बुधवार, 1 अप्रैल 2020

जोड़ मुज़फ्फरपुर की पत्रकारिता

मुज़फ्फरपुर की खास बात यह रही कि वहां मैंने ऑफिस में अक्सर 14 से 18 घंटे गुज़ारे और करीब तीन साल ऑफिस में ही सोया... समाचार संपादक के क्यूबिकिल में कम्प्यूटर की मेज के बगल में स्लीपर क्लास की बोगी वाली लंबाई की रैक..उस पर दरी और ओढ़ने को चादर...

ऑफिस रात गुजारने का सबसे बड़ा सुख लाइट का...जब पूरा शहर अंधेरे में सर्दी बनाम गर्मी और मच्छरों से जूझ रहा होता तो अपन रात दो बजे आखिरी एडिशन छोड़ कर संपादकीय हॉल के सन्नाटे में कम्प्यूटर पर रोजाना कोई किस्सा गढ़ते..जाड़ों में हीटर की गर्मी और गर्मियों में एसी की ठंडक..मेहरबानी जेनेरेटर की..

सबके जाने के बाद उस बड़े से हॉल में मेरे अलावा प्रोडक्शन के त्रिपाठी जी कम्प्यूटर पर ताश खेलते हुए अक्सर मेरे गायन पे ताल दिया करते..अक्सर रात को तीन बजे हम मोतिहारी रोड पर बूढ़ी गंडक के ब्ल्यू लैगून तक घूमने निकल जाते...कुल मिला कर यह रात्रि जागरण बड़ा मनोहारी होता और तब तक चलता जब तक बगल में चल रही प्रिंटिंग प्रेस से त्रिपाठी जी छप रहे अखबार की प्रति लेकर आ नहीं जाते थे..

अखबार की सबसे पहली प्रति की सूक्ष्म छानबीन कर हरी झंडी देता छापने की..कई बार किसी बड़ी खबर को अपडेट करने, खेल की किसी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता के ताजा नतीजे वगैरह अखबार के लिए ज़रूरी जान अकेले ही सारी भागदौड़ कर उन्हें लेता प्रेस रुकवा कर..मेरे रात भर आफिस में रुकने का यह बहुत बड़ा फायदा हुआ..इस काम में मेरा साथ प्रिंटिंग वालों ने वहुत दिया...

और यह बहुत बड़ी बात थी कि जब दिल्ली पटना के सारे अख़बारी काम दो बजे तक पूरी तरह ठप्प हो चुके होते थे..मेरे रहते मुज़फ्फरपुर हिंदुस्तान पांच बजे तक अपने को कम्प्यूटर के जरिये अपडेट करने का जज़्बा रखता था..

दिल्ली से मुज़फ़्फ़रपुर चलने तक मुझे सबसे ज़्यादा बिहार के जातिवाद को लेकर डराया जाता रहा..लेकिन इस मामले में अपना खुला खेल फर्रुखाबादी था, इसलिये मुझे इस देश के सबसे घृणित खेल जातिवाद का सामना नहीं करना पड़ा..मेरे इस बेहद कठोर रुख के चलते कभी किसी की हिम्मत ही नहीं पड़ी..

4/8/18