड़े थे एक लाख मराठा सैनिक। फ्रांसीसी तोपों और बंदूकों से लैस। 

युद्ध क्षेत्र में अब्दाली के पहुंचने से पहले ही वहां मराठा सेना खाई-खंदक खोदे तैयार बैठी थी। दोनों सेनाएं बजाये लड़ने के एक-दूसरे की घेराबंदी कर बैठ गयीं और हल्की-फुल्की झड़प के अलावा दो महीने तक देखा-देखी चलती रही। गड़बड़ी यहीं से शुरू हो गयी। अब्दाली ने स्थानीय कुमुक के लिये पीछे की खिड़की खुली रखी जबकि मराठाओं की रसद वगैरह की सप्लाई के सारे रास्ते बंद हो गये। 14 जनवरी 1761 को युद्ध शुरू हुआ, लेकिन नतीजा वही निकला। अब्दाली के घुड़सवारों ने मराठाओं को दौड़ा-दौड़ा कर मारा। 

इस हार के साथ ही देश भर में करीब पचास साल से चला आ रहा मराठाओं का दबदबा पूरी तरह खत्म हो गया। यहां हार का कारण मराठा सिपहसालारों की आपसी रंजिश बनी। मराठा कमान के सेनापति सदाशिवराव भाऊ की अपने भतीजे विश्वास राव से नहीं बन रही थी, जो पेशवा बालाजी विश्वनाथ का बेटा था। सिंधिया से होलकर खार खाये बैठा था, तो गायकवाड़-भौंसले अपनी-अपनी चला रहे थे। 

सबसे बड़ी बात यह है कि मराठाओं को उत्तर भारत के किसी राजा से कोई मदद नहीं मिली। उन्होंने सालोंसाल जिस तरह मुगल बादशाह और उत्तर भारत के राजाओं से रंगदारी वसूली, उस कारण क्या सिख, क्या जाट, क्या रोहिल्ले और क्या राजपूत-सभी उनसे खार खाये बैठे थे। जबकि अब्दाली को जाटों और रोहिल्ले पठानों से वक्त-वक्त पर मदद मिलती रही।

इस लड़ाई के बाद ही अंग्रेजों ने भारत के एक से एक बलशालियों की मिट्टी पलीद करनी शुरू की। पहले पेशवा को निशाना बनाया, फिर सिंधिया को, होल्कर को, और सबसे अंत में महाराजा रंजीत सिंह के मरने के बाद सिखों को। मुगल बादशाहत तो पहले से ही बेदम थी। निजाम को शुरू में ही अंग्रेजों ने अपना पिट्ठू बना लिया था। 



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