गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

यहां से वहां तक स्टेशन-स्टेशन

संपादक शिरोमणि घनश्याम पंकज ने पत्रकारिता का भले ही कितना भी बंटाढार किया हो, लेकिन अपुन उनके शुक्रगुजार रहेंगे कि एक तो उन्होंने मुझे तीन साल डायरेक्ट (मुख्य संपादक रहते हुए) और तीन साल इनडाइरेक्ट (एक संस्थान में रहते हुए) झेला.. शुक्रगुजार होने का दूसरा कारण कि उनकी वजह से mst यानी ट्रेन पासधारी बना

एमएसटी धारक होना यानी दैवीय वरदान.. अगर आपकी एमएसटी सौ किलोमीटर के दायरे में आती है तो फिर क्या कहने.. डेढ़ घंटे का लाजवाब सफर.. आमतौर पर एमएसटीधारियों की बड़ी संख्या सरकारी नौकरी करने वालों की होती है, यानी जिन्हें साल में करीब 200 दिन घर में गुजारने हैं और 165 दिन दस से पांच की नौकरी के लिये एक शहर से दूसरे शहर का सफर करना है। 

ऐसे लोग लिंक सिटी जैसी ट्रेनों के ज्यादा मुफीद बैठते हैं, जो इन्हें समय पर ले जाती हैं और समय पर छोड़ देती हैं। उस ट्रेन के हर डिब्बे में आम यात्रियों के अलावा एक मजमा ऐसा भी होता है, जो एक-दूसरे को ओए-oeye से सम्बोधित करता है। इन सभी के पास अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार ब्रीफकेस या रैक्सीन के बैग या कपड़े के थैले होते हैं, जिनमें आफिस से संबंधित कागजात-डायरी के अलावा टिफनबॉक्स, एक जासूसी उपन्यास और पानी की बोतल होती है। इन्हीं में किसी एक के पास डग्गामार किस्म की ताश की गड्डी होती है। उस ताशधारी का रुतबा अंधों में काने वाला होता है।  

Mst वालों की बड़ी संख्या स्लीपर को ही अपना मायका या ससुराल समझती है। चूंकि उनकी यात्रा का टाइम अमूमन सुबह आठ बजे के बाद और रात को 10 बजे से पहले का होता है इसलिये सीटों के मालिकाना हक़ को ले कर खून-खच्चर कम ही होता है..

यह तो हुआ एमएसटी का चारित्रिक चित्रण, सृष्टि का यह मासूम प्राणी भी कभी एमएसटी के मल्टी टेस्ट ले चुका है। मीटर गेज से लेकर ब्रॉड गेज तक की इस एमएसटी के दो छोर हुआ करते थे। एक तरफ लखनऊ तो दूसरी तरफ कानपुर। 

लखनऊ में चित्रकूट एक्सप्रेस घरवाली लगती, तो रात दो बजे कानपुर स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस हरजाई माशूका सी। पता नहीं कहाँ-कहाँ मुंह मारती आती थी कमबख्त.. चित्रकूट छूटती हमेशा शाम 4.20 पर ही थी, जहां तक साबरमती का सवाल है, तो उसका टाइम ऑफिस से फोन कर पूछना पड़ता था, क्योंकि अगर राइट टाइम हुई तो स्टेशन पहुंचने तक छूट जाएगी और रात तीन बजे अगली ट्रेन होती थी वैशाली, जो एमएसटी वालों की सूरत तक देखना पसंद नहीं करती थी। सो, साबरमती को खड़ा रखने के लिये कहना पड़ता था कि ट्रेन में बम है। लेकिन वो समय पर महीने में छह दिन भी नहीं आती थी..

चूँकि अपनी नौकरी सरकारी नहीं थी इसलिये हम खांटी एमएसटीधारक कभी नहीं कहलाये। मिलावटी इसलिये थे कि जिस तारीख को जाते थे उससे अगली तारीख को लौटते थे। इसलिये ताश खेलते, ब्रीफकेस को पीट कर गाना गाते, शेर ओ शायरी करते या अपने मोहक दिनों की गाथा सुनाते गुटों के बीच अपन मदारी के खेल में दर्शकनुमा थे। 

कानपुर में साबरमती का हरजाईपन प्लेटफार्म से दोस्ती करने को मजबूर कर गया। इसलिये चाहे टीटी हो या कुली या चायवाला या पान मसाले वाला या फिर एच व्हीलर्स वाला, सब-हाथी मेरा साथी-- खास कर किताब विक्रेता.. न जाने कितनी रातें उसे सुला कर उसकी किताबें और मैगजीन बेचते और बांचते गुजारीं..  

कई बार लम्बी इंतजारी के बाद ट्रेन में ऐसी कसी हुई नींद आती कि लोरी सुन कर क्या आती होगी। इसके चलते कई बार जब नींद खुली तो किसी और रेलगाड़ी में बैठ लखनऊ लौटा..

स्टेशनों से लगाव का यह कारण तो पेशेवर था..कानपुर में हिंदुस्तान के संपादक ने तीन महीने के नब्बे दिन का एकाध घंटा ऑफिस के बगल में अनवरगंज रेलवे स्टेशन पर ज़रूर गुजारा और वहीं भविष्य की रूपरेखा तय  की..उस एक घंटे के सबसे आह्लादकारी पल एक महिला को हाथरस जा रही ट्रेन के इंजन को चलाते देखने के होते...



2/8/18