बुधवार, 1 अप्रैल 2020

नेहरु और कश्मीर...

कुछ वर्षों से कश्मीर को नेहरु की चाशनी में डाल कर जलेबी की तरह कुछ ऐसे पेश किया जा रहा है कि देखो यह है कश्मीर समस्या...और साथ में चटखारेदार नमकीन जैसे रिश्ते...मसलन शेख अब्दुल्ला मोतीलाल नेहरु की अवैध संतान थे..एडविना के आकर्षण में फंसे नेहरु ने कश्मीर का मामला गले की फांस बना दिया...

आइये पहले कश्मीरियत को जान लें.. कश्मीरी और अफ़ग़ान दो ऐसे समाज हैं, जिन पर जबरन काबिज़ नहीं हुआ जा सकता..एक हज़ार साल पहले महमूद गजनवी ने पूरे पश्चिम भारत की हवा निकाल दी थी लेकिन वो कश्मीर का कुछ नहीं बिगाड़ सका..कई हमलों में मुहँ की खाने के बाद उसने अपने घोड़े हिंदुकुश की तरफ मोड़ दिए..कश्मीर में इस्लाम आया सूफियों के ज़रिए..और वहां इस्लाम काबिज हुआ ब्राह्मणों की बदौलत, जिन्होंने तिब्बत के राजवंश से आए एक बौद्ध राजकुमार को हिन्दू नहीं बनने दिया, नतीजा यह हुआ कि उस राजकुमार ने इस्लाम अपनाया और सूफी मिठास को कड़वाहट में बदल ब्राह्मणों की ऐसी की तैसी कर डाली और कुछ ही सालों में घाटी पर इस्लामी पताका फहराने लगी..

सेंकड़ों साल बाद जब कश्मीर महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य का हिस्सा बना तो वहां का माहौल बेहद सहज और सद्भावनापूर्ण था..उनके मरते ही अंग्रेजों ने कश्मीर घाटी जम्मू के डोगरा राजा गुलाब सिंह को 35 लाख रुपये में बेच दी..गुलाब सिंह और बाद के डोगरा राजाओं ने कश्मीरी मुसलमानों के साथ वही व्यवहार किया, जो बिहार के भूमिहार या राजपूत जमींदार पिछड़ों के साथ करते थे..

अगले नब्बे साल तक पूरी कश्मीर घाटी पर डोगरा शासन ने बेहिसाब जुल्म किये और वहां की जनता को हर सुविधा से वंचित रखा...जबकि लूट खसोट चरम पर रही..ऐसे में आखिरी डोगरा राजा हरि सिंह के जुल्मों के खिलाफ बिगुल फूंका शेख अब्दुल्ला ने..शेख की नेतृत्व क्षमता से जवाहरलाल नेहरु भी बहुत प्रभावित हुए..और उन्होंने शेख अब्दुल्ला को कश्मीरियों का एकमात्र नेता मान लिया...

बंटवारे के समय सेंकड़ों रियासतों को भारतवर्ष में शामिल कर चुके सरदार पटेल और अन्य कई कांग्रेसी नेता व कट्टरपंथी हिन्दू नेता, पता नहीं क्यों कश्मीर के नाम से हमेशा बिदके.. ये सभी नेता कश्मीर घाटी से छुटकारा पाना चाहते थे लेकिन अंतर्राष्ट्रीय हालात की सर्वाधिक बेहतर समझ रखने वाले नेहरु कश्मीर को भारत के लिए बेहद ज़रूरी मानते थे..और इसीलिए एडविना और लार्ड माउन्टबेटन की एक न सुनते हुए नेहरु पठानकोट के लिए अड़ गए..क्योंकि पाकिस्तान को करीब करीब दिया जा चुका पठानकोट अगर भारत को न मिलता तो भारत के लिए कश्मीर की स्थिति बिल्कुल वैसी हो जाती जैसे पाकिस्तान के लिए पूर्वी पाकिस्तान हुआ करता था..

1947 में बंटवारे के बाद कश्मीर पर कब्जा करने के लिए शुरुआती हमले खुले तौर पर क़ाबालियों ने किए थे न कि पाक फौज ने..यह स्थिति ज़्यादा ख़तरनाक थी..घाटी के बड़े हिस्से पर खूंखार क़ाबालियों का कब्जा हो चुका था, उस समय नेहरु ने शेख अब्दुल्ला के साथ मिल कर डोगरा राजा पर भारत में शामिल होने का दबाव बनाया.. उससे दस्तख़त कराए और तब भारतीय फौजें ने हमले शुरू लिए..और तब पाक फौज भी सामने आ गयी..

पाकिस्तान ने युद्धविराम न किया होता तो भारत के पास पूरा कश्मीर होता..लेकिन जुम्मा जुम्मा दो दिन पहले पैदा हुए एक राष्ट्र के सर्वोच्च नेता के रूप में नेहरु के सामने राष्ट्रसंघ में जाने के सिवा और चारा ही क्या था..जबकि देश के अंदर उनके मंत्रिमंडल में ही कश्मीर को लेकर कोई उत्साह नहीं था...

जारी... 

6/21/18