गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

सर जी, इस में एक बून्द पानी नहीं

एक कहानी.....

घर कहना तो सही नहीं होगा उसको.....वो उसे स्टूडियो कहते हैं....पर सबसे सही शब्द है आरामगाह......सड़क पर ज़रा भी चूके तो आगे निकल जाएंगे....जो मेरे साथ अक्सर होता है....कई बार आगे निकल गलत जगह घूम  जाता हूँ....लौट कर फिर सड़क पर.....और फिर पहले से तय की हुई  अगल-बगल की पहचान पर एक नज़र डाल सही रास्ता पकड़ना...

दायीं तरफ ..एक पतला सा रास्ता...उबड़-खाबड़....उस रात उस रास्ते  पर चलते और फिर उस खंडहर की बाईं तरफ सीढ़ी  चढ़ते मन कांप रहा...लेकिन आख़िरी पैड़ी पर कदम धरते  ही सारी घबराहट दूर हो गयी थी.....उस हँसते चेहरे से जैसे रजनीगंधा के फूल झर रहेे....स्टेशन पर कदम्ब का वृक्ष और यहाँ खुश्बू बिखेरती कई सारी डालियाँ....

जी हाँ, मैंने पेड़ को अपने साथ घूमते देखा है और फूलती रजनीगंधा को गौरैया में तब्दील होते ......कैसे .....
बताता हूँ .....
बाहर लंबा-चौड़ा छज्जा...अन्दर घुसते ही बड़ा सा कमरा...दरवाजे के दोनों तरफ छज्जे की तरफ झाँकतीं खिड़कियाँ....जिनके पल्लों में हाथ डाल कर उस कमरे में ताला मारने के बाद चाभी धरी और उठायी जाती है.....  .....अक्सर नहीं.....ख़ास मौकों पर.....उस कमरे के दोनों तरफ दरवाजे और उन दरवाजों के पीछे कमरे....बाईं तरफ वाला कमरा सोने के लिए....उसमें भी दरवाज़ा....और फिर एक कमरा....फिर एक दरवाज़ा...और उस से उतरतीं दो सीढ़ी....अब रसोई....रसोई में से निकल कर एक छोटे से आँगन में.....पानी के सारे काम वहीं....अब फिर आया जाए बाहर वाले कमरे में.....

अब दायें दरवाज़े से अन्दर चलें ...यहाँ भी कमरा....एक कलाकार का कमरा...उसी से लगी एक कुठरिया....मूर्तिकला के लिए.....इसका एक दरवाज़ा आँगन में भी खुलता है.....शुरू में ही आरामगाह बोला था न ....जो सच में है भी....मानसिक तनाव दूर करना हो....अवसाद दूर करना हो....थकान उतारनी हो.....यहाँ चन्द घंटों के लिए आ जाइए...और बाहर वाले या बाईं तरफ वाले कमरे में पसर जाइए......तय मानिए  कि चैन की सांस लेते हुए बाहर निकलेंगे.....

और मौज मारने की तो अचूक जगह......साबूदाने के बड़े हों..... भजिया.........तले हुए भुट्टे के दाने हों या फिर दाल रोटी...या फिर चिकन-मटन.....और साथ में सोमरस.....दिव्य आनंद......बाहर जो रजनीगन्धा उस रात दिखी थी ना...अन्दर जाते ही वो गौरैया बन जाती है....और उसको लेकर हैरान परेशान वो कदम का पेड़....कलाकार .......छोड़िये...बहुत सारे रूप हैं उसके......घनघोर रूप से शानदार जोड़े की वो संतान देख रहे हैं न आप....जो मुझे नाम से बुलाता है....और दोस्त मानता है मुझे......इसके अलावा कुछ भी न मुझे मंजूर है न उसे......मामला उसी का नहीं.....उन दोनों के साथ भी सब कुछ वही मंजूर है जो जिस रूप में सामने आया....हम चारों ने ही किसी तरह की अपनी तरफ से कोई मिलावट नहीं की है......कोई दूधवाला हो तो यही कहेगा...साब जी... एक बूंद पानी नहीं मिलाया है....चाहो तो अभी का अभी खोआ बना कर देख लो.....

उस रात वहीं सोया गया.....सुबह उठते ही मेज पे धरा मोबाइल टनटनाया.....गौरैया कहीं अन्दर-बाहर होगी....कलाकार ने उठाया....सन्देश था....तुम्हारी बहुत याद आ रही है....आगे  गौरैया लिखा था या जानू ....लिखने वाले को तो याद नहीं.......प्रकृति के नियम से भी चला जाए.....तो जो भी भाव कलाकार के चेहरे पर आये.....वो गौरैया को देखते ही लुप्त हो गए....लेकिन........राजीव जी तुम्हें बहुत याद कर रहे हैं.....के कहने का भाव  कानों  पर पलांश भर ठिठका और फिर अपना काम कर कहीं जा बैठा.......

उसी दिन दोपहर या शाम किसी समय कलाकार ने गौरैया से कहा......तुमको फील तो नहीं हुआ मेरे कहने का......गौरैया एक बार फिर रजनीगन्धा बन गयी......कैसी बात कर हैं सर जी......कुछ हो तो फील किया भी जाए.....लेकिन आपसे बस इतना कह रही हूँ कि मुझसे भी ज़्यादा...यहाँ तक कि मेरे पिता से भी ज़्यादा विश्वास राजीव का  कीजिएगा..........

इस बेहद  छोटे से अघटित घटनाक्रम का व्यवहारिक या सांसारिक पक्ष तो मैं नहीं जानता, लेकिन आदतन युगांधर पलटते पलटते  द्वापर युग में पहुँच गया.......फिर बच्चन जी की ....क्या भूलूं क्या याद करूं....के कुछ पन्ने याद आये.......लेकिन रजनीगन्धा की खुश्बू कहीं नहीं थी....न ही साथ साथ चलता कदम का पेड़....था भी तो एक तरह का आदर्शवाद ....कि हमको कैसा होना चाहिए .......जबकि ये दोनों शख्स दुनिया में रहते हुए भी किसी और ही दुनिया से कई-कई  बार रु-बरु करा जाते हैं.....खुद मैं कई बार अपनी बांह में चकोटी काटता हूँ तो यही पता लगता है कि कोई सपना नहीं देख रहा......

1/17/18