बुधवार, 1 अप्रैल 2020

माता सरस्वती वंदना बनाम बास मारती शिक्षा 


गम निष्पादन बार। दिल और दिमाग की किसी भी खोह में फंसी तकलीफ को अंखियों के झरोखों से बाहर निकालने का उत्तम प्रबंध।  

इस सम्मेलन में उन महिलाओं को खास तौर पर बुलाया गया है, जिनका हाल विधवाओं से भी बदतर है। विधवा नहीं हैं, इसलिये वृंदावन भी नहीं जा सकतीं, ऐसी कई महिलाएं वहां आ जमी हैं। माहौल पर महाभारत युद्ध के बाद का सा विषाद छाया है, जो मौके की नज़ाकत को देखते हुए जरूरी भी है। 

शिक्षा से जुड़े कुछ मसीहा भी नज़र आ रहे हैं..इनमें से कई आस्था चैनल पर गौ मूत्र पर प्रलाप करते हैं..इन शिक्षधारी जंतुओं को इसलिए भी बुलाया गया है ताकि सरस्वती वंदना के बाद  उनकी वीणा को नीलाम किया जा सके...

वातापि ने इल्वल को कार्यक्रम शुरू करने का इशारा किया। ‘बहनों और भाइयों, आज के दिन आप सबको अपनी दुखगाथा रो-रो कर सुनाने का एक सुनहरा मौका मिला है, जिसे हाथ से न जाने दें। तो शुरुआत करें हम बेसिक शिक्षा देवी से।आइये सुश्री बेसिक जी। 

अपना नाम पुकारा जाता देख देवी जी बुक्का फाड़ कर रो पड़ीं। इस प्राकृतिक रूदन पर सब ने वाह-वाह करते हुए तालियां बजायीं। 

मैं क्या बोलूं- आजाद भारत में मेरी हालत होमगार्ड के जवान से भी ज्यादा बदतर हो गयी है। स्कूल बारातघर और कूड़ाघर में तब्दील हो गये हैं। 20-25 साल पहले जिन स्कूलों में छोटे-छोटे बच्चे झूमते-झामते तख्ती और दवात लेकर आते थे। जमीन पर बिछी चटाई पर आलथी-पालथी लगा कर पहाड़े रटा करते थे, अ आ इ ई सीखते थे, इंटरवल में मैदान में उधम मचाया करते थे। मैं खुशी में बौराई यहां से वहां डोलती फिरती थी, आज उन मैदानों पर सुअर घूमते हैं, उन कक्षाओं में गंजेड़ी दम लगाते हैं, बच्चे पढ़ने आते भी हैं तो मास्टर साहब चुनाव में ड्यूटी दे रहे होते हैं या परिवार नियोजन के गुब्बारे बेच रहे होते हैं। कई बार तो बच्चे इसलिये लौट जाते हैं क्योंकि स्कूल में किसी दबंग पड़ौसी के बेटे की सगाई का जश्न मन रहा होता है। या किसी ने वहां गाय-भैंस बांध रखी होती है। ज्यादातर स्कूल एक कमरे के रह गये हैं, जहां पहली कक्षा से लेकर आठवीं की पढ़ाई एक साथ हो रही है। दो सौ बच्चों पर एक मास्टर है। स्कूल में पीने को पानी नहीं है। बच्चे प्यास से तड़पते रहते हैं।
गर्मी हो या बरसात या जाड़ा, ज्यादातर स्कूलों में पढ़ाई खुले में होती है क्योंकि स्कूल की छत अब टपकी तब टपकी। बोलते बोलते उनकी सिसकियां हॉल को गुंजायमान करने लगीं..

इल्वल ने माइक संभाला.....अब मैडम संता और मैडम बंता अपनी बात कहेंगी। आप और हम उन्हें माध्यमिक शिक्षा देवी और उच्च शिक्षा कुमारी के नाम से भलिभांति जानते हैं, आइये मैडम संता जी-बंता जी। आप दोनों अपनी आंखों में प्याज का रस टपका कर मंच पर आएं, तब तक मैं आपके रोने-धोने का और बढ़िया इंतजाम करता हूं। 

तभी वहां बैठा एक फटेहाल युवक छाती पीट-पीट कर रोने लगा। उसके मुंह से चर्र-चर्र जैसा कुछ निकल रहा था। पता चला कि अपनी बात कहने को बेताब बैठे यह सज्जन कुमार चरवाहा विद्यालय हैं। 

लेकिन इल्वल ने इशारे से रोक दिया और कहा- हमारे कार्यक्रम में आप बोलने लायक इसलिये नहीं हैं क्योंकि हमारा यह प्रोग्राम फ़ज़ीहतखोरों के लिए है...आपके हालात सुधारने की बात राष्ट्रीय रंगमंच पर एकाएक बड़ी तेजी से उभरी है। यहां तक कि स्वीडन और नार्वे तक ने चरवाहे तलाशने शुरू कर दिये हैं। 

इस बीच सुश्री संता ने पास की दीवार पे सिर दे मारा, तो सुश्री बंता अपना माथे कूटने लगीं।  
उनका कलपना सुनिये...शिक्षा बोर्ड ने तो मुझे चौराहे पर नीलाम कर दिया-संता ने स्वर लगाया। मेरे परीक्षार्थी पहले पुर्चियों से नकल कर पान के साथ चबा जाया करते थे। यह देख मुझे भी मजा आता था, पर अब तो बाप परीक्षा भवन की खिड़की से लगे पेड़ पर चढ़ा होता है तो मां उसके कंधों पर खड़ी हो बेटे को पर्चा हल की हुई कॉपी थमा रही होती है। मेरे तो करम फूट गये। अब तो बात उससे भी आगे बढ़ गयी है। आदेश निकाल दिया गया है कि छात्र जिस विद्यालय में पढ़ते हैं, उसी में वे देंगे बोर्ड के इम्तिहान। यानी मां-बाप को पेड़ पर चढ़ने की भी जरूरत नहीं रह गयी। अपना स्कूल, अपना टीचर, ठेंगा मेरे बाप का।
पर्चे अपने आप हल हो रहे हैं और लफंगा मार्का विद्यालयों का रिजल्ट सौ बटा सौ प्रतिशत। 

कोर्स की किताबों का यह हाल है कि एक साल पढ़ाया जाता है कि महमूद गजनवी ने सोमनाथ का मंदिर तोड़ा तो अगले साल कोर्स में होता है कि नहीं, मंदिर फफूंद लग जाने से गिरा, जिसे दोबारा बनवाने के लिये बेचारे गजनवी ने सिर पर पत्थर ढोये। 

संता जी का विलाप नयी दिशाओं की ओर फैलता कि सुश्री बंता अपने बाल खोल जोरों से हिलने लगीं। चिल्लाती भी जा रहीं-सारे फसाद की जड़ तो तू ही है संतो, तेरी वजह से ही देश के नौनिहालों को आगे पढ़ने का मौका नहीं मिल रहा। जब तेरे यहां से पास होने वालों का रेवड़ का रेवड़ हो तो मेरी कुठरिया तो वैसे ही 10 गुणा 10 की है, क्या टांड़ पे बिठाऊंगी उन्हें। ऊपर से डाक्टर-इंजीनियरों के लफड़े अलग। आये दिन मेरे मुंह पर कालिख पुतवाते हैं उनके कालेजों के नासपीटे मालिक। 

अचानक सामने बैठे एक बुड्ढे को मुंह छुपाते देख दोनों के मुंह से निकला-यही है सारे कष्टों की जड़। यह अगर आपे में रहता तो बीसियों साल से चल रहे हम दो हमारे दो अभियानों का दिवाला न निकला होता। खरबों रुपये डकार गया कम्बख्त, पर अब भी वही- एक के दस। 

दोनों उसकी तरफ लपकीं, उस पर हाथ पड़ते तब तक चप्पलें वहीं छोड़ परिवार नियोजन भागा और बाहर जाकर चिल्लाने लगा- 
मैं तो कब से गला फाड़-फाड़ कर चिल्ला रहा हूं-हम दो-एक हमारी प्यारी सी मुनिया है, यही हमारी बस छोटी सी दुनिया है---। पर जब इसके रीमिक्स में सोनम कबीर थिरकेगी तो उसको सुन पैदा होने वालों का टेंटुआ क्या मैं दबाऊंगा? और अब मुनिया भी कहां रही, उसका गला तो उसके ही मइया-बप्पा ही टीप देते हैं....

6/17/18