जगजीत सिंह
अक्टूबर के दिन थे। हवा में खुनकी आ चुकी थी। हिमाचल की पहाड़ियां बिल्कुल आंखों के सामने, इसलिये कुछ ज्यादा ही ठंडक। जनसत्ता में चंड़ीगढ़ की वह शाम, हमेशा की तरह । थानवी जी संपादकीय हॉल में आए। हाथ में रविवार का अंक।
अजय श्रीवास्तव से बोले....इसमें हेमंत कुमार पर शिरीष कार्णितकर (ऐसा ही कुछ नाम था) ने लिखा है आप आइडिया ले कर लिख दें...हेमंत दा नहीं रहे। इतना कह कर चले गए। अब हाथ-पांव फूलने की बारी अजय की थी....‘मैं (खाकी निक्करधारी) संगीत के बारे में कुछ जानता-वानता नहीं...आप ही लिख सकते हैं।’ मैंने रविवार को एक तरफ फेंका और लिखना शुरू कर दिया। लिखते समय कई बार आंखें भर आयीं....उनके सूखने-सुखाने का इंतजाम कर फिर पेन चलाने लगता।
आज 22 साल बाद वही स्थिति है। अहसास कुछ ज्यादा ही गहरा ... संचार क्रांति ने सब कुछ इस कदर जोड़ दिया है कि अगर हेमंत दा दुनिया से गए थे, लगता है कि जगजीत सिंह बेवक्त महफिल से उठे हैं। हेमंत दा को तो केवल गुनगुनाया ही जा सका, लेकिन जगजीत सिंह से तो याराना सा था बरसों से।
80 के दशक के अंत में पहली बार जगजीत को सुना तो आवाज़ में बेहद अपनापन। अपने ही किसी आत्मीय के घर में बैठकर घंटों उनका पहला एलपी सुनता रहा। जब दोनों तरफ खत्म हो जाए तो सन्नाटा बर्दाश्त नहीं होता था, फिर वही आवाज़ सुनने को तबियत मचल उठती। न जाने कितनी बार सुना। रिकार्ड खराब करना है क्या....यह उलाहना भी सुना। उलाहनों की आदत लग चुकी थी क्योंकि उस घर में कई रिकॉर्ड एक के बाद एक पचास बार सुन घिस चुका था।
साल गुजरते गए...जगजीत की आवाज झंडे गाड़ ही चुकी थी। फिर उन्हीं आत्मीय के यहां जाना हुआ। इस बार रात गहरा चुकी थी। सब सो गए थे। नये घर के शानदार ड्राइंगरूम में रखे म्यूजिक सिस्टम पर अपनी नजर पड़ चुकी थी। किसी को जगा कर उसे प्ले करने की सारी जानकारी लेकर बैठ गया। यह भी सूँघ लिया था कि कई सारे कैसेट वहीं किसी खोह में धूल खा रहे जूतों के डिब्बों में पड़े हैं । उनमें कई जगजीत के भी । सुबह पांच बजे तक सुनने के बाद अपने बैग में वो सब कैसेट भरे और नींद में गाफ़िलों को राम-राम बोल कर निकल लिया।
वह जमाना कानपुर का था। जब कम्पनी बाग में संजय ने शानदार छत पर कमरा दिखाया तो फौरन उसको उकसा कर गाने सुनने का इंतज़ाम किया । जो कैसेट खरीदे गए उनमें जगजीत के चार कैसेटों वाला एल्बम भी था। एचएमवी वालों ने निकाला था। इसके अलावा दसियों कैसेट जूतों के डिब्बे से निकाले हुए।
जगजीत ने बहुत साथ दिया कई वीरानियों में। कानपुर के बाद दिल्ली, फिर मुजफ्फरपुर...जबलपुर। नेशनल का म्यूजिक सिस्टम और डेढ़ सो कैसेट से भरा बैग हमेशा साथ चलते।
जगजीत के पास गजल गायिकी की शानदार आवाज ही नहीं थी, गज़लों का उनका चुनाव और उनकी अदायगी ने उन्हें जन-जन दिलों में समा दिया। संगीत की यह विधा कुल मिलाकर महफिलों तक ही सिमटी पड़ी थी, जिसे मुक्त हवा जगजीत ने ही दिखायी। तलत महमूद की रेशमी आवाज फिल्मों तक ही सीमित रही। बेगम अख्तर , हबीब वली मुहम्मद और मेहंदी हसन धनाड्य शौकीनों के ही गायक बने हुए थे, लेकिन ग़ालिब से लेकर हर छोटे-बड़े शायर को हर किसी की जुबान पर जगजीत ने ही चढ़ाया। उन्होंने अपनी अदायगी में जिन वाद्ययंत्रों का इस्तेमाल किया, वह एक तरह की बग़ावत थी संगीत शास्त्र से। लेकिन उनकी इसी बग़ावत के चलते गालिब की शायरी सवा सौ साल बाद फिज़ाओं में फिर नया रंग घोल रही थी। निदां फाजली...कतील शिफाई....बशीर बद्र जैसे न जाने कितने शायर हर दिल अजीज़ बन चुके थे।
जिंदगी तेरी अता है तो ये जाने वाला
तेरी बख्शीश तेरी दहलीज पे धर जाएगा