गुरुवार, 16 अप्रैल 2020


मुज़फ़्फ़रपुर का जिमी


पता नहीं किस तुफेल में ढाई साल पुरानी जमी जमायी किरायेदारी छोड़ इत्ते बड़े घर को डेरा बनाया...कई सारे कमरे...अंदर आंगन..बाहर दालान और उसके भी बाहर लॉन..और रहने वाला फ़क़त मैं। 

मकान मालिक का परिवार ऊपर...सुबह की चाय अक्सर उनके यहां पीता.. लेकिन पता नहीं क्यों, जिमी को पसंद नहीं आया मेरा आना..मुंह बिचका कर भाग जाता..एक दिन ऐसे ही पूछ लिया-इसे खाने में क्या पसंद है! खीरे और पानी में भीगे चने.. वाह! यही तो अपनी भी पसंद है..नीचे अपने दालान में खड़े-खड़े फौरन खीरे की दो फांक कर एक अपने मुंह में डाली और दूसरी उसके सामने रख दी.. पहले तो घूरता रहा, फिर अहसान दिखाते हुए दांतों से कुतरने लगा.. 

अगले दिन तश्तरी भर भीगे चने और खीरे के टुकड़े..तीन दिन बाद ही महाशय जी कमरे के अंदर..अपना रूटीन शुद्ध अख़बारी..रात को काफी देर से घर लौटना, दिन भर सोना..सारे दरवाज़े चौपट खुले रहते..रखवाला जिमी जो था.. मिलने वाले गेट पर खड़े होकर चिल्लाते रहते और जिमी उन्हें चुप कराता रहता ताकि मैं सोता रहूं..

सावन आ गया.. अब देर रात के बजाये दफ्तर से सुबह लौटना होने लगा..एक भोर फुहारों के बीच ब्रह्मपुरा के सब्जी बाजार में देसी अमियों की ढेरी देख दिल लपझप करने लगा.. छांट कर कर कई किलो भर लीं.. 

गेट खोलते ही रोजाना की तरह जिमी की लपक-झपक शुरू.. आम की गंध मिली तो बौरा गया..तेजी से दरवाजे पर पुहंच उछल-उछल कर पैर मारने लगा कि जल्दी खोलो यार, अब रहा नहीं जा रहा..अंदर जा कर सारे आम पानी भरी बाल्टी में उडेले,..फिर छिलका उतार कर गुठली उसे दी..अब तो जी पूरे आंगन में जिमी की स्केटिंग शुरू.. गुठली आगे को फिसल रही और जिमी मुंह खोले उसके पीछे-पीछे.. चार-पांच गुठलियों ने पूरे आंगन को आम के रस से महका दिया..

इस तरह हम दोनों ने पूरी बरसात सुबह-दोपहर आम, खीरा और भीगे चनों का मजा लिया..जिमी साहब ने ऊपर अपने घर भी जाना बंद कर दिया..कोई लेने आता तो गुर्राना शुरू...बाकी समय हम दोनों का गपशप या सोने में गुजरता.. 

मुश्किल आती शाम को जब आॅफिस के लिये स्कूटर बाहर निकालता..वह पैर पकड़ कर झूल जाता.. मैं, स्कूटर और वो, तीनों गेट तक घिसटते जाते..तब तक उसके बरसात के पानी से भीगे पंजे पेंट का हाल चौपट कर चुके होते..पेंट बदल कर, उसे जंगले के अंदर कर ही गेट से बाहर निकल पाता.. सितम्बर खत्म होते-होते इत्ते बड़े घर से मन उकताने लगा..जिसके दो कमरे हमेशा बंद ही रहते..

एक दिन ऑफिस के भूमिहार मनीष को पकड़ कर पुराने घर ले गया तो भूमिहार मकान मालिक का चेहरा खिल उठा..चाय के साथ रसगुल्ले भी खिलाय..और फिर बोला-फिर यहीं आ जाइये-अपके दोनों कमरे बंद ही पड़े हैं..यहां तक कि किराया भी घटा दिया..तो मनीष बोल पड़ा-आप तो भूमिहारों के बाप निकले..

एक सुबह मनीष ने ही सामान ढोने वाले बुला कर शिफ्ट करा दिया..सामान लदता देख जिमी पागल हो गया..एक के पैर पर तो दांत भी गड़ा दिये..मकान मालिक किसी तरह गोद में उठा कर ऊपर ले गये..

पुराने घर में आने के बाद दो-चार बार जिमी को बुलवाया तो खुशी से झूमता आया.. नाश्ता पानी करता..लेकिन लौटता बहुत बेमन से..दफ्तर के रास्ते में ही उसका घर पड़ता था इसलिये जब-तब उससे मिलने चला जाता..खीरे चने ले कर..आवाज सुन कर जिमी हल्ले मचाता ऊपर से आता..फिर लखनऊ-दिल्ली के चक्कर में काफी दिन बाद वहां जाना हुआ।

कई बार घंटी बजाने के बाद भी जिमी की आवाज सुनायी नहीं दी तो अजीब सा लगा.. श्रीवास्तव जी अकेले नीचे आये तो उनसे पूछा-जिमी कहां है? जो सुना उससे कान सुन्न हो गये..हुआ यूं कि मेरे जाने के बाद कोई रिटायर्ड जज उस घर में रहने आ गया था.. जिमी को उस चौखट से काफी मोह था ही, अक्सर वह अंदर भी चला जाता और अपना ही घर समझ सुसु वगैरह कर देता..जज के बेटे को उसका आना बिल्कुल पसंद नहीं आया और एक दिन उसने जिमी पर मिट्टी का तेल डाल दिया। 

घने बालों की वजह से किसी को पता नहीं चला कि तेल ने खाल को जला डाला है.. सड़ने पर घाव से बदबू उठने लगी..काफी कमाऊ जगह मैनेजर रहे श्रीवास्तव साहब आठ साल से बेटे की तरह पल रहे जिमी का घर में ही टटपूंजिया इलाज करते रहे.. जब दुर्गंध पूरे घर को गंधाने लगी तो एक दिन उसे कार में धर 30-35 किलोमीटर दूर सुनसान जगह पेड़ से बांध आए। .... 

अपन के दिमाग में बस यही चल रहा था- पेड़ से बंधा जिमी मरा किस तरह होगा .........काफी देर तक भौंकता रहा होगा.... फिर कूं-कूं..... हो सकता है जीते जी उसे निवाला बनाया गया हो .......। इससे अच्छा तो आप उसे जहर दे देते...यह कह कर लौट लिया। फिर जब तक मुजफ्फरपुर में रहा, उनके लाख बुलाने पर घर तो क्या, उस तरफ जाने वाली सड़क पर भी पांव नहीं रखा। जिमी को अपने से इस कदर जोड़ने के अपराधबोध से अभी तक मुक्त नहीं हूं। कभी होऊंगा भी नहीं।



1/10/18